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Sep 23, 2009

हिंदी का भविष्य और भविष्य में हिंदी

हिंदी का भविष्य और  भविष्य में हिंदी
भविष्य में हिंदी भाषा का स्वरूप क्या होगा। किसी भी भाषा का स्वरूप उसका उपयोग करने वाले तय करते हैं। जहां तक हिंदी का प्रश्न है, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में तो वह पहले से ही लोकप्रिय है।
- डॉ. रमाकांत गुप्ता
हिंदी के भविष्य की चिंता क्यों की जा रही है। यदि इसे चर्चा का विषय बनाया गया है तो एक बात तो तय है कि कहीं-न-कहीं हिंदी के भविष्य को लेकर आपके मन में चिंता की कोई-न-कोई लकीर अवश्य है। अंग्रेजी के भविष्य को लेकर इस तरह की कोई विचारगोष्ठी नहीं होती है। उसका कारण यह है कि उसका वर्तमान बहुत उज्जवल है। हिंदी का वर्तमान भी कम उज्ज्वल नहीं है पर उसके वर्तमान पर कहीं- कहीं चोट के निशान अवश्य हैं। ये चोट के निशान ही हमें और आपको परेशान करते रहते हैं। यदि हिंदी के भविष्य को आप जानना चाहते हैं तो उसकी वर्तमान स्थिति की ओर दृष्टिपात न करके उसके गुणों का विचार करना अभीष्ट है। रत्न यदि कूड़े में फेंक दिया जाए तो उसका क्या अपराध? अपराध फेंकने वाले का है। वहां पड़ा रहने से उसका रत्नत्व नहीं जाता। किसी ने कहा है -
कनक भूषणसंग्रहणोचितो यदि मणिस्त्रपुणि प्रणिधीयते।
न स विरौति न चापि हि शोभते भवति योजयितुर्वचनीयता।।
हिंदी का सबसे बड़ा गुण है उसकी लिपि। जहां तक हिंदी की लिपि का प्रश्न है आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि 'देवनागरी लिपि के समान शुद्ध, सरल और मनोहारी लिपि संसार में नहीं।' विदेशी और विजातीय विद्वानों तक ने उसकी प्रशंसा की है। विद्वान बेडन साहब कहते हैं कि 'संस्कृत लिपि की सरलता और शुद्धता सबको स्वीकार करनी पड़ेगी। संसार में संस्कृत के समान शुद्ध और स्पष्ट लिपि दूसरी नहीं।' संस्कृत के प्रसिद्ध विद्वान मोनियर विलियम्स लिखते हैं कि 'सच तो यह है कि संस्कृत लिपि जितनी अच्छी है उतनी अच्छी और कोई लिपि नहीं। मेरा तो यह मत है कि संस्कृत लिपि मनुष्यों की उत्पन्न की हुई नहीं, किंतु देवताओं की उत्पन्न की हुई है।' मुंबई हाईकोर्ट के भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश ने Notes to Oriental Cases की भूमिका में लिखा है कि वर्ण परिचय होते ही हिंदुस्तान के लड़के, बिना रुके कोई भी पुस्तक पढ़ सकते हैं। योरप में पुस्तकों को साधारण रीति पर पढऩे के लिए लड़कों को दो वर्ष लगते हैं, परन्तु इस देश में जहां संस्कृत लिपि का प्रचार है तीन महीने में लड़के पुस्तकें पढऩे लगते हैं। विद्वान मुसलमानों तक ने संस्कृत लिपि अर्थात् देवनागरी लिपि की प्रशंसा की है। शमसुलुल्मा सय्यद अली बिलग्रामी ने लिखा है कि 'फारसी लिपि की कठिनता के कारण मुसलमानों में विद्या का कम प्रचार है। फारसी अक्षरों में थोड़ा बहुत लिखना-पढऩा आने में दो वर्ष लग जाते हैं, परंतु देवनागरी लिपि में हिंदी लिखने-पढऩे के लिए तीन महीने काफी हैं।'
इतना गुणसंपन्न होने के बावजूद यदि कोई हिंदी को रोमन लिपि अपनाने की सलाह दे या रोमन लिपि को अधिक वैज्ञानिक बताये तो यह उसकी मूर्खता का ही परिचायक है। हिंदी की वर्तमान स्थिति सुधारने के लिए और कुछ भी किया जाए पर लिपि बदलने की कतई आवश्यकता नहीं है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने तो यहां तक कहा कि 'बंगाली, गुजराती और मद्रासी विद्वानों को भी इस सर्वगुणशालिनी नागरी लिपि को ही आश्रय देना चाहिए।'
