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Sep 23, 2009

उदंती.com, सितम्बर 2009

उदंती.com , वर्ष 2, अंक 2, सितम्बर 2009
 
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स्वच्छता, पवित्रता और आत्मसम्मान से जीने के लिए धन की आवश्यकता नहीं होती।
-महात्मा गांधी
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अनकही: सादगी का व्यापार
समाज/ परंपरा से बनते तालाब - अनुपम मिश्र
बातचीत/ सबसे कम उम्र की पोस्ट ग्रेजुएट ने कहा ....
नींद-शोध/ इन्हें दस घंटे तो सोने दें - विश्वमोहन तिवारी
चर्चा-भाषा/ हिंदी का भविष्य और भविष्य में हिंदी - डॉ. रमाकांत गुप्ता
दूरदर्शन: 50 बरस का सुनहरा सफर- उदंती फीचर्स
शिक्षा-बहस/ ग्रेडिंग प्रणाली: क्या तनाव से बचाएगा - संजय द्विवेदी
पुरातन-मंदिर/ पलारी का ऐतिहासिक सिद्धेश्वर मंदिर - नंदकिशोर वर्मा
सिनेमा-कला/ बदलती फिल्मी दुनिया - अरुन कुमार शिवपुरी
कहानी/ गिरगिट - आंतोन चेखव
ई-पोर्टल/ शिक्षकों के लिए एक मंच
गजल/ शहर में - देवी नागरानी
21वीं सदी के व्यंग्यकार/ निलंबित डॉट कॉम - गिरीश पंकज
किसानों के लिए खुशखबरी/ इसे कहते हैं सादगी
अभियान-मुझे भी आता है गुस्सा/
बेटी पुकारने में झिझक क्यों - सुजाता साहा
वाह भई वाह/ सरकारी काम
इस अंक के लेखक      
आपके पत्र/ इन बाक्स
रंग बिरंगी दुनिया

सादगी का व्यापार

सूखे और महंगाई की मार झेल रहा हमारा देश इन दिनों एक और मार से त्रस्त है, और वह है सादगी की मार। कांग्रेस पार्टी ने अपने सभी जनप्रतिनिधियों और पदाधिकारियों को निजी जिंदगी में सादगी बरतने तथा अनावश्यक खर्च करने पर रोक की जो सलाह दी है, उस सलाह ने पूरे देश की सोच को एक ऐसे मुद्दे की ओर ढकेल दिया है जिससे आम आदमी का कोई लेना देना ही नहीं है। 
लेकिन फिर भी इस सादगी ने एक मुद्दे का रूप अख्तियार कर लिया है और इसे लेकर एक बहस ही छिड़ गई है। देश की गंभीर समस्याएं एक तरफ और सादगी पर बहस एक तरफ। क्या टीवी क्या अखबार सब के सब इस विषय को इस तरह हाथो- हाथ उठा रहे हैं, मानों देश के सामने ऐसा गंभीर सवाल उठ खड़ा हो गया हो जिसका हल मिलना मुश्किल है। ऐसे में यह प्रश्न उठाया जाना भी लाजमी है,  कि जब देश पर सूखे और मंहगाई का भारी संकट सामने नजर आया तब धन के अनावश्यक प्रदर्शन पर रोक लगाने का विचार क्यों आया? क्या इससे पहले हालात बहुत अच्छे थे? देश की एक बड़ी आबादी दशकों से गरीबी रेखा से नीचे जीवन- यापन कर रही है। दो जून की रोटी, पीने को साफ पानी, रहने को स्वच्छ हवादार मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य, मनोरंजन के समुचित साधन जैसी बुनियादी सुविधाएं उन्हें आज भी उपलब्ध नहीं हंै। ऐसे में अचानक ही सादगी का यह नारा हास्यास्पद लगता है?  देश के समूचे तंत्र पर भ्रष्ट्राचार का तंत्र हावी हो तब इस भ्रष्ट तंत्र के साये तले सादगी का यह मंत्र कितना कारगर होगा यह सोचने वाली बात है।
यह तो जानी और मानी हुई बात है कि हमारे देश में जितनी भी लग्जरी सेवाएं हैं-  रेल, विमान या होटल उनका आधा से ज्यादा कारोबार तो सरकारी मंत्रियों, अधिकारियों और जनप्रतिनिधियों पर होने वाले सरकारी पैसे से चलता है। उन्हें इस तरह की मिलने वाली सुविधाओं पर रोक लगाए जाने की बात जब- तब उठती भी रही है पर देखा तो यह गया है कि उनके भौतिक सुख- सुविधाओं में कटौती के बजाए वे बढ़ती ही जाती हैं।
कितना अच्छा होता कि सादगी के इस दिखावी प्रदर्शन के बजाय देश के ऊपर आए सूखे और मंहगाई के संकट से जूझने के लिए सार्थक उपाय सोचे जाते। सादा जीवन और उच्च विचार को अपनाना ही था, तो बिना किसी दिखावे या प्रदर्शन के उसे अपने- अपने जीवन में ढाल कर एक मिसाल कायम करते।
वैसे भी जीवन को किस तरह से जिया जाए उसके लिए कोई नियम कायदे नहीं होते।  सादगी से जीवन जीना एक कला है, जीवन दर्शन है, शैली है जिसे प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छा से अपनाता है और जो मनुष्य के साथ जीवन पर्यन्त रहती है।
सादगी की बात जब भी उठती है तब गांधी जी का नाम लिया जाता है। गांधी जी ने सादगी को स्वेच्छा से अपनाया था। उनकी सादगी में दिखावा बिल्कुल नहीं था। इसके विपरित आजकल जो हो रहा है वह अनैतिक है। जिंदगी भर एयर कंडीशन कार में यात्रा करने वाला यदि एक दिन बैलगाड़ी में सिर्फ प्रचार के उद्देश्य से यात्रा करेगा तो यह सादगी के साथ क्रूर मजाक ही कहलायेगा। एक दिन किसी गरीब की कुटिया में बैठकर भोजन कर लेने से गरीबों का भला नहीं होने वाला।
डॉ. राममनोहर लोहिया ने गांधी जी पर लिखे अपने एक विचारात्मक लेख में सादगी और कम खर्च के बारे में जो कुछ भी कहा है वह आज के संदर्भ में भी सामयिक है - गांधीवादी सिद्धान्त के रहन- सहन में सादगी और कमखर्ची वाले हिस्से को दुनिया के लोगों ने पसन्द नहीं किया है।  किसी उल्लेखनीय संख्या में किसी प्रकार के चुने हुए लोगों ने भी इसे नहीं अपनाया है। पिछड़े हुए लोगों के लिए यह एक व्यंग्य है, और विकसित लोगों के लिए यह मजाक। फिर भी रहन-सहन की सादगी अपने आप में एक क्रांति है, क्योंकि यह सामान्य रूचि और अर्थव्यवस्था के विरुद्ध है। वस्तुओं की संख्या बढऩे और जरूरतों की संख्या घटने का द्वंद किसी हद तक नकली है, सम्पूर्ण जीवन के लिये इसमें तालमेल आवश्यक है। जो आदमी बहुत कुछ अनजाने ही, स्वभाव और आदत से अपनी जरूरतें नहीं घटाता, वह भौतिक या आध्यात्मिक दृष्टि से, या सौन्दर्यात्मक दृष्टि से भी अच्छी तरह या सुख से नहीं रह सकता। आज की दुनिया में सार्थक होने के लिये जरूरत घटाने की धारणा को सापेक्ष होना पड़ेगा, पूरे राष्ट्र की कुल संभावनाओं के संदर्भ में, या उन चीजों के संदर्भ में जो मिल सकती हैं, लेकिन स्वभाववश या सोच-समझ कर छोड़ दी जाती हैं। इस तरह सादगी और विलासिता की सीमाएं कुछ लचीली हैं। ..... जीवन की एक कला के रूप में सादगी से रहने की इच्छा शायद उतनी ही पुरानी है जितना विचार,  जो समूची मनुष्य जाति में कुछ खास लोगों में ही मिलती है।

