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Apr 21, 2016

उदंती.com- अप्रैल- 2016

उदंती - अप्रैल- 2016
जल-संरक्षण-विशेषांक


रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।
पानी गए न ऊबरे मोती मानुष चून।           
- रहीम


Apr 20, 2016

पानी रे पानी...

पानी रे पानी...       
- डॉ. रत्ना वर्मा
मेरा बचपन गाँव में बीता है। पढ़ाई के लिए अवश्य हम भाई-बहनों को शहर भेज दिया गया पर परीक्षा खत्म होते ही हम पूरी छुट्टियाँ गाँव में ही बीताते थे। इस तरह जन्म से लेकर 20-22 साल की उम्र तक तो पूरी गर्मी यानी लगभग दो माह हम गाँव में ही रहते थे। पर्व- त्यौहार और अन्य पारिवारिक समारोह में तो साल भर आना- जाना लगा ही रहता था। आज भले ही गाँव जाना कम हो गया है पर छूटा अब भी नहीं है।  दीपावली का त्यौहार हम आज भी गाँव में ही मनाते हैं। दादा जी के जमाने से चली आ रही सत्यनारायण की कथा जो तुलसी पूजा के दिन ही की जाती है को आज की पीढ़ी अब तक निभाते चली आ रही है। गाँव के ऐतिहासिक और पुरातात्विक महत्त्व के सिद्धेश्वर मंदिर में प्रति वर्ष लगने वाले पुन्नी मेला (कार्तिक पूर्णिमा) के दिन मंदिर के शिखर में झंडा बदलने की पारिवारिक परम्परा का पालन भी मंदिर की प्रतिष्ठा के बाद से आज तक जारी है।  तात्पर्य यह कि शहरवासी होकर भी हमारे परिवार का गाँव से नाता अभी बना हुआ है। ऐसे बहुत से परिवार हैं जो आज भी गाँव से जुड़े हुए हैं। चाहे वह पुश्तैनी जमीन-जायजाद के नाते हो चाहे खेती किसानी के नाते।
हमारी भारतीय संस्कृति की परम्परा रही है कि तालाब कहीं भी हो उसके किनारे मंदिर होता था, जहाँ मंदिर नहीं होते थे वहाँ पीपल या बड़ के विशाल वृक्ष अवश्य होते थे। भारतीय परम्परा के अनुसार  प्रात: स्नान के बाद भगवान की आराधाना के साथ पेड़ों पर जल चढ़ाने की परम्परा भी रही है। यह परम्परा आज भी जारी है तभी तो मेले, मड़ई और कुम्भ जैसे धार्मिक महत्त्व के पर्व, तालाब और नदी के किनारे ही सम्पन्न होते हैं।
ये सब बताने तात्पर्य अपनी बचपन की यादों को आपसे साझा करना भर नहीं है। गाँव के बहाने अपनी परम्परा, अपनी मिट्टी से जुड़े संस्कारों को भी साझा करना है। खासकर तब जब उदंती का यह अंक जल संग्रहण विशेषांक के तौर पर तैयार हो रहा है। यह तो हम सभी जान गए हैं कि आज हमारे देश में जल संग्रहण के परम्परागत तरीके समाप्ति के कगार पर है। एक समय था जब गाँव की आबादी के अनुसार गाँव में तालाब होते थे। बिना तालाब के गाँव की आज भी कल्पना नहीं की जा सकती। क्योंकि जल संग्रहण का तालब से बेहतर और कोई विकल्प हो ही नहीं सकता। तभी तो तालाब खुदवाने की एक परम्परा हुआ करती थी। तालाब खुदवाना पुण्य का काम माना जाता था। तालाब के रहते मौसम चाहे कैसा भी हो पानी की समस्या का सामना कभी करना ही नहीं पड़ता था। लेकिन अब जो तालाब हमारे पूर्वज खुदवा गए उन्हें ही बचाने की जुगत नहीं की जाती, ऐसे में नए ताल-तलैया खुदवाने की बात करना बेमानी ही लगता है।
शहरों का हाल तो और भी बुरा है। जितने भी तालाब थे उन्हें पाट कर उन जगहों पर बड़ी- बड़ी इमारते खड़ी की जा रही हैं।  पानी की पूर्ति कहाँ से होगी इस ओर किसी का ध्यान नहीं जाता। इस संदर्भ में मैं पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र जी की प्रसिद्ध किताब आज भी खरे हैं तालाब का उल्लेख करना चाहूँगी। उन्होंने अपनी इस पुस्तक में परम्पारगत जल स्रोत तालाब का हमारे जीवन में कितना महत्त्व है इसके बारे में हम सबको जागरुक किया है। जब से मिश्र जी की इस किताब का प्रकाशन हुआ है देश भर में बहुत से लोगों ने अपने-अपने क्षेत्र के तालाबों को बचाने की मुहिम सी चलाई और आज भी चला रहे हैं। छत्तीसगढ़ में भी हमें अपने अपने शहर और गाँवों के तालाब को बचाने के लिए प्रयास आरंभ करना होगा और जहाँ के तालाब खत्म हो गए हैं वहाँ उसके महत्त्व को रेखांकित करते हुए फिर से तालाब खुदवाने होंगे। सरकार अपने स्तर पर कुछ तालाबों को बचा रही है, पर यह भी उतना ही सत्य है कि आज बहुत सारे तालाबों की जगह बड़ी बड़ी इमारतें खड़ी हो चुकी हैं। छत्तीसगढ़ में इन्हीं तालाबों के चलते कभी सूखे की नौबत नहीं आती थी परंतु आज हालात खराब हैं।
पीने के पानी की समस्या के साथ साथ किसानों को भी पानी के लिए तरसना पड़ रहा है। इससे पहले कभी भी छत्तीसगढ़ के किसानों में आत्म हत्या की खबर नहीं सुनाई पड़ती थी पर गत वर्ष से यहाँ के किसानों द्वारा आत्महत्या करने की चौकाने वाली खबरें आ रही हैं, जिसके कई कारण है जिसमें सबसे महत्त्वपूर्ण कारण खेती के लायक पर्याप्त पानी का अभाव और अपनी परम्परागत खेती से दूर होते जाना। वर्षा तो कम ज्यादा प्रति वर्ष होती है पर हम वर्षा जल को संजो कर नहीं रख पा रहे हैं जिसका परिणाम है कि हमारी भूमि सूखते जा रही है। हमने जमीन के नीचे का सारा संचित जल तो नल और बोरिंग के जरिए खींच- खींच कर निकाल तो लिया है पर उसे भरा रखने के उपाय करना भूल गए, नतीजा सामने है आज महानगरों में लोग पानी खरीद कर पी रहे हैं।
मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित जल पुरुष के नाम से मशहूर राजेन्द्र सिंह के नेतृत्व में पिछले दिनों जल सत्याग्रह की शुरूआत हुई है। इस सत्याग्रह के माध्यम से वे सबको बताना चाहते हैं कि पानी की जमीन को पानी के लिये रखना होगा। पानी की जमीन हम छीन रहे हैं और धरती का पेट खाली करते जा रहे हैं। जब तक धरती का पेट खाली रहेगा। पानी का पुनर्भरण नहीं हो सकता। रिवर और सीवर को अलग करना होगा। वर्षाजल को नाले के प्रवाह से अलग करना होगा। नाला और पीने के पानी को मिलाने की राजनीति वास्तव में मैले की मैली राजनीति ही है।
तो हमें भी अनुपम जी की पुस्तक आज भी खरे हैं तालाब से प्रेरणा लेनी होगी और राजेन्द्र सिंह के जल सत्याग्रह के आन्दोलन को आगे बढ़ाना होगा। हमें पानी बचाने के परम्परागत उपायों को फिर से अपनाना होगा। सूख चुके तालाबों को फिर से भरना होगा और नए तालाब भी खुदवाने होंगे ताकि आगे आने वाली पीढ़ी यह न कहे कि हमारे पूर्वजों ने हमारे लिए पीने का पानी ही नहीं बचाया। 

नदियों पर संकट के बादल


      नदियों पर संकट के बादल
                 - अनुपम मिश्र
देश की तीन नदियाँ- गंगा, यमुना और नर्मदा अपने किनारे करोड़ों जिन्दगियों को आश्रय देती हैं। उन्हें पीने का पानी, खेतों की सिंचाई से लेकर उनके मल तक धोने का काम करती हैं। मैं इस पंक्ति के साथ मुट्ठी भर राजनेता भी जोड़ना चाहूँगा। जब भी हम इन तीन नदियों और करोड़ों जिन्दगियों के बारे में सोचें तो यह भी सोचें कि किस तरह कुछ मुट्ठी भर राजनेता पिछले चार दशकों से उनकी जिन्दगी तय या बरबाद कर रहे हैं।
पिछले तीस-चालीस सालों से ये तीनों नदियाँ बहुत ही बुरे दौर से गुजर रही हैं। मानों इन नदियों को ख़त्म करने की होड़ सी चल पड़ी है। तीनों पर ये संकट के बादल विकास की नई अवधारणाओं के कारण छाए हुए हैं। इन नदियों की उम्र कुछ लाख-लाख साल है। इन नदियों को बर्बाद करने का यह खेल करीब सौ साल के दौरान शुरू हुआ है।
लमेटा में तो नर्मदा के बर्थ मार्क दीखते हैं
