बसंत ऋतु
प्रकृति के यौवन की ऋतु है उस पर इस रूपसी के आँचल को स्पर्श करता- फागुन मास। सभी
के आकर्षण का केन्द्र बन जाते हैं युगल प्रेमी। शायद इस महा-मिलन के अवसर पर
ही भ्रमर आम्र मंजरियों को राग सुनाते हैं, सरसों
मानो हल्दी का उबटन लगा और भी निखर जाती है ।गेहूँ
की बालियाँ, नव परिधान मे खिलखिलाती हैं,
कोकिल सबको मंगल गीत सुनाकर निमंत्रण देता है। एक मनचला अतिथि
मुट्ठियों
मे रंग, बाहों में ढेर सारा प्यार समेटे,
अधरों पर लोकगीतों के मधुर स्वर लिये आता है,
हमारा लाडला त्योहार- होली। होली भक्त प्रह्लाद की विजय का
प्रतीक है, बुराई पर सत्य की जीत अर्थात्
सत्य सतयुग से ही विजयी रहा है और बुराई को अग्नि भी क्षमा नहीं करती जैसे होलिका
के साथ हुआ था।
हिन्दू पंचांग के अनुसार ये फागुन मास की
पूर्णिमा को मनाया जाता है। पहले दिन को होलिका दहन तथा दूसरे दिन को धूलिवन्दन या
दुल्हेंडी कहते हैं । वाद्य,
नृत्य और लोकगीत होली के प्रमुख अंग है। हम बचपन से ही
लोकगीतों की मिठास का रसास्वादन करते आ रहे हैं। फागुन मे लोकगीतों की परंपरा
अत्यंत प्राचीन है शायद इस परंपरा का आरंभ तब से हुआ होगा जब से मानव के भीतर
रसिकता का प्रादुर्भाव हुआ होगा। भारत मे लगभग सभी प्रांतों मे लोकगीत गाए जाते
हैं; मगर उत्तर और पश्चिम भारत मे होली के लोकगीतों की छटा
बड़ी निराली है। होली दहन के अंतर्गत गेहूँ की बालियाँ अग्निदेव को अर्पित करते
हैं; तो लोगों की खुशी और भी बढ़ जाती है। सामूहिक रूप से
होली दहन के बाद लोकगीत गाए जाते हैं। अग्नि के चारों ओर गाया जाने वाला ये लोकगीत
प्रेम से परिपूर्ण हैं जिसे ढोल चंग और मंजीरों के साथ गाया जाता है -
फागण आया, फागण्यो
रंगा द्यो रसिया,फागण आयो।
माथा ने मैमंद ल्याओ रंग रसिया,
काना न कुंडल ल्याओ रंग रसिया,
तो रखड़ी रतन जड़ाद्यो रसिया,फागण
आयो।
राजी-राजी बोल गौरी,फागण्यो
रंगाद्यू,
राखूं म्हारी प्यारी धण ने,
जीव की जड़ी, कचनार की
कली, फागण आयो।
फागण आयो रसिया, खेला होली,
फागण आयो।
दूसरे दिन को धूलिवन्दन कहते हैं सम्पूर्ण
समाज को नव-चेतना देने वाला दिन... रंगो
तथा गुलाल की बरसात... सभी लोग इस उत्सव को बड़े उत्साह के साथ मनाते हैं। यह बड़ी
मस्ती का दिन होता है । बच्चे, बूढ़े,
जवान टोलियाँ बनाकर घर-घर जाकर खूब नाचते गाते हैं। प्रेम,
मस्ती रंग और उस पर भंग! होली की टोली की मद भरी ठिठोली देखिए।
होली का त्योहार है जमा हुआ है रंग,
छा जाएगा बाद में पहले घोट लो भंग।
दैनिक जीवन की ऊब को प्रसन्नता में बदलने वाला दिन लोक
गीतों का इसमे बहुत बड़ा हाथ है।ये गीत आनंद,
हास-उल्लास के प्रतीक हैं। रंग, गुलाल,
केसर, अबीर, कुमकुम,
टेसू के फूल और साथ में बहुत सारी
छेडख़ानी होती हैइन गीतों में-
जा साँवरियाँ के संग,
रंग में कैसे होली खेलू री
कोरे-कोरे कलश भराये, जामे घोरौ
ये रंग
भर पिचकारी सन्मुख मारी, चोली है
गई तंग
ढोलक बाज़ै, मजीरा
बाजै और बाजै मृदंग,
कान्हाजी की वंशी बाजै, राधाजी के
संग
लहँगा त्यारो, दूम
घुमारौ, चोली है पचरंग,
खसम तुम्हारे बड़े निखट्टू चलौ हमारे संग
उत्तर भारत में कई स्थानों में ऐसी मान्यता है कि लड़की
का विवाह जिस साल हुआ हो उसे उस साल की होली को देखना नहीं चाहिए। ऐसी हालत में
पिया अगर होली खेलने नहीं आता तो ये दशा तो होनी ही है उसकी-
फागुन में सखि फगुआ मचत है सब सखि खेलत फाग,
खेलत होली लोग करेला बोली, दगधत सकल
शरीर।
एक लोक गीत-विरहिन की व्यथा का सुन्दर वर्णन -
पिया बिन नींद नहीं आवै
सखि फागुन मस्त महीना,
सब सखियन मंगल कीन्हा,
अरे तुम खेलत रंग गुलालै,
मोहे पिया बिन कौन दुलावै?
