- अनुपम मिश्र
देश की भूमिगत जल संपदा प्रति वर्ष होने वाली वर्षा से दस गुना ज्यादा है। लेकिन सन् 70 से हर वर्ष करीब एक लाख 70 हजार पंप लगते जाने से कई इलाकों में जल स्तर घटता जा रहा है।
वर्षा के पानी को छोटे-बड़े तालाबों में एकत्र करने की संपन्न परंपरा अंग्रेजी राज के दिनों में खूब उपेक्षित हुई और फिर आजादी के बाद भी इसकी तरफ ध्यान नहीं दिया गया। कहा जाता है देश की तीन प्रतिशत भूमि पर बने तालाब होने वाली कुल वर्षा का 25 प्रतिशत जमा कर सकते हैं। नए तालाब बनाना तो दूर, पुराने तालाब भी उपेक्षा की गाद से पुरते जा रहे हैं।
एक से एक प्रसिद्ध तालाब, झील और सागर सूखकर गागर में सिमटते जा रहे हैं। लाखों मछुआरों का जीवन अनिश्चित हो गया है। जल के लिए कुप्रबंध ने हमारे जल के स्रोतों को खतरे में डाल दिया है और उन पर सीधे निर्भर समाज को चौपट कर दिया है।
पानी के मामले में हमारे देश की गिनती दुनिया के कुछेक संपन्नतम देशों में है। यहां औसत वर्षा 1,170 मिमी है- अधिकतम 11,400 मिमी उत्तर-पूर्वी कोने चेरापुंजी में और न्यूनतम 210 मिमी उसके बिलकुल विपरीत पश्चिमी छोर पर जैसलमेर में। मध्य- पश्चिमी अमेरिका में, जो आज दुनिया का 'अन्नदाता' माना जाता है, सालाना औसत बारिश 200 मिमी है। उससे तुलना करके देखें तो हमारी धरती निश्चित ही बहुत सौभाग्यशाली है।
पर दुर्भाग्य कि हम इस वरदान का सदुपयोग नहीं कर पा रहे हैं। सन् 2025 तक भी हम अपनी कुल सालाना बारिश के एक चौथाई का भी इस्तेमाल कर सकें तो बड़ी बात होगी। तब भी आने वाले बीस सालों में हमें पानी की भयंकर कमी का सामना करना पड़ेगा। इसका सीधा कारण है कि हम इंद्र देवता से मिलने वाले इस प्रसाद को ठीक से ग्रहण तक नहीं कर पा रहे।
इस दुखद परिस्थिति का एक मुख्य कारण वन विनाश ही है। लापरवाही के कारण होने वाला भूक्षरण भी साफ है ही। साथ ही बारिश का बहुत सारा पानी अपने साथ कीमती मिट्टी को भी लेकर समुद्र में चला जाता है। पुरते जा रहे तालाब, झील, पोखर और नदी जैसे सार्वजनिक जलाशयों का निरंतर और बेरोकटोक दुरुपयोग इस समस्या को और भी उग्र बना रहा है। नलकूपों के बढ़ते चलन की वजह से भूमिगत जल भी निजी मालिकी का साधन बन चुका है। देवी स्वरूप नदियां भी आज बस शहरी औद्योगिक कचरे को ठिकाने लगाने का सुलभ साधन बन गई हैं। एक समय था जब हमारे शहरों और गांवों में तालाब और पोखर बहुत पवित्र सार्वजनिक संपदा की तरह संभाल कर रखे जाते थे। इन जलाशयों की गाद साफ करने का काम लोग खुद किया करते थे। गाद की चिकनी मिट्टी से घर बनाए जाते थे, दीवारें लीपी जाती थीं और उसे खाद के रूप में इस्तेमाल किया जाता था क्योंकि उसमें हरे साग-पात के सड़े तत्व और अन्य प्राकृतिक पोषक तत्व होते थे। लेकिन हमारी वर्तमान जल नीति (अगर ऐसी कोई नीति है तो) किसी और ही दिशा में बढ़ चली है। नलकूप, कुएं और तालाब जैसी किफायती छोटी परियोजनाओं की पूरी उपेक्षा की गई है। बस बड़े- बड़े बांध बन रहे हैं। इन बांधों का कितना ही भव्य और सुंदर बखान किया जाता हो, पर वास्तविकता तो यही है कि हर साल बाढ़ और सूखे का जो दौर चलता है और वह जो भारी कहर ढा देता है, उसे ये बांध जरा भी नहीं थाम पाए हैं।
