भारत आगे-आगे दुनिया पीछे-पीछे
- लोकेन्द्र सिंह
भारत की लोक कथाओं में जो ज्ञान समाहित है,
उसे आधुनिक विज्ञान आधार देता नजर आ रहा है। रामायण-महाभारत
काल और उससे जुड़ी कथाओं को खयाली पुलाव मानने वालों को समय-समय पर वैज्ञानिक
खोजों और शोधों से जवाब मिलता रहता है लेकिन बावजूद इसके वे अपने दिमाग पर पड़ी
धूल को हटाने के लिए तैयार नहीं होते हैं। मैकाले शिक्षा व्यवस्था से शिक्षित
ज्यादातर बुद्धिजीवी पता नहीं यह मानने को क्यों तैयार नहीं होते कि भारत में
विज्ञान, कला, व्यापार
और राजनीति उन्नत शिखर पर थी, भारत
विश्वगुरु था, भारत सोने की चिडिय़ा था। भारत
आगे-आगे है और दुनिया पीछे-पीछे। जिस वैज्ञानिक सोच और प्रमाणों की बात वे करते
हैं कम से कम उसी वैज्ञानिक सोच के माध्यमों से जो सच सामने आ रहा है उसे तो
स्वीकार कर ही लेना चाहिए। गर्भ में ही शिशु शिक्षित होने लगता है,
यह भारत का बहुत पुराना मत है। वेदों में भी वर्णन है। यही
कारण है कि घर-गाँव के बुजुर्ग गर्भवती महिला को अच्छे माहौल में रहने की सीख देते
हैं। उसे अच्छा खाना, अच्छा पहनना,
अच्छे चिंतन की सलाह देते हैं। बढिय़ा पुस्तकें पढऩे के लिए
प्रेरित करते हैं। इष्टदेव का स्मरण करने को कहते हैं। गर्भ में ही शिशु
सीखना शुरू कर देता है, इसके लिए यह सब किया जाना चाहिए,
यह भारतवासियों के लोक-व्यवहार में दिखता भी है। भारत के महान
विचारकों के इस मत को अब ताजा शोधों से बल मिला है। फिनलैण्ड की हेलसिंकी
यूनिवर्सिटी के न्यूरोसांइटिस्ट इनियो पार्टानेन और उनके साथियों ने एक शोध से इस
बात की पुष्टि की है कि शिशु गर्भ में शिक्षित होना शुरू कर देता है। उनके शोध को
लेकर हाल ही में देश-दुनिया के अखबारों में समाचार प्रकाशित हुए हैं। वैज्ञानिकों
ने स्वीडिश और अमरीकी बच्चों के ऊपर जन्म के सात से लेकर 75
घंटे बाद तक परीक्षण किए। शोधकर्ताओं ने शिशु के मस्तिष्क की प्रतिक्रियाओं को
इलेक्ट्रोड्स द्वारा जाँचा तो गर्भावस्था में सुने गए शब्दों के प्रति उसने
तंत्रकीय समानता दिखाई। शोध के नतीजे बताते हैं कि गर्भ में शिशु ने मातृभाषा के
जिन शब्दों को पहचाना था, जो
गीत-संगीत सुना था, उसे वे जन्म के चार माह बाद तक याद
रख सकते हैं। पश्चिम का विज्ञान और विद्वान इस बात का पता अब लगा सके हैं,
जबकि भारत में यह आमधारणा
है। इनियो पार्टानेन और उनके वैज्ञानिक साथी अभी भी इस बात को नहीं जान सके हैं कि
गर्भ में शिशु के सीखने की क्षमता क्या है? वह किस
सीमा तक और कितना सीख सकता है? जबकि
भारतवर्ष में इस सम्बन्ध में कई उदाहरण मौजूद हैं। युद्ध से लेकर वेद तक की शिक्षा
गर्भ में ही पाकर बालकों का जन्म भारत में हुआ। उन्होंने गर्भ में पाए ज्ञान का
प्रकटीकरण और उपयोग भी किया।
गर्भ में ही शिक्षा प्राप्त करने वालों में सबसे बढिय़ा
उदाहरण अभिमन्यु और अष्टावक्र का है। अभिमन्यु विश्वविख्यात धर्नुधर अर्जुन के
पुत्र थे। अर्जुन अपनी पत्नी सुभद्रा को चक्रव्यूह भेदने की विधि सुना रहे थे।
सुभद्रा गर्भवती थीं। गर्व में महान योद्धा अभिमन्यु थे। इसी दौरान अभिमन्यु ने
