कविवर रवीन्द्र नाथ ठाकुर (1861-1941)
भारत के एकमात्र नोबल पुरस्कार विजेता लेखक,
जिनकी पुस्तक गीतांजलि पर यह पुरस्कार उन्हें मिला।
साहित्य की हर विधा- नाटक, कविता,
निबन्ध, पत्र,
उपन्यास आदि पर आपकी
चर्चित रचनाएँ हैं,
जिनका प्राय: विश्व की सभी प्रसिद्ध भाषाओं में अनुवाद हो
चुका है।
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पूज्यवर,
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पूज्यवर,
आज पन्द्रह साल हुए हमारे ब्याह को हम तब से साथ ही रहे।
अब तक चिट्ठी लिखने का मौका ही नहीं मिला। तुम्हारे घर की मझली
बहू जगन्नाथपुरी आई थी, तीर्थ करने।
आई तो जाना कि दुनिया और भगवान के साथ मेरा एक और नाता
भी है। इसलिए आज चिट्ठी लिखने का साहस कर रही हूँ। इसे मझली बहू की चिट्ठी न
समझना।
वह दिन याद आता है, जब तुम
लोग मुझे देखने आए थे। मुझे बारहवाँ साल लगा था।
सुदूर गाँव में हमारा घर था। पहुँचने में कितनी मुश्किल
हुई तुम सबको मेरे घर के लोग आव-भगत करते-करते हैरान हो गए।
विदाई की करुण धुन गूँज उठी। मैं मझली बहू बनकर
तुम्हारे घर आई। सभी औरतों ने नई दुल्हन को जाँच परखकर देखा सबको मानना पड़ा बहू
सुन्दर है।
मैं सुन्दर हूँ, यह तो तुम
लोग जल्दी भूल गए। पर मुझ में बुद्धि है, यह बात
तुम लोग चाहकर भी न भूल सके माँ कहती थी, औरत के
लिए तेज दिमाग भी एक बला है।
लेकिन मैं क्या करूँ
तुम लोगों ने उठते -बैठते कहा,
यह बहू तेज है।
लोग बुरा भला कहते हैं सो कहते रहें। मैंने सब साफ कर
दिया।
मैं छिप-छिपकर कविता लिखती थी। कविताएँ थीं तो मामूली,
लेकिन उनमें मेरी अपनी आवाज थी। वे कविताएँ तुम्हारे रीति
रिवाजों के बन्धनों से आजाद थीं।
मेरी नन्हीं बेटी को छीनने के लिए मौत मेरे बहुत पास आई।
उसे ले गई ,पर मुझे छोड़ गई। माँ बनने का दर्द
मैंने उठाया, पर माँ कहलाने का सुख न पा सकी।
इस हादसे को भी पार किया। फिर से जुट गई रोज-मर्रा के
काम-काज में। गाय-भैंस, सानी-पानी में लग गई। तुम्हारे घर का
माहौल रूखा और घुटन- भरा था। यह गाय-भैंस ही मुझे अपने
से लगते थे। इसी तरह शायद जीवन बीत जाता।
आज का यह पत्र लिखा ही नहीं जाता। लेकिन अचानक मेरी
गृहस्थी में जिन्दगी का एक बीज आ गिरा। यह बीज जड़ पकडऩे लगा और गृहस्थी की पकड़
ढीली होने लगी। जेठानी जी की बहन बिन्दू, अपनी माँ
के गुजरने पर, हमारे घर आ गई।
मैंने देखा -तुम सभी
परेशान थे। जेठानी के पीहर की लड़की, न रूपवती
न धनवती। जेठानी दीदी इस समस्या को लेकर उलझ गई एक तरफ बहन का प्यार तो एक तरफ
ससुराल की नाराजगी।
अनाथ लड़की के साथ ऐसा रूखा बर्ताव होते देख मुझसे रहा न
गया। मैंने बिन्दू को अपने पास जगह दी जेठानी दीदी ने चैन की साँस
ली। अब गलती का सारा बोझ मुझ पर आ पड़ा।
पहले-पहले मेरा स्नेह पाकर बिन्दू सकुचाती थी। पर
धीरे-धीरे वह मुझे बहुत प्यार करने लगी। बिन्दू ने प्रेम का विशाल सागर मुझ पर
उड़ेल दिया। मुझे कोई इतना प्यार और सम्मान दे सकेगा,
यह मैंने सोचा भी न था।
बिन्दू को जो प्यार दुलार मुझसे मिला वह तुम लोगों को
फूटी आँख न सुहाया। याद आता है वह दिन, जब
बाजूबन्ध गायब हुआ। बिन्दू पर चोरी का इल्जाम लगाने में तुम लोगों को पलभर की झिझक
न हुई।
बिन्दू के बदन पर जरा सी लाल घमोरी क्या निकली,
तुम लोग झट बोले- चेचक किसी इल्जाम का सुबूत न था। सुबूत के
लिए उसका बिन्दू होना ही काफी था।
बिन्दू बड़ी होने लगी। साथ-साथ तुम लोगों की नाराजगी भी बढ़ने
लगी जब लड़की को घर से निकालने की हर कोशिश नाकाम हुई ,तब
तुमने उसका ब्याह तय कर दिया।
लड़के वाले लड़की देखने तक न आए. तुम लोगों ने कहा,
ब्याह लड़के के घर से होगा। यही उनके घर का रिवाज है।
सुनकर मेरा दिल काँप उठा। ब्याह के दिन तक बिन्दू अपनी
दीदी के पाँव पकड़कर बोली, दीदी,
मुझे इस तरह मत निकालो ।मैं
तुम्हारी गौशाला में पड़ी रहूँगी। जो कहोगी सो करूँगी...