देश में जलप्रबंध की स्थिति का अंदाजा सिर्फ इसी से लग जाएगा कि आज तक ऐसा एक भी विस्तृत सर्वेक्षण नहीं हो सका है कि देश में सचमुच कितना पानी है। 'केंद्रीय भूजल बोर्ड' ने हाल में घोषित किया है कि शीघ्र ही पूरे देश के सर्वेक्षण का काम पूरा हो जाने की आशा है। आज जो आसार नजर आ रहे हैं, उन्हें देखते लगता यही है कि उस समय तक तो देश भयंकर सूखे के दौर से जूझ रहा होगा।
भूमिगत जल संपदा
हालत दिन-ब-दिन ज्यादा-से-ज्यादा बिगड़ती जा रही है, फिर भी हम अपने जल संसाधनों के उपयोग इतनी लापरवाही से कर रहे हैं मानो वे कभी खत्म ही नहीं होने वाले हैं। दामोदर घाटी प्राधिकरण के पूर्व अध्यक्ष श्री सुधीर सेन इसे नेतृत्व का संसाधनों के बारे में 'अज्ञान' कहते हैं।
देश की जल संपदा का कोई ठीक चित्र पेश करना कठिन है क्योंकि प्रामाणिक आंकड़े और तथ्य प्राप्त नहीं हैं। बंबई के 'सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के निदेशक डॉ. नरोत्तम शाह 1983 में सेंट्रल स्टेटिस्टिकल' आर्गनाइजेशन के लिए तैयार किए गए अपने एक निबंध में लिखते हैं, 'कितनी विचित्र बात है कि देश की जल संपदा के बारे में सही तथ्य इकट्ठा कर सकने का हमारा यहां कोई प्रबंध नहीं हो पाया है। नीति बनाने, कार्यक्रम तैयार करने और दुर्लभ जल संसाधन के सही उपयोग की निगरानी के लिए यह अभ्यास बहुत जरूरी है।'
राष्ट्रीय कृषि आयोग के श्री बीएस नाग और श्री जीएन कठपालिया ने देश के जल चक्र का एक खाका खींचा है। आंकड़े निर्विवाद नहीं हैं, पर काफी हद तक ठीक हैं। जैसे, 1974 में भूमिगत जल के उपयोग और भंडार की मात्रा के जो आंकड़े दिए गए हैं वे केंद्रीय भूजल बोर्ड द्वारा प्रकाशित आंकड़ों से भिन्न हैं। लेकिन इस चार्ट से भावी जल भंडार और इसके उपयोग के स्वरूप का अंदाज मिल सकता है। इसके अनुसार 1974 में 40 करोड़ हेक्टेयर मीटर पानी बहा, लेकिन उपयोग में केवल 3.80 करोड़ हेक्टेयर मीटर (क.हे.मी.) 9.5 फीसदी ही आया। सन् 2025 तक क.हे.मी. (26 प्रतिशत) हो सकेगा। श्री नाग और श्री कठपालिया के अनुसार 10.5 करोड़ हेक्टेयर-मीटर हमारी अधिकतम उपयोग क्षमता का सूचक है। हमें हर साल 40 करोड़ हेक्टेयर मीटर पानी मिलता है, उसका खर्च तीन प्रकार से होता है -7.00 क.हे.मी. भाप बनकर उड़ जाता है और बाकी 11.5 क.हे.मी. नदियों आदि से होकर बहता है और बाकी 21.5 क.हे.मी. जमीन में जज्ब हो जाता है। फिर इन तीनों के बीच परस्पर कुछ लेनदेन भी चलता है। आखिर में सारा पानी वापस वातावरण में लौट जाता है।
जमीन में जज्ब होने वाले पानी का बहुत- सा हिस्सा पेड़- पौधों के काम आता है। सतही और भूमिगत दोनों प्रकार के पानी का उपयोग घरों में, सिंचाई में, उद्योगों आदि में होता है।
सतह पर बहने वाले पानी में कुछ (11.5 क.हे.मी.) सीधे प्राप्त होता है, कुछ (2 क.हे.मी) दूसरे पड़ोसी देशों से नदियों के द्वारा आता है। कुछ भूमि के नीचे से खींचा जाता है। यह सब कुल मिलाकर 18 क.हे.मी होता है। इस कुल पानी में से 1.5 क.हे.मी पानी को उसका रास्ता मोड़कर और सीधे पंपों से काम में लाया जाता है। बाकी 15 क.हे.मी. पानी वापस समुद्र में या पड़ोसी देशों को चला जाता है। अनुमान है कि सन् 2025 तक सतही पानी की मात्रा बढ़कर 18.5 क.हे.मी. होगी, जिसमें से (3.5 क.हे.मी.)