अपने पिता अर्जुन से चक्रव्यूह भेदना सीख लिया; लेकिन
अभिमन्यु चक्रव्यूह से बाहर निकलना नहीं सीख सके, क्योंकि
पूरी विधि सुनने से पहले ही उनकी माँ सुभद्रा को नींद आ गई थी। महाभारत युद्ध के
दौरान अभिमन्यु ही थे ;जिन्होंने कौरवों के चक्रव्यूह को
भेदा। अभिमन्यु को चक्रव्यूह से बाहर निकलने की विधि नहीं पता थी,
इसका लाभ कौरव पक्ष ने उठाया। कौरव पक्ष की ओर से रणभूमि में
उतरे महारथियों ने मिलकर अभिमन्यु का वध कर दिया। गर्भ में ही शिक्षा पाए एक महान
योद्धा के अन्तकी यह करुण कथा विश्वविख्यात है और भारत के उन्नत
वैज्ञानिक दृष्टिकोण की एक झलक भी है। कुछ इसी तरह की अद्भुत कहानी है आठ अंगों से
टेढ़े-मेढ़े पैदा होने वाले ऋषि अष्टावक्र की। अष्टावक्र के पिता कहोड़ ऋषि थे। वे
वेदपाठी पण्डित थे। प्रतिदिन वेद पाठ करना उनकी दिनचर्या का अभिन्न हिस्सा था।
उनकी पत्नी सुजाता गर्भवती हुई। एक रात जब कहोड़ ऋषि वेद पाठ कर रहे थे तो गर्भ से
बालक की आवाज आई- हे पिता! आप रातभर वेद पाठ करते हैं ;
लेकिन आपका उच्चारण कभी शुद्ध नहीं होता। मैंने गर्भ में ही
आपके प्रसाद से वेदों के सभी अंगों का ज्ञान प्राप्त कर लिया है। ऋषि कहोड़ के पास
उस समय और भी ऋषि बैठे थे। गर्भस्थ बालक की ऐसी बात सुनकर उन्होंने स्वयं को
अपमानित महसूस किया। वेद पण्डित पिता का अंहकार जाग गया। वे क्रोध से आग-बबूला हो
उठे। क्रोध में ही उन्होंने अपने गर्भस्थ शिशु को अभिशाप दे दिया-हे
बालक! तुम गर्भ में रहकर ही मुझसे इस तरह का वक्र वार्तालाप कर रहे हो। मैं
तुम्हें शाप
देता हूँ कि तुम आठ स्थानों से वक्र होकर अपनी माता के गर्भ से पैदा होगे। बाद में
जब बालक का जन्म हुआ। बालक शाप के अनुसार आठ स्थान से टेढ़ा-मेढ़ा था। इसलिए उसका नाम
अष्टावक्र पड़ा। गर्भ में ही वेदों के सभी अंगों को जान लेना वाला यह बालक आगे
चलकर महान विद्वान बने और विश्व विख्यात हुए।
हिन्दू धर्म में सोलह संस्कारों का बड़ा महत्त्व
है। सोलह संस्कार का चरण जन्म से पहले और मृत्यु के बाद तक चलता है। सोलह में से
दो संस्कार तो शिशु के पैदा होने से पहले के ही हैं। एक गर्भाधान संस्कार और दूसरा
पुंसवन संस्कार। दोनों संस्कारों का उद्देश्य बलशाली,
संस्कारी और स्वस्थ्य संतान को जन्म देना है। भारतीय मनीषियों
ने इस ज्ञान को अच्छे से जान लिया था कि जैसा बीज होगा,
वैसा ही पेड़ उगेगा यानी गर्भ में जैसे संस्कार बालक को दिए
जाएँगे, उसका व्यक्तित्व उसी तरह बनेगा।
श्रेष्ठ संतान उत्पन्न हों, इसके लिए
उन्होंने धर्म में ही ऐसी व्यवस्था कर दी। उन्होंने गर्भाधान संस्कार के सम्बन्ध
में समाज को बताया। गर्भाधान संस्कार के महत्व को शास्त्रों में इस तरह बताया गया
है-
निषेकाद् बैजिकं चैनो गार्भिकं चापमृज्यते।
क्षेत्रसंस्कारसिद्धिश्च गर्भाधानफलम् स्मृतम।।
अर्थात् विधिपूर्वक संस्कार से अच्छी और सुयोग्य संतान
उत्पन्न होती है। इस संस्कार से वीर्य संबंधी पाप का नाश होता है,
दोष का मार्जन और क्षेत्र का संस्कार होता है। यही गर्भाधान
का फल है। बाद में चिकित्साशास्त्र भी तमाम शोधों के आधार पर इस निष्कर्ष पर
