वो
नौ होकर भी...
-प्रगति गुप्ता
आज जीवन और मृत्यु से लड़ती सुनंदा की साँसें थम गई। तीन बेटियाँ, एक बेटा और नौ
नाती-पोतों से भरा पूरा परिवार था उसका। उसकी थमती साँसों के साथ सारे के सारे
अपने-अपने विचारों में उसकी यादों संग कहीं ठहर गए।
सात नाती-नातिन व
दो पोता-पोतिन की नानी-अम्मा सुनंदा ने इस ब्याज में अपने बच्चों का भविष्य देखा
था। मानी उसकी तीन बेटियों विनीता, विभा, विभूति और एक बेटे वैभव का भविष्य। कहते
हैं मूल से ज़्यादा ब्याज प्यारा होता है;
क्योंकि खुद के बच्चों के
बड़े होने के बाद जवानी जैसी भाग-दौड़ कम हो जाती है। सुनंदा ने भी बढ़ती उम्र के साथ
जब-जब मौका मिला अपना शेष समय इस ब्याज को दिया। अपने व्यावहारिक
व आध्यात्मिक ज्ञान के सार को धीमे-धीमे इन नौ में उतारने की कोशिश की। बाबा-नाना
कृष्णा ने हमेशा सुनंदा के सहयोगी की भूमिका निभाई।
गर्मियों की
छुट्टियाँ हो या अन्य कोई अवसर सुनंदा के बिस्तर पर नौ के नौ बच्चों का जमघट जमा रहता
था। छोटी-बड़ी सभी बातें साझा होतीं। फिर रात में हर रोज़ बच्चों का
बारी-बारी सुनंदा और कृष्णा के बीच अपने-अपने सोने की बारी तय करना। दोनों के लिए असीम सुख की अनुभूतियों से जुड़ा
था। बगैर किसी झंझट बग़ैर किसी विद्रोह। नौ के नौ ख़ुद ही तय कर लेते किसकी बारी
पहले आएगी और कौन बाद में सोएगा। चूँकि पोते और पोती को तो
सुनंदा के पास साल भर ही कभी भी सोने का मौका मिल जाता, तो
वो ख़ुद ही बोल देते...
“वैसे तो अम्मा के पास हम कभी भी
सो सकते है, पर यश भैया आप
ही तय कर दो कौन कब सोएगा।” चूँकि यश सबसे बड़ा था तो वो जो
बारी तय कर देता, सारे के सारे बच्चे मान लेते। वो भी छोटे
से बड़े की बारी सोने के लिए तय करता था। यूँ तो सुनंदा के सभी लाडले थे पर सुनंदा
को कभी भी इस बात को लेकर कुछ नहीं सुलझाना पड़ा। बचपन से लेकर बड़े होने तक सुनंदा
की बातें इन नौ को बहुत अच्छे से समझ आती थी। कभी-कभी तो सुनंदा और कृष्णा के बीच
दो भी घुस जाते और बोलते.. ‘नाना-नानी हम आपको बिल्कुल परेशान नहीं करेंगे। आप
दोनों आराम से सोना।’ ऐसे में कृष्णा और सुनंदा मुस्कुरा देते और बच्चों की जिद्द
के आगे हार जाते। गिनती की छुट्टियों का महत्त्व सबको पता था।
एक-एक बच्चे की
बातों को ध्यान से सुनना,
उनके अनगिनत प्रश्नों के उत्तर धैर्य के साथ देना, सुनंदा के लिए पूरे साल का सबसे
अच्छा समय था। एक-एक बच्चा सुनंदा से घंटो-घंटो बात कर लेता। अगर उनसे विनीता,
विभा, वैभव या विभूति में से कोई पूछता नानी से क्या बात हो रही थी या दादी से
क्या बात हो रही थी, तो वही बच्चा बोलता...