-रत्ना वर्मा


परंपरा से बनते तालाब

आगौर में कदम रखना नहीं कि रख-रखाव का पहला काम देखने को  मिल जाएगा। देश के कई क्षेत्रों में तालाब का आगौर प्रारंभ होते ही उसकी सूचना देने के लिए पत्थर के सुंदर स्तंभ लगे मिलते हैं। स्तंभ को देखकर समझ लें कि अब आप तालाब के आगौर में खड़े हैं, यहीं से पानी तालाब में भरेगा। इसलिए इस जगह को साफ-सुथरा रखना है।
तालाब में पानी आता है, पानी जाता है। इस आवक-जावक का पूरे तालाब पर असर पड़ता है। वर्षा की तेज बूंदों से आगौर की मिट्टी धुलती है तो आगर में मिट्टी घुलती है। पाल की मिट्टी कटती है तो आगर में मिट्टी भरती है।
तालाब के स्वरूप के बिगडऩे का यह खेल नियमित चलता रहता है। इसलिए तालाब बनाने वाले लोग, तालाब बनाने वाला समाज तालाब के स्वरूप को बिगाडऩे से बचाने का खेल भी उतने ही नियमपूर्वक खेलता रहा है। जो तालाब देखते ही देखते पिछले पचास-सौ बरस में नष्ट कर दिए गए हैं, उन तालाबों ने नियम से खेले गए खेलों के कारण ही कुछ सैकड़ों बरसों तक समाज का खेल ठीक से चलाया था।
पहली बार पानी भरा नहीं कि तालाब की रखवाली का, रख-रखाव का काम शुरु हो जाता था। यह आसान नहीं था। पर समाज को देख के इस कोने से उस कोने तक हजारों तालाबों को ठीक-ठाक बनाए रखना था, इसलिए उसने इस कठिन काम को हर जगह इतना व्यवस्थित बना लिया था कि यह सब बिल्कुल सहज ढंग से होता रहता था।
आगौर में कदम रखना नहीं कि रख-रखाव का पहला काम देखने को  मिल जाएगा। देश के कई क्षेत्रों में तालाब का आगौर प्रारंभ होते ही उसकी सूचना देने के लिए पत्थर के सुंदर स्तंभ लगे मिलते हैं। स्तंभ को देखकर समझ लें कि अब आप तालाब के आगौर में खड़े हैं, यहीं से पानी तालाब में भरेगा। इसलिए इस जगह को साफ-सुथरा रखना है। जूते आदि पहन कर आगौर में नहीं आना है, दिशा मैदान आदि की बात दूर, यहां थूकना तक मना रहा है।  'जूते पहन कर आना मना है', 'थूकना मना है' जैसे बोर्ड नहीं ठोंके जाते थे पर सभी लोग बस स्तंभ देखकर इन बातों का पूरा-पूरा ध्यान रखते थे।
आगर के पानी की साफ-सफाई और शुद्धता बनाए रखने का काम भी पहले दिन से ही शुरु हो जाता था। नए बने तालाब में जिस दिन पानी भरता, उस दिन समारोह के साथ उसमें जीव-जंतु लाकर छोड़े जाते थे। इनमें मछलियां, कछुए, केकड़े और अगर तालाब बड़ा और गहरा हो तो मगर भी छोड़े जाते थे। कहीं-कहीं जीवित प्राणियों के साथ सामथ्र्य के अनुसार   चांदी या सोने तक के जीव-जंतु विसर्जित किए जाते थे। छत्तीसगढ़ के रायपुर शहर में अभी कोई पचास-पचपन बरस पहले तक तालाब में सोने की नथ पहनाकर कछुए छोड़े गए थे।
पहले वर्ष में कुछ विशेष प्रकार की वनस्पति भी डाली जाती थी। अलग-अलग क्षेत्र में इनका प्रकार बदलता था पर काम एक ही था-पानी को साफ रखना। मध्यप्रदेश में यह गदिया या चीला थी तो राजस्थान में कुमुदिनी, निर्मली या चाक्षुष से ही चाकसू शब्द बना है। कोई एक ऐसा दौर आया होगा कि तालाब के पानी की साफ-सफाई के लिए चाकसू पौधे का चलन खूब बढ़ गया होगा। आज के जयपुर के पास एक बड़े कस्बे का नाम चाकसू है। यह नामकरण शायद चाकसू पौधे के प्रति कृतज्ञता जताने के लिए किया गया हो।
पाल पर पीपल, बरगद और गूलर के पेड़ लगाए जाते रहे हैं। तालाब और इन पेड़ों के बीच उम्र को लेकर हमेशा होड़-सी दिखती थी। कौन ज्यादा टिकता है-पेड़ या तालाब? लेकिन यह प्रश्न प्राय: अनुत्तरित ही रहा है। दोनों को एक दूसरे का लंबा संग इतना भाया है कि उपेक्षा के इस ताजे दौर में जो भी पहले गया, दूसरा शोक में उसके पीछे-पीछे चला गया है। पेड़ कटे हैं तो तालाब भी कुछ समय में सूखकर पट गया है। और यदि पहले तालाब नष्ट हुआ है तो पेड़ भी बहुत दिन नहीं टिक पाए हैं।
तालाबों पर आम भी खूब लगाया जाता रहा है, पर यह पाल पर कम, पाल के नीचे की जमीन में ज्यादा मिलता है। छत्तीसगढ़ क्षेत्र में बहुत से तालाबों में शीतला माता का वास माना गया है और इसलिए ऐसे तालाबों की पाल पर नीम के पेड़ जरूर लगाए जाते रहे हैं। बिना पेड़ की पाल की तुलना बिना मूर्ति के मंदिर से भी की गई है।
बिहार और उत्तरप्रदेश के अनेक भागों में पाल पर अरहर के पेड़ लगाए जाते थे। इन्हीं इलाकों में नए बने तालाब की पाल पर कुछ समय तक सरसों की खली का धुआं किया जाता था ताकि नई पाल में चूहे आदि बिल बनाकर उसे कमजोर न कर दें।
ये सब काम ऐसे हैं, जो तालाब बनने पर एक बार करने पड़ते हैं, या बहुत जरूरी हो गया तो एकाध बार और। लेकिन तालाब में हर वर्ष मिट्टी जमा होती है। इसलिए उसे हर वर्ष निकालते रहने का प्रबंध सुंदर नियमों में बांध कर रखा गया था। कहीं साद निकालने के कठिन श्रम को एक उत्सव, त्योहार में बदलकर आनंद का अवसर बनाया गया था तो कहीं उसके लिए इतनी ठीक व्यवस्था कर दी गई कि जिस तरह वह चुपचाप तालाब के तल में आकर बैठती थी, उसी तरह चुपचाप उसे बाहर निकाल कर पाल पर जमा दिया जाता था।
साद निकालने का समय अलग-अलग क्षेत्रों में मौसम को देखकर तय किया जाता रहा है। उस समय तालाब में पानी सबसे कम रहना चाहिए। गोवा और पश्चिम घाट के तटवर्ती क्षेत्रों में यह काम दीपावली के तुरंत बाद किया जाता है। उत्तर के बहुत बड़े भाग में नववर्ष यानी चैत्र से ठीक पहले, तो छत्तीसगढ़, उड़ीसा, बंगाल, बिहार और दक्षिण में बरसात आने से पहले खेत तैयार करते समय।
आज तालाबों से कट गया समाज, उसे चलाने वाला प्रशासन तालाब की सफाई और साद निकालने का काम एक समस्या की तरह देखता है और वह इस समस्या को हल करने के बदले तरह-तरह के बहाने खोजता है। इसके नए हिसाब से यह काम खर्चीला है। कई कलेक्टरों ने समय-समय पर अपने क्षेत्र में तालाबों से मिट्टी नहीं निकाल पाने का एक बड़ा कारण यही बताया है कि इसका खर्च इतना ज्यादा है कि उससे तो नया तालाब बनाना सस्ता पड़ेगा। पुराने तालाब साफ नहीं करवाए गए और नए तो कभी बने ही नहीं। साद तालाबों में नहीं, नए समाज के माथे में भर गई है।
तब समाज का माथा साफ था। उसने साद को समस्या की तरह नहीं बल्कि तालाब के प्रसाद की तरह ग्रहण किया था। प्रसाद को ग्रहण करने के पात्र थे किसान, कुम्हार और गृहस्थ। इस प्रसाद को लेने वाले किसान प्रति गाड़ी के हिसाब से मिट्टी काटते, अपनी गाड़ी भरते और इसे खेतों में फैलाकर उनका उपजाऊपन बनाए रखते। इस प्रसाद के बदले वे प्रति गाड़ी के हिसाब से कुछ नकद या फसल का कुछ अंश ग्राम कोष में जमा करते थे। फिर इस राशि से तालाबों की मरम्मत का काम होता था। आज भी छत्तीसगढ़ में लद्दी निकालने का काम मुख्यत: किसान परिवार ही करते हैं। दूर-दूर तक साबुन पहुंच जाने के बाद भी कई घरों में लद्दी से सिर धोने और नहाने का चलन जारी है।
बिहार में यह काम उड़ाही कहलाता है। उड़ाही समाज की सेवा है, श्रमदान है। गांव के हर घर से काम कर सकने वाले तालाब पर एकत्र होते थे। हर घर दो से पांच मन मिट्टी निकालता था। काम के समय गुड़ का पानी बंटता था। पंचायत में एकत्र हर्जाने की रकम का एक भाग उड़ाही के संयोजन में खर्च होता था।
दक्षिण में धर्मादा प्रथा थी। कहीं-कहीं इस काम के लिए गांव की भूमि का एक हिस्सा दान कर दिया जाता था और उसकी आमदनी सिर्फ साद निकालने के लिए खर्च की जाती थी। ऐसी भूमि को कोडगे कहा जाता था।
राज और समाज मिलकर कमर कस लें तो फिर किसी काम में ढील कैसे आएगी। दक्षिण में तालाबों के रख-रखाव के मामले में राज और समाज का यह तालमेल खूब व्यवस्थित था। राज के खजाने से इस काम के लिए अनुदान मिलता था पर उसी के साथ हर गांव में इस काम के लिए एक अलग खजाना बन जाए, ऐसा भी इंतजाम था।
हर गांव में कुछ भूमि, कुछ खेत या खेत का कुछ भाग तालाब की व्यवस्था के लिए अलग रख दिया जाता था। इस पर लगान नहीं लगता था। ऐसी भूमि मान्यम कहलाती थी। मान्यम से होने वाली बचत, आय या मिलने वाली फसल तालाब से जुड़े तरह-तरह के कामों को करने वाले लोगों को दी जाती थी। जितनी तरह के काम, उतनी तरह के मान्यम। जो काम जहां होना है, वहीं उसका प्रबंध किया जाता था, वहीं उसका खर्च जुटा लिया जाता था।
अलौति मान्यम से श्रमिकों के पारिश्रमिक की व्यवस्था की जाती थी। अणैंकरण मान्यम पूरे वर्ष भर तालाब की देखरेख करने वालों के लिए था। इसी से उन परिवारों की जीविका भी चलती थी, जो तालाब की पाल पर पशुओं को जाने से रोकते थे। पाल की तरह तालाब के आगौर में भी पशुओं के आने-जाने पर रोक थी। इस काम में भी लोग साल भर लगे रहते थे। उनकी व्यवस्था बंदेला मान्यम से की जाती थी।
तालाब से जुड़े खेतों में फसल बुवाई से कटाई तक पशुओं को रोकना एक निश्चित अवधि तक चलने वाला काम था। यह भी बंदेला मान्यम से पूरा होता था। उसे करने वाले पट्टी कहलाते थे।
सिंचाई के समय नहर का डाट खोलना, समय पर पानी पहुंचाना एक अलग जिम्मेदारी थी। इस सेवा को नीरमुनक्क मान्यम से पूरा किया जाता था। कहीं किसान पानी की बर्बादी तो नहीं कर रहे- इसे देखने वालों का वेतन कुलमकवल मान्यम से मिलता था। तालाब में कितना पानी आया है, कितने खेतों में क्या-क्या बोया गया है, किसे कितना पानी चाहिए-जैसे प्रश्न नीरघंटी या नीरुकुट्टी हल करते थे। यह पद दक्षिण में सिर्फ हरिजन परिवार को मिलता था। तालाब का जल स्तर देखकर खेतों में उसके न्यायोचित बंटवारे के बारीक हिसाब-किताब की विलक्षण क्षमता नीरकुट्टी को विरासत में मिलती थी। आज के कुछ नए समाजशास्त्रियों का कहना है कि हरिजन परिवार को यह पद स्वार्थवश दिया जाता था। इन परिवारों के पास भूमि नहीं होती थी इसलिए भूमिवानों के खेतों में पानी के किसी भी विवाद में वे निष्पक्ष हो कर काम कर सकते थे। यदि सिर्फ भूमिहीन होना ही योग्यता का आधार था तो फिर भूमिहीन ब्राह्मण तो सदा मिलते रह सकते थे! लेकिन इस बात को यहीं छोड़े और फिर लौटें मान्यम पर।
कई तालाबों का पानी सिंचाई के अलावा पीने के काम भी आता था। ऐसे तालाबों से घरों तक पानी लेकर आने वाले कहारों के लिए उरणी मान्यम से वेतन जुटाया जाता था।
उप्पार और वादी मान्यम से तालाबों की साधारण टूट-फूट ठीक की जाती थी। वायक्कल मान्यम तालाब के अलावा उनसे निकली नहरों की देखभाल में खर्च होता था। पाल से लेकर नहरों तक पर पेड़ लगाए जाते थे और पूरे वर्ष भर उनकी सार-संभाल, कटाई, छंटाई आदि का काम चलता रहता था। यह सारी जिम्मेदारी मानल मान्यम से पूरी की जाती थी।
खुलगा मान्यम और पाटुल मान्यम मरम्मत के अलावा क्षेत्र में बनने वाले नए तालाबों की खुदाई में होने वाले खर्च संभालते थे।
एक तालाब से जुड़े इतने तरह के काम, इतनी सेवाएं वर्ष भर ठीक से चलती रहें - यह देखना भी एक काम था। किस काम में कितने लोगों को लगाना है, कहां से कुछ को घटाना है- यह सारा संयोजन करैमान्यम से पूरा किया जाता था। इसे कुलम बेट्टु या कमोई वेट्टु भी कहते थे।
दक्षिण का यह छोटा और साधारण-सा वर्णन तालाब और उससे जुड़ी पूरी व्यवस्था की थाह नहीं ले सकता। यह तो अथाह है। ऐसी ही या इससे मिलती-जुलती व्यवस्थाएं सभी हिस्सों में, उत्तर में, पूरब-पश्चिम में भी रही ही होंगी। पर कुछ काम तो गुलामी के उस दौर में टूटे और फिर विचित्र आजादी के इस दौर में फूटे समाज में यह सब बिखर गया।
लेकिन गैंगजी कल्ला जैसे लोग इस टूटे-फूटे समाज में यह सब
बिखर गई व्यवस्था को अपने ढंग से ठीक करने आते रहे हैं।
नाम तो था गंगाजी पर फिर न जाने कैसे वह गैंगजी हो गया। उनका नाम स्नेह, आत्मीयता के कारण बिगड़ा या घिसा होगा लेकिन उनके शहर को कुछ सौ साल से घेर कर खड़े आठ भव्य तालाब ठीक व्यवस्था टूट जाने के बाद धीरे-धीरे आ रही उपेक्षा के कारण घिसने, बिगडऩे लगे थे। अलग-अलग पीढिय़ों ने उन्हें अलग-अलग समय में बनाया था, पर आठ में से छह एक शृंखला में बांधे गए थे। इनका रखरखाव भी उन पीढिय़ों ने शृंखला में बंध कर ही किया होगा। सार-संभाल की वह व्यवस्थित कड़ी फिर कभी टूट गई।
इस कड़ी के टूटने की आवाज गैंगजी के कान में कब पड़ी, पता नहीं। पर आज जो बड़े-बूढ़े फलौदी शहर में हैं, वे गैंगजी की एक ही छवि याद रखे हैं: टूटी चप्पल पहने गैंगजी सुबह से शाम तक इन तालाबों का चक्कर लगाते थे। नहाने वाले घाटों पर, पानी लेने वाले घाटों पर कोई गंदगी फैलाता दिखे तो उसे पिता जैसी डांट पिलाते थे।
कभी वे पाल का तो कभी नेष्टा का निरीक्षण करते। कहां किस तालाब में कैसी मरम्मत चाहिए- इनकी मन-ही-मन सूची बनाते। इन तालाबों पर आने वाले बच्चों के साथ खुद खेलते और उन्हें तरह-तरह के खेल खिलाते। शहर को तीन तरफ से घेरे खड़े तालाबों का एक चक्कर लगाने में कोई 3 घंटे लगते हैं। गैंगजी कभी पहले तालाब पर दिखते तो कभी आखरी पर, कभी सुबह यहां मिलते तो दोपहर वहां और शाम न जाने कहां। गैंगजी अपने आप तालाबों के रखवाले बन गए थे।
वर्ष के अंत में एक समय ऐसा आता जब गैंगजी तालाबों के बदले शहर की गली-गली में घूमते दिखते। साथ चलती बच्चों की फौज। हर घर का दरवाजा खुलने पर उन्हें बिना मांगे एक रुपया मिल जाता। बरसों से हरेक घर जानता था कि गैंगजी सिर्फ एक रुपया मांगते हैं, न कम न ज्यादा। रुपए बटोरने का काम पूरा होते ही वे पूरे शहर के बच्चों को बटोरते। बच्चों के साथ ढेर सारी टोकरियां, तगाडिय़ां, फावड़े, कुदान भी जमा हो जाते। फिर एक के बाद एक तालाब साफ होने लगता। साद निकालकर पाल पर जमाई जाती। हरेक तालाब के नेष्टा का कचरा भी इसी तरह साफ किया जाता। एक तगाड़ी मिट्टी- कचरे के बदले हर बच्चे को दुअन्नी इनाम में मिलती।
गैंगजी कल्ला कब से यह कर रहे थे - आज किसी को याद नहीं। बस इतना पता है कि यह काम सन् 55-56 तक चलता रहा। फिर गैंगजी चले गए।
शहर को वैसी किसी मृत्यु की याद नहीं। पूरा शहर शामिल था उनकी अंतिम यात्रा में। एक तालाब के नीचे ही बने घाट पर उनका अंतिम संस्कार हुआ। बाद में वहीं उनकी समाधि बनाई गई।
जो तालाब बनाते थे, समाज उन्हें संत बना देता था। गैंगजी ने तालाब तो नहीं बनाया था। पहले बने तालाबों की रखवाली की थी। वे भी संत बन गए थे।
फलौदी में तालाबों की सफाई का खेल संत खिलवाता था तो जैसलमेर में यह खेल खुद राजा खेलता था।
सभी को पहले से पता रहता था फिर भी नगर-भर में ढिंढोरा पिटता था। राजा की तरफ से, वर्ष के अंतिम दिन, फाल्गुन कृष्ण चौदस को नगर के सबसे बड़े तालाब घड़सीसर पर ल्हास खेलने का बुलावा है। उस दिन राजा, उनका पूरा परिवार, दरबार, सेना और पूरी प्रजा कुदाल, फावड़े-तगाडिय़ा लेकर घड़सीसर पर जमा होती। राजा तालाब की मिट्टी काट कर पहली तगाड़ी भरता और उसे खुद उठाकर पाल पर डालता। इस गाजे-बाजे के साथ ल्हास शुरु। पूरी प्रजा का खाना-पीना दरबार की तन्मय हो जाते कि उस दिन उनके कंधे से किसी का भी कंधा टकरा सकता था। जो दरबार में भी सुलभ नहीं, आज वही तालाब के दरवाजे पर, मिट्टी ढो रहा है। राजा की सुरक्षा की व्यवस्था करने वाले, उनके अंगरक्षक भी मिट्टी काट रहे हैं, मिट्टी डाल रहे हैं।
ऐसे ही एक ल्हास में जैसलमेर के राजा तेजसिंह पर हमला हुआ था। वे पाल पर ही मारे गए थे। लेकिन ल्हास खेलना बंद नहीं हुआ। यह चलता रहा, फैलता रहा। मध्यप्रदेश के भील समाज में भी ल्हास खेला जाता है, गुजरात में भी ल्हास चलती है। वहां यह परंपरा तालाब से आगे बढ़कर समाज के ऐसे किसी भी काम से जुड़ गई थी, जिसमें सबकी मदद चाहिए।
सबके लिए सबकी मदद। इसी परंपरा से तालाब बनते थे, इसी से उनकी देखभाल होती थी। मिट्टी कटती थी, मिट्टी डलती थी। समाज का खेल ल्हास के उल्हास से चलता था।

पता- संपादक, गांधी मार्ग, गांधी शांति प्रतिष्ठान, दीनदयाल उपाध्याय रोड, (आईटीओ), नई दिल्ली- 110002, फोन- 011 23237491, 23236734

