2020 के जाते हुए
इस साल ने हमें बहुत कुछ सिखाया है। इस कठिन समय में अपने परिवार का साथ कितना
जरूरी है, यह तो सबने जान ही लिया है; पर जो सबसे बड़ी बात हमने इस दौर में सीखी है, वह
है हिम्मत के साथ इस मुसीबत का सामना करना, खुश रहना, खुशियाँ बाँटना, दूसरों के
दुःख में शामिल होना और उन्हें दूर करने का प्रयास करना, तथा हर हाल में सकारात्मक
बने रहना। यही मानव का स्वभाव भी है।
उपर्युक्त संदर्भ में
एक बात याद आ रही है - चार साल पहले जब हमने अपने नए घर में प्रवेश किया, तो घर के सामने वाले बगीचे में गुलाबी
फूलों वाले कचनार के दो पेड़ लगे थे, जबकि बिल्डर ने वहाँ चार कचनार के पेड़ लगाए
थे, दरअसल जिसने हमारे सामने वाला घर लिया था, उन्होंने अपने
घर के सामने लगे दो कचनार के पेड़ कटवा दिए थे। कारण पूछने
पर पता चला कि वास्तु के नज़रिए से वे अपने घर के सामने कोई
बड़ा पेड़ नहीं चाहते थे। पेड़ किसी को नुकसान पहुँचा सकते हैं, यह बात हमें कुछ अजीब-सी लगी थी... पर अपना- अपना
विश्वास या कहें अंधविश्वास। यह भी सच है कि नया घर बनवाने के पहले वास्तु का
ध्यान सभी रखते है, क्योंकि हर इंसान चाहता है कि जिस घर में वे जिंदगी गुजारने वाले
हैं, वह घर हर तरफ से सकारात्मक ऊर्जा से भरा हो, परिवार में
सुख- समृद्धि हो, सब स्वस्थ और प्रसन्न रहें। इसके लिए सब अलग- अलग तरीके से उपाय
करते हैं। बड़े- बुज़ुर्ग अपने अनुभव से कहते भी हैं कि घर
ऐसा होना चाहिए, जहाँ पर्याप्त
प्राकृतिक रोशनी पहुँचे, शुद्ध हवा आए, घर के आस-पास गंदगी न
हो, हरे- भरे पेड़- पौधे हों, तुलसी का पौधा हो आदि आदि... अक्सर यह भी कहते सुना
गया है कि आपके घर का मुख्य दरवाज़ा बाहर तरफ खुलने वाला नहीं
होना चाहिए। ऐसा होने पर वह घर की ऊर्जा को बाहर की ओर ढकेल देता है। दरवाज़ा बाहर खुलने से ऊर्जा बाहर कैसे जाएगी यह तो नहीं पता पर यह अवश्य सत्य है
कि यदि आप अपने घर के आस-पास सकारात्मक ऊर्जा बिखरने वाला वातावरण बनाए रखेंगे तथा
आपका परिवार और आपके आस- पास रहने वाले लोग खुशमिजाज होंगे तो दरवाजा अंदर खुले या
बाहर सकारात्मक ऊर्जा कहीं नहीं जाने वाली, वह आपके भीतर ही
रहेगी।
कहने का तात्पर्य
यह है कि जब से कोरोना जैसी महामारी ने हमारे जीवन में प्रवेश किया है, तब से पॉजिटिव- निगेटिव जैसे कुछ शब्द भी हमारी
जिंदगी का हिस्सा बन गए हैं। मास्क लगाना, हाथ धोना और एक निश्चित दूरी बनाकर रहना
जैसी कुछ बातों को हम सबने अपना लिया है, लेकिन यह भी सत्य है कि इस परिस्थिति में
बहुत लोगों के भीतर अवसाद और निराशा की भावना भी घर करते जा रही है। स्कूल कॉलेज
बंद हैं, तो बच्चे घर में रहकर और ऑनलाइन पढ़ाई करके ऊब चुके
हैं। घर पर रहकर काम करने का अपना अलग की आनंद भले ही हो क्योंकि आपको दिनभर
परिवार के बीच रहने का सुख मिलता है, माँ या पत्नी के हाथ का गरम खाना मिलता है तथा
सुबह सुबह ऑफिस जाने की हड़बड़ी से भी मुक्ति मिल गई है... पर काम के बाद फिर घर
में ही बैठे रहना एक सज़ा जैसी लगने लग गई है... गृहणियों को भी ऑनलाइन शॉपिंग या फोन करके घर पर
ही राशन और सब्जियाँ आदि मँगाने की आदत भले ही हो गई है, पर
घर में रहते-रहते वे भी ऊब गईं हैं। छुट्टियों में घुमने जाना, पिकनिक करना,
होटलिंग करना, सिनेमा हॉल में बैठकर पिक्चर देखना... जैसे बहुत सारे शौक से सब
वंचित हो गए हैं।
कुल मिलाकर इस
दिनचर्या से अलग कुछ तो हर किसी को चाहिए। व्यक्ति दो माह, चार माह या एक साल एक बँधी-
बँधाई जिंदगी में अपने आपको बाँध ले, उसके बाद तो थोड़ी