भंडारण द्वारा और सीधे पंपों से (4.5 क.हे.मी) यानी कुल 8 क.हे.मी. पानी का उपयोग किया जा सकेगा। इसके अलावा सतही सिंचाई को बढ़ाकर लगभग 50 लाख हे.मी. अतिरिक्त पानी फिर दुबारा उपयोग के लिए प्राप्त किया जा सकेगा।
जमीन में जज्ब होने वाले कुल 21.5 क.हे.मी. से 16.5 क.हे.मी. पानी मिट्टी की नमी बनाए रखता है और बाकी 5 क.हे.मी भूमिगत जल स्रोतों में जा मिलता है। बरसात के मौसम में आमतौर पर नदियों के पानी का स्तर आसपास के जल स्तर से ऊंचा होता है। कारण नदी के रिसन में लगभग 50 लाख हे.मी. पानी की बढ़ोतरी होती है। सिंचाई में से होने वाले रिसन के कारण 1.2 क.हे.मी. पानी और जुड़ जाता है और इस प्रकार कुल 6.7 क.हे.मी. पानी भूमिगत भंडार में फिर जा मिलता है।
पिछले कुछ वर्षों से भूमिगत जल का भयानक गति से उपयोग बढ़ता जा रहा है। इससे नदी से पानी का रिसाव बढ़ेगा। सिंचाई के बढऩे से भी खेतों का पानी जमीन में ज्यादा जज्ब होने लगेगा। इस प्रकार अंत:स्राव की बढ़ती मात्रा से सालाना भूमिगत भंडार में जुडऩे वाले पानी का प्रमाण भी बढ़कर लगभग 8.5 क.हे.मी हो जाएगा। मिट्टी के संरक्षण के लिए किए जाने वाले उपायों से, जैसे फिर हरियाली बढ़ाने या मेड़बंदी आदि से जमीन में ज्यादा से ज्यादा पानी जाएगा। इस अतिरिक्त भूमिगत जल से सीधे उपयोग के लिए ज्यादा पानी मिल सकेगा और पास की नदियों में भी बहाव बढ़ेगा।
भूमिगत पानी की इस पुनर्वृद्धि का कई तरह से क्षय होता है- बहुत- सा पानी भाप बनकर उड़ जाता है, खुले कुओं और नलकूपों में से पानी खींचा जाता है, या जमीन के भीतरी स्रोतों से अपने आसपास की नदियों को चला जाता है। इन रूपों में जितने पानी का उपयोग नहीं होता है, वह पानी की सतह को ऊंचा करता है और उससे वाष्पीकरण बढ़ता है। अंदाज है कि सन् 2025 तक भूमिगत पानी को ऊपर खींचने का प्रमाण आज के 1.3 क.हे.मी. से बढ़कर 3.5 क.हे.मी. होने वाला है।
पानी की मुख्य मांग सिंचाई
पानी की मुख्य मांग सिंचाई के लिए है। 1974 में देश में जितना पानी इस्तेमाल हुआ, इसका 92 प्रतिशत सिंचाई में गया। बचे 8 प्रतिशत से घरेलू और औद्योगिक जरूरतें पूरी की गईं। देहातों में या तो पानी है नहीं, या पानी उनकी पहुंच में नहीं है, इसलिए कम से कम पानी से उन्हें काम चलाना पड़ता है। अगर मान लें कि सन् 2025 तक घरेलू और औद्योगिक आवश्यकताओं के अनुसार पूरा और पर्याप्त प्रबंध होता है, तो कुल पानी का 73 प्रतिशत सिंचाई के काम में आएगा।