नर्मदा तो गंगा और यमुना से भी पुरानी नदी है। इसके किनारे रहने वाले लोग इसे नर्मदा जी कहकर पुकारते हैं। सबसे पुरानी है, इसलिए सबसे पहले हम नर्मदा नदी को लें। पौराणिक साक्ष्य और भूगर्भ वैज्ञानिकों के साक्ष्य भी यही बताते हैं कि नर्मदा अन्य दोनों नदियों के मुकाबले पुरानी है।
यह नदी जिस इलाके से बहती है वहाँ भूगर्भ की एक बड़ी विचित्र घटना का उल्लेख मिलता है। उस जगह का नाम लमेटा है। लमेटा के किनारे एक सुन्दर घाट भी बना हुआ है। कहा जाता है कि जिस तरह मनुष्य के जन्म के साथ उसके शरीर पर कोई-न-कोई चिह्न होता है जिसे अंग्रेजी में बर्थ मार्ककहते हैं। ऐसे ही चिन्ह लमेटा में मिलते हैं। इस नदी के साथ आज क्या हो रहा है, इसके बारे में बात करना जरूरी होगा।
विकास की नई अवधारणा के कारण पिछले दिनों एक वाक्य चल निकला कि नर्मदा इतनी-इतनी जलराशि, पता नहीं उसका कुछ हिसाब बताते हैं कि समुद्र में व्यर्थ गिराती है। इसी तर्क के साथ इस नदी पर बाँध बनाने का प्रस्ताव सामने आया। यह कहा जाने लगा कि बाँध बनाकर इसके व्यर्थ पानी को रोक पाएँगे। इस पानी का उपयोग सिंचाई जैसे कामों में किया जा सकेगा। इससे पूरे देश का या एक प्रदेश विशेष का विकास हो सकेगा। यह माना गया कि गुजरात और मध्य प्रदेश का विकास हो होगा, लेकिन कुछ नुकसान भी उठाना पड़ सकता है।
नर्मदा पर बाँध बनने से मध्य प्रदेश की एक बड़ी आबादी का और घने वनों का हिस्सा डूब जाएगा। इस नदी को लेकर दो राज्यों के बीच छीना-झपटी भी चली। उस समय केन्द्र में इन्दिरा जी के नेतृत्व में एक मजबूत सरकार थी। बीच में कुछ सालों के अपवादों को छोड़ दें, तो राज्यों में भी कांग्रेस की ही सरकारें रहीं। लेकिन इस विकास के सन्दर्भ में कभी भी यह तय नहीं हो पाया कि बिजली और पानी के वितरण के क्या अनुपात होंगे।
यानी किन राज्यों को कितना-कितना पानी मिल पाएगा। बाद के दिनों में यह झगड़ा इतना बढ़ गया कि इसे एक पंचाट को सौंपना पड़ा। पंचाट ने भी इन सारे पहलुओं पर बहुत लम्बे समय तक विचार किया। हजारों पन्नों के साक्ष्य दोनों पक्षों की ओर से सामने आए। बाद में इसमें तीसरा पक्ष राजस्थान का भी आया और यह तय हुआ कि उसकी प्यास बुझाने के लिए उसे भी कुछ पानी दिया जाएगा।
इस तरह पंचाट ने इस काम को करने के लिए तीन दशक से भी ज्यादा का समय लिया। नतीजा आया, तो लगा कि यह गुजरात के पक्ष में है। मध्य प्रदेश को भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। उन्हीं दिनों इस बाँध के खिलाफ एक बड़ा आन्दोलन शुरू हुआ।
बावन गजाबनाने वाले ने बाँध बनाने से मना कर दिया
लेकिन हमारी यह बहस बाँध के पक्ष और उसके विरोध में बँटकर रह गई। इसको तटस्थ ढँग से कोई देख नहीं पाया कि विकास की यह अवधारणा हमारे लिए कितने काम की है। इससे पहले हम देखें तो हरेक नदी के पानी का उपयोग या उसका प्रबन्धन समाज अपने ढंग से करता ही रहा है।
हमारा यह ताजा कैलेण्डर 2012 साल पुराना है। इसके सारे पन्ने पलट दिए जाएँ तो उसके कुछ पीछे लगभग ढाई हजार साल पहले नर्मदा के किनारे मध्य प्रदेश में कुछ छोटे-छोटे बड़े खूबसूरत राज्य हुआ करते थे। उनमें से एक राज्य के दौरान जैन तीर्थंकर की एक मूर्ति बनाई गई और उसका नाम बाद में समाज ने 'बावन गजा' के तौर पर याद रखा; क्योंकि इसमें मुख्य मूर्ति बावन गज ऊँची है। यह मूर्ति पत्थर से काटकर नदी के किनारे बनाई गई।
जो लोग ढाई हजार साल पहले बावन गज ऊँची मूर्ति बना सकते थे, वे पाँच गज ऊँचा बाँध तो नदी पर बना ही सकते थे। लेकिन उन्होंने नदी के मुख्य प्रवाह को रोकना ठीक नहीं समझा था। आज ढाई हजार साल बाद भी यहाँ तीर्थ कायम है और हजारों लोग अब भी माथा टेकने पहुँचते हैं।
तालाबों की शृंखला बनाकर बाढ़-सुखाड़ से निजात पाते थे
लेकिन इसके किनारे हमारे लोगों ने जो बाँध बनाए हैं, उनके हिसाब से भी इनकी उम्र चिरंजीवी नहीं है। बहुत अच्छा रहा तो बाँधों की उम्र सौ-सवा सौ साल होती है, नहीं तो ये पचास-साठ सालों में ढहने की तैयारी में आ जाते हैं। पानी रोक कर ले जाने का चिन्तन आज का है। पहले हमारी मान्यता थी कि नदी सबसे निचले इलाके में बहने वाली कुदरत की एक देन है। इसलिए उसके ऊपर से तालाबों की शृंखला बनाकर नीचे की ओर लाते थे। वे ऐसा करके बाढ़ और सुखाड़ दोनों ही समस्याओं से निजात पाते थे। हमने ऊपर की सब बातें भुला दीं। नीचे नदी पर बाँध बनाने की राय के पक्ष में सारी बातें चली गई हैं।
पुरानी कहानी में जिस तरह द्रौपदी के चीर हरण की बातें थीं उसी तरह आज जलहरण की बातें हो रही हैं। दुर्भाग्य से नदियों से जो जल हरा जा रहा है, उसे पीछे से देने वाला कोई कृष्ण नहीं है। इसलिए बाँध भरा हुआ दिखता है और मुख्य नदी सूखी। उस बाँध में जो लोग डूबते हैं, उसकी कीमत कभी नहीं चुकाई जा सकी है। इतिहास के पन्ने पलट कर देखें तो भाखड़ा बाँध की वजह से विस्थापित हुए लोगों की आज तीसरी पीढ़ी कहाँ-कहाँ भटक रही है, इसका कोई रिकॉर्ड नहीं है।
नर्मदा की इस विवादग्रस्त योजना में लोगों का ध्यान लाभ पाने वाले राज्य यानी गुजरात की एक बात की ओर बिल्कुल भी नहीं गया है। वैज्ञानिकों का मानना है कि नर्मदा घाटी परियोजना के क्षेत्र वाला गुजरात काली मिट्टी का क्षेत्र है। काली मिट्टी का स्वभाव बड़े पैमाने पर सिंचाई के अनुकूल नहीं है। यह आशंका व्यक्त की जाती रही है कि बड़े पैमाने पर सिंचाई इस क्षेत्र को दलदल में भी धकेल सकती है।
सहायक तवा पर बाँध के परिणाम को पंचाट देख लेता
थोड़ा पीछे लौटें तो सन् 1974 में नर्मदा की एक सहायक नदी तवा पर बाँध बनाया गया था। पंचाट विवाद की वजह से फैसला आए बगैर मध्य प्रदेश का सिंचाई विभाग नर्मदा की मूलधारा पर एक ईंट भी नहीं रख सकता था; लेकिन विकास को लेकर एक तड़प थी, इसलिए उसने एक तवा नाम की नदी को चुना और उस पर बाँध बनाया। इस बाँध के विस्थापितों को लेकर जो अन्याय हुआ वह तो एक किस्सा है ही; लेकिन उसे अभी थोड़ा अलग करके रख भी दें; तो जिन लोगों के लाभ के लिए ये बाँध बनाया गया उनका नुकसान भी बहुत हुआ।
तवा पर बनाए गए बाँध के कमाण्ड एरिया में, खासकर होशंगाबाद इलाकों से दलदल बनने की शिकायतें आने लगीं। इस तरह तवा पर बना बाँध हमारे लिए ऐसा उदाहरण बन गया; जिसका नुकसान डूबने वालों के साथ-साथ लाभ पाने वालों को भी हुआ। बाद में यहाँ उन किसानों ने जिनको पहले लाभ हो रहा था, एक बड़ा आन्दोलन किया। लेकिन वह कोई तेज-तर्रार आन्दोलन नहीं था। थोड़ा विनम्र आन्दोलन था और विपरीत किस्म का आन्दोलन था। उल्टी धारा में बहने वाला आन्दोलन था, इसलिए सरकारों और अखबारों ने उस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया।
लेकिन आन्दोलन करने वाले लोगों ने देश और समाज के सामने यह बात पहली बार रखी कि बाँध बनाने से लाभ पाने वालों को भी नुकसान हो सकता है। आज करीब 35-36 साल बाद भी यह बाँध कोई अच्छी हालत में नहीं है। इसी बाँध के बारे में यह बात दोहरा लें कि इसे नर्मदा का रिहर्सल कहकर बनाया गया था। और यह रिर्हसल बहुत खराब साबित हुई। उसके बाद सरदार सरोवर और इन्दिरा सागर बाँध बनाए गए।
नर्मदा : किसको आनन्द देने वाली?