“हमारा सीक्रेट है मम्मा...आप
नही समझोगे।” कितनी बातें थी
इन बच्चों के पास सुनंदा को बताने को। कई बार अपने नाती-पोतों को बातों के मन की
अनकही बातों का सुनंदा इतना सूक्ष्म विश्लेषण कर पाती जितना कि उसका अपना बेटा या बेटियाँ नहीं कर पाते। ऐसा नही था कि बच्चों को मां-बाप समय नही देते थे, बस फर्क सिर्फ इतना था कि नौ के नौ बच्चे आपसी होड़ की वजह से अक्सर इतना
अधिक खुलकर अपनी बातें सुनंदा को बताते कि सुनंदा को बातों की तह तक पहुँचने में बहुत मशक्कत नही करनी पड़ती।
जब सुनंदा के साथ बच्चों
का जमघट लगता, तो कृष्णा भी
दूसरे कमरे में जाकर बैठ जाते; क्योंकि बिस्तर पर नौ बच्चे
और सुनंदा के अलावा जगह ही कहाँ बचती थी। बाबा-नाना होने के नाते उनको भी अपने
बच्चों पर फक्र होता।
बच्चों से फ्री
होकर सुनंदा जब भी अपने जायों के साथ बैठती,
तो बोलती... "तुम
चारों मेरे जीवन के बहुत सुंदर स्वप्न थे और तुम्हारे बच्चे मेरे जीवन की कमाई।
तुम चारों ने बहुत अच्छे संस्कारों से इनको सींचा है। मैं तो बस उन संस्कारों को
हल्का-हल्का आकार देकर निखार रही हूँ। तुम चारों के भविष्य को सुरक्षित करने की
कोशिश कर रही हूँ। या सोचूँ तो इन सबको महसूस करके निश्चिंत होकर जाना चाहती हूँ।"
"कैसी बातें सोचती
हो माँ। अभी तो आपको सबकी शादियाँ करवानी है। उनके बच्चों को खिलाना है।"विनीता
या विभा हमेशा माँ को ऐसी बातें करने से रोक देती।
माँ हमारी बातें
सुनकर कहती... बेटा! इतना आगे का नहीं सोचती। जो आज देख पा रही हूँ ,उसी से अभिभूत हो लूँ। खुश हूँ बहुत मैं।
तुम चारों को दिए हुए संस्कार जब मैं इन बच्चों में भी देखती हूँ तो तुम्हारे पापा
और मैं ईश्वर के आगे सिर झुकाते है बेटा।"
"माँ आपने भी तो थोड़े-थोड़े
दिन की छुट्टियों में आपके पास आये हुए बच्चों को एक सूत्र में बाँध दिया है। सब
पूरी तरह अलग व्यक्तिव है,
फिर भी एक हैं। कल अग्रवाल अंकल बोल रहे थे- नौ बच्चे घर में
हैं, पर घर इतना शांत है। क्या यह लोग जब छोटे थे तब भी नही
लड़े क्या?...मेरे न करने पर वो
बहुत आश्चर्य कर रहे थे। मैंने अंकल को बताया 'यहाँ आने के बाद नौ के नौ बच्चे वो करते और सोचते हैं , जो माँ को अच्छा लगता है। बचपन से अब तक
माँ ने सबको इसी तरह एक दूसरे के लिए करना सिखाया, तो सब आज
भी वही करते हैं। अंकल पीहर आने के बाद हम तो अपने बच्चों को माँ के सुपुर्द करते
आये हैं और माँ-पापा को इनके साथ समय गुजारना सबसे सुखद लगता है।"विनीता ने
बताया।
"बहुत अच्छी बात है
बेटा ऐसा तो यही देखा। घर में नौ बच्चे हो अलग-अलग उम्र के और सभी एक दूसरे में
अपनी खुशियाँ ढूंढ रहे हो।दिल खुश हो गया। तुम सब खुश रहो।"
सुनंदा और कृष्णा
ने जैसे ही मिस्टर अग्रवाल की बात सुनी तो उनको अपने बच्चों पर बहुत लाड़ आया। सुनंदा
उनको बच्चे कहा करती थी हालाँकि अब सब अपनी-अपनी दिशाएँ तय कर चुके थे। बड़े
नातियों ने तो पढ़ाई पूरी कर नौकरी भी शुरू कर दी थी।
फिर एक दिन बड़े
नाती के विवाह के कुछ दिन बाद ही मानो सब ठहर सा गया...ब्रैन-स्ट्रोक की वजह से
सुनंदा का अचानक ही चले जाना न सिर्फ उसके बच्चों बल्कि उसके नाती-पोतों के जीवन
में हलचल मचा गया। सुनंदा उन सबके जीवन में कहाँ-कहाँ बैठी थी उसकी तीनो बेटियों
और बेटे को बहुत करीब से कुछ इस तरह महसूस
हुआ कि उनकी बातें सुनकर उन सबके धैर्य के बाँध जो एक बार टूटे तो बँधने से भी न बँधे...