होली के लोक गीत मन मे छिपी संवेदनाओं को बरबस ही सबके
समक्ष ले आते है। दु:ख व सुख दोनों को ही रागात्मक परिधान पहना देते है। सच पिया
बिन होली का आनन्द है भी कहाँ?
ब्रज के वायुमंडल में मानो राधा कृष्ण के दिव्य स्वर आज
भी लोगो के पोर-पोर में रचे बसे हैं यहाँ के लोक गीत भक्ति रस का अनुष्ठान तो करते
ही हैं साथ ही उल्लास की प्राणप्रतिष्ठा
भी करते हैं। कभी-कभी तो लोक गीत मन की शुद्धि को परमात्मा के मार्ग से
मिला देते हैं। गुलाल...भोर की लाली -सा...
कर्मों की ओर अग्रसर करके ब्रज की धरा को
आशीर्वादित करता है; जब वो बसंती पवन में नाचता ये लोक
गीत सुनता है, तो धन्य हो जाता है-
आज बिरज में होरी है रे रसिया
उड़त गुलाल लाल भये बदरा
केसर की पिचकारी है रे रसिया। आज बिरज में ...
बाजत बीन, मृदंग, झाँझ ओ डफली
गावत दे-दे- तारी है रे रसिया। आज बिरज में ...
ब्रज से कुछ ही दूर बसा है बरसाना- जहाँ वो लोग रहते है
जो नगरों
के सुसंस्कृत समझे जाने वाले लोगों की अपेक्षा अधिक भोले हैं। शायद इसलिए वे उल्लास
की परिधि को पार कर दिव्य-आनन्द को छू लेते है इस पर्व पर। बरसाना- जहाँ
बरसती है होली की रसधार, नन्दगाँव के हुरियारे... कृष्ण और
उनके सखा बनकर राधा के गाँव बरसाने जाते है। वहाँ की बालाएँ राधाजी और उनकी सखियो
के धर्म का पालन करते हुए उनको रंगो की वर्षा में भिगो-भिगो कर वातावरण में अमृत
-सी मिठास लिये यह गीत गाती हैं-
नटवर नन्द किशोर।
घेर लई सब गली रंगीली
छाय रही छवि घटा रंगीली
ढप, ढोल,
मृदंग बजाये है
वंशी की घनघोर
कभी-कभी तो बालाओं के प्रहारो से गोप लहूलुहान भी हो
जाते हैं, पर चिंता कैसी?
भगवान -इस जग के पालनहार हैं ना उनके साथ! जै गिर राज बोल कर लो फिर से कूद गये रंगो के इस अनोखे समर
में -
ले रहे चोट ग्वालन ढालन पै
हरिहर बाँस मँगाये हैं, चलन लगे
चहुँओर
नमन है ऐसी होली... ऐसे गीत... जो संतापो के गर्त को
हटाकर...प्रेम बरसा दें...जीवन को इन्द्रधनुष बना दें....ऐसा इन्द्रधनुष ....जो
वाद्ययंत्र के समान ...अपने में समाये स्वर..उस पर लुटा दे,
जो उसे केवल स्पर्श
करता है ...बिन जाने कि उसे छूने वाला कौन है।
सम्पर्क: क्वार्टर नं-5, टाइप-3,
सी आर पी एफ कैम्पस, जलन्धर- 144801
(पंजाब), Email-jyotsanapardeep@gmail.com
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