नर्मदा लाखों साल पहले बनी नदी है। तब हम भी नहीं थे और न ही हमारा कोई धर्म अस्तित्व में था। लेकिन बाद में इसके किनारे बसे लोगों ने इसके उपकारों को देखा। अपनी मान्यताओं के हिसाब से इसे अपने मन में देवी की तरह रखा। इसका नाम रखा नर्मदा। नर्म यानी नरम यानी आनन्द। दा यानी देने वाली। आनन्द देने वाली नदी। लोगों को अपने ऊपर बनने वाली योजना की वजह से आज ये थोड़ा कम आनन्द दे रही है। बल्कि परेशानी थोड़ा ज्यादा दे रही है। लेकिन इसमें नदी का दोष कम है और लोगों का ज्यादा है। उन मुट्ठी भर राजनेताओं का दोष ज्यादा है; जिन्होंने यह माना कि नर्मदा अपना पानी व्यर्थ ही समुद्र में बहा रही है।
नर्मदा के प्रसंग में बात समाप्त करने से पहले व्यर्थ में पानी बहाने वाली बात और अच्छे से समझ लेनी चाहिए। कोई भी नदी समुद्र तक जाते हुए व्यर्थ का पानी नहीं बहाती है। नदी ऐसा करके अपनी बहुत बड़ी योजना का हिस्सा पूरा करती है। वह ऐसा धरती की ओर समुद्र के हमले को रोकने के लिए करती है। आज समुद्र तक पहुँचते-पहुँचते नर्मदा की शक्ति बिल्कुल क्षीण हो जाती है। पिछले 10-12 सालों के दौरान ऐसे बहुत सारे प्रमाण सामने आए हैं कि भरुच और बड़ौदा के इलाके में भूजल खारा हो गया है। समुद्र का पानी आगे बढ़ रहा है और मिट्टी में नमक घुलने लगा है।
यमुना का संगम आज नदी नहीं नालों से हो रहा है
दूसरी नदी यमुना को लें; तो फिर याद कर लें कि यह कुछ लाख साल पुरानी हिमालय से निकलने वाली एक नदी है। बाद में यह इलाहाबाद पहुँचकर गंगा में मिलती है। इसलिए यह गंगा की सहायक नदी भी कहलाएगी। आजकल जैसे रिश्तेदारों का चलन है कि कौन, किसका रिश्तेदार है। उसकी हैसियत उसके हिसाब से कम या ज्यादा लगाई जाती है। उस हिसाब से देखें तो यमुना के रिश्तेदारों की सूची में उनके भाई का नाम कभी नहीं भूलना चाहिए। ये यम यानी मृत्यु के देवता की बहन हैं। यमुना के साथ छोटी-बड़ी कोई गलती करेंगे तो उसकी शिकायत यम देवता तक जरूर पहुँचेगी और तब हमारा क्या हाल होगा यह भी हमें ध्यान रखना होगा।
यमुना के साथ सबसे ज्यादा अपराध दिल्ली ने किया है
यमुना के साथ भी हमने छोटी-बड़ी गलतियाँ की हैं। इन अपराधों की सूची में दिल्ली का नाम सबसे ऊपर आता है। इसके किनारे जब दिल्ली बसी होगी ,तब इसका पूरा लाभ लिया होगा। आज लाभ लेने की मात्रा इतनी ऊपर पहुँच गई है कि हम इसे मिटाने पर तुल गए हैं। दिल्ली के अस्तित्व के कारण अब यमुना मिटती जा रही है। इसका पूरा पानी हम अपनी प्यास बुझाने के लिए लेते हैं और शहर की पूरी गन्दगी इसमें मिला देते हैं।
दिल्ली में प्रवेश करके यमुना नदी नहीं रहकर नाला बन जाती है। आने वाली पीढ़ियाँ इसको नदी के बजाय नाला कहना शुरू कर दें, तो किसी को अचरज नहीं होना चाहिए। आज इसके पानी में नहाना तो दूर, हाथ डालना भी खतरनाक माना जाता है। इसके पानी की गन्दगी को देखकर सरकार के विभागों ने इस तरह के वर्गीकरण किए हैं। बाद के शहरों में वृन्दावन और मथुरा आते हैं। इन्हें हमारे सबसे बड़े देवता श्रीकृष्ण की जन्मभूमि और खेलभूमि माना गया ; लेकिन दिल्ली से वहाँ तक पहुँचते-पहुँचते साफ पानी खत्म हो जाता है और उसमें सब तरह की गन्दगी मिल चुकी होती है।
मुझे तो लगता है कि कृष्ण जी ने यहाँ रहना बन्द कर दिया होगा और निश्चित ही द्वारका चले गए होंगे। एक समय में यमुना के कारण दिल्ली और सम्पन्न होती थी। शहर के एक तरफ यमुना नदी बहती है और दूसरी ओर अरावली पर्वत शृंखला है, जिससे छोटी-छोटी अठारह नदियाँ वर्षा के दिनों में ताजा पानी लेकर इसमें मिलती थीं। लेकिन 1911 में जब दिल्ली देश की राजधानी बनी, तब से हमने इन छोटी-छोटी नदियों को एक-एक करके मारना शुरू कर दिया। नदी हत्या का काम तो दूसरी जगहों पर भी हुआ; लेकिन दिल्ली में जितनी तेजी से यह काम हुआ उतना कहीं भी नहीं हुआ।
इस दौर में शहर के सात-आठ सौ तालाब नष्ट हुए; जिनसे शहर को पानी मिलता था। यमुना के साफ स्रोत हमने नष्ट कर दिए। और अब तो इस नदी को भी सुखा डाला। अब इसमें गंगा नदी के मिलने से पहले ही हम इसमें गंगा जल मिला देते हैं। यह साफ गंगा जल नहीं है।
भागीरथी से जो नदी हमारी प्यास बुझाने आती है, उसमें हम दिल्ली का पूरा मल-मूत्र मिलाकर यमुना में चढ़ा देते हैं। इसलिए यमुना की हालत इलाहाबाद पहुँचते-पहुँचते इतनी खराब हो जाती है कि अगर राजस्थान की ओर से आने वाली चम्बल और कुँवारी जैसी नदियाँ नहीं मिलतीं ,तो इसमें इतना दम भी नहीं बच पाता कि ये गंगा से कुछ बतिया सकतीं,  उनसे संगम कर पातीं।
गंगा अब पवित्रता के दावे किन भक्तों के भरोसे करे?
