स्त्रियों की दशा
मार्च अंक के अनकही में आपने स्त्रियों की दशा पर वल्र्ड इकानामिक फोरम के सर्वे के आधार पर प्रकाश डाला है। यह अध्ययन वाकई आंखें खोल देने वाला है। कहीं न कहीं लगता है अन्य सभी वर्गों के उत्थान के समान ही पनप चुकी असमानता की तरह ही महिलाओं में आंतरिक असमानता काफी बढ़ चुकी है। इस ओर यदि ध्यान आकर्षित किया जाए तो अधिक कारगर होगा।
- अंजीव पांडेय, समाचार संपादक, मेट्रो 7, नागपुर
Email-panjeev@gmail.com
निजी स्वार्थ के लिए वैराग्य
राठौर जी, आपने एकदम सही लिखा आजकल गृहस्थों से ज्यादा संयासी धनी हैं और उन्हें ही धन की जरूरत है। आज तो उन्होंने अपने निजी स्वार्थ के लिए वैराग्य की भी नई-नई परिभाषाएं शुरु कर दी हंै। इस बार की हरद्वार यात्रा से मेरा मन भी अत्यंत ही विचलित हो गया सन्यासियों की भोग लिप्सा देखकर।
- वेदना
बहुआयामी पत्रिका
उम्दा, बहुआयामी तथा सृजनात्मक क्षमता से पूर्ण मासिक पत्रिका उदंती हेतु आपको कोटिश: बधाई।
- सुरेश यादव, नई दिल्ली
sureshyadav55@gmail.com
रचनात्मक कला
एक स्वस्थ एवं संपूर्ण उदंती का अंक मिला। पत्रिका की सामग्री रोचक, ज्ञानवर्धक और पठनीय है। देवमणी पांडेय की रचनात्मक कला उत्तम है। इस अंक में प्रस्तुत लघुकथा और कविता का भरपूर आनंद लिया।
- देवी नागरानी, यूके
dnangrani@gmail.com
उदंती के बेबाक और विचारोत्तेजक लेख
उदंती के दिसंबर अंक में राहुल सिंह के लेख के जरिए हमें पता चलता है कि हमारे जीवन में तालाब कितना महत्व रखते हैं, आज मानव को यह जान लेना बेहद जरुरी हो गया है। हमारी पुरानी संस्कृति हमें प्रकृति के संवर्धन की शिक्षा देती है लेकिन हम इस धरती की लूट- खसोट में लगे हुए हैं... प्राकृतिक आपदाएं किसी न किसी रुप में हमें सचेत करती हैं, किन्तु इन्सान के लालच ने उसे इतना गिरा दिया कि उसकी सोचने की शक्ति क्षीण हो चुकी है।
जनवरी- फरवरी संयुक्तांक में अनकही एक विचारणीय लेख है। आज भी रक्षक के भेष में कई कथित भक्षक समाज में मौजूद हैं। जरुरत है तो इनके खिला$फ आवाज उठाने की और अराधना की तरह दिलेरी दिखाने की। पिछले दिनों ही अराधाना गुप्ता मुम्बई आईं थीं, उन्होंने जब पूरे घटना क्रम को सुनाया तो दिल दहल उठा। सुन कर हम सभी स्तब्ध रह गये। अराधना से मिलकर हमें बहुत अच्छा लगा साथ ही लडऩे का बल भी मिला। प्रताप सिंह राठौर के लेख में सही कहा गया है कि बाजारीकरण की हवा आज के तथाकथित बाबाओं को लग गयी है... इन्होंने असली संतों तथा आस्था पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। आपने सच ही कहा है कि आज सच्चे सन्तों को पहचानना मुश्किल हो गई है। पिछले दिनों इच्छाधारी बाबा के कारनामे सुनकर तो होश ही उड़ गए। सबसे बड़ी बात तो यह कि इन्हें राजनेताओं का आश्रय प्राप्त है, और ये बहुत जल्दी छूट भी जायेंगे। कवि कुलवंत की रचनाएं हमेशा नयापन लिए होती हैं। उदंती के मार्च अंक में होली पर उनकी कविता उतनी ही सुन्दर है... बधाई कुलवन्त जी!
उदंती के पिछले अंकों में बेबाक और विचारोत्तेजक लेखों के लिए उदंती परिवार को बधाई!