बेसहारा लड़की सिसकती हुई मुझसे बोली,
दीदी, क्या मैं
सचमुच अकेली हो गई हूँ?
मैंने कहा, ना बिन्दू,
तुम्हारी जो भी दशा हो, मैं हमेशा
तुम्हारे साथ हूँ। जेठानी दीदी की आँखों में आँसू थे। उन्हें रोककर वह बोलीं,
बिन्दिया, याद रख,
पति ही पत्नी का परमेश्वर है।
तीन दिन हुए बिन्दू के ब्याह को। सुबह गाय-भैंस को देखने
गौशाला में गई तो देखा एक कोने में पड़ी थी बिन्दू, मुझे देख
फफककर रोने लगी।
बिन्दू ने कहा कि उसका पति पागल है। बेरहम सास और पागल
पति से बचकर वह बड़ी मुश्किल से भागी।
गुस्से और घृणा से मेरे तनबदन में आग लग गई। मैं बोल उठी,
इस तरह का धोखा भी भला कोई ब्याह है?
तू मेरे पास ही रहेगी देखूँ तुझे
कौन ले जाता है।
तुम सबको मुझ पर बहुत गुस्सा आया। सब कहने लगे,
बिन्दू झूठ बोल रही है। कुछ ही देर में बिन्दू के ससुराल वाले
उसे लेने आ पहुँचे।
मुझे अपमान से बचाने के लिए बिन्दू खुद ही उन लोगों के
सामने आ खड़ी हुई वे लोग बिन्दू को ले गए मेरा दिल दर्द से चीख उठा।
मैं बिन्दू को रोक न सकी। मैं समझ गई कि चाहे बिन्दू मर
भी जाए, वह अब कभी हमारी शरण में नहीं आएगी।
तभी मैंने सुना कि बड़ी बुआजी जगन्नाथपुरी तीर्थ करने
जाएँगी। मैंने कहा, मैं भी साथ जाऊँगी। तुम सब यह सुनकर
बहुत खुश हुए।
मैंने अपने भाई शरत को बुला भेजा। उससे बोली,
भाई अगले बुधवार मैं जगन्नाथपुरी जाऊँगी। जैसे भी हो बिन्दू
को भी उसी गाड़ी में बिठाना होगा।
उसी दिन शाम को शरत लौट आया। उसका पीला चेहरा देखकर मेरे
सीने पर साँप लोट गया। मैंने सवाल किया, उसे राज़ी
नहीं कर पाए?
उसकी जरूरत नहीं बिन्दू ने कल अपने आपको आग लगाकर
आत्महत्या कर ली। शरत ने उत्तर दिया। मैं स्तब्ध रह गई।
मैं तीर्थ करने जगन्नाथपुरी आई हूँ। बिन्दू को यहाँ तक
आने की जरूरत नहीं पड़ी लेकिन मेरे लिए यह जरूरी था।
जिसे लोग दु:ख-कष्ट कहते हैं,
वह मेरे जीवन में नहीं था तुम्हारे घर में खाने-पीने की कमी
कभी नहीं हुई तुम्हारे बड़े भैया का चरित्र जैसा भी हो,
तुम्हारे चरित्र में कोई खोट न था मुझे कोई शिकायत नहीं है
लेकिन अब मैं लौटकर तुम्हारे घर नहीं जाऊँगी मैंने
बिन्दू को देखा घर गृहस्थी में लिपटी औरत का परिचय मैं पा चुकी अब मुझे उसकी जरूरत
नहीं मैं तुम्हारी चौखट लाँघ चुकी इस वक्त मैं अनन्त नीले समुद्र के सामने खड़ी
हूँ।
तुम लोगों ने अपने रीति-रिवाजों के पर्दे में मुझे बन्द
कर दिया था न जाने कहाँ से बिन्दू ने इस पर्दे के पीछे से झाँककर मुझे देख लिया और
उसी बिन्दू की मौत ने हर पर्दा गिराकर मुझे आजाद किया मझली बहू अब खत्म हुई।
क्या तुम सोच रहे हो कि मैं अब बिन्दू की तरह मरने चली
हूँ ? डरो मत मैं तुम्हारे साथ ऐसा पुराना मजाक नहीं करूँगी।
मीराबाई भी मेरी तरह एक औरत थी। उसके बन्धन भी कम नहीं
थे। उनसे मुक्ति पाने के लिए उसे आत्महत्या तो नहीं करनी पड़ी। मुझे अपने आप पर
भरोसा है ,मैं जी सकती हूँ मैं जीऊँगी।
तुम लोगों के आश्रय से मुक्त।
-मृणाल
-मृणाल
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