मनु नायक अपने सीमित बजट की वजह से गीतकार डॉ. एस. हनुमंत नायडू 'राजदीप' और संगीतकार मलय चक्रवर्ती पर यह राज जाहिर नहीं करना चाहते थे कि वह बड़े गायक-गायिका को नहीं ले सकेंगे। लेकिन, होनी को कुछ और मंजूर था। तब मलय चक्रवर्ती धुन तैयार करने के बाद पहला गीत रफी साहब की आवाज में ही रिकार्ड करने की तैयारी कर चुके थे और उनकी रफी साहब के सेक्रेट्री से इस बाबत बात भी हो चुकी थी। सेक्रेट्री रफी साहब की तयशुदा फीस से सिर्फ 500 रूपए कम करने राजी हुआ था। सीमित बजट के बावजूद अपनी धुन के पक्के मनु नायक ने हिम्मत नहीं हारी और मलय दा को लेकर सीधे फेमस स्टूडियो ताड़देव पहुंच गए।
उस घटना को याद करते हुए मनु जी बताते हैं कि 'वहां जैसे ही रफी साहब रिकार्डिंग पूरी कर बाहर निकले, उनके वक्त की कीमत जानते हुए मैनें एक सांस में सब कुछ कह दिया। मैनें अपने बजट का जिक्र करते हुए कहा कि मैं छत्तीसगढ़ी की पहली फिल्म बना रहा हूं, अगर आप मेरी फिल्म में गाएंगे तो यह क्षेत्रीय बोली- भाषा की फिल्मों को नई राह दिखाने वाला कदम साबित होगा। चूंकि रफी साहब मुझसे पूर्व परिचित थे, इसलिए वह मुस्कुराते हुए बोले- कोई बात नहीं, तुम रिकार्डिंग की तारीख तय कर लो। और इस तरह रफी साहब की आवाज में पहला छत्तीसगढ़ी गीत-'झमकत नदिया बहिनी लागे' रिकार्ड हुआ। इसके अलावा रफी साहब ने मेरी फिल्म मे दूसरा गीत 'तोर पैरी के झनर-झनर, तोर चूरी के खनर-खनर, जीव ह रेंगाही तोर हंसा असन' को भी अपना स्वर दिया। इन दोनों गीतों की रिकार्डिंग के साथ खास बात यह रही कि रफी साहब ने किसी तरह का कोई एडवांस नहीं लिया और रिकार्डिंग के बाद मैनें जो थोड़ी सी रकम का चेक उन्हें दिया, उसे उन्होंने मुस्कुराते हुए रख लिया। मेरी इस फिल्म में मन्ना डे, सुमन कल्याणपुर, मीनू पुरूषोत्तम और महेंद्र कपूर ने भी गाने गाए लेकिन जब रफी साहब ने बेहद मामूली रकम लेकर मेरी हौसला अफज़ाई की तो उनकी इज्जत करते हुए इन दूसरे सारे कलाकारों ने भी उसी अनुपात में अपनी फीस घटा दी। इस तरह रफी साहब की दरियादिली के चलते मैं पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म में इन बड़े और महान गायकों से गीत गवा पाया।'
मुबारक बेगम की जगह लिया सुमन कल्याणपुर ने
पहले लता मंगेशकर फिर शमशाद बेगम और मुबारक बेगम से होते हुए 'कहि देबे संदेस' का विदाई गीत 'मोर अंगना के सोन चिरैया वो नोनी' अंतत: आया सुमन कल्याणपुर के हिस्से में।
हो अ हो हो अ हो अ हो
मोरे अंगना के सोन चिरइया ओ नोनी
अंगना के सोन चिरइया ओ नोनी
तैं तो उडि़ जाबे पर के दुवार ...