अनुमान है कि हम वास्तव में सालाना 8.6 क.हे.मी. से 10.5 क.हे.मी. तक पानी प्राप्त कर सकते हैं। भारतीय कृषि अनुसंधान दिल्ली के वैज्ञानिकों के मत में हमारी क्षमता ज्यादा- से- ज्यादा 8.65 क.हे.मी. प्राप्त करने की है, जबकि भारतीय तथा अमेरिकी विशेषज्ञों के एक दल का विश्वास है कि हम 9.27 क.हे.मी. तक जा सकते हैं। श्री नाग और श्री कठपालिया का अंदाज 10.5 क.हे.मी. तक का है, क्योंकि उन्हें लगता है कि नगर पालिकाओं और उद्योगों के गंदे पानी को साफ करके फिर से काम में लाया जा सकता है। लेकिन मान लें कि 10.5 क.हे.मी पानी मिलने लगेगा, तो भी सन् 2025 के साल बाद पानी की जो नाना प्रकार की मांग बढ़ेगी, उनकी पूर्ति इतने पानी से नहीं हो सकेगी। नई दिल्ली के इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नॉलाजी के श्री एमसी. चतुर्वेदी ने जो चित्र खींचा है, वह बड़ा निराशजनक है। प्रो. चतुर्वेदी कहते हैं कि अगले दशक में ही देश भर में पानी की किल्लत होने लगेगी। श्री चतुर्वेदी अंतिम उपयोग- क्षमता को बहुत कम, यानी 9.27 क.हे.मी. मानते हैं और सिंचाई में काम आने वाले पानी की मात्रा को ज्यादा आंकते हैं। इसलिए उक्त अनुमानों में इतना फर्क दिखाई देता है। श्री नाग और श्री कठपालिया यह मानकर हिसाब लगाते हैं कि सिंचाई में पानी का उपयोग ज्यादा अच्छा होगा और कम- से- कम इस सदी के अंत तक तो वैसे ही बने रहेंगे। ये दोनों प्रकार के अनुमान दस साल पहले के हैं। इस बीच जैसी परिस्थिति बन रही है, उसको देखते हुए लगता है कि श्री चतुर्वेदी का निराशाजनक अनुमान ही ज्यादा सही है।
श्री चतुर्वेदी ने हिसाब लगाया है कि पानी का उपयोग करने वाले उद्योगों के अपशेष में बढ़ोतरी होगी और उससे प्रदूषण का खतरा भी बढ़ेगा। बिजली का उत्पादन बढ़ेगा, तो गरम गंदे पानी के कारण नदियों के पानी में आक्सीजन घटेगी। अपने अध्ययन का उपसंहार उन्होंने इस शब्दों से किया है, 'हमारे सामने समस्या बड़ी गंभीर है। अनेक नदियों के थालों में उपयोग के योग्य स्रोत खत्म हो जाएंगे। सभी नदियों के थालों में प्रदूषण की समस्या भयंकर हो जाएगी और सदी के पूरा होते- होते पर्यावरण की अवनति सार्वधिक हो जाएगी। इन सबका दिल दहलाने वाला संकेत यह है कि अगर हम तत्काल हिम्मत के साथ ठीक कदम नहीं उठाएंगे तो ऐसी परिस्थिति टाले नहीं टलेगी।'
संपर्क- संपादक, गांधी मार्ग, गांधी शांति प्रतिष्ठान, दीनदयाल उपाध्याय रोड (आईटीओ) नई दिल्ली 110002
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सतही पानी की अपेक्षा भूमिगत पानी के उपयोग में कई सुविधाएं हैं। भूमिगत जल के जलाशयों में, सतही जलाशयों की तरह पानी का रिसाव नहीं होता और वाष्पीकरण भी बहुत कम होता है। भूमिगत पानी फौरन जहां चाहे वहां यानी जहां इस्तेमाल करना हो वहीं प्राप्त किया जा सकता है।
जल संपदा के मामले में कुछेक संपन्नतम देशों में गिने जाने के बाद भी हमारे यहां जल संकट बढ़ता जा रहा है। आज गांवों की बात तो छोडि़ए, बड़े शहर और राज्यों की राजधानियां तक इससे जूझ रही हैं। अब यह संकट केवल गर्मी के दिनों तक सीमित नहीं है। पानी की कमी अब ठंड में भी सिर उठा लेती है। दिसंबर 86 में जोधपुर शहर में रेलगाड़ी से पानी पहुंचाया गया था।देश की भूमिगत जल संपदा प्रति वर्ष होने वाली वर्षा से दस गुना ज्यादा है। लेकिन सन् 70 से हर वर्ष करीब एक लाख 70 हजार पंप लगते जाने से कई इलाकों में जल स्तर घटता जा रहा है।