माँ के जाने के बाद
विभा जब वापस अपने ससुराल लौटी,तो उसके बेटे यश ने हाल में हुए
विवाह के बाद अपने हनीमून पर जाने से मना कर दिया।
" माँ नहीं जाना
मुझे। आपको क्या लगता है मैं वहाँ अच्छा महसूस कर सकता हूँ। फिर नेहा भी नहीं जाना चाहती। जो भी रुपया टिकट में खर्च हुआ मेरे
लिए नानी के जाने से बड़ी बात नहीं।.....माँ एक बात कहूँ मेरी शादी पर नानी बहुत
खुश थी न...उनको नज़र लग गई।...माँ ! हम बिलासपुर नानी के घर जाते थे न। अब नानी के
जाने के बाद....नानी का घर..."बोलते-बोलते यश की आवाज़ भर्रा गई। उसकी आवाज़ को
सुनकर विभा की आँखे भी भर आईं। सच ही तो सोच रहा था यश। नानी का घर अब नानी की
अनुपस्थिति में एक निर्वात को छू रहा था।
जुड़वाँ बेटियों
श्रद्धा और इरा ने तो माँ के वापस आने के बाद न जाने कितने दिन तक विभा का साथ नहीं
छोड़ा। दोनों अंदर ही अंदर कहीं डर गई थी। माँ का जाना अक्सर बात करते-करते जब विभा
को रुला देता, तो दोनों को
अपनी माँ कुछ ज्यादा ही मूल्यवान लगने लगी थी। रात सोते-सोते जब श्रद्धा या इरा
कसकर विभा का हाथ पकड़ लेती, तो विभा समझ जाती बहुत कुछ डरा
गया है दोनो को। एक रोज इरा ने विभा से कहा..
" माँ नानी को नहीं जाना था, इस तरह। हम बिलासपुर अब जब भी जाएँगे नानी
को सारे घर में ही खोजेंगे माँ।"...इरा की आँखें बोलते-बोलते जैसे ही भर आईं।
श्रद्धा ने उसको कसकर गले लगाते हुए कहा...
"इरा नानी हमारे साथ
हमेशा है, पगली। हम नौ के नौ ने उनसे बहुत कुछ सीखा
है। हम सभी के अंदर माँ-पापा के अलावा नानी की बातें रहती है। श्रद्धा ने इरा को
जैसे ही ढाँढस देने की कोशिश की वो ख़ुद बोलते बोलते फूट-फूटकर रो पड़ी। तब विभा ने
दोनो को कस कर अपने गले से लगा तो लिया, पर उसके सामने भी
मां की उसके बचपन से लेकर बुढ़ापे तक की यादें दौड़ने लगी। तभी वैभव का फ़ोन आ गया।
फ़ोन पर हेलो बोलते ही जैसे ही उसने विभा की आवाज़ सुनी भर्राती हुई आवाज़ में बोला..
दीदी! सुदर्श और
नियति माँ के अचानक चले जाने से बहुत आहत हैं। आप तो जानती ही हो सुदर्श और नियति
में मात्र नौ महीने का अंतर ही था। सुदर्श को तो माँ ने ही पाला-पोसा है। दीदी कल
ही मुझे पता चला अंत्येष्टि के बाद जब सुदर्श और मैं अस्थि-फूल चुनने गए, वो माँ
की घुटनों में लगी प्लेट को उठा लाया। और नियति ने माँ का चश्मा चुपचाप छिपा लिया
था। जब मैंने दोनों को समझाने की कोशिश कि तो दोनों ने ही कहा...
