अब सत्ता पुरुषों के हाथ
-देवेन्द्र प्रकाश मिश्र
-देवेन्द्र प्रकाश मिश्र
भारत-नेपाल सीमा पर उत्तर प्रदेश के दुधवा नेशनल पार्क के सघन वन आगोश में आबाद आदिवासी जनजाति थारू का समाज कहने के लिए महिला प्रधान है, किन्तु हकीकत में पितृ प्रधानता के कारण सत्ता पुरुषों के हाथों में रहती है, और वह अपनी हुकूमत चलाते हैं। इसके कारण थारू महिलाएँ हाड़तोड़ मेहनती कृषि कार्यो को करने के साथ ही पारिवारिक जीवन-निर्वहन के लिए घरेलू कार्य भी करती हैं। इसका मुख्य कारण है अशिक्षा और जागरूकता का अभाव। महिला उत्थान के लिए चलाई जाने वाली सरकारी योजनाएँ कागजों में सिमटती रही हैं। इसके कारण उनका समुचित लाभ न मिलने से थारू समाज की महिलाओं की स्थिति दयनीय ही बनी हुई है, और प्रथम पायदान पर होने के बाद भी वह दोयम दर्जे का नारकीय जीवन गुजार रही हैं।
आदिवासी जनजाति की महिलाओं को समाज में उच्च स्थान हासिल
होने के बाद भी सत्ता पुरुष के हाथों में रहती है और वह अपने परिवार पर हुकूमत
अपनी चलाते हैं। आजाद भारत में थारू समाज की न्याय व्यवस्था में सामाजिक फैसले
गाँव की पंचायत में होते हैं। थारूओं में प्रेम विवाह करने का प्रचलन है। थारू
युवती को मनचाहे युवक से विवाह करने की आजादी हासिल है। लेकिन गैर थारू युवक के
साथ थारू युवती को प्रेम करना वर्जित माना जाता है। इसके अतिरिक्त शादीशुदा महिला
अगर किसी अन्य युवक से प्रेम करती है और इसकी जानकारी परिजनों को हो जाती है तो
पंचायत में महिला के प्रेमी पर सामाजिक तौर पर आर्थिक दण्ड लगाकर उससे जुर्माना
लिया जाता है। इस व्यवस्था में तलाक की गुंजाइश बहुत कम होती है,
इसके बाद भी अगर महिला का पति जिद्द करके तलाक यानी छुड़ौती
करना ही चाहता
है, तो पंचायत उस महिला का उसके प्रेमी के साथ विवाह करा
देती है। इसके एवज में विवाह करने वाला व्यक्ति इससे पहले महिला की शादी में हुआ
पूरा खर्च महिला के पूर्व पति को देना होता है। उन्नति और विकास की फैली किरणों के
कारण अब आदिवासी जनजाति थारू क्षेत्रों में जागरूकता बढ़ी है। सामाजिक फैसलों के
अलावा पंचायत में होने वाले जमीनी विवाद आदि मामलों के फैसले अब पुलिस और कोर्ट
में होने लगे हैं। इसके बाद भी यह थारू समाज की एक अच्छाई ही कही जाएगी कि गंभीर
अपराधों की संख्या लगभग नगण्य ही है।
महिला सशक्तीकरण के दावे थारू समाज की महिलाओं के लिए
बेमानी हैं। और अशिक्षित महिलाओं की संख्या कम होने के बजाय बढ़ती जा रही है।
महिलाएँ पूरी तरह से अपने हक और अधिकारों से परिचित नहीं हैं,
इसके कारण घर की चहारदीवारी के अंदर वह अपना परम्परागत घरेलू
जीवन गुजारती हैं। इससे महिलाओं की स्थिति दयनीय बनी हुई है। यद्यपि आरक्षण के
चलते थारू महिलाएँ ग्राम प्रधान के साथ क्षेत्र और जिला पंचायत की सदस्य
भी बन रही हैं, लेकिन प्रधानी की बागडोर महिलाओं के
पति के हाथ में रहती है अथवा उनके करीबी नाते रिश्तेदार
गाँव की प्रधानी चलाते हैं। इस तरह कठपुतली बनी थारू महिला प्रधान अपना सामाजिक
एवं पारिवारिक जीवन का बखूबी निर्वाहन करती हैं। हालाँकि
थारू समाज की तमाम युवतियाँ पढ़-लिखकर शिक्षामित्र और टीचर भी बन गई हैं यहाँ तक
अब वह सरकारी नौकरियाँ कर रही हैं। इसके बाद भी वह अथवा उनके परिवार की युवतियाँ