तीसरी नदी इस समय भारी उथल-पुथल के दौर से गुजर रही है। पिछले दिनों हमने गंगा को सबसे अधिक पवित्रता का दर्जा दिया। वैज्ञानिक शोधों के अनुसार गंगा के पानी में ऐसे तत्त्व हैं ,जो उसके जल को शुद्ध करते रहते हैं। शायद एक वजह यह हो। लेकिन यह दर्जा भी हमारी समझदारी की कमी का है। हमारे समाज ने किसी एक नदी को सबसे पवित्र होने का दर्जा नहीं दिया।
सभी नदियों को पवित्र माना और जितने अच्छे काम माने गए सब उनके किनारे पर किए। और जितने बुरे काम माने गए, उन्हें करने से खुद को रोका। गंगा के साथ हमने ऐसा नहीं किया। हमने यह समझा कि पाप करो और गंगा में धो डालो। पुराने समाज में लोग अपने पुण्य को लेकर भी गंगा में जाते थे ,तो इस नदी के किनारे कुछ अपने अच्छे काम भी छोड़कर आते थे। पाप धोने वाले भी जो जाते थे, उन्हें लगता था कि पाप अगर धुल गया, तो इसे दोबारा गन्दा नहीं करना है। लेकिन आज वह मानसिकता बची ही नहीं है।
भगीरथ के प्रयास से गंगा इस धरती पर आई। भगीरथ का परिवार भी वही है, जो रामचन्द्र जी का है। सूर्यवंश और रघुवंश। भगीरथ भगवान राम के परदादा थे। उन्हें धरती पर गंगा को लाने की जरूरत क्यों महसूस हुई, उस कारण को भी संक्षेप में देख लें। उनके पुरखों से एक गलती हुई थी।
सगर के बेटों ने जगह-जगह खुदाई करके अपने अश्वमेध के घोड़े को ढूँढने की कोशिश की थी। उन्हें लगता था कि उसे किसी ने चुरा लिया था। इसी वजह से उन्हें एक शाप मिला था, जिसे खत्म करने के लिए भगीरथ गंगा को धरती पर लाए। वह किस्सा लम्बा है जिसे यहाँ दोहराना अभी जरूरी नहीं है। लेकिन आज अगर हम भगीरथ को याद करें, उनसे ज्यादा हमें सगर पुत्रों को याद करना होगा।
सगर पुत्र आज भी गंगा की खुदाई कर रहे हैं
सगर पुत्र हमारे बीच आज भी मौजूद हैं। वे गंगा में खुदाई भी कर रहे हैं और उनके खिलाफ जगह-जगह आन्दोलन भी चल रहे हैं। सन्तों ने भी आमरण अनशन किए हैं, उनमें से एक ने अपनी बलि भी चढ़ा दी है। यह क्रम जारी है। गंगा पर छोटे और बड़े अनेक बाँध बनाए जा रहे हैं। समय-समय पर मुट्ठी भर राजनेताओं का ध्यान इस ओर भी जाता है, शायद वोट पाने के लिए। राजीव गाँधी ने 1984 में प्रधानमन्त्री बनने के बाद ऐसे ही एक गैरराजनीतिक योजना शुरू की थी – ‘गंगा एक्शन प्लान।यह एक बड़ी योजना थी।
उस योजना की सारी राशि गंगा में बह चुकी है। पानी एक बूँद भी साफ नहीं हो पाया। विश्व बैंक ने भी अब एक बड़ा प्रस्ताव रखा है ,जिसके लिए एक बड़ी राशि फिर से गंगा में बहाने की योजना बन रही है। इस बारे में भी जानकारों का मानना है कि कोई ठोस प्रस्ताव नहीं है, जिससे गंगा की गन्दगी कम हो सकेगी और उसमें मिलने वाले नालों में कोई रुकावट आएगी।
कुल मिलाकर यह दौर बड़ी नदियों से जल राशि हरण करने का है और उसमें उसी अनुपात से गन्दगी मिलाने का है। छोटी नदियाँ सूखकर मर चुकी हैं। बड़ी नदियाँ मार नहीं सकते, इसलिए उन्हें हम गन्दा कर रहे हैं। आने वाली पीढ़ी को भी बिजली की जरूरत होगी, इसकी चिन्ता नहीं है। हम इन नदियों को अधिकतम निचोड़कर अपने बल्ब जलाने, अपने कारखाने चलाने, अपने खेतों की सिंचाई करने को ही विकास की योजना मान चुके हैं। इसमें सारी सरकारें एकमत दिखती हैं।
और यदि हम कहें कि सर्वनाश में सर्वसम्मति है ,तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। ये तीन नदियाँ हमारे देश का एक बड़ा हिस्सा, करोड़ों जिन्दगियाँ को अपने आँचल में समेटती रही हैं। लेकिन हमने अभी इसके आँचल का, चीर का हरण करना शुरू किया है। और ये सारी बातें तब भी रुकती नहीं दिखती हैं, जब सभा में सारे धर्मराजबैठे हुए दिखते हैं।
गंगाबाँध से जिन लोगों को फायदा पहुँचने की बात कही गई थी, उन्हें भी इससे नुकसान हुआ। तवा नदी पर बने बाँध से होशंगाबाद में दलदल बनने की शिकायतें आने लगीं
हम नदियों की सारी जलराशि को निचोड़ कर अपने बल्ब जलाने, अपने कारखाने चलाने, अपने खेतों की सिंचाई करने को ही विकास की योजनाएँ मान चुके हैं। प्रस्तुति - स्वतन्त्र मिश्र

अच्छे-अच्छे काम करते जाना

अच्छे-अच्छे
काम करते जाना


अपनी पुस्तक आज भी खरे हैं तालाबमें श्री अनुपम जी ने समूचे भारत के तालाबों, जल-संचयन पद्धतियों, जल-प्रबन्धन, झीलों तथा पानी की अनेक भव्य परंपराओं की समझ, दर्शन और शोध को लिपिबद्ध किया है।
भारत की यह पारम्परिक जल संरचनाएँ, आज भी हजारों गाँवों और कस्बों के लिये जीवनरेखा के समान हैं। अनुपम जी का यह कार्य, देश भर में काली छाया की तरह फ़ैल रहे भीषण जलसंकट से निपटने और समस्या को अच्छी तरह समझने में एक गाइडका काम करता है। अनुपम जी ने पर्यावरण और जल-प्रबन्धन के क्षेत्र में वर्षों तक काम किया है और वर्तमान में वे गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली के साथ कार्य कर रहे हैं। उनकी पुस्तकें, खासकर आज भी खरे हैं तालाबतथा राजस्थान की रजत बूंदें” , पानी के विषय पर प्रकाशित पुस्तकों में मील के पत्थर के समान हैं, और आज भी इन पुस्तकों की विषयवस्तु से कई समाजसेवियों, वाटर हार्वेस्टिंग के इच्छुकों और जल तकनीकी के क्षेत्र में कार्य कर रहे लोगों को प्रेरणा और सहायता मिलती है।
अनुपम जी ने खुद की लिखी इन पुस्तकों पर किसी प्रकार का कॉपीराअपने पास नहीं रखा है। इसी वजह से आज भी खरे हैं तालाबपुस्तक का अब तक विभिन्न शोधार्थियों और युवाओं द्वारा ब्रेल लिपि सहित 19 भाषाओं में अनुवाद किया जा चुका है। सामाजिक पुस्तकों में महात्मा गाँधी की पुस्तक माय एक्सपेरिमेंट्स विथ ट्रुथके बाद सिर्फ़ यही एक पुस्तक ब्रेल लिपि में उपलब्ध है। सन् 2009 तक, इस अनुकरणीय पुस्तक आज भी खरे हैं तालाबकी एक लाख प्रतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं।
भोपा होते तो जरूर बताते कि तालाबों के लिए बुरा समय आ गया था। जो सरस परंपराएँ, मान्यताएँ तालाब बनाती थीं, वे ही सूखने लगी थीं।
दूरी एक छोटा- सा शब्द है। लेकिन राज और समाज के बीच में इस शब्द के आने से समाज का कष्ट कितना बढ़ जाता है, इसका कोई हिसाब नहीं। फिर जब यह दूरी एक तालाब की नहीं, सात समुंदर की हो जाए तो बखान के लिए क्या रह जाता है?