"पापा इन्ना हमारी
ताकत थी। उसकी कोई भी चीज़ हमें कमजोर नहीं करेगी। हमको उनको अपने पास रखना था।
दीदी मैं निःशब्द था। बच्चे छोटे तो नही हैं, बल्कि बहुत
समझदार हैं। अगर माँ से जुड़ी स्मृतियाँ उन्हें मजबूती देती हैं, तो मैं उनकी भावनाओं तो तोड़ नही
सकता।"
अब विभा को ध्यान
आया कैसे मां की अलमारी के समान को नियति ने किसी को भी छूने नही दिया था। ताकि सब
कुछ वैसा ही रहे जैसा माँ रखा करती थी। हर एक चीज़ बहुत सुव्यवस्थित व करीने से जमी
हुई।
विभा जब वैभव से
बात कर रही थी तभी विनीता का भी फोन आ गया। बात करते-करते विनीता ने जब अपने बेटे
से जुड़ी बात को बताया तो भी रोने लगी...
विभा मुझे नहीं पता
था हर्ष ने माँ के दिए रुपयों को अपने कपड़ों की तय में छिपा कर रखा था। आज उसकी
अलमारी जमाते समय मैने वो रुपये उसके दूसरे रुपयों के साथ रख दिए तो बहुत गुस्सा
हुआ वो। मुझसे बोला ‘नानी के हाथ से दिए रुपये थे माँ। आपने उनकी यादों के स्पर्श
को बिखेर दिया। आपको नहीं करना था ऐसा।’
मुझे बहुत रोना आया विभा बच्चों ने कितनी छोटी-छोटी यादें समेट रखी थी।
बोलते-बोलते विनीता ने यह कहकर फोन रख दिया कि अभी उस से बात नहीं होगी। कल करेगी।
विभूति की बेटी
गार्गी तो डायरी लिखा करती थी, जिसके पन्नों की कई फोटो खीच कर उसने हम भाई-बहनों को शेयर की और कहा...
“मैं इस डायरी को
पढ़ने के बाद आप सब के साथ सब साझा नहीं कर पाऊँगी; क्योंकि गार्गी ने हर गर्मी की छुट्टियों में माँ के बेड पर
हुई भाई- बहनों की बातों को माँ की यादों से जोड़ कर लिखा हुआ है। माँ के जाने के
बाद उस की आखिरी पंक्ति है कि.. ‘नानी में आपको कभी भूलना ही नहीं चाहती क्यों कि
आप थी तो हम सब हैं। आपके और नाना के साथ की हमारे पास ढेरों यादें हैं जो हम नौ
के जीवन की पूंजी हैं।’....यह सब बोल कर विभूति बिल्कुल निःशब्द हो गई।
सबकी जान बसी थी
सुनंदा में। सभी के बचपन से लेकर बड़े होने तक हर छोटी बड़ी बातों का हिस्सा थी
सुनंदा। और उसका जाना उन नौ के नौ का वो बहुत अपने- से कोने का गुम हो जाना था, जहाँ नौ के नौ अपनी हर बात को कह कर
निश्चिंत हो जाते थे। उनके सिर पर हाथ रखना उस संजीवनी का सत था जो एक ही चम्मच से सुनंदा ने सबको पिलाई थी।
एक दूसरे से इतना दूर होने पर भी नौ के नौ एक थे और सुनंदा उसकी सूत्रधार थी।
जैसे-तैसे पूरा साल बीता। सुनंदा की बरसी पर सब इककठे हुए।
बरसी के हवन के बाद
सारे बच्चे सुनंदा और कृष्णा के बिस्तर पर जाकर आढ़े-तिरछे होकर शांत लेट गए। कहीं
कोई आवाज या कोई बात नहीं थी। साथ वाले कमरे में कृष्णा अपने चारों बच्चों के साथ
बैठे थे कि अचानक बच्चों की आवाज़ सुनाई थी। शायद गार्गी के अचानक रोने से सुदर्श
और नियति ने भी रोना शुरू कर दिया था। यश और हर्ष बड़े होने के नाते उन सबको धीमी
आवाज में समझा रहे थे..
“अब हममे से कोई
नहीं रोएगा। नानी आहत होगी। कभी किसी को जरूरत होगी, तो साथ खड़े होंगे। जब हम उनके रहते हुए बहुत प्रेम से रहे हैं,
तो आगे भी एक दूसरे के साथ प्रेम से रहेंगे। नानी यही तो चाहती थी- उसके नाती-पोते बाहर वालों को एक सूत्र में दिखाई दें। तुमको याद है नानी कहा करती थी जाने वाले को शांत मन से विदा करना चाहिए,
ताकि उसका जीव शांत रह सके। यश और हर्ष के समझाने पर सुदर्श और
नियति जोर से यश और हर्ष से चिपक गए और बोले..