सबसे कम उम्र की पोस्ट ग्रेजुएट ने कहा

अपने सपनों को जरुर साकार करूंगी
16 वर्ष की रश्मि स्वरूप का जन्म राजस्थान के बारां जिले के जैपला गांव में 29 सितम्बर 1992 को हुआ था। उसके मम्मी- पापा, श्री आर. एस. वर्मा और श्रीमती प्रभा स्वरुप यहां  के पहले शिक्षित दम्पति हैं। ज़ाहिर है उसके दादा- दादी और नाना- नानी अपने समय से बहुत आगे थे। रश्मि स्वरूप 9 वर्ष की आयु में दसवीं प्रथम श्रेणी से, 11 वर्ष की आयु में 12वीं जीव विज्ञान (biology) और 15 वर्ष में विज्ञान स्नातक (B.Sc.) करके राजस्थान की सबसे कम उम्र 16 वर्ष में M.Sc.करने वाली पहली छात्रा बनी। रश्मि स्वरूप ने पिछले दिनों ऑनलाइन हमारे सवालों के जवाब दिए, प्रस्तुत है कुछ अंश :
आपने इतनी कम उम्र में यह सब कैसे हासिल कर लिया?
* मुझे स्कूलों के लम्बे- लम्बे होमवर्क से बड़ी कोफ्त होती थी। मुझे बेवजह कागज़ काले करने में कोई रूचि नहीं थी। मैं जल्दी ही अपनी पढ़ाई ख़त्म कर लेना चाहती थी। उन्ही दिनों पापा के पास कुछ दसवी की लड़कियां गणित पढऩे आती थी। मुझे अपने होमवर्क से अधिक आसान तो उनके गणित के घुमावदार सवाल लगते थे जिन्हें मैं उन लड़कियों से पहले हल कर लिया करती थी। उन्ही दिनों बिहार के एक छात्र तथागत तुलसी के बारे में अखबार में आ रहा था। पापा ने जब इसके बारे में बताया तो मुझे नहीं लगा इसमें कोई मुश्किल हो सकती है। पापा ने प्रस्ताव रखा की यदि में एक महीने में बीजगणित हल कर दू तो मंै भी ऐसा कर सकती हूं, चुनौतियां तो मुझे वैसे भी प्यारी थी। और फिर मुझे पांच सालों की पढ़ाई से मुक्ति मिल रही थी और पास होने पर कंप्यूटर भी मिलने वाला था। मैंने दसवी पास की और फिर मेरे लिए अनगिनत दरवाज़े खुल गए। मेरे पास समय और ऊर्जा दोनों थे। अपने माता पिता के मार्गदर्शन में और अपनी रूचि के अनुसार मैंने इसका उपयोग करने की ठान ली। केवल प्रसिद्धि मेरा उद्देश्य कभी नहीं था। जब- जब मुझे असाधारण माना गया मैंने इससे जुड़ी जि़म्मेदारी का अनुभव किया। मैं बचपन से अपने औटिस्टिक भाई प्रतीक के लिए कुछ करना चाहती थी। पर मैंने अनुभव किया की न केवल उसके लिए बल्कि देश के 3' और इतने ही विश्व के मैंटली रिटायर्ड बच्चों के लिए बहुत कुछ किया जाना बाकी है। अब इन बच्चों को मुख्य धारा में लौटा लाना ही मेरा ध्येय है।
आपकी पढ़ाई में आपके माता पिता का सहयोग कितना रहा?
* बहुत। मुझ पर कभी पढाई या किसी भी चीज़ का दबाव नहीं रहा न ही कभी लड़की होने के कारण मैंने उनके व्यवहार में कोई अंतर पाया। बल्कि लड़की होना उनके लिए सौभाग्य की बात थी। मैं हर काम के लिए स्वतंत्र थी। मेरे माता पिता ने ही मेरी प्रतिभा और रूचि को पहचाना, निखारा, मुझे भी इस बात का अहसास दिलाया और मुझमें विश्वास दिखाया। और यही मेरे लिए सबसे बड़ी बात रही। 
क्या आप इसके लिए कोई ट्यूशन लेती थी?
* नहीं। दसवी में गणित और विज्ञान मैंने पापा से और गुजराती, हिंदी, इंग्लिश और सामाजिक विज्ञान मम्मी से पढ़े। मैं जानती ही नहीं कि किस तरह चतुराई से मुझे पांच सालों का कोर्स एक साल में इतनी आसानी से पढ़ाया गया। पढ़ाई मेरे लिए खेल और नयी चीजे जानने से अधिक कुछ नहीं रही। मुझे मेरे विषय रोचक लगते रहे और जल्द ही मैं खुद पढऩे लगी। मैं तो कहती हूं सीखने को इतना कुछ है पांच साल कि बचत कुछ अधिक नहीं।
कम उम्र के बाद भी आपको ऊंची कक्षाओं में परीक्षा देने की अनुमति कैसे मिली?
* माध्यमिक शिक्षा बोर्ड राजस्थान के दूरस्थ शिक्षा विभाग द्बारा ओपन स्कूल के माध्यम से मुझे ये सुविधा मिली। इसमें कोई आयु सीमा नहीं थी और कितने भी प्रयासों में दसवीं पास कि जा सकती थी। लेकिन मैंने एक ही प्रयास में 62 प्रतिशत अंकों के साथ दसवीं प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की। साथ ही इंग्लिश और गुजराती में डिक्टेशन भी हासिल किया। इसके बाद नियमित छात्रा के रूप में जीव विज्ञान विषय लेकर हायर व सीनियर सेकंड्री प्रथम श्रेणी 62  प्रतिशत अंकों के साथ ही उत्तीर्ण की। इसके बाद कॉलेज में एडमिशन में भी कोई परेशानी नहीं आई और मैंने स्नातक और प्राणी विज्ञान में स्नातकोत्तर भी नियमित छात्रा के रूप में ही किया।
आप कितने भाई बहन है उनमें से कौन आपकी तरह प्रतिभाशाली है?
* मेरे दो भाई हैं। 13 वर्षीय प्रतीक जो autistic है और मीनू मनोविकास मंदिर, चाचियावास, अजमेर में पढ़ता है और वहां रहकर तेजी से रिकवर हो रहा है। दूसरा भाई रवि 8 साल का है और केंद्रीय विद्यालय नं. 1 में फिफ्थ क्लास में पढ़ता है, और उसका तो जैसे जीवन का एकमात्र उद्देश्य ही दीदी के सब रेकॉर्ड्स तोड़ डालना है, वह मेधावी छात्र है, उसे क्रिकेट बेहद पसंद है और वह पायलट बनना चाहता है। वैसे मेरी तरह क्लासेस जम्प करने कि उसकी कोई योजना नहीं!
 क्या आपको ऐसी प्रतिभा अपने माता या पिता से मिली है?
 * बेशक! आखिर जूलॉजी की स्टुडेंट हूं, जानती हूं कि माता- पिता के अनुवांशिक गुण तो मुझमें आयेंगे ही! मेरे माता- पिता ने भी हमेशा लीक से हटकर काम किये है और यही ज़ज्बा मुझे विरासत में मिला है। दादा- दादी और नाना- नानी के अशिक्षित होने के बावजूद भी उन्होंने पूरी शिक्षा प्राप्त की और अब भी वे अपने गांव के  प्रथम शिक्षित दम्पति हैं। और उन्होंने अपनी शिक्षा का पूरा उपयोग भी किया। मेरे माता पिता प्रगतिशील विचारधारा के हैं और हमेशा समाज के घोर विरोध के बावजूद प्रगति करते रहे। लोगों की नजऱों में वे अब भी मुझे (लड़की को) पढ़ाकर और प्रतीक (भाई) में पैसा लगाकर वे धन और समय व्यर्थ ही कर रहे हैं! 
कम उम्र में इतना ज्ञान हासिल करके क्या आपको ऐसा लगता कि आपने बचपन में बड़ों की तरह सोचना शुरू कर दिया है?
* नहीं। बल्कि दूसरे बच्चों की सोच अब तक मैच्योर नहीं हुई, मुझे लगता है, आखिर हम ही तो देश का भविष्य हैं! हम नहीं सोचेंगे तो फिर कौन सोचेगा। मैं तो सोचती हूं ये सोचने वाला कीड़ा हर एक के दिमाग में घुसा देना चाहिए! (लेकिन अगर उनमें इतना दम है तो ही, बेवजह बच्चों पर दबाव डालने के भी मैं खिलाफ हूं।  मेरी  नजऱ में बच्चों का दिमाग भी तो एक प्राकृतिक रिसोर्स ही है। शिव खेड़ा जी ने कहा है की यदि हर व्यक्ति समाज और प्रकृति से जितना पाते हैं उससे अधिक लौटाने की ठान ले तो फिर देश के विकास को कोई रोक नहीं सकता।) लेकिन ऐसा बिलकुल नहीं है कि मैं किसी भी तरह के दबाव में हूं। आखिर कौन नहीं चाहेगा ख़ास होना बशर्ते वे ऐसा कर सकें।
आपके दोस्त आपकी उम्र के हैं या आपकी डिग्री के अनुसार बड़ी उम्र के?
* मेरी एक सबसे अच्छी दोस्त रागिनी मेरी ही हमउम्र हैं और बाकी सभी मुझसे बड़े हैं (लेकिन मानसिक स्तर में मैंने कोई अंतर नहीं पाया, दोस्ती में उम्र वैसे भी कोई मायने नहीं रखता। वैसे मुझे लोगों के  मानसिक स्तर में इजाफा करने का शौक है!

पढऩे वालों बच्चों को आप क्या टिप्स देना चाहेंगी?
* हमारे पूर्व राष्ट्रपति महामहिम डॉक्टर एपीजे अब्दुल कलाम ने कहा है की सपना वह नहीं जो सोने के बाद आये बल्कि सपना वह है जो आपको सोने ही न दे। बस देख लीजिये अपने लिए भी कोई सपना, बड़ा सोचिये और उसमें जुट जाईये। अपने लिए, अपने परिवार, समाज और देश के लिए, बिना किसी बाहरी दबाव के। अपनी अन्त: प्रेरणा को महसूस कीजिये। अपनी रूचि के काम कीजिये और उसमें बेहतरीन प्रदर्शन करके ये साबित कर दीजिये कि वह वास्तव में आपकी रूचि है। अपनी, और बहुत जरुरी है कि  दूसरों कि गलतियों से भी सीखे। हर असफलता को एक सीख समझे और इसे संकेत समझे कि आपसे सिर्फ कुछ बेहतर कि उम्मीद कि जा रही है। बेस्ट ऑफ़ लक!
  अब आगे आप क्या करना चाहती हैं?
* इस वर्ष मैंने जूलॉजी में एमएससी कर लिया है। आगे मैं एमफिल या पीएचडी करना चाहती हूं। साथ ही अपनी पुस्तक 'जूही और मिरेकल लैंड' का दूसरा भाग 'जूही और मिम्स' भी लिख रही हूं। बाकी प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए अभी मैं छोटी हूं। नेट जिसकी एज लिमिट 19 वर्ष है और आईएएस जिसकी एज लिमिट 21 वर्ष है, भविष्य में दूंगी। आगे मैं रिसर्च करना चाहती हूं ताकि मैंटली रिटायर्ड और autistic बच्चों से सम्बंधित क्षेत्र में विज्ञान में बढ़ोतरी कर सकूं।
(उदंती फीचर्स)

रश्मि स्वरुप के बारे में और अधिक जानने के लिए आप देख सकते हैं- nanhilekhika.blogspot.com                        
उनका पता है- आर.एस.वर्मा, जमुना सदन 1-डी 27, जे.पी. कालोनी, नाका मदर, अजमेर, राजस्थान 305001, मो. 09772962920 

इन्हें दस घंटे तो सोने दें


8 से 12 वर्ष की उम्र वाले लगभग सभी बच्चे टीवी देखने के लिए दस बजे के बाद सोते हैं, और उन्हें शाला आने के लिए सुबह 6 बजे उठना ही पड़ता है। जबकि इन बच्चों को लगभग दस घंटे तो सोना ही चाहिए।
- विश्वमोहन तिवारी
कितनी नींद कम है और कितनी अधिक, इसका कोई वैज्ञानिक माप नहीं है। स्वयं व्यक्ति ही जान सकता है कि उसके लिए कितनी नींद पर्याप्त है? वैज्ञानिक मानते हैं कि औसतन एक वयस्क व्यक्ति को लगभग आठ घंटे सोना चाहिए, यद्यपि किसी के लिए 6 घंटे भी पर्याप्त हो सकते हैं। यह भी सही है कि रात के अंधेरे व शांत वातावरण की नींद दिन के उजाले तथा कोलाहल भरे वातावरण की नींद से कहीं बेहतर होती है। नींद अभी तक वैज्ञानिकों के लिए भी एक रहस्य ही है। इसका आशय  यह है कि वे यह तो समझते हैं कि नींद शरीर को विश्राम देने के लिए आवश्यक है, किन्तु यह एक सवाल है कि क्या नींद और विश्राम एक जैसा कार्य करते हैं? उनको यह भी समझ में आता है कि नींद के दौरान शरीर विकास सम्बंधी कार्य जैसे शिशुओं का विकास आदि, तथा मस्तिष्क को साफ सुथरा करने का कार्य करता है। नींद पूरी न होने से मन तथा शरीर अस्वस्थ हो जाते हैं।
3 दिसंबर 2008 की साइंस न्यू$ज पत्रिका में लॉरा सैंडर्स लिखती हैं कि अब वैज्ञानिक बहुत प्रसन्न हैं कि उन्होंने नींद और स्वास्थ्य के बीच सम्बंध खोज निकाला है। पहले तो उन्होंने अनुसंधान कर नींद की प्रक्रिया समझी। मानव शरीर में एक जैविक घड़ी उसके कार्यों की लय-ताल को निर्धारित करती है, नींद को नियमित रखती है। यह घड़ी सूर्य के प्रकाश से अपने अणुओं के बनने बिगडऩे की लय निश्चित करती है, प्रत्येक 24 घंटे में अणुओं का निर्माण और क्षय शारीरिक समय का निर्धारण करता है। एक प्रयोग में कुछ मनुष्यों को ऐसे बंद स्थानों में रखा गया जहां सूर्य की किरण भी नहीं जा सकती थी। उन्हें बिजली की रोशनी में रखा गया था। पाया गया कि उनके दिन की लंबाई गड़बड़ा गई। सूर्य का प्रकाश और शारीरिक घड़ी मिलकर एक हॉरमोन मेलाटोनिन के स्राव का नियंत्रण करते हैं। धूप के जाते ही मेलाटोनिन का स्राव बढ़ जाता है, और सुबह धूप आते ही मेलाटोनिन का स्राव कम होने लगता है। यह मेलाटोनिन निद्रा देवी को आमंत्रित करता है। नींद के गड़बड़ होने से मेलाटोनिन का स्राव भी गड़बड़ हो सकता है, और इसका उल्टा तो देखा ही जाता है। इसीलिए सभी अनुभवी लोग नियम से सोना आवश्यक मानते हैं।
लॉरा सैन्डर्स बतलाती हैं कि रोग नियंत्रण केन्द्र ने आंकड़ों से दर्शाया है कि यूएसए में औसत व्यक्ति की नींद की अवधि घट रही है और एक चिकित्सा  शोध पत्रिका सर्कुलेशन  में खबर है कि यूएसए में द्वितीय किस्म के मधुमेह की दर बढ़ रही है। तीन वैश्विक दलों के अनुसंधान से ज्ञात हुआ है कि वर्तमान में मनुष्यों की कम होती नींद की अवधि और मधुमेह की बढ़ती दर में गहरा सम्बंध है, जो मेलाटोनिन की अल्पता पर आधारित है।
अभी वैज्ञानिक अल्पनिद्रा तथा मेलाटोनिन तथा इन्सुलिन के सम्बंधों की पड़ताल कर रहे हैं। प्रयोग यह भी दर्शा रहे हैं कि स्वस्थ किशोरों को मात्र तीन रात गहरी नींद से वंचित करने पर उनके रक्त में चीनी की मात्रा पर नियंत्रण गड़बड़ा गया और इन्सुलिन के प्रति प्रतिरोध पैदा हो गया। अर्थात उन पर इन्सुलिन कम असर करने लगा था। यह भी देखा जाता है कि नींद की कमी से पीडि़त व्यक्ति अधिक मीठी चीजें मांगते हैं। इस विचित्रता को भी वैज्ञानिक समझने में लगे हैं। मेलाटोनिन, इन्सुलिन तथा स्वास्थ्य के सम्बंध और अधिक जटिल हैं क्योंकि इनमें एक प्रोटीन भी है जो मेलाटोनिन ग्रहण करता है, और इन्सुलिन के प्रति प्रतिरोध भी अपना करतब दिखलाता है। आंकड़े बार-बार दर्शा रहे हैं कि नींद की कमी का रक्त में ग्लूकोज तथा मधुमेह में कुछ सम्बंध है।
नई-नई समृद्घि तथा आरामदेह पश्चिमी जीवन शैली की अंधी नकल के कारण भारत में भी मधुमेह महामारी की तरह फैल रहा है। भारत में आज टीवी, होटल तथा देर रात के मनोरंजनों के चलते वयस्क तो क्या बच्चे भी खुशी-खुशी कम ही सोते हैं। मुझे अचरज होता है कि कक्षाओं में सभी बच्चे जम्हाई लेते रहते हैं, उन्हें अक्सर सिरदर्द होता है। पूछने पर पता चलता है कि सभी को कोला पीने का बेहद शौक है और चिप्स या कुरकुरे जैसे जंक फूड का। माता पिता उन्हें पौष्टिक भोजन के स्थान पर यही सब देते हैं। 8 से 12 वर्ष की उम्र वाले लगभग सभी बच्चे टीवी देखने के लिए दस बजे के बाद सोते हैं, और उन्हें शाला आने के लिए सुबह 6 बजे उठना ही पड़ता है। जबकि इन बच्चों को लगभग दस घंटे तो सोना ही चाहिए। माता-पिता भी तो नींद की कमी से पीडि़त हैं, क्योंकि उन्हें भी तो टीवी देखना, देर रात पार्टीबाजी करना, जंक फूड खाना आधुनिकता की निशानी लगता है। इन सबसे वे वही रोग भुगत रहे हैं जो पश्चिम के लोग भुगत रहे हैं। किन्तु पश्चिम में अब कोला, जंक फूड आदि के खिलाफ जागरूकता आ रही है। हम भी उनकी नकल करते हुए बाद में सीखेंगे शायद, किन्तु जब तक हमारे बच्चों का बहुत नुकसान हो चुका होगा। क्या बुद्घिमानी इसमें नहीं कि हम शीघ्र ही विज्ञान से सीख लें, क्योंकि विज्ञान ने सिद्घ कर दिया है कि कोला में $जहर है, जंक फूड हानिकारक हैं, नींद की कमी रोगों और अस्वस्थता को न्यौता है। (स्रोत )