इसका खुलासा भी बड़ा रोचक है। निर्माता- निर्देशक मनु नायक इस बारे में बताते हैं कि इस विदाई गीत के लिए हमारे सामने पहली पसंद तो लता दीदी थीं लेकिन उनकी डेट तत्काल नहीं मिल रही थी फिर उनकी फीस को लेकर भी हमारे लिए थोड़ी उलझन थी। अंतत: हम लोगों ने शमशाद बेगम से इस गीत को गवाना चाहा। खोजबीन करने पर पता चला कि शमशाद बेगम अब गाना बिल्कुल कम कर चुकीं हैं। ऐसे में हम लोगों ने मुबारक बेगम को इस गीत के लिए एचएमवी से अनुबंधित कर लिया। मुबारक बेगम स्टूडियो पहुंची और रिहर्सल भी किया। लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था। उनकी आवाज में यह गाना जम भी रहा था। लेकिन दिक्कत आ रही थी महज एक शब्द के उच्चारण को लेकर। गीत में जहां 'राते अंजोरिया' शब्द है उसे वह रिहर्सल में ठीक उच्चारित करती थीं लेकिन पता नहीं क्यों जैसे ही रिकार्डिंग शुरू करते थे वह 'राते अंझुरिया' कह देती थीं। इसमें हमारे एक शिफ्ट का नुकसान हो गया। उस रोज पूरे छह घंटे में मुबारक बेगम से 'अंजोरिया' नहीं हुआ वह 'अंझुरिया' ही रहा। अंतत: हमने अनुबंध की शर्त के मुताबिक उनका और सारे साजिंदों व तकनीशियनों का भुगतान किया और अगले ही दिन सुमन कल्याणपुर को अनुबंधित कर उनकी आवाज में यह विदाई गीत रिकार्ड करवाया। चूंकि हम एचएमवी से पहले ही अनुबंध कर चुके थे, ऐसे में गीत न गवाने के बावजूद मुबारक बेगम का नाम टाइटिल में हमें देना पड़ा।
हरिप्रसाद चौरसिया की बांसुरी का जादू
'कहि देबे संदेस' के संगीत का एक और सशक्त पक्ष यह भी है कि फिल्म में गीतों से लेकर पाश्र्व में जहां कहीं भी बांसुरी के स्वर सुनाई देते हैं वह पं. हरिप्रसाद चौरसिया के बजाए हुए हैं। ददरिया शैली में गाया गया गीत 'होरे... होरे... होरे... होर' सुनकर इसे अच्छी तरह समझा जा सकता है। फिल्म का संगीत पक्ष सशक्त रखने मनु नायक ने किस तरह की पहल की खुद उन्हीं की जुबानी सुनिए- जब चक्रवर्ती साहब के साथ फिल्म के संगीत को लेकर चर्चा चल रही थी तब यह बात उठी कि आर्केस्ट्रा कितना बड़ा रखा जाए और कितने साजिंदे हों? मैंने चक्रवर्ती साहब से कहा कि देखिए यहां तो साधारण बजट की फिल्म में भी आर्केस्ट्रा में 70 से 100 साजिंदे होते हैं, लेकिन हमारा बजट बेहद सीमित है, हम इतना नहीं कर पाएंगे। ऐसे में चक्रवर्ती साहब ने 10 से 15 साजिंदों के साथ गीत रिकार्ड करने अपनी सहमति दी लेकिन इसके साथ ही उनकी शर्त यह थी कि सारे साजिंदे ए ग्रेड या एक्स्ट्रा स्पेशल ए ग्रेड के लोग होने चाहिए। तब साजिंदों में एबीसी तीन ग्रेड होते थे। इसके ऊपर भी एक्स्ट्रा स्पेशल ए ग्रेड हुआ करता था। इस ग्रेड में पं. हरिप्रसाद चौरसिया आते थे। सभी साजिंदों का पारिश्रमिक भी ग्रेड के हिसाब से होता था। इस आधार पर चक्रवर्ती साहब ने सबसे पहले पं. हरिप्रसाद चौरसिया को अनुबंधित किया। इसके बाद ए ग्रेड के सुदर्शन धर्माधिकारी और इंद्रनील बनर्जी भी अनुबंधित किए गए। सुदर्शन धर्माधिकारी को ठेका, तबला और पखावज में महारत हासिल थी वहीं सितार वादन में इंद्रनील बनर्जी का कोई सानी नहीं था। ऐसे गुणी साजिंदों को लेकर हमनें सारे गीत और पार्श्व संगीत रिकार्ड किए।
मुबारक बेगम की जगह लिया सुमन कल्याणपुर ने
पहले लता मंगेशकर फिर शमशाद बेगम और मुबारक बेगम से होते हुए 'कहि देबे संदेस' का विदाई गीत 'मोर अंगना के सोन चिरैया वो नोनी' अंतत: आया सुमन कल्याणपुर के हिस्से में।
हो अ हो हो अ हो अ हो
मोरे अंगना के सोन चिरइया ओ नोनी
अंगना के सोन चिरइया ओ नोनी
तैं तो उडि़ जाबे पर के दुवार ...