जहां तक बोलचाल और लेखन के स्तर पर हिंदी के प्रयोग का प्रश्न है, सामाजिक (शास्त्रार्थ), राजनीतिक (धारवाड़) और सांस्कृतिक क्षेत्रों (फिल्म, नाटक, सीरियल आदि) में हिंदी की जड़ें काफी गहरी हैं। चिंता है तो सिर्फ राजभाषा के रूप में हिंदी के प्रयोग पर। हम हिंदी की शक्ति को नहीं देखते हैं सिर्फ एक क्षेत्र विशेष में वर्तमान में हो रही उसकी उपेक्षा को देखकर विचलित हो जाते हैं ठीक उसी तरह जिस तरह से एक गरीब पिता अपने सर्वगुणसंपन्न बेटे को नौकरी के लिए दर- दर ठोकरें खाते देखकर विचलित हो जाता है। वह सर्वगुणसंपन्न है तो एक न एक दिन बड़ा आदमी बनकर ही रहेगा। लोग कहते हैं कि ग्लोबलाइजेशन का जमाना आ गया है अब हिंदी का क्या काम? अरे श्रीमान इस ग्लोबलाइजेशन के जमाने में ही तो हिंदी की सबसे ज्यादा जरूरत पड़ेगी। कहिए, कैसे? इस ग्लोबलाइजेशन के पीछे कौन सी शक्ति कार्य कर रही है? उदारीकरण और बाजारीकरण की शक्ति ही इसके पीछे कार्य कर रही है तथा बाजार बिकने वाली वस्तु की ताकत को देखता है। हिंदी में वह ताकत है। 
आज चीन तथा भारत अर्थजगत में महाशक्ति बनकर उभर रहे हैं - आबादी की दृष्टि से भी ये दोनों देश विश्व में सबसे ऊपर हैं। इन दोनों ही देशों में अंग्रेजी जानने वाले लोगों की संख्या स्वल्प है। मीडिया में यह गलत प्रचार किया जा रहा है कि भारत में अंग्रेजी जानने वालों की संख्या काफी अधिक है। सच तो यह है कि अंग्रेजी की शिक्षा पर इतना अधिक पैसा बर्बाद किये जाने के बावजूद अंग्रेजी जानने वाले भारत में 5 प्रतिशत से अधिक नहीं है। यह मैं नहीं, स्वयं डीएमके के सांसद श्री दयानिधि मारन ने स्वीकार किया है। जो भाषा कम खर्च में सीखी जा सकेगी, जिस भाषा के बोलने और समझने वाले विश्व में सर्वाधिक होंगे, बाजार अर्थव्यवस्था के तहत वही भाषा चलेगी। आज कितने विज्ञापन हैं जो अंग्रेजी में आते हैं- नहीं के बराबर। 
अंग्रेजी को सबसे अधिक संरक्षण मिला है कार्यालयों में - विज्ञापन का सारा पैसा अंग्रेजी अखबार वालों को मिलता है। हिंदी भाषी राज्य सरकारें भी अपना विज्ञापन अंग्रेजी के अखबारों में देती हैं। इसी के कारण भारत में अंग्रेजी अखबार जिंदा हैं। अंग्रेजी ने भारत की सारी भाषाओं को पददलित कर रखा है। अंग्रेजी भाषा अपने गुण के कारण नहीं अपितु भर्ती परीक्षाओं में अंग्रेजी भाषा के अनिवार्य प्रश्नपत्र और अंग्रेजी मीडियम के कारण जिंदा है। जिस दिन भर्ती परीक्षाओं के स्तर पर हिंदी और भारतीय भाषाओं को सम्मानजनक स्थान मिलेगा, उस दिन से यह स्थिति बदलनी शुरू हो जाएगी। 
भारत एक बड़ी आर्थिक ताकत के रूप में उभर रहा है और ऐसी स्थिति में मल्टीनेशनल कंपनियों को भारत में अपना माल बेचने के लिए इस देश की सबसे अधिक लोकप्रिय भाषा हिंदी तथा भारत की अन्य भाषाओं को अपनाना ही पड़ेगा। अत: इस ग्लोबलाइजेशन से डरने की जरूरत नहीं है। उल्टे यह हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के लिए वरदान साबित होने वाला है, इसलिए क्योंकि ये भाषाएं ताकतवर हैं तथा एक बड़े समुदाय द्वारा बोली और समझी जाती हैं।
खड़ीबोली हिंदी का अतीत उज्ज्वल था, वर्तमान उज्ज्वलतर है तथा भविष्य उज्ज्वलतम होगा- ऐसा मेरा मानना है। आशा है आप भी मेरी राय से सहमत होंगे।