हिंदी का भविष्य और भविष्य में हिंदी

हिंदी का भविष्य और  भविष्य में हिंदी
भविष्य में हिंदी भाषा का स्वरूप क्या होगा। किसी भी भाषा का स्वरूप उसका उपयोग करने वाले तय करते हैं। जहां तक हिंदी का प्रश्न है, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में तो वह पहले से ही लोकप्रिय है।
- डॉ. रमाकांत गुप्ता
हिंदी के भविष्य की चिंता क्यों की जा रही है। यदि इसे चर्चा का विषय बनाया गया है तो एक बात तो तय है कि कहीं-न-कहीं हिंदी के भविष्य को लेकर आपके मन में चिंता की कोई-न-कोई लकीर अवश्य है। अंग्रेजी के भविष्य को लेकर इस तरह की कोई विचारगोष्ठी नहीं होती है। उसका कारण यह है कि उसका वर्तमान बहुत उज्जवल है। हिंदी का वर्तमान भी कम उज्ज्वल नहीं है पर उसके वर्तमान पर कहीं- कहीं चोट के निशान अवश्य हैं। ये चोट के निशान ही हमें और आपको परेशान करते रहते हैं। यदि हिंदी के भविष्य को आप जानना चाहते हैं तो उसकी वर्तमान स्थिति की ओर दृष्टिपात न करके उसके गुणों का विचार करना अभीष्ट है। रत्न यदि कूड़े में फेंक दिया जाए तो उसका क्या अपराध? अपराध फेंकने वाले का है। वहां पड़ा रहने से उसका रत्नत्व नहीं जाता। किसी ने कहा है -
कनक भूषणसंग्रहणोचितो यदि मणिस्त्रपुणि प्रणिधीयते।
न स विरौति न चापि हि शोभते भवति योजयितुर्वचनीयता।।
हिंदी का सबसे बड़ा गुण है उसकी लिपि। जहां तक हिंदी की लिपि का प्रश्न है आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि 'देवनागरी लिपि के समान शुद्ध, सरल और मनोहारी लिपि संसार में नहीं।' विदेशी और विजातीय विद्वानों तक ने उसकी प्रशंसा की है। विद्वान बेडन साहब कहते हैं कि 'संस्कृत लिपि की सरलता और शुद्धता सबको स्वीकार करनी पड़ेगी। संसार में संस्कृत के समान शुद्ध और स्पष्ट लिपि दूसरी नहीं।' संस्कृत के प्रसिद्ध विद्वान मोनियर विलियम्स लिखते हैं कि 'सच तो यह है कि संस्कृत लिपि जितनी अच्छी है उतनी अच्छी और कोई लिपि नहीं। मेरा तो यह मत है कि संस्कृत लिपि मनुष्यों की उत्पन्न की हुई नहीं, किंतु देवताओं की उत्पन्न की हुई है।' मुंबई हाईकोर्ट के भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश ने Notes to Oriental Cases की भूमिका में लिखा है कि वर्ण परिचय होते ही हिंदुस्तान के लड़के, बिना रुके कोई भी पुस्तक पढ़ सकते हैं। योरप में पुस्तकों को साधारण रीति पर पढऩे के लिए लड़कों को दो वर्ष लगते हैं, परन्तु इस देश में जहां संस्कृत लिपि का प्रचार है तीन महीने में लड़के पुस्तकें पढऩे लगते हैं। विद्वान मुसलमानों तक ने संस्कृत लिपि अर्थात् देवनागरी लिपि की प्रशंसा की है। शमसुलुल्मा सय्यद अली बिलग्रामी ने लिखा है कि 'फारसी लिपि की कठिनता के कारण मुसलमानों में विद्या का कम प्रचार है। फारसी अक्षरों में थोड़ा बहुत लिखना-पढऩा आने में दो वर्ष लग जाते हैं, परंतु देवनागरी लिपि में हिंदी लिखने-पढऩे के लिए तीन महीने काफी हैं।'
इतना गुणसंपन्न होने के बावजूद यदि कोई हिंदी को रोमन लिपि अपनाने की सलाह दे या रोमन लिपि को अधिक वैज्ञानिक बताये तो यह उसकी मूर्खता का ही परिचायक है। हिंदी की वर्तमान स्थिति सुधारने के लिए और कुछ भी किया जाए पर लिपि बदलने की कतई आवश्यकता नहीं है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने तो यहां तक कहा कि 'बंगाली, गुजराती और मद्रासी विद्वानों को भी इस सर्वगुणशालिनी नागरी लिपि को ही आश्रय देना चाहिए।'
जहां तक बोलचाल और लेखन के स्तर पर हिंदी के प्रयोग का प्रश्न है, सामाजिक (शास्त्रार्थ), राजनीतिक (धारवाड़) और सांस्कृतिक क्षेत्रों (फिल्म, नाटक, सीरियल आदि) में हिंदी की जड़ें काफी गहरी हैं। चिंता है तो सिर्फ राजभाषा के रूप में हिंदी के प्रयोग पर। हम हिंदी की शक्ति को नहीं देखते हैं सिर्फ एक क्षेत्र विशेष में वर्तमान में हो रही उसकी उपेक्षा को देखकर विचलित हो जाते हैं ठीक उसी तरह जिस तरह से एक गरीब पिता अपने सर्वगुणसंपन्न बेटे को नौकरी के लिए दर- दर ठोकरें खाते देखकर विचलित हो जाता है। वह सर्वगुणसंपन्न है तो एक न एक दिन बड़ा आदमी बनकर ही रहेगा। लोग कहते हैं कि ग्लोबलाइजेशन का जमाना आ गया है अब हिंदी का क्या काम? अरे श्रीमान इस ग्लोबलाइजेशन के जमाने में ही तो हिंदी की सबसे ज्यादा जरूरत पड़ेगी। कहिए, कैसे? इस ग्लोबलाइजेशन के पीछे कौन सी शक्ति कार्य कर रही है? उदारीकरण और बाजारीकरण की शक्ति ही इसके पीछे कार्य कर रही है तथा बाजार बिकने वाली वस्तु की ताकत को देखता है। हिंदी में वह ताकत है। 
आज चीन तथा भारत अर्थजगत में महाशक्ति बनकर उभर रहे हैं - आबादी की दृष्टि से भी ये दोनों देश विश्व में सबसे ऊपर हैं। इन दोनों ही देशों में अंग्रेजी जानने वाले लोगों की संख्या स्वल्प है। मीडिया में यह गलत प्रचार किया जा रहा है कि भारत में अंग्रेजी जानने वालों की संख्या काफी अधिक है। सच तो यह है कि अंग्रेजी की शिक्षा पर इतना अधिक पैसा बर्बाद किये जाने के बावजूद अंग्रेजी जानने वाले भारत में 5 प्रतिशत से अधिक नहीं है। यह मैं नहीं, स्वयं डीएमके के सांसद श्री दयानिधि मारन ने स्वीकार किया है। जो भाषा कम खर्च में सीखी जा सकेगी, जिस भाषा के बोलने और समझने वाले विश्व में सर्वाधिक होंगे, बाजार अर्थव्यवस्था के तहत वही भाषा चलेगी। आज कितने विज्ञापन हैं जो अंग्रेजी में आते हैं- नहीं के बराबर। 
अंग्रेजी को सबसे अधिक संरक्षण मिला है कार्यालयों में - विज्ञापन का सारा पैसा अंग्रेजी अखबार वालों को मिलता है। हिंदी भाषी राज्य सरकारें भी अपना विज्ञापन अंग्रेजी के अखबारों में देती हैं। इसी के कारण भारत में अंग्रेजी अखबार जिंदा हैं। अंग्रेजी ने भारत की सारी भाषाओं को पददलित कर रखा है। अंग्रेजी भाषा अपने गुण के कारण नहीं अपितु भर्ती परीक्षाओं में अंग्रेजी भाषा के अनिवार्य प्रश्नपत्र और अंग्रेजी मीडियम के कारण जिंदा है। जिस दिन भर्ती परीक्षाओं के स्तर पर हिंदी और भारतीय भाषाओं को सम्मानजनक स्थान मिलेगा, उस दिन से यह स्थिति बदलनी शुरू हो जाएगी। 
भारत एक बड़ी आर्थिक ताकत के रूप में उभर रहा है और ऐसी स्थिति में मल्टीनेशनल कंपनियों को भारत में अपना माल बेचने के लिए इस देश की सबसे अधिक लोकप्रिय भाषा हिंदी तथा भारत की अन्य भाषाओं को अपनाना ही पड़ेगा। अत: इस ग्लोबलाइजेशन से डरने की जरूरत नहीं है। उल्टे यह हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के लिए वरदान साबित होने वाला है, इसलिए क्योंकि ये भाषाएं ताकतवर हैं तथा एक बड़े समुदाय द्वारा बोली और समझी जाती हैं।
खड़ीबोली हिंदी का अतीत उज्ज्वल था, वर्तमान उज्ज्वलतर है तथा भविष्य उज्ज्वलतम होगा- ऐसा मेरा मानना है। आशा है आप भी मेरी राय से सहमत होंगे।
अब आइये देखें कि भविष्य में हिंदी भाषा का स्वरूप क्या होगा। किसी भी भाषा का स्वरूप उसका उपयोग करने वाले तय करते हैं। जहां तक हिंदी का प्रश्न है, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में तो वह पहले से ही लोकप्रिय है तथा इन क्षेत्रों में अतिशय प्रयोग के कारण उसका स्वरूप पहले से ही निश्चित हो चुका है। सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों में बदलाव की संभवना कम रहती है अत: इन क्षेत्रों में प्रयोग में आने वाली हिंदी भाषा में भी अधिक तब्दीली आने वाली नहीं है। हिंदी का प्रयोग हिंदीभाषी राज्यों के विधानमंडलों में पूरी तरह से हो रहा है तथा जब से जनता के असली नुमाइंदे चुनकर संसद में आने लगे हैं, तब से संसद में भी उसका व्यवहार काफी सीमा तक होने लगा है। सामाजिक रीति- रिवाजों में बदलाव की गति हमेशा मंद ही रहा करती है। नवयुवकों की विदेश यात्राएं, फिल्में, मीडिया आदि हमारी संस्कृति को अवश्य प्रभावित कर रहे हैं। पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने एक बार कहा था कि भारतीय संस्कृति में अधिक खुलापन है तथा भारतीय समाज इतने खुलेपन को बर्दाश्त कर सकता है परंतु पाकिस्तान में ऐसा संभव नहीं है। यही कारण है कि फिल्मों को तो छोडि़ए प्रतिष्ठित पत्रिकाओं तक में वासना विशेषांक निकलने लगे हैं। सेक्सी गाना गाने में बच्चों को बिल्कुल शर्म नहीं आती। ऐसी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए विभिन्न भारतीय एवं पाश्चात्य भाषाओं से शब्द भी हिंदी में निर्बाध रूप से आने लगे हैं। 
जहां तक अर्थव्यवस्था में एवं कार्यालयों में राजभाषा के रूप में हिंदी के प्रयोग का प्रश्न है, इसका व्यवहार कम होने के कारण स्वरूप अंतिम रूप से निश्चित नहीं हो सका है। जहां तक सरकारी कार्यालयों का प्रश्न है, मैं फिलहाल निराश नहीं हूं। लोग कहते हैं कि शब्दकोशों के शब्दों का प्रयोग नहीं होगा परन्तु मैं ऐसा नहीं मानता। आप यदि शब्दकोशों के शब्दों का प्रयोग राजभाषा में नहीं करेंगे तो अराजकता फैल जाएगी। Integrated के लिए तीन शब्द समेकित, समन्वित और एकीकृत हैं। गढ़े गये बहुल शब्दों में से सशक्त शब्द रह जाएगा तथा कमजोर शब्द गायब हो जाएगा। राजभाषा हिंदी में संक्षेपाक्षरों की संख्या बढ़ेगी भले ही वे हिंदी की प्रकृति के अनुकूल न हों। जैसे अखबारों ने पार्टियों के नाम के संक्षेपाक्षर, यथा भाजपा, लोजपा आदि निकाले हैं वैसे ही हमें भी कार्यालयीन कार्य के लिए संक्षेपाक्षर बनाने पड़ेंगे और उन्हें लोकप्रिय बनाना ही हमारी जिम्मेदारी होगी । 
दूसरों की तरह मैं भी मानता हूं कि भविष्य में चालू शब्दावली का प्रयोग बढ़ेगा। नये शब्द न गढ़कर पुराने शब्दों में नये अर्थ भरने का प्रयास होगा।
भविष्य में हिंदी भाषा का स्वरूप अर्थव्यवस्था तय करेगी। भारत एक बड़ी आर्थिक ताकत बनकर उभरेगा तथा अर्थव्यवस्था का स्वरूप बहुत हद तक हिंदी भाषा के स्वरूप को तय करेगा।
दोस्तो! किसी निष्कर्ष पर पहुंचना गलत होगा कि भविष्य में हिंदी का स्वरूप ऐसा होगा या वैसा होगा। ग्राहक की जरूरत के अनुसार जैसे मंडी में आयी वस्तुओं का स्वरूप बदलता रहता है, वैसे ही हिंदी भाषा का भी स्वरूप बदलेगा। वह किसी बंधन में बंधकर नहीं रहने वाली -
बंधन को मानते वही जो नद नाले सोते हैं
किंतु महानद तो स्वभाव से ही प्रचंड होते हैं।
हिंदी महानद की तरह सभी मर्यादाएं लांघती हुई आगे बढ़ती जाएगी। 
जय हिंद जय हिंदी।


50 बरस का सुनहरा सफर

दूरदर्शन ने अपने पचास साल पूरे कर लिए। तब यूनेस्को ने इसके लिए भारत सरकार को 20, 000 डॉलर की आर्थिक मदद और 180 फिलिप्स टेलीविजन सेट्स दिए थे। दूरदर्शन का पहला प्रसारण 15 सितंबर, 1959 को प्रयोगात्मक आधार पर आधे घण्टे के लिए शैक्षिक और विकास कार्यक्रमों के रूप में शुरू किया गया। 15 सितम्बर 1959 को दूरदर्शन का प्रसारण सप्ताह में सिर्फ तीन दिन आधा-आधा घंटे होता था। तब इसे 'टेलीविजन इंडिया' नाम दिया गया था, 1975 में इसका हिन्दी नाम 'दूरदर्शन' किया गया। तब दिल्ली में मात्र 18 टेलीविजन सेट लगे थे और एक बड़ा ट्रांसमीटर लगा था।
दूरदर्शन को देश भर के शहरों में पहुंचाने की शुरुआत 80 के दशक में हुई और इसकी वजह थी 1982 में दिल्ली में आयोजित किए जाने वाले एशियाई खेल। एशियाई खेलों के दिल्ली में होने का एक लाभ यह भी मिला कि श्वेत और श्याम दिखने वाला दूरदर्शन रंगीन हो गया था। 1984 में देश के गांव-गांव में दूरदर्शन पहुंचाने के लिए देश में लगभग हर दिन एक ट्रांसमीटर लगाया गया।
यह वह दौर था जब दूरदर्शन का राज चलता था। कौन याद नहीं करना चाहेगा उन सुनहरे दिनों को जब मोहल्ले के इक्के-दुक्के रइसों के घर में टीवी हुआ करता था और सारा मोहल्ला टीवी में आ रहे कार्यक्रमों को आश्चर्यचकित सा देखता था। पारिवारिक कार्यक्रम हम लोग ने लोकप्रियता के तमाम रेकॉर्ड तोड़ दिए। इसके बाद आया भारत और पाकिस्तान के विभाजन की कहानी पर बना बुनियाद जिसने विभाजन की त्रासदी को उस दौर की पीढ़ी से परीचित कराया। इस धारावाहिक के सभी किरदार आलोक नाथ (मास्टर जी), अनीता कंवर (लाजो जी), विनोद नागपाल, दिव्या सेठ  घर घर में लोकप्रिय हो चुके थे। फिर तो एक के बाद एक बेहतरीन और शानदार धारवाहिकों ने दूरदर्शन को घर- घर में पहचान दे दी।  दूरदर्शन पर 1980 के दशक में प्रसारित होने वाले मालगुडी डेज़, ये जो है जिन्दगी, रजनी, नुक्कड़, ही मैन, सिग्मा, स्पीड, जंगल बुक, वाह: जनाब, कच्ची धूप, रजनी, तमस, मुंगेरीलाल के हसीन सपने, सुरभि, शांति आदि ने जो मिसाल कायम की है उसकी तुलना आज के  किसी भी धारावाहिक से नहीं की जा सकती। वहीं भारत एक खोज, दि सोर्ड आफ टीपू सुल्तान और चाणक्य ने लोगों को भारत की ऐतिहासिक तस्वीर से रूबरू कराया। जबकि जासूस करमचंद, रिपोर्टर व्योमकेश बक्शी, तहकीकात, सुराग और बैरिस्टर राय जैसे धारावाहिकों ने समाज में हो रही अपराधिक घटनाओं को स्वस्थ ढंग से पेश करने की कला विकसित की।
1986 में शुरु हुए रामायण और महाभारत के प्रसारण ने तो टीवीं को ईश्वरत्व प्रदान किया। जब ये धारावाहिक आते तो पूरा परिवार हाथ जोड़कर देखता था। रामायण में राम और सीता का रोल अदा करने वाले अरूण गोविल और दीपिका को लोग आज भी राम और सीता के रुप में पहचानते हैं तो नीतिश भारद्वाज महाभारत सीरियल के कृष्ण के रुप में जाने गए। रामायण की लोकप्रियता का आलम तो ये था कि लोग अपने घरों को साफ-सुथरा करके अगरबत्ती और दीपक जलाकर रामायण का इंतजार करते थे और एपिसोड के खत्म होने पर बकायदा प्रसाद बांटी जाती थी।  टर्निंग प्वाइंट, अलिफ लैला, कथासागर, विक्रम बेताल शाहरुख़ खान की सर्कस, फौजी और देख भाई देख ने देश भर में अपना एक खास दर्शक वर्ग ही नहीं तैयार किया था बल्कि गैर हिन्दी भाषी राज्यों में भी इन धारावाहिकों को ज़बर्दस्त लोकप्रियता मिली। बुधवार और शुक्रवार को 8 बजे दिखाया जाने वाले फिल्मी गानों पर आधारित चित्रहार और प्रति सप्ताह दिखाए जाने वाले लोकप्रिय फिल्म का इंतजार लोग बड़ी उत्सुकता से करते थे। उस दिन शहरों के सिनेमा हाल सुने हो जाते थे।
दूरदर्शन के समाचार की बात की जाए तो उसके समाचारों में सहजता आज तक कायम है जबकि निजी समाचार चैनलों में न्यूज जैसे गंभीर विषय में मनोरंजन का तड़का लगाया जाता है। दूरदर्शन से 15 अगस्त 1965 को प्रथम समाचार बुलेटिन का प्रसारण किया गया था। तब से लेकर नेशनल चैनल पर रात 8. 30 बजे प्रसारित होने वाला राष्र्ट्रीय समाचार बुलेटिन आज भी बदस्तूर जारी है। समाचार की महत्ता को देखते हुए ही दूरदर्शन ने 2003 में पृथक रूप से 24 घंटे का समाचार चैनल डीडी न्यूज शुरू किया। यह एकमात्र चैनल है जो केबल- विहीन और उपग्रह सुविधा रहित घरों तक पहुंचता है।  डीडी न्यूज पर रोजाना 16 घंटे सीधा प्रसारण होता है जिसमें हिन्दी में 17 और अंग्रेजी में 13 समाचार बुलेटिन शामिल है। उर्दू और संस्कृत में रोज एक बुलेटिन के अलावा मूक- बधिर लोगों के लिए सप्ताह में एक बुलेटिन प्रसारित होता है। साथ ही राज्यों की राजधानियों में 24 क्षेत्रीय समाचार एकांशों द्वारा प्रतिदिन 19 भाषाओं में 89 बुलेटिन प्रसारित किए जाते हैं।
दूरदर्शन ने मनोरंजन के साथ-साथ लोगों को शिक्षित करने में भी अहम भूमिका अदा की है। सन् 1966 में कृषि दर्शन कार्यक्रम के द्वारा दूरदर्शन देश में हरित क्रांति लाने का सूत्रधार बना। आज भी यह कार्यक्रम जारी है। और जहां तक  खेल की बात है तो दूरदर्शन ने अपनी स्थापना के कुछ समय बाद से ही खेल और खिलाडिय़ों के लिए विशेष कार्यक्रम देना शुरू कर दिया था। सन् 1999 में पृथक डीडी स्पोर्ट चैनल शुरू किया गया जो देश का एकमात्र फ्री टू एयर स्पोटर्स-24 घंटे प्रसारक चैनल है। देश की विभिन्न संस्कृतियों के दर्शन भी आज दूरदर्शन पर ही होता है। शास्त्रीय नृत्य-संगीत हो या ऐतिहासिक विरासत, दूरदर्शन का डीडी भारती चैनल सभी को भव्यता से प्रस्तुत करता है। जबकि उत्तर पूर्व और विभिन्न भाषा- भाषी लोगों की जरूरतों, उनके मनोरंजन का ख्याल प्रादेशिक भाषा के चैनल कर रहे हैं। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी दूरदर्शन ने अपनी आमद दर्ज करा रखी है। डी डी इंडिया चैनल 1995 में इसी कड़ी के रूप में शुरू किया गया था। पहले इसका नाम डीडी वल्र्ड था। आज इसे 146 देशों में देखा जा रहा है।
 दूरदर्शन के 16 चैनलों को अब (डीबीवी-एच प्रसारण) मोबाइल पर देखा जा सकता है। जबकि एचडीटीवी (हाईडेफीनिशन टेलीविजन) और आईपीटीवी (इंटरनेट प्रोटोकाल टेलीविजन) प्रसारण तकनीक अपनाने को लेकर तैयारियां चल रही हैं। 2010 के राष्ट्रमंडल खेलों का प्रसारण एचडी सिग्नल पर ही किया जाएगा। जो देश में पहली बार होगा। (उदंती फीचर्स)