अंग्रेज सात समुंदर पार से आए थे और अपने समाज के अनुभव लेकर आए थे। वहाँ वर्गों पर टिका समाज था, जिसमें स्वामी और दास के संबंध थे। वहाँ राज्य ही फैसला करता था कि समाज का हित किस में है। यहाँ जाति का समाज था और राजा जरूर थे पर राजा और प्रजा के संबंध अंग्रेजों के अपने अनुभवों से बिल्कुल भिन्न थे। यहाँ समाज अपना हित स्वयं तय करता था और उसे अपनी शक्ति से, अपने संयोजन से पूरा करता था। राज उसमें सहायक होता था।
पानी का प्रबंध, उसकी चिंता हमारे समाज के कर्तव्य- बोध के लिए विशाल सागर की एक बूंद थी। सागर और बूंद एक दूसरे से जुड़े थे। बूँदे अलग हो जाएँ तो न सागर रहे, बूँद बचे। सात समन्दर पार से आए अंग्रेजों को समाज के कर्तव्य - बोध का न तो विशाल सागर दिख पाया, न उसकी बूँदे। उन्होंने अपने यहाँ के अनुभव और प्रशिक्षण के आधार पर यहाँ के राज में दस्तावेज जरूर खोजने की कोशिश की, लेकिन वैसे रिकार्ड राज में रखे नहीं जाते थे। इसलिए उन्होंने मान लिया कि यहाँ सारी व्यवस्था उन्हीं को करनी है। यहाँ तो कुछ है ही नहीं!
देश के अनेक भागों में घूम फिर कर अंग्रेजों ने कुछ या काफी जानकारियाँ जरूर एकत्र कीं, लेकिन यह सारा अभ्यास कुतूहल से ज्यादा नहीं था। उसमें कर्तव्य के सागर और उसकी बूँदों को समझने की दृष्टि नहीं थी। इसलिए विपुल मात्रा में जानकारियाँ एकत्र करने के बाद भी जो नीतियां बनीं, उन्होंने तो इस सागर और बूँद को अलग- अलग ही किया।
उत्कर्ष का दौर भले ही बीत गया था, पर अंग्रेजों के बाद भी पतन का दौर प्रारंभ नहीं हुआ था। उन्नीसवीं सदी के अंत और तो और बीसवीं सदी के प्रारंभ तक अंग्रेज यहाँ घूमते- फिरते जो कुछ देख रहे थे, लिख रहे थे, जो गजेटियर बना रहे थे, उनमें कई जगहों पर छोटे ही नहीं, बड़े- बड़े तालाबों पर चल रहे काम का उल्लेख मिलता है।
मध्य प्रदेश के दुर्ग और राजनांदगांव जैसे क्षेत्रों में सन् 1907 तक भी ``बहुत से बड़े तालाब बन रहे थे।´´ इनमें तांदुला नामक तालाब ``ग्यारह वर्ष तक लगातार चले काम के बाद बनकर बस अभी तैयार ही हुआ था। इसमें सिंचाई के लिए आज भी खरे हैं तालाब 70 निकली नहरों- नालियों की लंबाई 513 मील थी।´´
जो नायक समाज को टिकाए रखने के लिए सब काम करते थे, उनमें से कुछ के मन में समाज को डिगाने- हिलाने वाली नई व्यवस्था भला कैसे समा पाती? उनकी तरफ से अंग्रेजों को चुनौतियाँ भी मिलीं। साँसी, भीली जैसी स्वाभिमानी जातियों को इस टकराव के कारण अंग्रेजी राज ने ठग और अपराधी तक कहा। अब जब सब कुछ अंग्रेजों को ही करना था तो उनसे पहले के पूरे ढाँचे को टूटना ही था। उस ढांचे को दुत्कारना, उसकी उपेक्षा करना कोई बहुत सोचा-विचारा गया कुटिल षड्यंत्र नहीं था। वह तो इस नई दृष्टि का सहज परिणाम था और दुर्भाग्य से यह नई दृष्टि हमारे समाज के उन लोगों तक को भा गई थी, जो पूरे मन से अंग्रेजों का विरोध कर रहे थे और देश को आजाद करने के लिए लड़ रहे थे।
पिछले दौर के अभ्यस्त हाथ अब अकुशल कारीगरों में बदल दिए गए थे। ऐसे बहुत से लोग जो गुनीजनखाना यानी गुणी माने गए जनों की सूची में थे, वे अब अनपढ़, असभ्य, अप्रशिक्षित माने जाने लगे। उस नए राज और उसके प्रकाश के कारण चमकी नई सामाजिक संस्थाएँ, नए आंदोलन भी अपने ही नायकों के शिक्षण- प्रशिक्षण में अंग्रेजों से भी आगे बढ़ गए थे। आजादी के बाद की सरकारों, सामाजिक संस्थाओं तथा ज्यादातर आंदोलनों में भी यही लज्जाजनक प्रवृत्ति जारी रही है।
उस गुणी समाज के हाथ से पानी का प्रबंध किस तरह छीना गया इसकी एक झलक तब के मैसूर राज में देखने को मिलती है।
सन् 1800 में मैसूर राज दीवान पूर्णैया देखते थे। तब राज्य भर में 39000 तालाब थे। कहा जाता था कि वहाँ किसी पहाड़ी की चोटी पर एक बूंद गिरे, आधी इस तरफ आधी उस तरह  तो दोनों तरफ इसे सहेज कर रखने वाले तालाब वहाँ मौजूद थे। समाज के अलावा राज भी इन उम्दा तालाबों की देखरेख के लिए हर साल कुछ लाख रुपये लगाता था। राज बदला। अंग्रेज आए। सबसे पहले उन्होंने इस `फिजूल खर्ची´ को रोका और सन् 1831 में राज की ओर से तालाबों को दी जाने वाली राशि को काटकर एकदम आधा कर दिया। अगले 32 बरस तक नए राज की कंजूसी को समाज अपनी उदारता से ढककर रखे रहा। तालाब लोगों के थे, सो राज से मिलने वाली मदद के कम हो जाने, कहीं - कहीं बंद हो जाने के बाद भी समाज तालाबों को सँभाले रहा। बरसों पुरानी स्मृति ऐसे ही नहीं मिट जाती। लेकिन 32 बरस बाद यानी सन् 1863 में वहाँ पहली बार पी. डब्ल्यू. डी. बना और सारे तालाब लोगों से छीनकर उसे सौंप दिए गए। प्रतिष्ठा पहले ही हर ली थी। फिर धन, साधन छीने और अब स्वामित्व भी ले लिया गया था। सम्मान, सुविधा और अधिकारों के बिना समाज लाचार होने लगा। ऐसे में उससे सिर्फ अपने कर्त्तव्य निभाने की उम्मीद कैसे की जाती?