वर्षा के पानी को छोटे-बड़े तालाबों में एकत्र करने की संपन्न परंपरा अंग्रेजी राज के दिनों में खूब उपेक्षित हुई और फिर आजादी के बाद भी इसकी तरफ ध्यान नहीं दिया गया। कहा जाता है देश की तीन प्रतिशत भूमि पर बने तालाब होने वाली कुल वर्षा का 25 प्रतिशत जमा कर सकते हैं। नए तालाब बनाना तो दूर, पुराने तालाब भी उपेक्षा की गाद से पुरते जा रहे हैं।
एक से एक प्रसिद्ध तालाब, झील और सागर सूखकर गागर में सिमटते जा रहे हैं। लाखों मछुआरों का जीवन अनिश्चित हो गया है। जल के लिए कुप्रबंध ने हमारे जल के स्रोतों को खतरे में डाल दिया है और उन पर सीधे निर्भर समाज को चौपट कर दिया है।
पानी के मामले में हमारे देश की गिनती दुनिया के कुछेक संपन्नतम देशों में है। यहां औसत वर्षा 1,170 मिमी है- अधिकतम 11,400 मिमी उत्तर-पूर्वी कोने चेरापुंजी में और न्यूनतम 210 मिमी उसके बिलकुल विपरीत पश्चिमी छोर पर जैसलमेर में। मध्य- पश्चिमी अमेरिका में, जो आज दुनिया का 'अन्नदाता' माना जाता है, सालाना औसत बारिश 200 मिमी है। उससे तुलना करके देखें तो हमारी धरती निश्चित ही बहुत सौभाग्यशाली है।
पर दुर्भाग्य कि हम इस वरदान का सदुपयोग नहीं कर पा रहे हैं। सन् 2025 तक भी हम अपनी कुल सालाना बारिश के एक चौथाई का भी इस्तेमाल कर सकें तो बड़ी बात होगी। तब भी आने वाले बीस सालों में हमें पानी की भयंकर कमी का सामना करना पड़ेगा। इसका सीधा कारण है कि हम इंद्र देवता से मिलने वाले इस प्रसाद को ठीक से ग्रहण तक नहीं कर पा रहे।
इस दुखद परिस्थिति का एक मुख्य कारण वन विनाश ही है। लापरवाही के कारण होने वाला भूक्षरण भी साफ है ही। साथ ही बारिश का बहुत सारा पानी अपने साथ कीमती मिट्टी को भी लेकर समुद्र में चला जाता है। पुरते जा रहे तालाब, झील, पोखर और नदी जैसे सार्वजनिक जलाशयों का निरंतर और बेरोकटोक दुरुपयोग इस समस्या को और भी उग्र बना रहा है। नलकूपों के बढ़ते चलन की वजह से भूमिगत जल भी निजी मालिकी का साधन बन चुका है। देवी स्वरूप नदियां भी आज बस शहरी औद्योगिक कचरे को ठिकाने लगाने का सुलभ साधन बन गई हैं। एक समय था जब हमारे शहरों और गांवों में तालाब और पोखर बहुत पवित्र सार्वजनिक संपदा की तरह संभाल कर रखे जाते थे। इन जलाशयों की गाद साफ करने का काम लोग खुद किया करते थे। गाद की चिकनी मिट्टी से घर बनाए जाते थे, दीवारें लीपी जाती थीं और उसे खाद के रूप में इस्तेमाल किया जाता था क्योंकि उसमें हरे साग-पात के सड़े तत्व और अन्य प्राकृतिक पोषक तत्व होते थे। लेकिन हमारी वर्तमान जल नीति (अगर ऐसी कोई नीति है तो) किसी और ही दिशा में बढ़ चली है। नलकूप, कुएं और तालाब जैसी किफायती छोटी परियोजनाओं की पूरी उपेक्षा की गई है। बस बड़े- बड़े बांध बन रहे हैं। इन बांधों का कितना ही भव्य और सुंदर बखान किया जाता हो, पर वास्तविकता तो यही है कि हर साल बाढ़ और सूखे का जो दौर चलता है और वह जो भारी कहर ढा देता है, उसे ये बांध जरा भी नहीं थाम पाए हैं।