ग्रेडिंग प्रणाली क्या तनाव से बचाएगा

पिछले अंक में हमने 'शिक्षा प्रणाली के कायाकल्प पर बहस' के अंतर्गत पाठकों से  विचार आमंत्रित किए थे। बहस की इस श्रृंखला में प्रस्तुत है संजय द्विवेदी  के  विचार।
केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल केंद्र के उन भाग्यशाली मंत्रियों  में हैं जिनके पास कहने के लिए कुछ है। वे शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने का बिल पास करवाकर 100 दिन के सरकार के एजेंडें  में एक बड़ी जगह तो  ले ही चुके हैं और अब दसवीं बोर्ड को वैकल्पिक बनवाकर वे एक और कदम आगे बढ़े हैं। शिक्षा के क्षेत्र में इसे एक बड़ा सुधार माना जा रहा है? सीबीएसई में जहां इस साल से ग्रेडिंग प्रणाली लागू हो जाएगी वहीं अगले साल दसवीं बोर्ड का वैकल्पिक हो जाना नई राहें खोलेगा।
हालांकि इन फैसलों से शिक्षा के क्षेत्र में कोई बहुत क्रांतिकारी परिवर्तन आ जाएंगें ऐसा मानना तो जल्दबाजी होगी किंतु इससे सोच और बदलाव के नए संकेत तो नजर आ ही रहे हैं। सिब्बल अंतत: तो यह मान गए हैं कि उनका इरादा अभी देश के लिए एक बोर्ड बनाने का नहीं है। शायद यही एक बात थी जिस पर प्राय: कई राज्यों ने अपनी तीखी प्रतिक्रिया जताई थी। बावजूद इसके मानव संसाधन मंत्री यह मानते हैं कि छात्रों में प्रतिस्पर्धा की भावना को विकसित किया जाना जरूरी है। जाहिर तौर शिक्षा और प्राथमिक शिक्षा का क्षेत्र हमारे देश में एक ऐसी प्रयोगशाला बनकर रह गया है जिस पर लगातार प्रयोग होते रहे हैं और नयी पीढ़ी उसका खामियाजा भुगतती रही है।
प्राथमिक शिक्षा में अलग- अलग बोर्ड और पाठ्यक्रमों का संकट अलग है। इनमें एकरूपता लाने के प्रयासों में राज्यों और केंद्र के अपने तर्क हैं। किंतु 10वीं बोर्ड को वैकल्पिक बनाने से एक सुधारवादी रास्ता तो खुला ही है जिसके चलते छात्र नाहक तनाव से बच सकेंगे। देखना है कि इस फैसले को शिक्षा क्षेत्र में किस तरह से लिया जाता है। यह भी देखना रोचक होगा कि ग्रेडिंग सिस्टम और वैकल्पिक बोर्ड की व्यवस्थाओं को राज्य के शिक्षा मंत्रालय किस नजर से देखते हैं। इस व्यवस्था के तहत अब जिन स्कूलों में बारहवीं तक की पढ़ाई होती है वहां 10वीं बोर्ड खत्म हो जाएगा। सरकार मानती है जब सारे स्कूल बारहवीं तक हो जाएंगें तो दसवीं बोर्ड की व्यवस्था अपने आप खत्म हो जाएगी। माना जा रहा है धीरे-धीरे राज्य भी इस व्यवस्था को स्वीकार कर लेंगें और छात्रों पर सिर्फ बारहवीं बोर्ड का दबाव बचेगा।  इस बारे में श्री सिब्बल कहना है कि हमारे विभिन्न राज्यों में 41 शिक्षा बोर्ड हैं। अभी हम सीबीएसई के स्कूलों के लिए यह विचार-विमर्श कर रहे हैं। अगले चरण में हम राज्यों के बोर्ड को भी विश्वास में लेने का प्रयास करेंगे। उधर सीबीएसई के सचिव विनीत जोशी ने कहा कि जिन स्कूलों में केवल दसवीं तक पढ़ाई होती है, वहां दसवीं का बोर्ड तो रहेगा, पर जिन स्कूलों में 12वीं तक पढ़ाई होती है, वहां दसवीं के बोर्ड को खत्म करने का प्रस्ताव है।
शिक्षा में सुधार के लिए कोशिशें तो अपनी जगह ठीक हैं पर हमें यह मान लेना पड़ेगा कि हमने इन सालों में अपने सरकारी स्कूलों का लगभग सर्वनाश ही किया है। पूरी व्यवस्था निजी स्कूलों को प्रोत्साहित करने वाली है जिसमें आम आदमी भी आज अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में भेजने के लिए तैयार नहीं है। यह एक ऐसी चुनौती है जिसका सामना हमें आज नहीं तो कल बड़े सवाल के रूप में करना होगा। यह समस्या कल एक बड़े सामाजिक संघर्ष का कारण बन सकती है। दिल्ली और राज्यों की राजधानियों में बैठकर नीतियां बनाने वाले भी इस बात से अनजान नहीं है पर क्या कारण है कि सरकार खुद अपने स्कूलों को ध्वस्त करने में लगी है। यह सवाल गहरा है पर इसके उत्तर नदारद हैं। सरकारें कुछ भी दावा करें, भले नित नए प्रयोग करें पर इतना तय है कि प्राथमिक शिक्षा के ढांचे को हम इतना खोखला बना चुके हैं कि अब उम्मीद की किरणें भी नहीं दिखतीं। ऐसे में ये प्रयोग क्या आशा जगा पाएंगें कहा नहीं जा सकता। बदलती दुनिया के मद्देनजर हमें जिस तरह के मानव संसाधन और नए विचारों की जरूरत है उसमें हमारी शिक्षा कितनी उपयोगी है इस पर भी सोचना होगा। एक लोक कल्याणकारी राज्य भी यदि शिक्षा को बाजार की चीज बनने दे रहा है तो उससे बहुत उम्मीदें लगाना एक धोखे के सिवा क्या हो सकता है। सच तो यह है कि समान शिक्षा प्रणाली के बिना इस देश के सवाल हल नहीं किए जा सकते और गैरबराबरी बढ़ती चली जाएगी। हमने इस मुद्दे पर सोचना शुरू न किया तो कल बहुत देर हो जाएगी।
पता- रीडर- माखनलाल चतुर्वेदी, पत्रकारिता विवि, भोपाल - 462011 (म.प्र) 
Email-123dwivedi@gmail.com

पलारी का ऐतिहासिक सिद्धेश्वर मंदिर

उपेक्षित होते हमारे प्राचीन धरोहर?
भारतीय स्थापत्यकला के विकास में नागर, द्राविण और बेसर शैलियों का मान निश्चित किया गया। पलारी का शिव मंदिर नागर शैली में निर्मित है। गुप्तकाल में मथुरा, सारनाथ, नालंदा, अमरावती आदि मूर्तिकला के प्रमुख केंद्र थे।
- नंदकिशोर वर्मा
छत्तीसगढ़ में ईंटों के मंदिरों की गौरवाशाली परंपरा रही है, इसी परंपरा का एक उदाहरण पलारी का सिद्धेश्वर मंदिर है जो रायपुर जिले में स्थित पलारी ग्राम के बालसमुंद तालाब के किनारे स्थित है। पश्चिमाभिमुख यह मंदिर लघु अधिष्ठान पर निर्मित है। मंदिर का गर्भगृह पंचस्थ शैली का है तथा जंघा तक अपने मूल रूप में सुरक्षित है। शिखर का शीर्ष भाग पुर्ननिर्मित है। पाषाण निर्मित द्वार के चौखट कलात्मक एवं अलंकृत है, इसके दोनों पाश्र्वों में नदी देवियों, गंगा एवं यमुना का त्रिभंग मुद्रा में अंकन है। सिरदल पर ललाट बिंब में शिव का चित्रण है, तथा दोनों पाश्र्वों में ब्रह्मा तथा विष्णु का अंकन है। मंदिर के द्वार पर निर्मित पाषाण पर तराशे गए शिव विवाह का दृश्य दर्शनीय है। पुरातत्व विशेषज्ञों के अनुसार शिव विवाह का यह अंकन अद्भुत है। 
सिद्धेश्वर मंदिर के सामने निर्मित बालसमुंद तालाब के बारे में अनेक जनश्रुतियां प्रचलित हैं जिसके अनुसार इस मंदिर का निर्माण छैमासी रात में किया गया है तथा तालाब की खुदाई भी इसी दौरान की गई थी। बताया जाता है कि एक घुमंतू जाति के नायक अपने दल  बल सहित यहां पहुंचे और यहीं आकर बस गए। तब यहां चारो ओर जंगल था। लेकिन पानी के लिए कोई तालाब या पोखर न होने से वे सब परेशान हो गए। तब उनके नायक ने 120 एकड़ में विस्तारित विशाल तालाब का निर्माण कराया लेकिन तालाब खुदाई के बाद भी वह तालाब सूखा का सूखा ही रहा। तब गुरु जनों की सलाह पर नायक राजा ने अपने नवजात शिशु को परात में रखकर तालाब में छोड़ दिया, देवयोग से तालाब में पर्याप्त पानी आ गया और बालक भी सुरक्षित परात के ऊपर आ गया। कहते है इसी कारण इस तालाब का नाम बालसमुंद पड़ा। और तब से इस तालाब में हमेशा पानी रहता है। यह भी कहा जाता है कि भमनीदहा का स्रोत बालसमुंद तक आया है इसलिए इस तालाब का पानी कभी नहीं सूखता। इस तालाब के बीच में एक  टापू है जिसके  बारे में भी लोग तरह तरह के किस्से सुनाते हैं - यह कि तालाब बनवाते समय तालाब की मिट्टी फेंकने के बाद उक्त स्थल पर टोकनी की मिट्टी झर्राने (झड़ाते) के कारण यह टापू बना है।

परंतु बुजुर्गों द्वारा जो बात बताई जाती है वह सत्य के ज्यादा नजदीक जान पड़ती है। बात 1950- 60 के दशक की है जब  पलारी गांव के आस- पास घना जंगल था तथा शेर, भालू, तेंदुआ यहां आसपास विचरते रहते थे। गांव के मालगुजार दाऊ कलीराम वर्मा शिकार के दौरान घूमते हुए घने जंगल से घिरे इस मंदिर के पास पंहुच गए तब यह मंदिर झाड़ झंखाड़ से दबा हुआ जीर्ण- शीर्ण अवस्था में था। यद्यपि मंदिर के गर्भ गृह तब खाली था। लेकिन घाट और तालाब के अवशेष के जिन्ह देखकर उन्होंने अनुमान लगाया कि हो न हो यह शिव मंदिर था। अत: धाराशाई होते इस जीर्णशीर्ण मंदिर का जीर्णोद्धार एवं घाट का निर्माण करने की इच्छा पलारी के मालगुजार दाऊ कलीराम वर्मा ने अपने स्व. पिता मोहन लाल की स्मृति में बनवाने की इच्छा जाहिर की। तब उनकी इच्छानुसार पुत्र बृजलाल वर्मा (भूतपूर्व केन्द्रीय मंत्री) ने सन् 1960-61 में इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया और मंदिर में शिवलिंग की स्थापना करके अपने पिता की अंतिम इच्छा पूरी की।
इस  प्राचीन स्मारक तथा पुरातात्विक दृष्टि से अधिनियम 1964 तथा 65 के अधीन राज्य संरक्षित स्मारक घोषित किया गया हैं।
मंदिर के गर्भगृह में जीर्णोद्धार के समय ही संगमरमर का शिवलिंग स्थापित कर दिया गया था अत: 60 के दशक से ही यहां पूजा अर्चना होती आ रही है। इस मंदिर में प्रति वर्ष माघ पूर्णिमा के दिन भव्य मेले की आयोजन किया जाता है। मेले के दिन आस-पास के गांव से हजारो भक्त तालाब में स्नान करते हैं तथा दिन भर मेले का आनंद लेते हैं।
 कलाशैली की दृष्टि से यह मंदिर 900 ई. का माना जाता  है।  जिसे छत्तीसगढ़ में ही स्थित विश्व विख्यात लक्ष्मण मंदिर जो सिरपुर में है, के समकक्ष कहा जा सकता है। सिरपुर में इन दिनों खुदाई का कार्य चल रहा है जिससे इतिहास के अनेक पन्ने खुलते चले जा रहे हंै।
 गुप्तकालीन वास्तुकला भारतीय इतिहास में एक क्रांतिकारी परिवर्तन लाती है। यह मंदिर गुप्तकालीन स्थापत्यकला काअनुपम उदाहरण है। भारतीय स्थापत्यकला के विकास में नागर, द्राविण और बेसर शैलियों का मान निश्चित किया गया। पलारी का शिव मंदिर नागर शैली में निर्मित है। गुप्तकाल में मथुरा, सारनाथ, नालंदा, अमरावती आदि मूर्तिकला के प्रमुख केंद्र थे। शैली की दृष्टि से गुप्तकालीन मूर्तियां व यक्ष प्रतिमाओं का विकास पुराण की देन है। गुप्तकालीन मंदिरों के द्वार शाखाओं पर गंगा, यमुना की खूबसूरत मूर्तियों का रूपायन हुआ है, जो पलारी के इस सिद्धेश्वर मंदिर के द्वार पर भी देखने को मिलता है।
पुरातत्वविद डॉ. विष्णु सिंह ठाकुर के अनुसार छत्तीसगढ़ के राजिम, सिरपुर, खरौद एवं पलारी के शिव मंदिर एक ही समय के निर्मित मंदिर हैं।
इस मंदिर के बाह्य भाग में सूर्यनारायण, नृसिंह भगवान, हनुमान जी, सरस्वती आदि के मनोमुग्धकारी चित्रांकन हैं, मौसम की मार से जो अब लुप्तप्राय स्थिति में हैं। मंदिर का पृष्ठ भाग भी काफी क्षतिग्रस्त हो गया है एवं मंदिर झुकता हुआ नजर आता है। जिसको दुरुस्त किए जाने की आवश्यकता है।
अफसोस की बात है कि हम अपनी ऐसी न जाने कितनी धरोहरों को उपेक्षित करते चले जा रहे हैं। नवीं शताब्दी में बने इस मंदिर के इस महत्वपूर्ण द्वार की मूर्तियों के ऊपर कुछ वर्ष पहले ग्राम वासियों ने अपनी अपार भक्ति का प्रदर्शन करते हुए वार्निश और चूने का उपयोग कर कलाकृतियों को खराब कर दिया था, जिसे बाद में पुरातत्व विभाग ने सन् 1995 में रासायनिक उपचार कर दुरुस्त किया था। इसी तरह की भक्ति दिखाते हुए कुछ वर्ष पहले मंदिर के गर्भ गृह में अतिरिक्त निर्माण करके एक भारी भरकम पीतल की घंटी लगा कर मंदिर को कमजोर करने की कोशिश की गई थी। हाल ही में उक्त घंटी के चोरी हो जाने का भी समाचार मिला। अत: ऐसे ऐतिहासिक मंदिरों की महत्ता के प्रति क्षेत्र के लोगों को जागरुक किया जाना अत्यावश्यक है। इसके लिए जरुरी है कि पुरातत्व विभाग भी आवश्यक कदम उठाए।
शिव विवाह का चित्रण
पुरातत्ववेत्ताओं का मत है कि पूरे भारत में अब तक ज्ञात किसी भी मंदिर में ऐसी शिल्पकला नहीं देखी गई है और न ही किसी ग्रंथ में वर्णित है कि अमुक मंदिर में पुष्पक जैसे विमान पत्थरों पर चित्रित हैं। इस दृष्टि से पलारी के इस शिव मंदिर का महत्व काफी बढ़ जाता है, साथ ही यह और अधिक अध्ययन की मांग करता है।
मंदिर के प्रवेश द्वार पर चित्रित पुष्पक जैसे विमान पर जब पहली बार पुरातत्व अधिकारियों की निगाह पड़ी तो वे चौंक गए।  सर्वेक्षण  में पत्थरों पर शिव विवाह को चित्रित किया गया है और बारातियों में शामिल देव समुदाय विमान पर सवार हैं। पुष्पक विमान का उल्लेख केवल पौराणिक ग्रंथों में मिलता है, जिसके अनुसार यह कुबेर का था जिसे रावण ने छीन लिया था। लंका विजय के बाद भगवान श्री राम इसी से अयोध्या लौटे थे।
यहां शिव विवाह से संबंधित कथानक को अत्यंत कलात्मक ढंग से उकेरा गया है। मंदिर की चौखट पर शिव विवाह के दृश्य में देवाताओं को हाथियों अश्वों एवं बैल पर सवार होकर जाते अंकित किया गया है। चौखट के शीर्ष पर मृदंग आदि बजाते नृत्य करते लोगों को दर्शाया गया है। जो अत्यंत मनोहारी है। प्रवेश द्वार पर बारातियों में शामिल दिग्पालों का शिल्पांकन प्रमुखता से है। शिल्प शास्त्रों में वर्णित दिग्पालों के पारम्परिक वाहनों से अलग हटकर वाहन दर्शाये गए हैं। पुराणों में बताये गए वैमानिक का प्रतीकात्मक शिल्पाकंन यहां मिला है। धर्मशास्त्रों के बाद वैमानिक कला का यह प्रतीकात्मक शिल्पांकन निश्चित रूप से प्राचीनकाल में वैमानिक ज्ञान की परम्परा का घोतक है।