मैसूर के 39000 तालाबों की दुर्दशा का किस्सा बहुत लंबा है। पी. डब्ल्यू. डी से काम नहीं चला तो फिर पहली बार सिंचाई विभाग बना। उसे तालाब सौंपे गए। वह भी कुछ नहीं कर पाया तो वापस पी. डब्ल्यू. डी. को। अंग्रेज विभागों की अदला- बदली के बीच तालाबों से मिलने वाला राजस्व बढ़ाते गए और रख - रखाव की राशिछाँटते - काटते गए। अंग्रेज इस काम के लिए चंदा तक माँगने लगे जो फिर जबरन वसूली तक चला गया।
इधर दिल्ली तालाबों की दुर्दशा की नई राजधानी बन चली थी। अंग्रेजों के आने से पहले तक यहाँ350 तालाब थे। इन्हें भी राजस्व के लाभ- हानि की तराजू पर तौला गया और कमाई न दे पाने वाले तालाब राज के पलड़े से बाहर फेंक दिए गए।
उसी दौर में नल लगने लगे थे। इसके विरोध की एक हल्की सुरीली आवाज सन् 1900 के आसपास विवाहों के अवसर पर गाई जाने वाली `गारियों´, विवाह- गीतों में दिखी थी। बारात जब पंगत में बैठती तो स्त्रियाँ``फिरंगी नल मत लगवाय दियो´´ गीत गातीं। लेकिन नल लगते गए और जगह- जगह बने तालाब, कुएँ और बावड़ियों के बदले अंग्रेज द्वारा नियंत्रित `वाटर वर्क्स´ से पानी आने लगा।
पहले सभी बड़े शहरों में और फिर धीरे- धीरे छोटे शहरों में भी यही स्वप्न साकार किया जाने लगा। पर केवल पाइप बिछाने और नल की टोंटी लगा देने से पानी नहीं आता। यह बात उस समय नहीं; लेकिन आजादी के कुछ समय बाद धीरे- धीरे समझ में आने लगी थी। सन् 1970के बाद तो यह डरावने सपने में बदलने लगी थी। तब तक कई शहरों के तालाब उपेक्षा की गाद से पट चुके थे और उन पर नए मोहल्ले, बाजार स्टेडियम खड़े हो चुके थे।
पर पानी अपना रास्ता नहीं भूलता। तालाब हथियाकर बनाए गए नए मोहल्लों में वर्षा के दिनों में पानी भर जाता है और फिर वर्षा बीती नहीं कि इन शहरों में जल संकट के बादल छाने लगते हैं।
जिन शहरों के पास फिलहाल थोड़ा पैसा है, थोड़ी ताकत है, वे किसी और के पानी को छीनकर अपने नलों को किसी तरह चला रहे हैं पर बाकी की हालत तो हर साल बिगड़ती ही जा रही है। कई शहरों के कलेक्टर फरवरी माह में आसपास के गाँवों के बड़े तालाब का पानी सिंचाई के कामों से रोक कर शहरों के लिए सुरक्षित कर लेते हैं।
शहरों को पानी चाहिए पर पानी दे सकने वाले तालाब नहीं। तब पानी ट्यूबवैल से ही मिल सकता है; पर इसके लिए बिजली, डीजल के साथ-साथ उसी शहर के नीचे पानी चाहिए। मद्रास जैसे कई शहरों का दुखद अनुभव यही बताता है कि लगातार गिरता जल- स्तर सिर्फ पैसे और सत्ता के बल पर थामा नहीं जा सकता। कुछ शहरों ने दूर बहने वाली किसी नदी से पानी उठा कर लाने के बेहद खर्चीले और अव्यावहारिक तरीके अपनाए हैं; लेकिन ऐसी नगर पालिकाओं पर करोड़ों रुपए के बिजली के बिल चढ़ चुके हैं।
इंदौर का ऐसा ही उदाहरण आँख खोल सकता है। यहाँ दूर बह रही नर्मदा का पानी लाया गया था। योजना का पहला चरण छोटा पड़ा, तो एक स्वर से दूसरे चरण की माँग भी उठी और अब सन् 1993 में तीसरे चरण के लिए भी आंदोलन चल रहा है। इसमें कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी साम्यवादी दलों के अलावा शहर के पलवान श्री अनोखी लाल भी एक पैर पर एक ही जगह 34 दिन तक खड़े रह कर `सत्याग्रह´ कर चुके हैं। इस इंदौर में अभी कुछ दिन ही पहले तक बिलावली जैसा तालाब था, जिसमें फ्लाइंग क्लब के जहाज के गिर जाने पर नौसेना के गोताखोर उतारे गए थे ; पर वे डूबे जहाज को आसानी से खोज नहीं पाए थे। आज बिलावली एक बड़ा सूखा मैदान है और इसमें फ़्लाइंग क्लब के जहाज उड़ाए जा सकते हैं।
इंदौर के पड़ोस में बसे देवास शहर का किस्सा तो और भी विचित्र है। पिछले 30 वर्ष में यहाँ के सभी छोटे- बड़े तालाब भर दिए गए और उन पर मकान और कारखाने खुल गए। लेकिन फिर `पता´ चला कि इन्हें पानी देने का कोई स्रोत नहीं बचा है। शहर के खाली होने तक की खबरें छपने लगी थीं। शहर के लिए पानी जुटाना था पर पानी कहाँ से लाएँ? देवास के तालाबों, कुओं के बदले रेलवे स्टेशन पर दस दिन तक दिन- रात काम चलता रहा।
25 अप्रैल, 1990 को इंदौर में 50 टैंकर पानी लेकर रेलगाड़ी देवास आई। स्थानीय शासन मंत्री की उपस्थिति में ढोल नगाड़े बजाकर पानी की रेल का स्वागत हुआ। मंत्री जी ने रेलवे स्टेशन आई `नर्मदा´ का पानी पीकर इस योजना का उद्घाटन किया। संकट के समय इससे पहले भी गुजरात और तमिलनाडु के कुछ शहरों में रेल से पानी पहुँचाया गया है पर देवास में तो अब हर सुबह पानी की रेल आती है, टैंकरों का पानी पंपों के सहारे टंकियों में चढ़ता है और तब शहर में बँटता है।
रेल का भाड़ा हर रोज चालीस हजार रुपया है। बिजली से पानी ऊपर चढ़ाने का खर्च अलग और इंदौर से मिलने वाली पानी का दाम भी लग जाए तो पूरी योजना दूध के भाव पड़ेगी। लेकिन अभी मध्य प्रदेश शासन केंद्र से रेल भाड़ा माफ करवाता जा रहा है। दिल्ली के लिए दूर गंगा का पानी उठा कर लाने वाला केंद्र शासन अभी मध्य प्रदेश के प्रति उदारता बरत रहा है। ऐसे में सरकार रेल और बिजली के दाम चुकाने को कह बैठी तो देवास को नरकवास बनने में कितनी देर लगेगी।
पानी के मामले में निपट बेवकूफी के उदाहरणों की कोई कमी नहीं है। मध्य प्रदेश के ही सागर शहर को देखें। कोई 600 बरस पहले लाखा बंजारे द्वारा बनाए गए सागर नामक एक विशाल तालाब के किनारे बसे इस शहर का नाम सागर ही हो गया था। आज यहाँ नए समाज की चार बड़ी प्रतिष्ठित संस्थाए हैं। पुलिस प्रशिक्षण केंद्र है, सेना के महार रेजिमेंट विश्वविद्यालय है। एक बंजारा यहाँ आया और विशाल सागर बना कर चला गयालेकिन नए समाज की चार साधन संपन्न संस्थाएँ इस सागर की देखभाल तक नहीं कर पाईं! आज सागर तालाब पर ग्यारह शोध प्रबंध पूरे हो चुके हैं, डिग्रियाँबँट चुकी हैं पर एक अनपढ़ माने गए बंजारे के हाथों बने सागर को पढ़ा- लिखा माना गया समाज बचा तक नहीं पा रहा है।
उपेक्षा की इस आँधी में कई तालाब फिर भी खड़े हैं। देश भर में कोई आठ से दस लाख तालाब आज भी भर रहे हैं और वरुण देवता का प्रसाद सुपात्रों के साथ - साथ कुपात्रों में भी बाँट रहे हैं। उनकी मजबूत बनक इसका एक कारण है पर एकमात्र कारण नहीं। तब तो मजबूत पत्थर के बने पुराने किले खंडहरों में नहीं बदलते। कई तरफ से टूट चुके समाज में तालाबों की स्मृति अभी भी शेष है। स्मृति की यह मजबूती पत्थर की मजबूती से ज्यादा मजबूत है।
छत्तीसगढ़ के गाँवों में आज भी छेर- छेरा के गीत गाए जाते हैं और उससे मिले अनाज से अपने तालाबों की टूट-फूट ठीक की जाती है। आज भी बुंदेलखंड में कजलियों के गीत में उसके आठों अंग डूब सकें- ऐसी कामना की जाती है। हरियाणा के नारनौल में जात उतारने के बाद माता- पिता तालाब की मिट्टी काटते हैं और पाल पर चढ़ाते हैं। न जाने कितने शहर, कितने सारे गाँव इन्हीं तालाबों के कारण टिके हुए हैं। बहुत- सी नगर पालिकाएँ आज भी इन्हीं तालाबों के कारण पल रही हैं और सिंचाई विभाग इन्हीं के दम पर खेतों को पानी दे पा रहे हैं। बीजा की डाह जैसे गाँवों में आज भी सागरों के नायक नए तालाब भी खोद रहे हैं और पहली बरसात में उन पर रात-रात भर पहरा दे रहे हैं। उधर रोज सुबह-शाम घड़सीसर में आज भी सूरज मन भर सोना उड़ेलता है। कुछ कानों में आज भी यह स्वर गूँजता है:अच्छे-अच्छे काम करते जाना' (पुस्तक- आज भी खरे हैं तालाब से)