निराशा और अवसाद के क्षण आ ही जाते हैं। सबके भीतर यह भावना आती है कि वह अपनी मन-मर्जी से जहाँ
चाहे आ जा सके, तो जीवन कितना सुकून-भरा
हो। पर आज स्थिति ये है कि परिवार का कोई भी सदस्य बाहर से घर आता है तो सुरक्षा
की दृष्टि से न बच्चों के समीप जाता न किसी से मिलता और न ही घर की किसी वस्तु को
हाथ लगाता तथा पूरी तरह स्वच्छ होकर ही वह परिवार के लोगों से मिलता है। मैं एक
ऐसे परिवार को जानती हूँ, जहाँ के दो सदस्य घर पर रह कर काम
करते हैं और तीन सदस्य काम के सिलसिले में बाहर जाते हैं, वे सब जब घर में एक साथ होते
हैं, तब भी दिन और रात मास्क पहनकर ही रहते हैं। ऐसे कई तरह
के बंधन कई बार खीझ पैदा कर देते हैं।
यह तो हुई एक
परिवार या एक व्यक्ति के सकारात्मक या नकारात्मक सोच की बात; पर
इसके साथ एक दूसरे पक्ष भी है, जिसे हमें नज़रअंदाज़ नहीं करना है... हमारे देश में एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है जिनके पास
काम नहीं है अथवा इन दिनों उनकी रोजी-रोटी छिन गई है, वे अपना घर चलाने के लिए ऐसे
काम करने को मजबूर हो गए हैं, जो उनके स्तर का नहीं है। इसी
एक बहुत बड़े वर्ग के लिए ही इस समय एकजुट होकर काम करने की जरूरत है... यहाँ सिर्फ
एक उदाहरण देना चाहूँगी... कोविड के चलते बहुत सारे निजी स्कूल बंद हो गए हैं
परिणाम शिक्षकों से लेकर स्कूल प्रबंधन के अन्य कर्मचारी बेकार हो गए हैं... सुनने
में यहाँ तक आया है कि कई शिक्षकों को अपने परिवार के लिए मज़दूरी
करके दो जून की रोटी की व्यवस्था करनी पड़ रही है। यह एक गंभीर समस्या है और
सरकारी, तथा गैरसरकारी स्तर पर इसका समाधान निकालना ही चाहिए। इसी प्रकार की
स्थिति अन्य कई छोटे- बड़े उद्योग- धंधों के बंद होने पर उत्पन्न हो गई है। इस
मुसीबत की घड़ी में सरकार के साथ बहुत सारे हाथ सहयोग के लिए आगे बढ़े हैं और
बहुतों की ज़िन्दगी को उन्होंने सँवारा है, पर समस्या की
विकरालता को देखते हुए यह सहयोग समुद्र में बूँद की तरह है। इस बूँद को हमें
बढ़ाना होगा। आखिर बूँद-बूँद से ही घड़ा भरता है।
तो आइए... कोरोना
के टेस्ट में सबका परिणाम निगेटिव आए ऐसी प्रार्थना करते हुए हम एक- दूसरे को
सकारात्मक ऊर्जा इस विश्वास के साथ बाँटें, कि जाते हुए साल के साथ हम सबके जीवन से
कोरोना भी बिदा हो जाए।
5 comments:
उत्तम विचारोत्तेजक आलेख. पुरुष और प्रकृति अविभाज्य हैं पर अफसोस आज का कालिदास रूपी पुरुष स्वार्थवश अपनी मातृस्वरूपा प्रकृति को उजाड़ने पर ही तुल गया है. विनाश काले विपरीत बुद्धि. कोरोना जैसी आपदाएं शायद उसी का बाय प्रोडक्ट हैं. यह समय भी समय के साथ बीत जाएगा पर जो बीत जाना चाहिए वह है नकारात्मक मानसिकता. हार्दिक आभार सहित सादर
मनुष्य यदि प्रकृति के साथ खिलवाड़ करेगा तो उसके दूरगामी परिणामों का भुगतान तो करना ही होगा । आपदाएँ दस्तक देती रहेंगी। कोविड-19 में शारीरिक,मानसिक, आर्थिक रूप से बहुत कुछ खोया है, कुछ पाया है,सीखा है। जीवन में सकारात्मक सोच बनी रहे। विचारणीय,प्रेरणादायी आलेख।
कोविड के इस दौर ने सभी को कुछ न कुछ सिखाया है , कुछ बिछुड़ा है ।
अच्छा लेख - बधाई ।
बहुत सार्थक लिखा आपने। इस कोरोना-काल में जीवन बहुत अस्त-व्यस्त हुआ। कुछ अच्छा तो कुछ बहुत बुरा। फिर भी हमें सकारात्मक सोच तो रखनी ही पड़ेगी। विचारपूर्ण आलेख के लिए बधाई।
उत्साहवर्धन के लिए आप सबका बहुत- बहुत धन्यावाद... आभार... 🙏
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