सामाजिक बदलाव
और स्त्री मुक्ति आन्दोलन
और स्त्री मुक्ति आन्दोलन
- रमेश शर्मा
षों की संवेदना के तार भी झनझना उठे थे। बीस वर्ष पहले महज एक न्यूड सीन के कारण ,जिसे फिल्म में दिया जाना आवश्यक था, सिनेमा हाल के भीतर जाने से कतराने वाली महिलाओं के भीतर सामाजिक मानसिकता का दबाव किस कदर हावी रहा होगा, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। उस दौर में भी सीमा विश्वास जी ने उस मानसिकता की परवाह किए बिना, जिस तरह फूलन पर हुए अत्याचार और फिर उसके बाद बेंडिट क्वीन बन जाने के किरदार को पूरी जीवंतता के साथ पर्दे पर निभाया था, वह एक सच्चे कलाकार की निशानी है। वह एक ऐसा दौर था जब स्त्रियों की स्वतंत्रता पर तरह-तरह की बंदिशें ही नहीं थीं, बल्कि संचार माध्यमों के स्तर पर भी हमारा सामाजिक तंत्र आज की तरह विकसित नहीं था। उस दौर में भी सीमा जी ने पुरूषवादी सामंती मानसिकता के विरूद्ध खड़े होने की जो हिम्मत दिखाई थी वह स्त्री मुक्ति आंदोलन का एक ऐसा सौन्दर्यशास्त्र है ,जिसमें कोई छल नहीं है, कोई लाग लपेट नहीं है। बीस वर्ष की इस लम्बी अवधि में स्त्री मुक्ति आंदोलन को लेकर भले ही बड़ी-बड़ी बातें हिन्दी की साहित्यिक पत्र पत्रिकाओं में की जाती रही हों, संचार माध्यमों के स्तर पर हमने विकास का एक लम्बा रास्ता भले ही तय कर लिया हो, पर बौद्धिक जुगाली के अलावा वे ज्यादा कुछ साबित नहीं हो सकीं। बौद्धिक जुगाली करने वाले लोगों की जमात में भले ही पुरुषों की संख्या बढ़ती गई, पर अपने आपको स्त्री मुक्ति आंदोलन का पैरोकार बताने वाले उसी समूह द्वारा महिलाओं पर अत्याचार भी होते रहे, बलात्कार और हत्याओं की संख्या में बढ़ोतरी होती रही। बलात्कार और हत्याओं की शिकार स्त्री अपनी स्वतंत्रता के लिए तब भी जूझती रही, आज भी जूझ रही है। बीस सालों की इस लम्बी अवधि में कहीं कोई सामाजिक परिवर्तन आता हुआ प्रतीत नहीं होता, पुरुषों की सोच में कहीं कोई बदलाव दिखाई नहीं पड़ता। अगर स्त्री थोड़ी बहुत मजबूत हुई है तो उसने अपने बूते अपनी जमीन को खुद गढ़ा है, उसने अपने लिए नए रास्ते खुद तलाशे हैं। इसमें स्त्री की शिक्षा, सामाजिक बदलाव का सशक्त माध्यम बनी है। उस सृजन में, उस तलाश में किसी पुरुष का नहीं, बल्कि सीमा जैसी उन मजबूत और हिम्मती स्त्रियों का ही हाथ है, जो अपना रास्ता खुद तलाशती हैं और स्त्री मुक्ति आंदोलन की एक नई कहानी लिखती हैं। स्त्रियों की शिक्षा, उनकी खुद की जागरूकता, उनके खुद के जुझारूपन से ही, वे इस समाज में अपने लिए जगह बना सकती हैं। उन्हे समझना होगा कि पुरुषवादी मानसिकता का मुकाबला, वे पुरुषों के सहयोग से नहीं कर सकतीं। इसके लिए उन्हे एक स्वतंत्र लड़ाई लडऩी होगी, संघर्ष का एक लम्बा रास्ता तय करना होगा।
लेखक के बारे में- शिक्षा एम.एससी.,
बी.एड., जन्म 06 जून
1966 रायगढ़। संप्रति व्याख्याता। सृजन- एक कहानी संग्रह मुक्ति बोधि
प्रकाशन जयपुर से प्रकाशित कहानियाँ, कविताएँ
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। सम्मान- शिक्षा के क्षेत्र में राज्य स्तरीय
शिक्षक सम्मान 05 सितम्बर 2013
को राज्यपाल द्वारा राजभवन रायपुर में प्रदत्त।
सम्पर्क- गायत्री मंदिर के पीछे,
बोईरदादर, रायगढ़;
छत्तीसगढ़ - 496001, मो. 9752685148, Email- sharmaji1966ramesh@gmail.com
No comments:
Post a Comment