हमारी नदियोँ के किनारे फैला है

     
हमारी नदियोँ के किनारे फैला है

                                  ज्ञान और अध्यात्म का पा
                                    - पंकज चतुर्वेदी
बहुत पुरानी बात है, हमारे देश में एक नदी थी सिंधु। इस नदी की घाटी में खुदाई हुई तो मोहन जोदड़ों नाम का शहर मिला, ऐसा शहर जो बताता था कि हमारे पूर्वजों के पूर्वज बेहद सभ्य व सुसंस्कृत थे और नदियों से उनका शरीर-श्वांस का रिश्ता था। नदियों के किनारे समाज विकसित हुआ, बस्ती, खेती, मिट्टी व अनाज का प्रयोग, अग्नि का इस्तेमाल के अन्वेषण हुए।
मन्दिर व तीर्थ नदी के किनारे बसे, ज्ञान व अध्यात्म का पाठ इन्हीं नदियों की लहरों के साथ दुनिया भर में फैला। कह सकते हैं कि भारत की सांस्कृतिक व भावात्मक एकता का सम्वेत स्वर इन नदियों से ही उभरता है। इंसान मशीनों की खोज करता रहा, अपने सुख-सुविधाओं व कम समय में ज्यादा काम की जुगत तलाशता रहा और इसी आपाधापी में सरस्वती जैसी नदी गुम हो गई। गंगा व यमुना पर अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया।
बीते चार दशकों के दौरान समाज व सरकार ने कई परिभाषाएँ, मापदण्ड, योजनाएँ गढ़ीं कि नदियों को बचाया जाये, लेकिन विडम्बना है कि उतनी ही तेजी से पावनता और पानी नदियों से लुप्त होता रहा।
हमारे देश में 13 बड़े, 45 मध्यम और 55 लघु जलग्रहण क्षेत्र हैं। जलग्रहण क्षेत्र उस सम्पूर्ण इलाके को कहा जाता है, जहाँ से पानी बहकर नदियों में आता है। इसमें हिमखण्ड, सहायक नदियाँ, नाले आदि शामिल होते हैं।
जिन नदियों का जलग्रहण क्षेत्र 20 हजार वर्ग किलोमीटर से बड़ा होता है, उन्हें बड़ा-नदी जलग्रहण क्षेत्र कहते हैं। 20 हजार से दो हजार वर्ग किलोमीटर वाले को मध्यम, दो हजार से कम वाले को लघु जल ग्रहण क्षेत्र कहा जाता है। इस मापदण्ड के अनुसार गंगा, सिंधु, गोदावरी, कृष्णा, ब्रह्मपुत्र, नर्मदा, तापी, कावेरी, पेन्नार, माही, ब्राह्मणी, महानदी और साबरमति बड़े जल ग्रहण क्षेत्र वाली नदियाँ हैं। इनमें से तीन नदियाँ - गंगा, सिंधु और ब्रह्मपुत्र हिमालय के हिमखण्डों के पिघलने से अवतरित होती हैं। इन सदानीरा नदियों को हिमालयी नदीकहा जाता है। शेष दस को पठारी नदी कहते हैं, जो मूलतः वर्षा पर निर्भर होती हैं।
यह आँकड़ा वैसे बड़ा लुभावना लगता है कि देश का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 32.80 लाख वर्ग किलोमीटर है, जबकि सभी नदियों का सम्मिलित जलग्रहण क्षेत्र 30.50 लाख वर्ग किलोमीटर है। भारतीय नदियों के मार्ग से हर साल 1645 घन किलोलीटर पानी बहता है जो सारी दुनिया की कुल नदियों का 4.445 प्रतिशत है। आँकड़ों के आधार पर हम पानी के मामले में पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा समृद्ध हैं, लेकिन चिन्ता का विषय यह है कि पूरे पानी का कोई 85 फीसदी बारिश के तीन महीनों में समुद्र की ओर बह जाता है और नदियाँ सूखी रह जाती हैं।
नदियों के सामने खड़े हो रहे संकट ने मानवता के लिये भी चेतावनी का बिगुल बजा दिया है, जाहिर है कि बगैर जल के जीवन की कल्पना सम्भव नहीं है। हमारी नदियों के सामने मूलरूप से तीन तरह के संकट हैं - पानी की कमी, मिट्टी का आधिक्य और प्रदूषण।
 धरती के तापमान में हो रही बढ़ोत्तरी के चलते मौसम में बदलाव हो रहा है और इसी का परिणाम है कि या तो बारिश अनियमित हो रही है या फिर बेहद कम। मानसून के तीन महीनों में बमुश्किल चालीस दिन पानी बरसना या फिर एक सप्ताह में ही अन्धाधुन्ध बारिश हो जाना या फिर बेहद कम बरसना, ये सभी परिस्थितियाँ नदियों के लिये अस्तित्व का संकट पैदा कर रही हैं।
बड़ी नदियों में ब्रह्मपुत्र, गंगा, महानदी और ब्राह्मणी के रास्तों में पानी खूब बरसता है और इनमें न्यूनतम बहाव 4.7 लाख घनमीटर प्रति वर्गकिलोमीटर होता है। वहीं कृष्णा, सिंधु, तापी, नर्मदा और गोदावरी का पथ कम वर्षा वाला है सो इसमें जल बहाव 2.6 लाख घनमीटर प्रति वर्गकिलोमीटर ही रहता है। कावेरी, पेन्नार, माही और साबरमति में तो बहाव 0.6 लाख घनमीटर ही रह जाता है। सिंचाई व अन्य कार्यों के लिये नदियों के अधिक दोहन, बाँध आदि के कारण नदियों के प्राकृतिक स्वरूपों के साथ भी छेड़छाड़ हुई व इसके चलते नदियों में पानी कम हो रहा है।
नदियाँ अपने साथ अपने रास्ते की मिट्टी, चट्टानों के टुकड़े व बहुत सा खनिज बहाकर लाती हैं। पहाड़ी व नदियों के मार्ग पर अन्धाधुन्ध जंगल कटाई, खनन, पहाड़ों को काटने, विस्फोटकों के इस्तेमाल आदि के चलते थोड़ी सी बारिश में ही बहुत सा मलबा बहकर नदियों में गिर जाता है।
परिणामस्वरूप नदियाँ उथली हो रही हैं, उनके रास्ते बदल रहे हैं और थोड़ा सा पानी आने पर ही वे बाढ़ का रूप ले लेती हैं। यह भी खतरनाक है कि सरकार व समाज इन्तजार करता है कि नदी सूखे व हम उसकी छोड़ी हुई जमीन पर कब्जा कर लें। इससे नदियों के पाट संकरे हो रहे हैं उसके करीब बसावट बढ़ने से प्रदूषण की मात्रा बढ़ रही है।
आधुनिक युग में नदियों को सबसे बड़ा खतरा प्रदूषण से है। कल-कारखानों की निकासी, घरों की गन्दगी, खेतों में मिलाए जा रहे रासायनिक दवा व खादों का हिस्सा, भूमि कटाव, और भी कई ऐसे कारक हैं जो नदी के जल को जहर बना रहे हैं। अनुमान है कि जितने जल का उपयोग किया जाता है, उसके मात्र 20 प्रतिशत की ही खपत होती है, शेष 80 फीसदी सारा कचरा समेटे बाहर आ जाता है। यही अपशिष्ट या माल-जल कहा जाता है, जो नदियों का दुश्मन है। भले ही हम कारखानों को दोषी बताएँ, लेकिन नदियों की गन्दगी का तीन चौथाई हिस्सा घरेलू मल-जल ही है।
आज देश की 70 फीसदी नदियाँ प्रदूषित हैं और मरने के कगार पर हैं। इनमें गुजरात की अमलाखेड़ी, साबरमती और खारी, हरियाणा की मारकंडा, मप्र की खान, उप्र की काली और हिण्डन, आन्ध्र की मुंसी, दिल्ली में यमुना और महाराष्ट्र की भीमा मिलाकर 10 नदियाँ सबसे ज्यादा प्रदूषित हैं।
हालत यह है कि देश की 27 नदियाँ नदी के मानक में भी रखने लायक नहीं बची हैं। वैसे गंगा हो या यमुना, गोमती, नर्मदा, ताप्ती, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, महानदी, ब्रह्मपुत्र, झेलम, सतलुज, चेनाब, रावी, व्यास, पार्वती, हरदा, कोसी, गंडगोला, मसैहा, वरुणा, बेतवा, ढौंक, डेकन, डागरा, रमजान, दामोदर, सुवर्णरेखा, सरयू, रामगंगा, गौला, सरसिया, पुनपुन, बूढ़ी गंडक, गंडक, कमला, सोन एवं भगीरथी या फिर इनकी सहायक, कमोेबेश सभी प्रदूषित हैं और अपने अस्तित्व के लिये जूझ रही हैं।