देश में जलप्रबंध की स्थिति का अंदाजा सिर्फ इसी से लग जाएगा कि आज तक ऐसा एक भी विस्तृत सर्वेक्षण नहीं हो सका है कि देश में सचमुच कितना पानी है। 'केंद्रीय भूजल बोर्ड' ने हाल में घोषित किया है कि शीघ्र ही पूरे देश के सर्वेक्षण का काम पूरा हो जाने की आशा है। आज जो आसार नजर आ रहे हैं, उन्हें देखते लगता यही है कि उस समय तक तो देश भयंकर सूखे के दौर से जूझ रहा होगा।
भूमिगत जल संपदा
हालत दिन-ब-दिन ज्यादा-से-ज्यादा बिगड़ती जा रही है, फिर भी हम अपने जल संसाधनों के उपयोग इतनी लापरवाही से कर रहे हैं मानो वे कभी खत्म ही नहीं होने वाले हैं। दामोदर घाटी प्राधिकरण के पूर्व अध्यक्ष श्री सुधीर सेन इसे नेतृत्व का संसाधनों के बारे में 'अज्ञान' कहते हैं।
देश की जल संपदा का कोई ठीक चित्र पेश करना कठिन है क्योंकि प्रामाणिक आंकड़े और तथ्य प्राप्त नहीं हैं। बंबई के 'सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के निदेशक डॉ. नरोत्तम शाह 1983 में सेंट्रल स्टेटिस्टिकल' आर्गनाइजेशन के लिए तैयार किए गए अपने एक निबंध में लिखते हैं, 'कितनी विचित्र बात है कि देश की जल संपदा के बारे में सही तथ्य इकट्ठा कर सकने का हमारा यहां कोई प्रबंध नहीं हो पाया है। नीति बनाने, कार्यक्रम तैयार करने और दुर्लभ जल संसाधन के सही उपयोग की निगरानी के लिए यह अभ्यास बहुत जरूरी है।'
राष्ट्रीय कृषि आयोग के श्री बीएस नाग और श्री जीएन कठपालिया ने देश के जल चक्र का एक खाका खींचा है। आंकड़े निर्विवाद नहीं हैं, पर काफी हद तक ठीक हैं। जैसे, 1974 में भूमिगत जल के उपयोग और भंडार की मात्रा के जो आंकड़े दिए गए हैं वे केंद्रीय भूजल बोर्ड द्वारा प्रकाशित आंकड़ों से भिन्न हैं। लेकिन इस चार्ट से भावी जल भंडार और इसके उपयोग के स्वरूप का अंदाज मिल सकता है। इसके अनुसार 1974 में 40 करोड़ हेक्टेयर मीटर पानी बहा, लेकिन उपयोग में केवल 3.80 करोड़ हेक्टेयर मीटर (क.हे.मी.) 9.5 फीसदी ही आया। सन् 2025 तक क.हे.मी. (26 प्रतिशत) हो सकेगा। श्री नाग और श्री कठपालिया के अनुसार 10.5 करोड़ हेक्टेयर-मीटर हमारी अधिकतम उपयोग क्षमता का सूचक है। हमें हर साल 40 करोड़ हेक्टेयर मीटर पानी मिलता है, उसका खर्च तीन प्रकार से होता है -7.00 क.हे.मी. भाप बनकर उड़ जाता है और बाकी 11.5 क.हे.मी. नदियों आदि से होकर बहता है और बाकी 21.5 क.हे.मी. जमीन में जज्ब हो जाता है। फिर इन तीनों के बीच परस्पर कुछ लेनदेन भी चलता है। आखिर में सारा पानी वापस वातावरण में लौट जाता है।