बदलती फिल्मी दुनिया


जिन्दगी का साज भी क्या साज है, बज रहा है और बेआवाज है...
'जागृति' जैसी बच्चों की फिल्म अब कौन बनाता है। आओ बच्चों तुम्हें दिखायें झांकी हिन्दुस्तान की ... ने इस फिल्म को अमर कर दिया। राजकपूर की 'आवारा' ने दिखाया है कि बढ़ते बच्चे पर वातावरण का  वंशानुक्रम से ज्यादा असर पड़ता है।
- अरुण कुमार शिवपुरी
हिन्दी सिनेमा ने समाज को बदला है या समाज की छिपी भावनाओं को सिनेमा ने उभारा है, यह कहना मुश्किल है। दादा साहब फाल्के के वक्त से अब तक हिन्दी सिनेमा ने काफी लम्बा सफर तय किया है। इसमें चोटी के कलाकारों, निर्माता निर्देशकों व संगीतकारों का बड़ा हाथ रहा है। मूक फिल्मों के दौर से निकलकर हमने बहुत तकनीकी ऊंचाईयों को छुआ है। आजकल की फोटोग्राफी, लोकेशन और रंग आपको दूसरी दुनिया में ले जाते हैं। लेकिन वहीं कला की बारीकियों में धीरे-धीरे गिरावट देखी गई है।
आपको मालूम होगा कि मीनाकुमारी का असली नाम माहजबीं था यानि चान्द की मुस्कराहट। उनकी अभिनीत फिल्में किसको नहीं याद हैं? बिमल मित्र लिखित 'साहिब बीबी और गुलाम' फसाने पर गुरुदत्त ने यादगार फिल्म बनाई। उसमें जहां गुलाम की वफा व कौतुहल दिखाया था, वहीं छोटी बहू के किरदार को मीनाकुमारी ने जिस ऊंचाई पे पहुंचा दिया शायद ही उस तक कोई पहुंच पाये। यह इन कलाकारों की कड़ी मेहनत, लगन व समझ को दर्शाता है। गुरुदत्त ने बहुत ही बीरीकी से उस समय के बंगाल के जमींदार परिवार की जीवनशैली, ठाट-बाट व अधोपतन को दिखाया है। तिजोरी का खाली दिखना, मीनाकुमारी का अपने पति की मंगल कामना के लिए फि़टन पर बैठकर गुलाम के संग जाना व उसका अन्त तथा रहमान व सप्रू की एक्टिंग गजब की है। अबरार अल्वी के डायलॉग ने फिल्म को अमर बना दिया।
एक लम्बा अर्सा गुजर जाने पर भी अनेक फिल्में हमारे दिलो दिमाग पर अभी भी छाई हुई हैं। विमल राय की देवदास, मधुमती, दो बीघा जमीन, महबूब खां  की अमर, मदर इंडिया, कमाल अमरोही की महल व पकीजा, गुरुदत्त  की कागज के फूल, प्यासा, मिस्टर एंड मिसेज 55, चौदवीं का चांद, राजकपूर की आवारा व श्री 420, के.आसिफ की मुगले आजम, वी शांताराम की दो आंखें बारह हाथ, सुबह का तारा, सत्यजीत रे की मुंशी प्रेमचंद की कथा पर बनी मार्मिक सद्गति आदि मील के पत्थर हैं।
 'बैजू बावरा' के मीनाकुमारी व भारत भूषण, उसका संगीत,  'शबाब' में नूतन का यौवन व सौन्दर्य साथ में भारत भूषण, सोहराब मोदी की  'मिर्जा गालिब'  में सुरैय्या व गालिब के किरदार में भारत भूषण,  'शिकस्त' की नलिनी जयवन्त जमीदारनी की भूमिका में व अशोक कुमार  'अलबेला'  का मनमोहने वाला संगीत गीताबाली की खूबसूरती, और भगवान का रोल,  'खूबसूरत' की दीना पाठक, अनारकली का संगीत व बीनाराय,  'सिकन्दर' के सोहराब मोदी व पृथ्वीराज कपूर बेजोड़ हैं। परिणीता (मीनाकुमारी, अशोक कुमार) तीसरी कसम, जुनून, त्यागपत्र, मुझे जीने दो, अमानुष, नमक हराम, कोरा कागज, चश्मे बद्दूर, जाने भी दो यारो, सारांश, गुमराह... आदि नामी फिल्में थीं।
बिमल राय की  'देवदास'  में दिलीप कुमार ने देवदास, वैजयन्तीमाला ने नर्तकी चन्द्रमुखी, मोतीलाल ने चुन्नी बाबू व सुचित्रा सेन ने पारो का अभिनय जिस खूबसूरती से किया है वह आप शायद ही किसी फिल्म में अब देख पाएं। आज के कलाकारों ने जब वह जीवन ही नहीं देखा, न वैसी तालीम पाई, तो उसको सुनना, समझना व पेश करना उनके लिए बड़ा मुश्किल है।
फातिमा कनीज, जो फिल्मों में नरगिस के नाम से आईं ने  'मदर इंडिया' में अभिनय कर के दिखा दिया कि वे कला में कितनी पारंगत हैं। उनके जैसा अभिनय शायद ही कोई कर पाता। 'किस्मत' में अशोक कुमार कितने चपल व सुन्दर हैं, वहीं 'महल' में मधुबाला वीनस नजर आती हैं। इस फिल्म में लता मंगेश्कर का गाया गाना आयेगा आने वाला... दीपक बगैर कैसे परवाने जल रहे हैं ... को अभी भी कोई भूला नहीं हैं। 'महल' में असली कथक को दिखाया गया है जिसको समझने वाले अब कम ही हैं।
मिर्जा हादी रूसवा के उपन्यास पर बनी फिल्म 'उमराव जान' में मुजफ्फर अली ने उन्नीसवींसदी के अवध को बहुत सुन्दरता से उतार कर रख दिया। बंगला (फैजाबाद) की अमीरन का सफर किस- किस दौर से गुजरा, उसने अपनी जईफी में लखनऊ के चौक में खुद, रूसवा को जबानी सुनाया था। मुजफ्फर अली ने अवध के रहन-सहन, नजाकत-नफासत व महफिलो को बहुत क्लासिकल अंदाज से आपके सामने पेश किया। इन फिल्मों में जीवन की वास्तविकता को दिखाया जाता था, खूबसूरत चित्रण था व शिक्षा भी मिलती थी।
'मुगले आजम' में पृथ्वीराज कपूर ने दिखा दिया कि अकबर की भूमिका के लायक उनसे बढ़कर किसी और का होना मुश्किल है। 'पाकीजा' को राजकुमार, मीनाकुमारी व वीना ने यादगार बना दिया। कमाल अमरोही ने इस फिल्म में रुहेलखण्ड के चूड़ीदार पजामा कुत्र्ता, वहां के रहन- सहन व तवायफ की दुनिया को बेजोड़ ढंग से दर्शकों के सामने पेश किया है। इन्हीं लोगों ने ले लीन्हा दुपट्टा मोरा ... व ठाड़े रहियो ... अब आपको आजकल की फिल्मों में नहीं मिलेगा।
'जागृति' जैसी बच्चों की फिल्म अब कौन बनाता है। आओ बच्चों तुम्हें दिखायें झांकी हिन्दुस्तान की ... ने इस फिल्म को अमर कर दिया। राजकपूर की 'आवारा' ने दिखाया है कि बढ़ते बच्चे पर वातावरण का वंशानुक्रम से ज्यादा असर पड़ता है। 'श्री 420' का रिमझिम बारिश में छाता लिए नर्गिस व राजकपूर पर फिल्माया गाना प्यार हुआ इकरार हुआ .... आपको रोमान्स की खूबसूरत दुनिया में ले जाता है पर उसमें आप नग्नता को कही नहीं पायेंगे।
शैलेन्द्र, शकील बदायूंनी, मजरूह सुल्तानपुरी, साहिर लुधियानवी, हसरत जयपुरी व जां निसार अख्तर जैसे मशहूर कवि शायर अब कहां हैं? उनके गीतों, गजलों के मतलब होते थे। नौशाद, सी. रामचंद्र (चितलकर) खेमचन्द्र प्रकाश, खय्याम, ओपी नैय्यर, शंकर जयकिशन व एसडी बर्मन का संगीत सर चढ़कर बोलता था। गीता दत्त (राय) व मुकेश के गानों का दर्द अनूठा था। कुन्दन लाल सहगल के गाये गीत, भजन, गजल अपना सानी नहीं रखते। सहगल का गाया फिल्म 'देवदास' का गीत बालम आय बसो मेरे मन में ... या फिल्म 'स्ट्रीट सिंगर' के लिए गाया गीत बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाय ... प्रमाण है सहगल की उस गायन प्रतिभा के  जिसने उनके गाये प्रत्येक गीत गजल को अविस्मरणीय बना दिया।
तलत महमूह की रेशमी आवाज, मुहम्मद रफी ने बहुत खूबसूरत भजन भी गाये वे बुलंद आवाज के मालिक थे। जोहरा बाई अम्बाले वाली, कानन बाला/ देवी, राजकुमारी, उमा देवी, अमीर बाई कर्नाटकी, शमशाद बेगम, सुरैय्या, मुबारक बेगम अब अतीत के होके रह गये पर लोग उन्हें भुला न पाये। इसी तरह लता मंगेश्कर के शुरुआती दौर के फिल्मी गाने बहुत मधुर थे। उनका गाया 'अमर' का गीत चलो अच्छा हुआ अपनो में कोई गैर तो निकला, अगर अपने ही होते सब, तो बेगाने कहां जाते.... अब आपको फिल्मों में नहीं मिलेगा।
पर अब गाने फास्ट बीट और साजों की तेज आवाज पर चलते हैं। नृत्य में भी हिन्दुस्तानी परंपरा तहजीब व कला का अभाव होता है। इसमें कोई गहराई नहीं होती। गीतों के कोई खास मायने भी नहीं होते, वे तुकबन्दी बन कर रह गये हैं। सांवरियां फिल्म में नायक को टॉवेल में दिखाया गया है। आजकल नायकों के शरीर को दिखाना एक आम बात सी हो गई है। फिल्मों में जिस्म को उघाढ़ कर दर्शकों के मन को खींचने की कोशिश की जाती है। अब फिल्में ग्लैमर का सहारा लेती हैं। आपको आस्ट्रेलिया, वेल्स, न्यूजीलैंड, नामीबिया की सैर कराई जाती है। अब फिल्मों में एक्शन ज्यादा व अभिनय की गहराई कम देखने को मिलती है। फिल्मी संवाद भी सभ्रान्त नहीं रह गये। बाजारू व चालू भाषा का प्रयोग कर आपको लुभाने की कोशिश की जाती है। जीवन की असलियत को बताने वाला गाना जिन्दगी का साज भी क्या साज है, बज रहा है और बेआवाज है... जो नसीम बानू ने फिल्म पुकार में गाया को सुनने, समझने वाले गिनती के मिलेंगे। तलफ्फुज (उच्चारण) को भी अब कुछ खास महत्व नहीं दिया जाता। आज की दुनिया में धनोपार्जन का अव्वल स्थान है, कला दोयम दर्जे पर पीछे हो गई हैं।

