सूखे और महंगाई की मार झेल रहा हमारा देश इन दिनों एक और मार से त्रस्त है, और वह है सादगी की मार। कांग्रेस पार्टी ने अपने सभी जनप्रतिनिधियों और पदाधिकारियों को निजी जिंदगी में सादगी बरतने तथा अनावश्यक खर्च करने पर रोक की जो सलाह दी है, उस सलाह ने पूरे देश की सोच को एक ऐसे मुद्दे की ओर ढकेल दिया है जिससे आम आदमी का कोई लेना देना ही नहीं है।
लेकिन फिर भी इस सादगी ने एक मुद्दे का रूप अख्तियार कर लिया है और इसे लेकर एक बहस ही छिड़ गई है। देश की गंभीर समस्याएं एक तरफ और सादगी पर बहस एक तरफ। क्या टीवी क्या अखबार सब के सब इस विषय को इस तरह हाथो- हाथ उठा रहे हैं, मानों देश के सामने ऐसा गंभीर सवाल उठ खड़ा हो गया हो जिसका हल मिलना मुश्किल है। ऐसे में यह प्रश्न उठाया जाना भी लाजमी है, कि जब देश पर सूखे और मंहगाई का भारी संकट सामने नजर आया तब धन के अनावश्यक प्रदर्शन पर रोक लगाने का विचार क्यों आया? क्या इससे पहले हालात बहुत अच्छे थे? देश की एक बड़ी आबादी दशकों से गरीबी रेखा से नीचे जीवन- यापन कर रही है। दो जून की रोटी, पीने को साफ पानी, रहने को स्वच्छ हवादार मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य, मनोरंजन के समुचित साधन जैसी बुनियादी सुविधाएं उन्हें आज भी उपलब्ध नहीं हंै। ऐसे में अचानक ही सादगी का यह नारा हास्यास्पद लगता है? देश के समूचे तंत्र पर भ्रष्ट्राचार का तंत्र हावी हो तब इस भ्रष्ट तंत्र के साये तले सादगी का यह मंत्र कितना कारगर होगा यह सोचने वाली बात है।
यह तो जानी और मानी हुई बात है कि हमारे देश में जितनी भी लग्जरी सेवाएं हैं- रेल, विमान या होटल उनका आधा से ज्यादा कारोबार तो सरकारी मंत्रियों, अधिकारियों और जनप्रतिनिधियों पर होने वाले सरकारी पैसे से चलता है। उन्हें इस तरह की मिलने वाली सुविधाओं पर रोक लगाए जाने की बात जब- तब उठती भी रही है पर देखा तो यह गया है कि उनके भौतिक सुख- सुविधाओं में कटौती के बजाए वे बढ़ती ही जाती हैं।
कितना अच्छा होता कि सादगी के इस दिखावी प्रदर्शन के बजाय देश के ऊपर आए सूखे और मंहगाई के संकट से जूझने के लिए सार्थक उपाय सोचे जाते। सादा जीवन और उच्च विचार को अपनाना ही था, तो बिना किसी दिखावे या प्रदर्शन के उसे अपने- अपने जीवन में ढाल कर एक मिसाल कायम करते।
वैसे भी जीवन को किस तरह से जिया जाए उसके लिए कोई नियम कायदे नहीं होते। सादगी से जीवन जीना एक कला है, जीवन दर्शन है, शैली है जिसे प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छा से अपनाता है और जो मनुष्य के साथ जीवन पर्यन्त रहती है।
सादगी की बात जब भी उठती है तब गांधी जी का नाम लिया जाता है। गांधी जी ने सादगी को स्वेच्छा से अपनाया था। उनकी सादगी में दिखावा बिल्कुल नहीं था। इसके विपरित आजकल जो हो रहा है वह अनैतिक है। जिंदगी भर एयर कंडीशन कार में यात्रा करने वाला यदि एक दिन बैलगाड़ी में सिर्फ प्रचार के उद्देश्य से यात्रा करेगा तो यह सादगी के साथ क्रूर मजाक ही कहलायेगा। एक दिन किसी गरीब की कुटिया में बैठकर भोजन कर लेने से गरीबों का भला नहीं होने वाला।