जमीन में जज्ब होने वाले पानी का बहुत- सा हिस्सा पेड़- पौधों के काम आता है। सतही और भूमिगत दोनों प्रकार के पानी का उपयोग घरों में, सिंचाई में, उद्योगों आदि में होता है।
सतह पर बहने वाले पानी में कुछ (11.5 क.हे.मी.) सीधे प्राप्त होता है, कुछ (2 क.हे.मी) दूसरे पड़ोसी देशों से नदियों के द्वारा आता है। कुछ भूमि के नीचे से खींचा जाता है। यह सब कुल मिलाकर 18 क.हे.मी होता है। इस कुल पानी में से 1.5 क.हे.मी पानी को उसका रास्ता मोड़कर और सीधे पंपों से काम में लाया जाता है। बाकी 15 क.हे.मी. पानी वापस समुद्र में या पड़ोसी देशों को चला जाता है। अनुमान है कि सन् 2025 तक सतही पानी की मात्रा बढ़कर 18.5 क.हे.मी. होगी, जिसमें से (3.5 क.हे.मी.)
भंडारण द्वारा और सीधे पंपों से (4.5 क.हे.मी) यानी कुल 8 क.हे.मी. पानी का उपयोग किया जा सकेगा। इसके अलावा सतही सिंचाई को बढ़ाकर लगभग 50 लाख हे.मी. अतिरिक्त पानी फिर दुबारा उपयोग के लिए प्राप्त किया जा सकेगा।
जमीन में जज्ब होने वाले कुल 21.5 क.हे.मी. से 16.5 क.हे.मी. पानी मिट्टी की नमी बनाए रखता है और बाकी 5 क.हे.मी भूमिगत जल स्रोतों में जा मिलता है। बरसात के मौसम में आमतौर पर नदियों के पानी का स्तर आसपास के जल स्तर से ऊंचा होता है। कारण नदी के रिसन में लगभग 50 लाख हे.मी. पानी की बढ़ोतरी होती है। सिंचाई में से होने वाले रिसन के कारण 1.2 क.हे.मी. पानी और जुड़ जाता है और इस प्रकार कुल 6.7 क.हे.मी. पानी भूमिगत भंडार में फिर जा मिलता है।
पिछले कुछ वर्षों से भूमिगत जल का भयानक गति से उपयोग बढ़ता जा रहा है। इससे नदी से पानी का रिसाव बढ़ेगा। सिंचाई के बढऩे से भी खेतों का पानी जमीन में ज्यादा जज्ब होने लगेगा। इस प्रकार अंत:स्राव की बढ़ती मात्रा से सालाना भूमिगत भंडार में जुडऩे वाले पानी का प्रमाण भी बढ़कर लगभग 8.5 क.हे.मी हो जाएगा। मिट्टी के संरक्षण के लिए किए जाने वाले उपायों से, जैसे फिर हरियाली बढ़ाने या मेड़बंदी आदि से जमीन में ज्यादा से ज्यादा पानी जाएगा। इस अतिरिक्त भूमिगत जल से सीधे उपयोग के लिए ज्यादा पानी मिल सकेगा और पास की नदियों में भी बहाव बढ़ेगा।
भूमिगत पानी की इस पुनर्वृद्धि का कई तरह से क्षय होता है- बहुत- सा पानी भाप बनकर उड़ जाता है, खुले कुओं और नलकूपों में से पानी खींचा जाता है, या जमीन के भीतरी स्रोतों से अपने आसपास की नदियों को चला जाता है। इन रूपों में जितने पानी का उपयोग नहीं होता है, वह पानी की सतह को ऊंचा करता है और उससे वाष्पीकरण बढ़ता है। अंदाज है कि सन् 2025 तक भूमिगत पानी को ऊपर खींचने का प्रमाण आज के 1.3 क.हे.मी. से बढ़कर 3.5 क.हे.मी. होने वाला है।
पानी की मुख्य मांग सिंचाई