“आप दोनों हम सब से
बड़े हैं भैया। इन्ना के साथ शुरू से ही हम सारा समय साथ रहे हैं। इन्ना में हमारी
जान बसती थी। बोलकर दोनों रोने लगे, तो हर्ष ने दोनों को अपने सीने से लगाकर कहा....
“हम सब साथ हैं न।
उनकी यादों को अपनी ताकत बनाएँगें। नानी ने जो हम सबको सिखाया-बताया है, उसको
जीवनपर्यंत साथ रखेंगे। तभी नानी जहाँ भी होगी खुश रहेंगी।” तभी यश ने धीमी आवाज
में कहा..
“अब कोई भी मत
रोना। हम सबके मम्मी-पापा नानी के जाने से बहुत दुखी हैं। जैसे उन लोगों ने हमारे
ग्रैन्ड पेरेंट्स को सँभाला
है हमको उनको संभालना है। हम सबके परेशान होने से वो लोग परेशान होंगे। मैं और
हर्ष तुम सबमें बड़े हैं , कभी भी किसी को दिक्कत हो, तो साझा
करना। आज के बाद कोई नहीं रोएगा।” बोलते-बोलते यश की आवाज भी भर्रा गई।
पास के कमरे में
आती हुई बच्चों की आवाजों ने कृष्णा, विनीता, विभा, वैभव और विभूति की आँखों के
बाँध तोड़ दिये। कृष्णा रोते हुए बोले..
“सुनंदा के जाने से
बहुत दुखी हूँ मैं। पर आज निश्चिंत भी हूँ। सुनंदा ने न सिर्फ़ मेरे बच्चों को
संस्कार दिए बल्कि वो नौ के नौ को भी एक सूत्र में पिरो गई। आज महसूस हो रहा
हैं...ये नौ होकर भी एक हैं। एक स्त्री होकर कितनी समर्थ और सबल थी सुनंदा। जिसने
सारे बच्चों के संस्कारों की नींव मजबूत कर दी। तभी यह बच्चे अपने बाबा-अम्मा और
नाना-नानी को इतना मान-सम्मान देते हैं।
आज सुनंदा जहाँ भी होगी निश्चिंत होगी। कल अगर मैं या मेरे बच्चे न भी रहे तो यह
नौ एक दूसरे को संभाल लेंगे यह मेरा विश्वास है।
लेखक परिचयः प्रगति गुप्ता (जोधपुर ), शिक्षा: एम. ए. (समाजशास्त्र) गोल्ड
मैडल, व्यवसाय: चिकित्सा व सामाजिक
क्षेत्र में मरीज़ों की कॉउंसिललिंग व लेखन, काव्य संग्रह: ‘तुम कहते तो’ सितम्बर
2017 (पुरुस्कृत), ‘शब्दों से परे’ जनवरी 2018 (पुरुस्कृत), ‘सहेजे
हुए अहसास’ सितम्बर (2018),
मिलना
मुझसे ई-पत्रिका अमेज़न जनवरी 2019,
‘अनुभूतियाँ प्रेम की’ काव्य संकलन जनवरी (2019) (संपादन), सुलझे..अनसुलझे!!! (प्रेरक संस्मरणात्मक लेख), गद्य और पद्य दोनों ही विधाओं में देश-विदेश की विभिन्न प्रतिष्ठित
पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, संस्मरण
आलेख, लघुकथा व कहानियाँ, हाइकु
का निरंतर प्रकाशन। कई कहानियाँ पुरस्कृत। सम्पर्कः 58, सरदार क्लब स्कीम, जोधपुर -342001,
मो. न.- 09460248348, 07425834878
5 comments:
संस्कारों की धरोहर सहेजती सुनन्दा की बहुत सुंदर कहानी.... आपको बधाई प्रगति जी!
संस्कारों को बल देती अत्यंत भावपूर्ण मर्मस्पर्शी बहुत सुंदर कहानी। बधाई प्रगति जी
आभार प्रीति जी 🙏
दी बहुत आभार 🙏
बहुत ही सुंदर...!
सुनंदा एक आदर्श बन गईं हमारे लिए।
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