डॉ. राममनोहर लोहिया ने गांधी जी पर लिखे अपने एक विचारात्मक लेख में सादगी और कम खर्च के बारे में जो कुछ भी कहा है वह आज के संदर्भ में भी सामयिक है - गांधीवादी सिद्धान्त के रहन- सहन में सादगी और कमखर्ची वाले हिस्से को दुनिया के लोगों ने पसन्द नहीं किया है। किसी उल्लेखनीय संख्या में किसी प्रकार के चुने हुए लोगों ने भी इसे नहीं अपनाया है। पिछड़े हुए लोगों के लिए यह एक व्यंग्य है, और विकसित लोगों के लिए यह मजाक। फिर भी रहन-सहन की सादगी अपने आप में एक क्रांति है, क्योंकि यह सामान्य रूचि और अर्थव्यवस्था के विरुद्ध है। वस्तुओं की संख्या बढऩे और जरूरतों की संख्या घटने का द्वंद किसी हद तक नकली है, सम्पूर्ण जीवन के लिये इसमें तालमेल आवश्यक है। जो आदमी बहुत कुछ अनजाने ही, स्वभाव और आदत से अपनी जरूरतें नहीं घटाता, वह भौतिक या आध्यात्मिक दृष्टि से, या सौन्दर्यात्मक दृष्टि से भी अच्छी तरह या सुख से नहीं रह सकता। आज की दुनिया में सार्थक होने के लिये जरूरत घटाने की धारणा को सापेक्ष होना पड़ेगा, पूरे राष्ट्र की कुल संभावनाओं के संदर्भ में, या उन चीजों के संदर्भ में जो मिल सकती हैं, लेकिन स्वभाववश या सोच-समझ कर छोड़ दी जाती हैं। इस तरह सादगी और विलासिता की सीमाएं कुछ लचीली हैं। ..... जीवन की एक कला के रूप में सादगी से रहने की इच्छा शायद उतनी ही पुरानी है जितना विचार, जो समूची मनुष्य जाति में कुछ खास लोगों में ही मिलती है।
लेकिन फिर भी इस सादगी ने एक मुद्दे का रूप अख्तियार कर लिया है और इसे लेकर एक बहस ही छिड़ गई है। देश की गंभीर समस्याएं एक तरफ और सादगी पर बहस एक तरफ। क्या टीवी क्या अखबार सब के सब इस विषय को इस तरह हाथो- हाथ उठा रहे हैं, मानों देश के सामने ऐसा गंभीर सवाल उठ खड़ा हो गया हो जिसका हल मिलना मुश्किल है। ऐसे में यह प्रश्न उठाया जाना भी लाजमी है, कि जब देश पर सूखे और मंहगाई का भारी संकट सामने नजर आया तब धन के अनावश्यक प्रदर्शन पर रोक लगाने का विचार क्यों आया? क्या इससे पहले हालात बहुत अच्छे थे? देश की एक बड़ी आबादी दशकों से गरीबी रेखा से नीचे जीवन- यापन कर रही है। दो जून की रोटी, पीने को साफ पानी, रहने को स्वच्छ हवादार मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य, मनोरंजन के समुचित साधन जैसी बुनियादी सुविधाएं उन्हें आज भी उपलब्ध नहीं हंै। ऐसे में अचानक ही सादगी का यह नारा हास्यास्पद लगता है? देश के समूचे तंत्र पर भ्रष्ट्राचार का तंत्र हावी हो तब इस भ्रष्ट तंत्र के साये तले सादगी का यह मंत्र कितना कारगर होगा यह सोचने वाली बात है।