पानी की मुख्य मांग सिंचाई के लिए है। 1974 में देश में जितना पानी इस्तेमाल हुआ, इसका 92 प्रतिशत सिंचाई में गया। बचे 8 प्रतिशत से घरेलू और औद्योगिक जरूरतें पूरी की गईं। देहातों में या तो पानी है नहीं, या पानी उनकी पहुंच में नहीं है, इसलिए कम से कम पानी से उन्हें काम चलाना पड़ता है। अगर मान लें कि सन् 2025 तक घरेलू और औद्योगिक आवश्यकताओं के अनुसार पूरा और पर्याप्त प्रबंध होता है, तो कुल पानी का 73 प्रतिशत सिंचाई के काम में आएगा।
अनुमान है कि हम वास्तव में सालाना 8.6 क.हे.मी. से 10.5 क.हे.मी. तक पानी प्राप्त कर सकते हैं। भारतीय कृषि अनुसंधान दिल्ली के वैज्ञानिकों के मत में हमारी क्षमता ज्यादा- से- ज्यादा 8.65 क.हे.मी. प्राप्त करने की है, जबकि भारतीय तथा अमेरिकी विशेषज्ञों के एक दल का विश्वास है कि हम 9.27 क.हे.मी. तक जा सकते हैं। श्री नाग और श्री कठपालिया का अंदाज 10.5 क.हे.मी. तक का है, क्योंकि उन्हें लगता है कि नगर पालिकाओं और उद्योगों के गंदे पानी को साफ करके फिर से काम में लाया जा सकता है। लेकिन मान लें कि 10.5 क.हे.मी पानी मिलने लगेगा, तो भी सन् 2025 के साल बाद पानी की जो नाना प्रकार की मांग बढ़ेगी, उनकी पूर्ति इतने पानी से नहीं हो सकेगी। नई दिल्ली के इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नॉलाजी के श्री एमसी. चतुर्वेदी ने जो चित्र खींचा है, वह बड़ा निराशजनक है। प्रो. चतुर्वेदी कहते हैं कि अगले दशक में ही देश भर में पानी की किल्लत होने लगेगी। श्री चतुर्वेदी अंतिम उपयोग- क्षमता को बहुत कम, यानी 9.27 क.हे.मी. मानते हैं और सिंचाई में काम आने वाले पानी की मात्रा को ज्यादा आंकते हैं। इसलिए उक्त अनुमानों में इतना फर्क दिखाई देता है। श्री नाग और श्री कठपालिया यह मानकर हिसाब लगाते हैं कि सिंचाई में पानी का उपयोग ज्यादा अच्छा होगा और कम- से- कम इस सदी के अंत तक तो वैसे ही बने रहेंगे। ये दोनों प्रकार के अनुमान दस साल पहले के हैं। इस बीच जैसी परिस्थिति बन रही है, उसको देखते हुए लगता है कि श्री चतुर्वेदी का निराशाजनक अनुमान ही ज्यादा सही है।
श्री चतुर्वेदी ने हिसाब लगाया है कि पानी का उपयोग करने वाले उद्योगों के अपशेष में बढ़ोतरी होगी और उससे प्रदूषण का खतरा भी बढ़ेगा। बिजली का उत्पादन बढ़ेगा, तो गरम गंदे पानी के कारण नदियों के पानी में आक्सीजन घटेगी। अपने अध्ययन का उपसंहार उन्होंने इस शब्दों से किया है, 'हमारे सामने समस्या बड़ी गंभीर है। अनेक नदियों के थालों में उपयोग के योग्य स्रोत खत्म हो जाएंगे। सभी नदियों के थालों में प्रदूषण की समस्या भयंकर हो जाएगी और सदी के पूरा होते- होते पर्यावरण की अवनति सार्वधिक हो जाएगी। इन सबका दिल दहलाने वाला संकेत यह है कि अगर हम तत्काल हिम्मत के साथ ठीक कदम नहीं उठाएंगे तो ऐसी परिस्थिति टाले नहीं टलेगी।'
संपर्क- संपादक, गांधी मार्ग, गांधी शांति प्रतिष्ठान, दीनदयाल उपाध्याय रोड (आईटीओ) नई दिल्ली 110002
फोन - 01123237491, 23236734
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