पहुँचा है कि गर्भाधान के समय स्त्री-पुरुष जिस भाव से भावित होते हैं,
उसका असर रज-वीर्य पर पड़ता है और बाद में ये भाव शिशु में
प्रकट होते हैं। भारतीय चिंतकों को मानना था कि जीव जब माता के गर्भ में आता है
तभी से उसका शारीरिक विकास शुरू हो जाता है। शिशु का सही दिशा में शारीरिक और
बौद्धिक विकास हो, इसके लिए हिन्दू धर्म का दूसरा
संस्कार है। शास्त्रों में कहा गया है कि जब गर्भाधान का तीसरा महीना होता है,
तब पुंसवन संस्कार किया जाता है। धर्मग्रथों में पुंसवन
संस्कार करने के दो प्रमुख उद्देश्य मिलते हैं। पहला उद्देश्य पुत्र प्राप्ति और
दूसरा स्वस्थ, सुन्दर तथा गुणवान संतान पाने का है।
भारत की थाती के बारे में जब चिन्तन करते हैं तो ध्यान
आता है कि हम क्या थे और क्या हो गए। हम कहाँ थे, अब कहाँ
हैं। दुनिया के नेता थे, अब अनुसरणकर्ता हो गए हैं। दुनिया
पहले भारत की ओर देखती थी, अब हम
दुनिया की ओर देख रहे हैं। ज्ञान-विज्ञान, खोज-आविष्कार,
जीवनशैली में भारत आगे-आगे था, दुनिया
पीछे-पीछे। अब हम कई मामलों में पीछे रह गए हैं, दुनिया
आगे-आगे चल रही है। भारत की संतानें अपना अतीत भूल गई। पुरखे जिस ऊँचाई पर
ज्ञान-विज्ञान को लेकर पहुँचे थे, उनके बाद
की पीढ़ी उसे आगे नहीं ले जा सकी। भारत को फिर से दुनिया का सिरमौर बनाना है तो
हमें वेदों की ओर लौटना पड़ेगा। वेदों और धर्मशास्त्रों को कपोल कल्पना या महज
धर्मग्रँथ मानने की मनोस्थिति से बाहर निकलना होगा। वे प्राचीन भारत के गौरवमयी
इतिहास के साक्षी हैं। वेदों को आधार बनाकर खोज और शोध करने होंगे। भारत के
प्राचीन ज्ञान को सामने लाना होगा। जिस पड़ाव पर भारत था,
हमें उस बिन्दु से आगे बढऩा होगा। इस दिशा में बहुत काम करने
की जरूरत है। कुछ संस्थान भारतीय धर्मग्रन्थों और शास्त्रों को आधार बनाकर
शोधकार्य कर रहे हैं लेकिन ये प्रयास अभी नाकाफी हैं। इनकी गति और दायरा बढ़ाने की
जरूरत है। एक बार फिर भारत का प्राचीन ज्ञान-विज्ञान साकार हो जाए तो भारत फिर
आगे-आगे होगा और दुनिया पीछे-पीछे।
सम्पर्क- गली नंबर-1 किरार
कालोनी, एस.ए.एफ. रोड,
कम्पू लश्कर ग्वालियर (म.प्र.) 474001,
मो.9893072930, Email-lokendra777@gmail.com
1 comment:
आर्यों के सोलह संस्कारों का उद्देश्य मनुष्य जीवन को सार्थक बनाना हुआ करता था। ऋषियों ने गहन शोध के पश्चात् " सम्यक करणं वा संस्कारः" को पाने के लिए जन्म के पूर्व से लेकर मृत्य उपरांत तक सोलह क्रिया विधियों का विकास किया। ये सभी वैज्ञानिक पद्धतियाँ हैं जिनका आयुर्वेद के ग्रंथों में वर्णन किया गया है । दुर्भाग्य से आज हमारे जीवन से इन सोलह संस्कारों का लोप सा हो चुका है । जो हैं भी वे केवल परम्परा को निभाने भर के लिए ही हैं, अपने वास्तविक स्वरूप में नहीं ।
षोडश संस्कार :-
गर्भाधानं पुंसवनं सीमंतो जात कर्म च
नाम क्रिया निष्क्रमोSन्न प्राशनं वपन क्रिया ।
कर्णवेधो व्रतादेशो वेदारम्भ क्रिया विधिः
केशांतः स्नानमुद्वाहो विवाहाग्नि परिग्रहः ।
त्रेताग्नि संग्रहश्चैव संस्काराह षोडशस्मृताः
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