यह तो जानी और मानी हुई बात है कि हमारे देश में जितनी भी लग्जरी सेवाएं हैं- रेल, विमान या होटल उनका आधा से ज्यादा कारोबार तो सरकारी मंत्रियों, अधिकारियों और जनप्रतिनिधियों पर होने वाले सरकारी पैसे से चलता है। उन्हें इस तरह की मिलने वाली सुविधाओं पर रोक लगाए जाने की बात जब- तब उठती भी रही है पर देखा तो यह गया है कि उनके भौतिक सुख- सुविधाओं में कटौती के बजाए वे बढ़ती ही जाती हैं।
कितना अच्छा होता कि सादगी के इस दिखावी प्रदर्शन के बजाय देश के ऊपर आए सूखे और मंहगाई के संकट से जूझने के लिए सार्थक उपाय सोचे जाते। सादा जीवन और उच्च विचार को अपनाना ही था, तो बिना किसी दिखावे या प्रदर्शन के उसे अपने- अपने जीवन में ढाल कर एक मिसाल कायम करते।
वैसे भी जीवन को किस तरह से जिया जाए उसके लिए कोई नियम कायदे नहीं होते। सादगी से जीवन जीना एक कला है, जीवन दर्शन है, शैली है जिसे प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छा से अपनाता है और जो मनुष्य के साथ जीवन पर्यन्त रहती है।
सादगी की बात जब भी उठती है तब गांधी जी का नाम लिया जाता है। गांधी जी ने सादगी को स्वेच्छा से अपनाया था। उनकी सादगी में दिखावा बिल्कुल नहीं था। इसके विपरित आजकल जो हो रहा है वह अनैतिक है। जिंदगी भर एयर कंडीशन कार में यात्रा करने वाला यदि एक दिन बैलगाड़ी में सिर्फ प्रचार के उद्देश्य से यात्रा करेगा तो यह सादगी के साथ क्रूर मजाक ही कहलायेगा। एक दिन किसी गरीब की कुटिया में बैठकर भोजन कर लेने से गरीबों का भला नहीं होने वाला।
डॉ. राममनोहर लोहिया ने गांधी जी पर लिखे अपने एक विचारात्मक लेख में सादगी और कम खर्च के बारे में जो कुछ भी कहा है वह आज के संदर्भ में भी सामयिक है - गांधीवादी सिद्धान्त के रहन- सहन में सादगी और कमखर्ची वाले हिस्से को दुनिया के लोगों ने पसन्द नहीं किया है। किसी उल्लेखनीय संख्या में किसी प्रकार के चुने हुए लोगों ने भी इसे नहीं अपनाया है। पिछड़े हुए लोगों के लिए यह एक व्यंग्य है, और विकसित लोगों के लिए यह मजाक। फिर भी रहन-सहन की सादगी अपने आप में एक क्रांति है, क्योंकि यह सामान्य रूचि और अर्थव्यवस्था के विरुद्ध है। वस्तुओं की संख्या बढऩे और जरूरतों की संख्या घटने का द्वंद किसी हद तक नकली है, सम्पूर्ण जीवन के लिये इसमें तालमेल आवश्यक है। जो आदमी बहुत कुछ अनजाने ही, स्वभाव और आदत से अपनी जरूरतें नहीं घटाता, वह भौतिक या आध्यात्मिक दृष्टि से, या सौन्दर्यात्मक दृष्टि से भी अच्छी तरह या सुख से नहीं रह सकता। आज की दुनिया में सार्थक होने के लिये जरूरत घटाने की धारणा को सापेक्ष होना पड़ेगा, पूरे राष्ट्र की कुल संभावनाओं के संदर्भ में, या उन चीजों के संदर्भ में जो मिल सकती हैं, लेकिन स्वभाववश या सोच-समझ कर छोड़ दी जाती हैं। इस तरह सादगी और विलासिता की सीमाएं कुछ लचीली हैं। ..... जीवन की एक कला के रूप में सादगी से रहने की इच्छा शायद उतनी ही पुरानी है जितना विचार, जो समूची मनुष्य जाति में कुछ खास लोगों में ही मिलती है।
-रत्ना वर्मा
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