इसका खुलासा भी बड़ा रोचक है। निर्माता- निर्देशक मनु नायक इस बारे में बताते हैं कि इस विदाई गीत के लिए हमारे सामने पहली पसंद तो लता दीदी थीं लेकिन उनकी डेट तत्काल नहीं मिल रही थी फिर उनकी फीस को लेकर भी हमारे लिए थोड़ी उलझन थी। अंतत: हम लोगों ने शमशाद बेगम से इस गीत को गवाना चाहा। खोजबीन करने पर पता चला कि शमशाद बेगम अब गाना बिल्कुल कम कर चुकीं हैं। ऐसे में हम लोगों ने मुबारक बेगम को इस गीत के लिए एचएमवी से अनुबंधित कर लिया। मुबारक बेगम स्टूडियो पहुंची और रिहर्सल भी किया। लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था। उनकी आवाज में यह गाना जम भी रहा था। लेकिन दिक्कत आ रही थी महज एक शब्द के उच्चारण को लेकर। गीत में जहां 'राते अंजोरिया' शब्द है उसे वह रिहर्सल में ठीक उच्चारित करती थीं लेकिन पता नहीं क्यों जैसे ही रिकार्डिंग शुरू करते थे वह 'राते अंझुरिया' कह देती थीं। इसमें हमारे एक शिफ्ट का नुकसान हो गया। उस रोज पूरे छह घंटे में मुबारक बेगम से 'अंजोरिया' नहीं हुआ वह 'अंझुरिया' ही रहा। अंतत: हमने अनुबंध की शर्त के मुताबिक उनका और सारे साजिंदों व तकनीशियनों का भुगतान किया और अगले ही दिन सुमन कल्याणपुर को अनुबंधित कर उनकी आवाज में यह विदाई गीत रिकार्ड करवाया। चूंकि हम एचएमवी से पहले ही अनुबंध कर चुके थे, ऐसे में गीत न गवाने के बावजूद मुबारक बेगम का नाम टाइटिल में हमें देना पड़ा।
हरिप्रसाद चौरसिया की बांसुरी का जादू
'कहि देबे संदेस' के संगीत का एक और सशक्त पक्ष यह भी है कि फिल्म में गीतों से लेकर पाश्र्व में जहां कहीं भी बांसुरी के स्वर सुनाई देते हैं वह पं. हरिप्रसाद चौरसिया के बजाए हुए हैं। ददरिया शैली में गाया गया गीत 'होरे... होरे... होरे... होर' सुनकर इसे अच्छी तरह समझा जा सकता है। फिल्म का संगीत पक्ष सशक्त रखने मनु नायक ने किस तरह की पहल की खुद उन्हीं की जुबानी सुनिए- जब चक्रवर्ती साहब के साथ फिल्म के संगीत को लेकर चर्चा चल रही थी तब यह बात उठी कि आर्केस्ट्रा कितना बड़ा रखा जाए और कितने साजिंदे हों? मैंने चक्रवर्ती साहब से कहा कि देखिए यहां तो साधारण बजट की फिल्म में भी आर्केस्ट्रा में 70 से 100 साजिंदे होते हैं, लेकिन हमारा बजट बेहद सीमित है, हम इतना नहीं कर पाएंगे। ऐसे में चक्रवर्ती साहब ने 10 से 15 साजिंदों के साथ गीत रिकार्ड करने अपनी सहमति दी लेकिन इसके साथ ही उनकी शर्त यह थी कि सारे साजिंदे ए ग्रेड या एक्स्ट्रा स्पेशल ए ग्रेड के लोग होने चाहिए। तब साजिंदों में एबीसी तीन ग्रेड होते थे। इसके ऊपर भी एक्स्ट्रा स्पेशल ए ग्रेड हुआ करता था। इस ग्रेड में पं. हरिप्रसाद चौरसिया आते थे। सभी साजिंदों का पारिश्रमिक भी ग्रेड के हिसाब से होता था। इस आधार पर चक्रवर्ती साहब ने सबसे पहले पं. हरिप्रसाद चौरसिया को अनुबंधित किया। इसके बाद ए ग्रेड के सुदर्शन धर्माधिकारी और इंद्रनील बनर्जी भी अनुबंधित किए गए। सुदर्शन धर्माधिकारी को ठेका, तबला और पखावज में महारत हासिल थी वहीं सितार वादन में इंद्रनील बनर्जी का कोई सानी नहीं था। ऐसे गुणी साजिंदों को लेकर हमनें सारे गीत और पार्श्व संगीत रिकार्ड किए।
1 comment:
डॉ रत्ना जी ! आपाधापी एवं स्वार्थ-पीड़ित समाज में ऐसे लेखों की बहुत बड़ी भूमिका है , तपते मरुस्थल में शीतल जल की तरह । पूरा लेख मर्मस्पर्शी और प्रवाह्पूर्ण है । इस तरह के लिएखन को बनाए रखिए।
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