अब आइये देखें कि भविष्य में हिंदी भाषा का स्वरूप क्या होगा। किसी भी भाषा का स्वरूप उसका उपयोग करने वाले तय करते हैं। जहां तक हिंदी का प्रश्न है, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में तो वह पहले से ही लोकप्रिय है तथा इन क्षेत्रों में अतिशय प्रयोग के कारण उसका स्वरूप पहले से ही निश्चित हो चुका है। सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों में बदलाव की संभवना कम रहती है अत: इन क्षेत्रों में प्रयोग में आने वाली हिंदी भाषा में भी अधिक तब्दीली आने वाली नहीं है। हिंदी का प्रयोग हिंदीभाषी राज्यों के विधानमंडलों में पूरी तरह से हो रहा है तथा जब से जनता के असली नुमाइंदे चुनकर संसद में आने लगे हैं, तब से संसद में भी उसका व्यवहार काफी सीमा तक होने लगा है। सामाजिक रीति- रिवाजों में बदलाव की गति हमेशा मंद ही रहा करती है। नवयुवकों की विदेश यात्राएं, फिल्में, मीडिया आदि हमारी संस्कृति को अवश्य प्रभावित कर रहे हैं। पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने एक बार कहा था कि भारतीय संस्कृति में अधिक खुलापन है तथा भारतीय समाज इतने खुलेपन को बर्दाश्त कर सकता है परंतु पाकिस्तान में ऐसा संभव नहीं है। यही कारण है कि फिल्मों को तो छोडि़ए प्रतिष्ठित पत्रिकाओं तक में वासना विशेषांक निकलने लगे हैं। सेक्सी गाना गाने में बच्चों को बिल्कुल शर्म नहीं आती। ऐसी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए विभिन्न भारतीय एवं पाश्चात्य भाषाओं से शब्द भी हिंदी में निर्बाध रूप से आने लगे हैं। 
जहां तक अर्थव्यवस्था में एवं कार्यालयों में राजभाषा के रूप में हिंदी के प्रयोग का प्रश्न है, इसका व्यवहार कम होने के कारण स्वरूप अंतिम रूप से निश्चित नहीं हो सका है। जहां तक सरकारी कार्यालयों का प्रश्न है, मैं फिलहाल निराश नहीं हूं। लोग कहते हैं कि शब्दकोशों के शब्दों का प्रयोग नहीं होगा परन्तु मैं ऐसा नहीं मानता। आप यदि शब्दकोशों के शब्दों का प्रयोग राजभाषा में नहीं करेंगे तो अराजकता फैल जाएगी। Integrated के लिए तीन शब्द समेकित, समन्वित और एकीकृत हैं। गढ़े गये बहुल शब्दों में से सशक्त शब्द रह जाएगा तथा कमजोर शब्द गायब हो जाएगा। राजभाषा हिंदी में संक्षेपाक्षरों की संख्या बढ़ेगी भले ही वे हिंदी की प्रकृति के अनुकूल न हों। जैसे अखबारों ने पार्टियों के नाम के संक्षेपाक्षर, यथा भाजपा, लोजपा आदि निकाले हैं वैसे ही हमें भी कार्यालयीन कार्य के लिए संक्षेपाक्षर बनाने पड़ेंगे और उन्हें लोकप्रिय बनाना ही हमारी जिम्मेदारी होगी । 
दूसरों की तरह मैं भी मानता हूं कि भविष्य में चालू शब्दावली का प्रयोग बढ़ेगा। नये शब्द न गढ़कर पुराने शब्दों में नये अर्थ भरने का प्रयास होगा।
भविष्य में हिंदी भाषा का स्वरूप अर्थव्यवस्था तय करेगी। भारत एक बड़ी आर्थिक ताकत बनकर उभरेगा तथा अर्थव्यवस्था का स्वरूप बहुत हद तक हिंदी भाषा के स्वरूप को तय करेगा।
दोस्तो! किसी निष्कर्ष पर पहुंचना गलत होगा कि भविष्य में हिंदी का स्वरूप ऐसा होगा या वैसा होगा। ग्राहक की जरूरत के अनुसार जैसे मंडी में आयी वस्तुओं का स्वरूप बदलता रहता है, वैसे ही हिंदी भाषा का भी स्वरूप बदलेगा। वह किसी बंधन में बंधकर नहीं रहने वाली -
बंधन को मानते वही जो नद नाले सोते हैं
किंतु महानद तो स्वभाव से ही प्रचंड होते हैं।
हिंदी महानद की तरह सभी मर्यादाएं लांघती हुई आगे बढ़ती जाएगी। 
जय हिंद जय हिंदी।


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