दरअसल पिछले 50 बरसों में अनियंत्रित विकास और औद्योगीकरण के कारण प्रकृति के तरल स्नेह को संसाधन के रूप में देखा जाने लगा, श्रद्धा-भावना का लोप हुआ और उपभोग की वृत्ति बढ़ती चली गई। चूँकि नदी से जंगल, पहाड़, किनारे, वन्य जीव, पक्षी और जन-जीवन गहरे तक जुड़ा है, इसलिये जब नदी पर संकट आया, तब उससे जुड़े सभी सजीव-निर्जीव प्रभावित हुए बिना न रहे और उनके अस्तित्व पर भी संकट मँडराने लगा। असल में जैसे-जैसे सभ्यता का विस्तार हुआ, प्रदूषण ने नदियों के अस्तित्व को ही संकट में डाल दिया।
राष्ट्रीय पर्यावरण संस्थान, नागपुर की एक रपट बताती है कि गंगा, यमुना, नर्मदा, गोदावरी, कावेरी सहित देश की 14 प्रमुख नदियों में देश का 85 प्रतिशत पानी प्रवाहित होता है। ये नदियाँ इतनी बुरी तरह प्रदूषित हो चुकी हैं कि देश की 66 फीसदी बीमारियों का कारण इनका जहरीला जल है। इस कारण से हर साल 600 करोड़ रुपए के बराबर सात करोड़ तीस लाख मानव दिवसों की हानि होती है।
अभी तो देश में नदियों की सफाई नारों के शोर और आँकड़ों के बोझ में दम तोड़ती रही हैं। बड़ी नदियों में जाकर मिलने वाली हिण्डन व केन जैसी नदियों का तो अस्तित्व ही संकट में है तो यमुना कहीं लुप्त हो जाती है व किसी गन्दे नाले के मिलने से जीवित दिखने लगती है। सोन, जोहिला, नर्मदा के उद्गम स्थल अमरकंटक से ही नदियों के दमन की शुरुआत हो जाती है तो कही नदियों को जोड़ने व नहर से उन्हें जिन्दा करने के प्रयास हो रहे हैं। नदी में जहर केवल पानी को ही नहीं मार रहा है, उस पर आश्रित जैव संसार पर भी खतरा होता है। नदी में मिलने वाली मछली केवल राजस्व या आय का जरिया मात्र नहीं है, यह जल प्रदूषण दूर करने में भी सहायक होती हैं।
 जल ही जीवन का आधार है, लेकिन भारत की अधिकांश नदियाँ शहरों के करोड़ों लीटर जल-मल व कारखानों से निकले जहर को ढोने वाले नाले का रूप ले चुकी हैं। नदियों में शव बहा देने, नदियों के प्राकृतिक प्रवाह को रोकने या उसकी दिशा बदलने से हमारे देश की असली ताकत, हमारे समृद्ध जल-संसाधन नदियों का अस्तित्व खतरे में आ गया है।
आज फिर तालाब की याद आ रही है
यह देश-दुनिया जब से है तब से पानी एक अनिवार्य जरूरत रही है और अल्प वर्षा, मरूस्थल, जैसी विषमताएँ प्रकृति में विद्यमान रही हैं- यह तो बीते दो सौ साल में ही हुआ कि लोग भूख या पानी के कारण अपने पुश्तैनी घरों-पिण्डों से पलायन कर गए। उसके पहले का समाज तो हर जल-विपदा का समाधान रखता था। अभी हमारे देखते-देखते ही घरों के आँगन, गाँव के पनघट व कस्बों के सार्वजनिक स्थानों से कुएँ गायब हुए हैं।
बावडिय़ों को हजम करने का काम भी आजादी के बाद ही हुआ। हमारा आदि समाज गर्मी के चार महीनों के लिए पानी जमा करना व उसे किफायत से खर्च करने को अपनी संस्कृति मानता था। वह अपने इलाके के मौसम, जलवायु चक्र, भूगर्भ, धरती संरचना, पानी की माँग व आपूर्ति का गणित भी जानता था। उसे पता था कि कब खेत को पानी चाहिए और कितना मवेशी को और कितने में कण्ठ तर हो जाएगा।
वह अपनी गाड़ी को साफ करने के लिए पाईप से पानी बहाने या हजामत के लिए चालीस लीटर पानी बहा देने वाली टोंटी का आदी नहीं था। भले ही आज उसे बीते जमाने की तकनीक कहा जाए, लेकिन आज भी देश के कस्बे-शहर में बनने वाली जन योजनाओं में पानी की खपत व आवक का वह गणित कोई नहीं आँक पाता है जो हमारा पुराना समाज जानता था।
राजस्थान में तालाब, बावडिय़ाँ, कुईं और झालार सदियों से सूखे का सामना करते रहे। ऐसे ही कर्नाटक में कैरे, तमिलनाडु में ऐरी, नागालैण्ड में जोबो तो लेह-लद्दाख में जिंग, महाराष्ट्र में पैट, उत्तराखण्ड में गुल, हिमाचल प्रदेश में कुल और जम्मू में कुहाल कुछ ऐसे पारम्परिक जल-संवर्धन के सलीके थे जो आधुनिकता की आँधी में कहीं गुम हो गए और अब आज जब पाताल का पानी निकालने व नदियों पर बाँध बनाने की जुगत अनुतीर्ण होती दिख रही हैं तो फिर उनकी याद आ रही है।
गुजरात के कच्छ के रण में पारम्परिक मालधारी लोग खारे पानी के ऊपर तैरती बारिश की बूँदों के मीठे पानी को 'विरदा' के प्रयोग से संरक्षित करने की कला जानते थे। सनद रहे कि उस इलाके में बारिश भी बहुत कम होती है। हिम-रेगिस्तान लेह-लद्दाख में सुबह बर्फ रहती है और दिन में धूप के कारण कुछ पानी बनता है जो शाम को बहता है। वहाँ के लोग जानते थे कि शाम को मिल रहे पानी को सुबह कैसे इस्तेमाल किया जाए।
तमिलनाडु में एक जल सरिता या धारा को कई-कई तालाबों की शृंखला में मोड़कर हर बूँद को बड़ी नदी व वहाँ से समुद्र में बेजा होने से रोकने की अनूठी परम्परा थी। उत्तरी अराकोट व चेंगलपेट जिले में पलार एनीकेट के जरिए इस 'पद्धति तालाब' प्रणाली में 317 तालाब जुड़े हैं। रामनाथपुरम में तालाबों की अन्तरशृंखला भी विस्मयकारी है।
पानी के कारण पलायन के लिए बदनाम बुन्देलखण्ड में भी पहाड़ी के नीचे तालाब, पहाड़ी पर हरियाली वाला जंगल और एक तालाब के ''ओने''  (अतिरिक्त पानी की निकासी का मुँह) से नाली निकालकर उसे उसके नीचे धरातल पर बने दूसरे तालाब से जोडऩे व ऐसे पाँच-पाँच तालाबों की कतार बनाने की परम्परा 900वीं सदी में चन्देल राजाओं के काल से रही है।
वहाँ तालाबों के आन्तरिक जुड़ावों को तोड़ा गया, तालाब के बन्धान फोड़े गए, तालाबों पर कालोनी या खेत के लिए कब्जे हुए, पहाड़ी फोड़ी गई, पेड़ उजाड़ दिए गए। इसके कारण जब जल देवता रुठे तो पहले नल, फिर नलकूप के टोटके किए गए। सभी उपाय जब हताश रहे तो आज फिर तालाबों की याद आ रही है।
यह जान लेना जरूरी है कि धरती पर इंसान का अस्तित्व बनाए रखने के लिए पानी जरूरी है तो पानी को बचाए रखने के लिए बारिश का संरक्षण ही एकमात्र उपाय है। यदि देश की महज पाँच प्रतिशत जमीन पर पाँच मीटर औसत गहराई में बारिश का पानी जमा किया जाए तो पाँच सौ लाख हेक्टेयर जमीन पर पानी की खेती की जा सकती है। इस तरह औसतन प्रति व्यक्ति 100 लीटर पानी प्रति व्यक्ति पूरे देश में दिया जा सकता है।
और इस तरह पानी जुटाने के लिए जरूरी है कि स्थानीय स्तर पर सदियों से समाज की सेवा करने वाली पारम्परिक जल प्रणालियों को खेाजा जाए, उन्हें सहेजने वाले, संचालित करने वाले समाज को सम्मानित किया जाए और एक बार फिर समाज को पानीदार' बनाया जाए। यहाँ ध्यान रखना जरूरी है कि आंचलिक क्षेत्र की पारम्परिक प्रणालियों को आज के इंजीनियर शायद स्वीकार ही नहीं पाएँ सो जरूरी है कि इसके लिए समाज को ही आगे किया जाए।
जल संचयन के स्थानीय व छोटे प्रयोगों से जल संरक्षण में स्थानीय लोगों की भूमिका व जागरुकता दोनों बढ़ेगी, साथ ही इससे भूजल का रिचार्ज तो होगा ही जो खेत व कारखानों में पानी की आपूर्ति को सुनिश्चित करेगा।(इंडिया वाटर पोर्टल से साभार)