- सुमीता केशवा, मुम्बई , sumitakeshwa@yahoo.com
मार्च अंक के अनकही में आपने स्त्रियों की दशा पर वल्र्ड इकानामिक फोरम के सर्वे के आधार पर प्रकाश डाला है। यह अध्ययन वाकई आंखें खोल देने वाला है। कहीं न कहीं लगता है अन्य सभी वर्गों के उत्थान के समान ही पनप चुकी असमानता की तरह ही महिलाओं में आंतरिक असमानता काफी बढ़ चुकी है। इस ओर यदि ध्यान आकर्षित किया जाए तो अधिक कारगर होगा।
- अंजीव पांडेय, समाचार संपादक, मेट्रो 7, नागपुर
Email-panjeev@gmail.com
निजी स्वार्थ के लिए वैराग्य
राठौर जी, आपने एकदम सही लिखा आजकल गृहस्थों से ज्यादा संयासी धनी हैं और उन्हें ही धन की जरूरत है। आज तो उन्होंने अपने निजी स्वार्थ के लिए वैराग्य की भी नई-नई परिभाषाएं शुरु कर दी हंै। इस बार की हरद्वार यात्रा से मेरा मन भी अत्यंत ही विचलित हो गया सन्यासियों की भोग लिप्सा देखकर।
- वेदना
बहुआयामी पत्रिका
उम्दा, बहुआयामी तथा सृजनात्मक क्षमता से पूर्ण मासिक पत्रिका उदंती हेतु आपको कोटिश: बधाई।
- सुरेश यादव, नई दिल्ली
sureshyadav55@gmail.com
रचनात्मक कला
एक स्वस्थ एवं संपूर्ण उदंती का अंक मिला। पत्रिका की सामग्री रोचक, ज्ञानवर्धक और पठनीय है। देवमणी पांडेय की रचनात्मक कला उत्तम है। इस अंक में प्रस्तुत लघुकथा और कविता का भरपूर आनंद लिया।
- देवी नागरानी, यूके
dnangrani@gmail.com
उदंती के बेबाक और विचारोत्तेजक लेख
उदंती के दिसंबर अंक में राहुल सिंह के लेख के जरिए हमें पता चलता है कि हमारे जीवन में तालाब कितना महत्व रखते हैं, आज मानव को यह जान लेना बेहद जरुरी हो गया है। हमारी पुरानी संस्कृति हमें प्रकृति के संवर्धन की शिक्षा देती है लेकिन हम इस धरती की लूट- खसोट में लगे हुए हैं... प्राकृतिक आपदाएं किसी न किसी रुप में हमें सचेत करती हैं, किन्तु इन्सान के लालच ने उसे इतना गिरा दिया कि उसकी सोचने की शक्ति क्षीण हो चुकी है।
जनवरी- फरवरी संयुक्तांक में अनकही एक विचारणीय लेख है। आज भी रक्षक के भेष में कई कथित भक्षक समाज में मौजूद हैं। जरुरत है तो इनके खिला$फ आवाज उठाने की और अराधना की तरह दिलेरी दिखाने की। पिछले दिनों ही अराधाना गुप्ता मुम्बई आईं थीं, उन्होंने जब पूरे घटना क्रम को सुनाया तो दिल दहल उठा। सुन कर हम सभी स्तब्ध रह गये। अराधना से मिलकर हमें बहुत अच्छा लगा साथ ही लडऩे का बल भी मिला। प्रताप सिंह राठौर के लेख में सही कहा गया है कि बाजारीकरण की हवा आज के तथाकथित बाबाओं को लग गयी है... इन्होंने असली संतों तथा आस्था पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। आपने सच ही कहा है कि आज सच्चे सन्तों को पहचानना मुश्किल हो गई है। पिछले दिनों इच्छाधारी बाबा के कारनामे सुनकर तो होश ही उड़ गए। सबसे बड़ी बात तो यह कि इन्हें राजनेताओं का आश्रय प्राप्त है, और ये बहुत जल्दी छूट भी जायेंगे। कवि कुलवंत की रचनाएं हमेशा नयापन लिए होती हैं। उदंती के मार्च अंक में होली पर उनकी कविता उतनी ही सुन्दर है... बधाई कुलवन्त जी!
उदंती के पिछले अंकों में बेबाक और विचारोत्तेजक लेखों के लिए उदंती परिवार को बधाई!
- सुमीता केशवा, मुम्बई , sumitakeshwa@yahoo.com
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