कालजयी कहानियाँ

गिरगिट
-  अन्तोन चेखव
आंतोन पावलोविच चेखव विश्व के महान रूसी कथाकार और नाटककार थे। उनका जन्म दक्षिण रूस के टगनरोग में 29 जनवरी 1860 को हुआ और उनकी मृत्यु तपेदिक के कारण 15 जुलाई 1904 को हुई। अपने छोटे से साहित्यिक जीवन में उन्होंने रूसी भाषा को चार कालजयी नाटक दिए जबकि उनकी कहानियाँ विश्व के समीक्षकों और आलोचकों में बहुत सम्मान के साथ सराही जाती हैं। चेखव अपने साहित्यिक जीवन के दिनों में ज़्यादातर चिकित्सक के व्यवसाय में लगे रहे। वे कहा करते थे कि चिकित्सा मेरी धर्मपत्नी है और साहित्य प्रेमिका। छोटी कहानियों की शृंखला में प्रस्तुत है चेखव की एक बहुचर्चित कहानी 'गिरगिट' का अनुवाद।
पुलिस का दारोगा ओचुमेलोव नया ओवरकोट पहने, बगल में एक बण्डल दबाये बाजार के चौक से गुजर रहा था। उसके पीछे-पीछे लाल बालों वाला पुलिस का एक सिपाही हाथ में एक टोकरी लिये लपका चला आ रहा था। टोकरी जब्त की गई झडग़रियों से ऊपर तक भरी हुई थी। चारों ओर खामोशी। ...चौक में एक भी आदमी नहीं। ....भूखे लोगों की तरह दुकानों और शराबखानों के खुले हुए दरवाजे ईश्वर की सृष्टि को उदासी भरी निगाहों से ताक रहे थे, यहां तक कि कोई भिखारी भी आसपास दिखायी नहीं देता था।
'अच्छा! तो तू काटेगा? शैतान कहीं का!' ओचुमेलोव के कानों में सहसा यह आवाज आयी, 'पकड़ तो लो, छोकड़ो! जाने न पाये! अब तो काटना मना हो गया है! पकड़ लो! आ...आह!'
कुत्ते की पैं-पैं की आवाज सुनायी दी। आचुमेलोव ने मुड़कर देखा कि व्यापारी पिचूगिन की लकड़ी की टाल में से एक कुत्ता तीन टांगों से भागता हुआ चला आ रहा है। कलफदार छपी हुई कमीज पहने, वास्कट के बटन खोले एक आदमी उसका पीछा कर रहा है। वह कुत्ते के पीछे लपका और उसे पकडऩे की कोशिश में गिरते- गिरते भी कुत्ते की पिछली टांग पकड़ ली। कुत्ते की पैं-पैं और वही चीख, 'जाने न पाये!' दोबारा सुनाई दी। ऊंघते हुए लोग दुकानों से बाहर गरदनें निकालकर देखने लगे, और देखते-देखते एक भीड़ टाल के पास जमा हो गयी, मानो जमीन फाड़कर निकल आयी हो।
'हुजूर! मालूम पड़ता है कि कुछ झगड़ा-फसाद हो रहा है!' सिपाही बोला।
आचुमेलोव बाईं ओर मुड़ा और भीड़ की तरफ चल दिया। उसने देखा कि टाल के फाटक पर वही आदमी     खड़ा है। उसकी वास्कट के बटन खुले हुए थे। वह अपना दाहिना हाथ ऊपर उठाये, भीड़ को अपनी लहूलुहान उंगली दिखा रहा था। लगता था कि उसके नशीले चेहरे पर साफ लिखा हुआ हो 'अरे बदमाश!' और उसकी उंगली जीत का झंडा है। आचुमेलोव ने इस व्यक्ति को पहचान लिया। यह सुनार खूकिन था। भीड़ के बाचों- बीच अगली टांगे फैलाये अपराधी, सफेद ग्रे हाउंड का पिल्ला, छिपा पड़ा, ऊपर से नीचे तक कांप रहा था। उसका मुंह नुकिला था और पीठ पर पीला दाग था। उसकी आंसू- भरी आंखों में मुसीबत और डर की छाप थी।
'यह क्या हंगामा मचा रखा है यहां?' आचुमलोव ने कंधों से भीड़ को चीरते हुए सवाल किया। 'यह उंगली क्यों ऊपर उठाये हो? कौन चिल्ला रहा था?'
'हुजूर! मैं चुपचाप अपनी राह जा रहा था, बिल्कुल गाय की तरह,' खूकिन ने अपने मुंह पर हाथ रखकर, खांसते हुए कहना शुरू किया, 'मिस्त्री मित्रिच से मुझे लकड़ी के बारे में कुछ काम था। एकाएक, न जाने क्यों, इस बदमाश ने मेरी उंगली में काट लिया। ..हुजूर माफ करें, पर मैं कामकाजी आदमी ठहरा, ... और फिर हमारा काम भी बड़ा पेचिदा है। एक हफ्ते तक शायद मेरी उंगुली काम के लायक न हो पायेगी। मुझे हरजाना दिलवा दीजिए। और हुजूर, कानून में भी कहीं नहीं लिखा है कि
 हम जानवरों को चुपचाप बरदाश्त करते रहें। ..अगर सभी ऐसे ही काटने लगें, तब तो जीना दूभर हो जायेगा।'
'हुंह..अच्छा..' ओचुमेलाव ने गला साफ करके, त्योरियां चढ़ाते हुए कहा, 'ठीक है। ...अच्छा, यह कुत्ता है किसका? मैं इस मामले को यहीं नहीं छोडूंगा! कुत्तों को खुला छोड़ रखने के लिए मैं इन लोगों को मजा चखाउंगा! जो लोग कानून के अनुसार नहीं चलते, उनके साथ अब सख्ती से पेश आना पड़ेगा! ऐसा जुर्माना ठोकूंगा कि छठी का दूध याद आ जायेगा। बदमाश कहीं के! मैं अच्छी तरह सिखा दूंगा कि कुत्तों और हर तरह के ढोर-डगार को ऐसे छुट्टा छोड़ देने का क्या मतलब है! मैं उसकी अकल दुरुस्त कर दूंगा, येल्दीरिन!'
सिपाही को संबोधित कर दरोगा चिल्लाया, 'पता लगाओ कि यह कुत्ता है किसका, और रिपोर्ट तैयार करो! कुत्ते को फौरन मरवा दो! यह शायद पागल होगा। .....मैं पूछता हूं, यह कुत्ता किसका है?'
'शायद जनरल जिगालोव का हो!' भीड़ में से किसी ने कहा।
'जनरल जिगालोव का? हुंह...येल्दीरिन, जरा मेरा कोट तो उतारना। ओफ, बड़ी गरमी है। ...मालूम पड़ता है कि बारिश होगी। अच्छा, एक बात मेरी समझ में नहीं आती कि इसने तुम्हें काटा कैसे?' ओचुमेलोव खूकिन की ओर मुड़ा, 'यह तुम्हारी उंगली तक पहुंचा कैसे? ठहरा छोटा- सा और तुम हो पूरे लम्बे- चौड़े। किसी कील-वील से उंगली छी ली होगी और सोचा होगा कि कुत्ते के सिर मढ़कर हर्जाना वसूल कर लो। मैं खूब समझता हूं! तुम्हारे जैसे बदमाशों की तो मैं नस-नस पहचानता हूं!'
'इसने उसके मुंह पर जलती सिगरेट लगा दी थी, हुजूर! यूं ही मजाक में और यह कुत्ता बेवकूफ तो है नहीं, उसने काट लिया। यह शख्स बड़ा फिरती है, हुजूर!'
'अबे! झूठ क्यों बोलता है? जब तूने देखा नहीं, तो गप्प क्यों मारता है? और सरकार तो खुद समझदार हैं। वह जानते हैं कि कौन झूठा है और कौन सच्चा। खुद मेरा भाई पुलिस में है। ..बताये देता हूं....हां....'
'बंद करो यह बकवास!'
'नहीं, यह जनरल साहब का कुत्ता नहीं है,' सिपाही ने गंभीरता पूर्वक कहा, 'उनके पास ऐसा कोई कुत्ता है ही नहीं, उनके तो सभी कुत्ते शिकारी पौण्डर हैं।'
'तुम्हें ठीक मालूम है?'
'जी सरकार।'
'मैं भी जनता हूं। जनरल साहब के सब कुत्ते अच्छी नस्ल के हैं, एक- से- एक कीमती कुत्ता है उनके पास। और यह! तो बिल्कुल ऐसा- वैसा ही है, देखो न! बिल्कुल मरियल है। कौन रखेगा ऐसा कुत्ता? तुम लोगों का दिमाग तो खराब नहीं हुआ? अगर ऐसा कुत्ता मास्का या पीटर्सबर्ग में दिखाई दे तो जानते हो क्या होगा? कानून की परवा किये बिना, एक मिनट में उससे छुट्टी पा ली जाये! खूकिन! तुम्हें चोट लगी है। तुम इस मामले को यों ही मत टालो। ...इन लोगों को मजा चखाना चाहिए! ऐसे काम नहीं चलेगा।'
'लेकिन मुमकिन है, यह जनरल साहब का ही हो,' सिपाही बड़बड़ाया, 'इसके माथे पर तो लिखा नहीं है। जनरल साहब के अहाते में मैंने कल बिल्कुल ऐसा ही कुत्ता देखा था।'
'हां-हां, जनरल साहब का तो है ही!' भीड़ में से किसी की आवाज आयी।
'हूंह। ...येल्दीरिन, जरा मुझे कोट तो पहना दो। अभी हवा का एक झोंका आया था, मुझे सरदी लग रही है। कुत्ते को जनरल साहब के यहां ले जाओ और वहां मालूम करो। कह देना कि मैंने इसे सड़क पर देखा था और वापस भिजवाया है। और हां, देखो, यह कह देना कि इसे सड़क पर न निकलने दिया करें। मालूम नहीं, कितना कीमती कुत्ता हो और अगर हर बदमाश इसके मुंह में सिगरेट घुसेड़ता रहा तो कुत्ता बहुत जल्दी तबाह हो जायेगा। कुत्ता बहुत नाजुक जानवर होता है। और तू हाथ नीचा कर, गधा कहीं का! अपनी गन्दी उंगली क्यों दिखा रहा है? सारा कुसूर तेरा ही है।'
'यह जनरल साहब का बावर्ची आ रहा है, उससे पूछ लिया जाये। ...ऐ प्रोखोर! जरा इधर तो आना, भाई! इस कुत्ते को देखना, तुम्हारे यहां का तो नहीं है?'
'वाह! हमारे यहां कभी भी ऐसा कुत्ता नहीं था!'
'इसमें पूछने की क्या बात थी? बेकार वक्त खराब करना है, ' ओचुमेलोव ने कहा, 'आवारा कुत्ता यहां खड़े-खड़े इसके बारे में बात करना समय बरबाद करना है। तुमसे कहा गया है कि आवारा है तो आवारा ही समझो। मार डालो और छुट्टी पाओ?
'हमारा तो नहीं है,' प्रोखोर ने फिर आगे कहा, 'यह जनरल साहब के भाई का कुत्ता है। हमारे जनरल साहब को ग्राउंड के कुत्तों में कोई दिलचस्पी नहीं है, पर उनके भाई साहब को यह नस्ल पसन्द है।'
'क्या? जनरल साहब के भाई आये हैं? ब्लादीमिर इवानिच?' अचम्भे से ओचुमेलोव बोल उठा, उसका चेहरा आह्वाद से चमक उठा। 'जरा सोचो तो! मुझे मालूम भी नहीं! अभी ठहरेंगे क्या?'
'हां।'
'वाह जी वाह! वह अपने भाई से मिलने आये और मुझे मालूम भी नहीं कि वह आये हैं! तो यह उनका कुत्ता है? बहुत खुशी की बात है। इसे ले जाओ। कैसा प्यारा नन्हा- सा मुन्ना- सा कुत्ता है। इसकी उंगली पर झपटा था! बस-बस, अब कांपो मत। गुर्र...गुर्र...शैतान गुस्से में है... कितना बढिय़ा पिल्ला है!
प्रोखोर ने कुत्ते को बुलाया और उसे अपने साथ लेकर टाल से चल दिया। भीड़ खूकिन पर हंसने लगी।
'मैं तुझे ठीक कर दूंगा।' ओचुमेलोव ने उसे धमकाया और अपना लबादा लपेटता हुआ बाजार के चौक के बीच अपने रास्ते चला गया।

शिक्षकों के लिए एक मंच

यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि शिक्षक हमारी शिक्षा व्यवस्था के हृदय हैं। शिक्षा को अगर बेहतर बनाना है तो शिक्षण विधियों के साथ-साथ शिक्षकों को भी इस हेतु पेशवर रूप से सक्षम तथा बौद्धिक रूप से सम्पन्न बनाए जाने की जरूरत है।
इसके लिए हर स्तर पर तरह-तरह के प्रयास किए जा रहे हैं। टीचर्स आफ इंडिया पोर्टल ऐसा ही एक प्रयास है। तेजी से बदलती और विकसित होती दुनिया में कम्प्यूटर तकनॉलॉजी हमारे जीवन के हर क्षेत्र में प्रवेश कर गई है। शिक्षा का क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं है। पोर्टल इस तकनॉलॉजी पर ही आधारित है। इसीलिए इसे शिक्षकों के लिए ई-मंच भी कहा जा रहा है। गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा की प्राप्ति के लिए कार्यरत अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन (एपीएफ) ने इसकी पहल की है। महामहिम राष्ट्रपति महोदया श्रीमती प्रतिभा पाटिल ने वर्ष 2008 में शिक्षक दिवस पर इसका शुभांरभ किया था। पोर्टल राष्ट्रीय  ज्ञान आयोग द्वारा समर्थित  है। इसे आप  www.teachersofindia.org पर देख सकते हैं। यह नि:शुल्क है। अभी यह हिन्दी,कन्नड़, तमिल, तेलुगू, मराठी, उडिय़ा, गुजराती तथा अंग्रेजी भाषाओं में है। कोशिश है कि यह सभी मुख्य भारतीय भाषाओं में उपलब्ध हो।   
क्या है पोर्टल !
Teachers of India शिक्षकों के लिए ऐसी जगह है जहां वे अपनी पेशेवर क्षमताओं को बढ़ा सकते हैं। पोर्टल शिक्षकों के लिए-
* एक ऐसा मंच प्रदान करता है, जहां वे विभिन्न विषयों, भाषाओं और राज्यों के शिक्षकों से संवाद कर सकते हैं। Teachers of India शिक्षकों को अपने मत अभिव्यक्त करने के लिए मंच देता है। शिक्षक अपने शैक्षणिक जीवन के किसी भी विषय पर अपने विचार पोर्टल पर रख सकते हैं। 
* ऐसे मौके उपलब्ध कराता है, जिससे वे देश भर के शिक्षकों के साथ विभिन्न शैक्षणिक विधियों और उनके विभिन्न पहुलओं पर अपने विचारों, अनुभवों का आदान-प्रदान कर सकते हैं। वे पोर्टल के लिए लिख सकते हैं। यह लेखन शिक्षण विधियों, स्कूल के अनुभवों, आजमाए गए शैक्षिक नवाचारों या नए विचारों के बारे में हो सकता है।
* दुनिया भर से विभिन्न शैक्षिक नवाचार, शिक्षा से सम्बंधित जानकारियां और उनके स्रोत भारतीय भाषाओं में उन तक लाता है। विभिन्न शैक्षिक विषयों, मुद्दों पर लेख, शिक्षानीतियों से सम्बंधित दस्तावेज, शैक्षणिक निर्देशिकाएं, माडॅयूल्स आदि पोर्टल से सीधे या विभिन्न लिंक के माध्यम से प्राप्त किए जा सकते हैं। पोर्टल पर एक ऐसी डायरेक्टरी भी है जो शिक्षा के विभिन्न क्षेत्रों में काम कर रही संस्थाओं की जानकारी देती है।          
* शिक्षक पोर्टल के विभिन्न स्तम्भों के माध्यम से पोर्टल पर भागीदारी कर सकते हैं। 
क्या है पोर्टल में !
पोर्टल पर शिक्षा परिप्रेक्ष्य, शिक्षानीति, कक्षा अभ्यास तथा विषय शीर्षकों के अंतर्गत सामग्री प्रस्तुत की जा रही ही। माह के शिक्षक पोर्टल का एक विशेष फीचर है। इसमें हम ऐसे शिक्षकों को सामने ला रहे हैं, जिन्होंने अपने उल्लेखनीय शैक्षणिक काम की बदौलत न केवल स्कूल को नई दिशा दी है, वरन समुदाय के बीच शिक्षक की छवि को सही मायने में स्थापित किया है। प्रश्नकाल में शिक्षक शिक्षा से संबंधित अपने सवाल पूछ सकते हैं। इस स्तम्भ की खास बात यह है कि अगर पूछे गए प्रश्न का जवाब किसी शिक्षक को आता है तो वह भी जवाब दे सकता है। स्टाफ रूम में अपने हमख्याल शिक्षकों से चर्चा की जा सकती है। फोटो एलबम शिक्षकों की गतिविधियों को दृश्य रूप में सबके सामने रखने का मौका देता है। भविष्य में पोर्टल पर कक्षा गतिविधियों के वीडियो प्रस्तुत करने की योजना भी है।         
किसके लिए है पोर्टल !     
निसंदेह पोर्टल शिक्षकों का मंच है। शिक्षकों का अर्थ है- वे जो स्कूल में पढ़ा रहे हैं, वे जो भविष्य के शिक्षक हैं, वे जो शिक्षकों को तैयार कर रहें हैं- यानी शिक्षक अध्यापक। पोर्टल इन सबके लिए तो है ही । शिक्षक-शिक्षा में संलग्न संस्थाएं, शिक्षा विभाग, स्कूल शिक्षा के प्रशासक और विश्वविद्यालयों से भी पोर्टल का उतना ही सरोकार है। पोर्टल का उद्देश्य तभी पूरा हो सकता है जब अधिक-से-अधिक शिक्षक उसमें भागीदारी करें।
कैसे  जुड़ें पोर्टल से !
यह तो स्पष्ट ही है  कि पोर्टल से जुडऩे  के लिए कम्प्यूटर तकनॉलॉजी का न्यूनतम व्यवहारिक ज्ञान होना जरूरी है। साथ ही चाहिए इंटरनेट सुविधा। यह घर, स्कूल, शिक्षा संस्थाओं या सायबर कैफे कहीं भी हो सकती है।  इसके लिए व्यक्तिगत प्रयास तो करने ही होंगे, साथ ही विभिन्न संस्थाओं को भी आगे आना होगा। हम चाहते हैं कि वे सब पोर्टल के साथ एक जीवंत रिश्ता बनाएं जो शिक्षकों से किसी न किसी रूप में जुड़े हैं।
पोर्टल की योजना यह भी है कि हर राज्य और भाषा में शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रही स्थानीय संस्थाओं के साथ पोर्टल का जीवंत रिश्ता बनाया जाए। संस्थाओं से निम्न न्यूनतम अपेक्षाएं होंगी-
* पोर्टल के लिए उर्जावान स्रोत शिक्षकों की पहचान करना। उनके साथ क्षेत्रीय भाषा में सामग्री तैयार करने के  लिए विभिन्न विषयों पर कार्यशाला आयोजित करना।  तैयार सामग्री की साफ्ट  कॉपी बनाना। शिक्षकों से लेख  आदि एकत्रित करना। इन लेखों को यूनिकोड में  बदलकर पोर्टल में प्रकाशन  के लिए भेजना।    
* अपने इलाके में शिक्षा में आजमाई जा रही शिक्षण विधियों, नवाचारों की पहचान करना तथा उनके बारे में इस दृष्टि से लिखना, लिखवाना कि उसका लाभ अन्य शिक्षक उठा सकें।
* शिक्षकों के लिए अपनी संस्था में भौतिक रूप से जगह तथा कम्प्यूटर आदि उपकरण उपलब्ध कराना ताकि वे पोर्टल में योगदान दे सकें।
* पोर्टल के लिए शिक्षकों का रजिस्ट्रेशन करना। कम्प्यूटर तथा इंटरनेट तकनॉलॉजी के उपयोग में शिक्षकों की सहायता करना।
यदि आप किसी भी रूप में पोर्टल से जुडऩा चाहते हैं, और पोर्टल के साथ मिलकर रचनात्मक काम करना चाहते हैं तो कृपया हमें लिखें या ईमेल करें। आपका स्वागत है। 

अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन
#134, डूड्डाकन्नेली, विप्रो कारपोरेट ऑफिस के बाजू में,         
सरजापुर रोड, बंगलौर 560 035.
Email: teachers@azimpremjifoundation.org

शहर में


निलंबित डॉट कॉम

निलंबित डॉट कॉम
- गिरीश पंकज
हमारे साथ सरकार ने अन्याय किया है। क्या एक हमीं हैं, जो गलत काम करते हैं? और भी कई लोग भ्रष्टाचार कर रहे हैं, जिन्हें 'सस्पेंड' किया जाना था, लेकिन गाज गिरी हमारे ऊपर।
चार निलंबित जन सिर पर हाथ धरे गंभीर मुद्रा में बैठे हुए थे। बाद में प्राणायाम में रत हो गए।
एक बेचारा मर्मभेदी स्वर में पुराना फिल्मी गीत गाए जा रहा था, 'इस भरी दुनिया में कोई भी हमारा न हुआ। गैर तो गैर थे अपनो का सहारा न हुआ'। दूसरा मन को मजबूत करने के लिए अनुलोम-विलोम कर रहा था, तीसरा कपालभाती में भिड़ा था। चौथा भ्रामरी कर रहा था। दरअसल हरिद्वार से आए किसी महात्मा ने बता दिया था, कि चित्त की शांति के लिए प्राणायाम कर लिया करो। इससे निलंबन का दु:ख भी कुछ कम हो जाएगा।
काफी देर तक सिर झुकाए रहने के बाद एक ने सिर उठाकर कहा- 'हमारे साथ सरकार ने अन्याय किया है। क्या एक हमीं हैं, जो गलत काम करते हैं? और भी कई लोग भ्रष्टाचार कर रहे हैं, जिन्हें 'सस्पेंड' किया जाना था, लेकिन गाज गिरी हमारे ऊपर। मैं समझ नहीं पाता कि आखिर सरकार छापामार कार्रवाई काय कूं करती है? हमें मौका दिया है तो क्या उसका लाभ भी न उठाएं? हर कोई सरकारी नौकरी में माल सरकाने की नीयत से ही तो आता है न।'
दूसरा निलंबित होने के बाद कुछ- कुछ दार्शनिक किस्म का हो गया था। किसी पुराने निलंबित अधिकारी से मिलिए, तो वह दार्शनिक जैसा व्यवहार करता है। लोग उसे पागल भी समझते हैं, लेकिन वह निलंबन के कारण चिंतक हो जाता है। ज्ञानचक्षु खुल-से जाते हैं। दार्शनिक बने निलंबित अधिकारी ने कहा-
'हां भई, आप ठीक कहते हैं। लेकिन कहा गया है न कि जब ससुरे बुरे दिन आते हैं तो वे मोबाइल या एसएमएस करके नहीं आते कि भैये, अब हम तुम्हारे पास पहुंचने वाले हैं। वैसे सच पूछा जाए तो हमने न जाने कितने लोगों का बुरा ही किया। अब, जब अपनी बारी आई है तो निलंबित होने का खिताब पाने का दु:ख क्यों करें? हाय, दु:खी हो कर मेरे भीतर से अचानक एक कविता भी फूट पड़ी है, सुन लो-
दोस्त, रिश्तेदार सारे सब अचंभित हो गए।
हम बड़े ही धार्मिक थे, क्यों निलंबित हो गए।
तीर्थयात्रा और फारेन-टूर का प्रोग्राम था,
हम निलंबित क्या हुए प्रोग्राम लंबित हो गए'
दूसरे ने तीसरे से पूछा- 'अच्छा प्रियतम जी, आप किस आरोप में निलंबित हुए थे?'
प्रियतम जी के चेहरे पर हल्की- सी मुस्कान तैर गई, वे बोले, 'मैं तो अपनी 'पीए' के साथ मटरगश्ती करने के कारण निलंबित कर दिया गया। जैसा हर कोई करता रहता है... और जानते हैं, सबसे दुखद पहलू क्या था?'
सारे निलंबितों ने एक स्वर में पूछा- 'वो क्या था?'
'वो ये था कि मेरी बीवी को पता चल गया, कि मैं पीए के साथ ज्यादा व्यस्त और मस्त रहने लगा हूं। बस, वह त्रस्त हो गई। उसने बड़े बॉस को शिकायत कर दी। तब से लेकर अब तक निलंबित हूं। पीए के गम आजकल 'पिये' रहता हूं।
अच्छा, आप क्यों 'सस्पेंड' हुए साहब?'
'मेरे सस्पेंड होने के पीछे इतना रूमानी कारण नहीं था।' पाकिटप्रसाद ने प्रियतम जी को जवाब दिया, 'मैं तो रिश्वतखोरी करते हुए रंगे हाथों पकड़ा गया था। देखो न, कितना बुरा समय आ गया है। अगले को अपना काम करवाना था। तुम तो जानते हो, हम बिना घूस-वूस खाए कभी काम नहीं करते, सो हमने कहा- 'पांच हजार लूंगा'।
उसने भी कह दिया कि कल ग्यारह बजे ले आऊंगा। हम दूसरे दिन उसका इंतजार करते बैठे रहे। वह ठीक ग्यारह बजे आ धमका और मुझे पांच हजार थमा दिए। रुपए हाथ में लेकर अपनी तिजोरी की तरफ मुड़ा ही था कि चार लोग यमदूत की तरह तेजी के साथ घर में घुसे और मुझे पकड़ लिया। ये लोग सतर्कता विभाग के थे। उन्होंने मेरा हाथ धुलवाया तो मेरे हाथों में रंग था, जो उन्होंने रिश्वत वाले नोट में लगाया था। इस तरह उन्होंने मुझे रंगे हाथों पकड़ लिया। शिकायत हुई। जांच होने लगी और मुझे निलंबित कर दिया गया। एक साल हो गए हैं। निलंबित सिंह बना हुआ हूं। किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहा। जो भी मिलता है, यही पूछता है, क्यों भाई आपके रंगे हाथों पकड़ाने वाला किस्सा क्या है, कुछ हमें भी तो सुनाइए न? हमारी जान चली गई और भाई लोगन को मजा आ रहा है। तो भइया, निलंबित क्या हुए, बाहर निकलने की हिम्मत नहीं होती।'
तीसरे जेलप्रसाद ने कहा- 'मैं भी तो रिश्वतखोरी के मामले में निलंबित हुआ था। अपने देश में ज्यादातर     निलंबन रिश्वत के मामले में ही होते हैं। तो भाई साहब, मैं आपको बताऊं , कि जब मैं टिम्बकटू में पोस्टेड था तो मानो स्वर्ग- लोक में पहुंच गया था। पैसा खुद चल के मेरे पास आता था और कहता था, कि 'सर प्लीज, कैच मी'। मैं कैच कर लेता था। घर आई लक्ष्मी को कौन ठुकराता है भला? लेकिन इस समाज के कुछ दुर्जन किस्म के लोगों से हमारा सुख न देखा गया और मेरे खिलाफ 'बदमाशों' ने शिकायतें शुरू कर दीं। आखिरकार मैं बारह के भाव में चला गया। साल भर हो गए निलंबन के। कोई ऊपरी कमाई नहीं। तनखाह भी कटकर मिल रही है। ये तो अच्छा हुआ कि हराम की कमाई का 'बैंक बैलेंस' जमा कर चुका था, वरना अपने जो शौक हैं, उनकी पूर्ति कैसे हो सकती थी?'
चौथे निलंबित काष्ठïकुमार छाती पीटते हुए कहा - 'मेरी कथा भी सुन लो भई। मेरे हाथ में तो पूरा जंगल था। जंगल में मंगल ही मंगल था। बस, एक दिन एक शैतान मन में आ बसा। गाय-बकरियों को घास-पत्ता चरते देखते रहता था। अपने मन में भी एक दिन विचार आया कि क्यों न अपन भी पूरा जंगल का जंगल चर जाएं। जो काम गाय कर सकती है वो मनुष्य क्यों नहीं कर सकता है? कुछ पाने के लिए त्याग तो करना ही होता है। बिना त्यागी बने, सुख नहीं मिलता। सो, मैंने भी अपने आदर्श का त्याग कर दिया और लगा जंगल खाने। उधर जंगल कम होता गया, इधर मेरी हवेली तनती गई। पैसा आता गया तो हम भी तनते गए। तनते- तनते एक समय ऐसा भी आया, जब मेरा घर एक दर्शनीय स्थल में तब्दील हो गया। लोग शहर आते तो लोगों से पूछते शहर के दर्शनीय स्थलों के  नाम बताइए। हर कोई मेरे महल का नाम बता देता। बस, नज़र लागी राजा तोरे बंगले पर। लोगों की नज़र लग गई। सरकार के दोनों कान भर दिए गए। और एक दिन घर पर जबर्दस्त छापा पड़ा और अपुन का काम हो गया। जंगल का अमंगल करने के चक्कर में हमहू निलंबित हो गए। कभी हम निलंबन आदेश को, कभी अपने महल को देखते हैं। जंगल साफ होने से बच चुका है। यही मेरा सबसे बड़ा दु:ख है। मूरख सरकार। झाड़-झंखाड़ का करेगी क्या? मुझे चरने देती, महल बनाने देती, लेकिन बड़ी क्रूरता के साथ मेरे ऐशोआराम के सारे सामान जब्त कर लिए गए। अब हम रात-रात भर जाग-जाग कर अपने निलंबन की वापसी का इंतजार करते हैं।'
चारों निलंबितों ने अपने-अपने ऐतिहासिक कारनामों के बारे में एक-दूसरे को ईमानदारी के साथ जानकारी दी। फिर एक-दूसरे के कंधों पर सिर रख कर कुछ देर तक आंसू बहाते रहे। चारों इस बात से सहमत थे कि भले ही हम लोग भ्रष्टाचार के मामले में पकड़े गए लेकिन पूरी कोशिश करेंगे कि हमारे प्यारे-प्यारे बच्चे न पकड़े जाएं। उन्हें समझाएंगे, कि रिश्वत कैसी ली जाए। 'मैं तो एक पुस्तक भी लिखने वाला हूं, कि रिश्वत से बचने के सौ टिप्स। इसे इंटरनेट पर भी डाल देंगे। तरह-तरह के काले कारनामों से कैसे बचें, इसके टिप्स भी अलग से दिए जाएंगे। हम अपनी गलतियों से सबक लेकर उनका भविष्य संवार सकते हैं। बिना रिश्वत के तो ऐश संभव नहीं। क्यों भई, कैसा है सुझाव?'
सबने एक स्वर में कहा-'बिल्कुल मस्त-मस्त।'
चारों निलंबितों ने कसम खाई कि हम अपने-अपने बच्चों को भ्रष्टïचार में ट्रेंड करेंगे ताकि वे रंगे हाथों न पकड़े जाएं और बेचारे हमारी तरह निलंबन का दुख न भोगें। अलबत्ता चंद सालों में ही इतना पैसा कमा लें कि बर्खास्त भी हो जाएं तो कोई फर्क न पड़े।
जेलप्रसाद ने एक और बढिय़ा सुझाव दिया- 'क्यों न हम लोग एक वेब साइट ही बना लें- निलंबित डॉट कॉम। इस साइट के माध्यम से हम दुनिया के तमाम निलंबितों को एकजुट करेंगे। अपन एक संगठन ही बना लेते हैं, 'निलंबित अधिकारी संघ'। जो कोई भी निलंबित हो, हम लोग उसकी मदद करें। रिश्वत लेते हुए पकड़े गए हैं, तो रिश्वत दे कर कैसे छूटें, इसकी टे्रनिंग दी जाए। अपन सरकार से मिलें और कहें, कि आप हमें निलंबित कर दें तो करें, लेकिन हमारे नाम अखबारों तक तो न पहुंचाएं। इमेज खराब होती है। मुंह दिखाने लायक नहीं रह जाते। अब उनकी बात और है जो बेशरमी के महाकाव्य को रटे हुए हैं। उनको कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन हमारे जैसे महान इज्जतदार लोगों को निलंबित हो कर कैसा-कैसा तो लगता है।'
सबको सुझाव पसंद आया। उन्होंने निर्णय किया कि कल ही सीएम से मिलेंगे, कि वे कुछ करें। सब के सब भयानक आशावादी होकर अपने- अपने घरों की ओर चल पड़े।
इस तरह वे चार निलंबित लोग बहुत सारे निलंबितों के प्रेरणास्रोत बन चुके थे।
संपर्क: जी-31, नया पंचशील नगर, रायपुर- 492001 (छत्तीसगढ़)।  मोबाइल : 94252 12720
व्यंग्यकार के बारे में ...
 गिरीश पंकज उन व्यंग्यकारों में से हैं जिन्होंने अपनी लेखकीय सक्रियता की शुरुआत पत्रकारिता से की है। व्यंग्यकार का पत्रकार होना उसकी लेखकीय प्रतिभा को अतिरिक्त ताप देता है। ऐसे लेखकों के पास पत्रकारिता की तीक्ष्ण दृष्टि और व्यंग्य की चटखारेदार शैली होती है। जिनकी रचनाएं सामयिक घटनाओं से प्रेरित होकर अपना अलग प्रभाव और वातावरण निर्मित कर लेती हैं। वैसे भी हिन्दी का समूचा व्यंग्य साहित्य पत्र- पत्रिकाओं से ही मुखरित होता आया है। व्यंग्य के अनेक लोकप्रिय कॉलम अखबारों, पत्रिकाओं में लिखे गए हैं। साहित्य में व्यंग्य ही एक ऐसी विधा है जिसकी स्थापना में अखबारों का बड़ा हाथ रहा है। कई व्यंग्यकार, पत्रकारिता जगत से स्थापित हुए हैं। इस पृष्ठभूमि ने गिरीश पंकज के लेखन को भी अपना समर्थन दिया है। वे छत्तीसगढ़ के विभिन्न पत्र समूहों से जुड़े हुए हैं। इन पत्र- पत्रिकाओं में निरंतर व्यंग्य और सामयिक मुद्दों पर लेखन में वे सक्रिय हैं। लेखक होने के अतिरिक्त वे एक सफल कार्यक्रम संयोजक भी हैं। वे 'सद्भावना दर्पण' नामक वैचारिक पत्रिका के संपादक हैं। उन्होंने व्यंग्य के अतिरिक्त उपन्यास लिखे हैं जो पुरस्कृत हुए हैं। गिरीश उन चुनिन्दा लेखकों में से हैं जो बाल साहित्य की सर्जना कर रहे हैं। बाल साहित्य पर उनकी पुस्तकें  प्रकाशित हुई हैं। यहां प्रस्तुत उनकी व्यंग्य रचना 'निलंबित डॉट कॉम' में देश को खोखला करने वाले रिश्तखोरों की टोह ली गई है। जिस कारण सरकारी महकमों में निलंबन होने का अभिशाप रोज के अखबारों में सुर्खियों पर होता है।
- विनोद साव