प्राचीन परम्पराओं की वर्जनाओं को तोडऩे में अक्षम हैं। इन सबके बीच में तमाम गरीब
थारू परिवार ऐसे भी हैं जो चाहते हुए भी अपनी लड़कियों को उच्च शिक्षा दिलाने में
असहाय हैं। इन गरीब परिवारों की लड़कियाँ और महिलाएँ आज भी खेतों में मेहनत मशक्कत
वाला कमरतोड़ काम करने को विवश हैं और घर की चाहरदीवारी के पीछे सामाजिक परम्पराओं
की डोर में बँधकर रहने के लिए मजबूर हैं। इनके लिए सरकार द्वारा उच्च शिक्षा की
व्यवस्था उनके घर के आस-पास ही करा दी जाए और उनकी जागरूकता के गम्भीर सार्थक
प्रयास किए जाएँ तो शायद तमाम गरीब थारू परिवार की युवतियाँ प्रगति की मुख्य धारा
में शामिल होकर अपना भविष्य सँवार सकती हैं।
आधुनिकता की बयार ने बदल दी थारूओं की होली
उत्तर प्रदेश के भारत-नेपाल सीमा पर आबाद आदिवासी जनजाति
थारू क्षेत्र में भी आधुनिकता की चल रही बयार की छाप थारू संस्कृति पर भी पड़ गई
है। इसके चलते भोले-भाले एवं सरल स्वभाव के लिए मशहूर थारूओं के परिवारों में भी
विघटन की खाइयाँ पडऩे लगी हैं। परिणाम स्वरूप आपसी प्रेम,
भाईचारा व सौहार्द के साथ थारूओं में पंद्रह दिनों तक मनाया
जाने वाला होली का त्योहार धीरे-धीरे औपचारिकता का चोला धारण करने लगा है। बुजुर्ग
थारू अपने जमाने की होली के किस्से कहानियाँ सुनाते हुए नहीं थकते हैं।
भारत नेपाल सीमा पर दुधवा नेशनल पार्क के सघन वनक्षेत्र
में रहने वाले आदिवासी जनजाति के थारूजन अपने को महाराजा राणा प्रताप सिंह का वंशज
बताते हैं। थारूओं में रंगों का त्यौहार बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है। होली से
सात दिन पहले पूजा करने के साथ होलिका की स्थापना कर दी जाती है। इसके बाद से
प्रतिदिन युवक युवतियाँ ग्राम प्रधान या भलमानसा के घर आँगन में होली लोकगीतों को
गाते हुए सामूहिक नृत्य करते हैं। उधर थारूक्षेत्र में पहुँचने वाले सरकारी अमले
समेत नागरिकों को रोककर मनुहार के साथ फगुवा मांगते हैं तथा प्रेम के साथ रंग
डालकर होली का प्रचलन होली के बाद तक भी है। होली के दिन पूरा गांव एक स्थान पर
एकत्र होता है परंपरागत ढंग से सभी देवी देवताओं का आवाहन करके होली की पूजा करने
के बाद होलिका को जलाया जाता है। कीचड़, गोबर के
साथ रंगों से होली खेली जाती है। शाम को ग्राम प्रधान सभी को गांव के दक्षिण लगभग
एक किमी दूर ले जाता है यहाँ पूजा होती है फिर पीछे घूमकर न देखने की हिदायत देता
है। माना जाता है कि दौड़कर गाँव जाते समय पीछे घूमकर देख लेने से बलाएँ साथ-साथ
घर पहुँच जाती है। थारूओं में होली के दिन साली अपने जीजा के घर जाकर फगुवा माँगती
है तथा परम्परा के अनुसार जीजा को अपने घर आने का न्योता भी देती है। होली मिलन का
कार्यक्रम सात दिन तक मौज मस्ती के साथ चलता रहता है।
आधुनिकता की दौड़ में चल रही बदलाव की बयार ने अब बदल
रहे जमाने के साथ ही थारूओं में भी उनकी संस्कृति की प्रचीन परम्पराएँ टूटने लगी
हैं। आपसी भाईचारा और परस्पर प्रेम के बीच खाइयाँ बढ़ी हैं और परिवारों में विघटन
की दरारें चौड़ी होती जा रही हैं। सीधे-साधे सरल थारूओं के स्वभाव में परिवर्तन आ
गया है तथा खेती किसानी करके जीविका चलाने वाले थारूजन उन्नति के पायदान पर चढ़ते
हुए बिजनेसमैन बन ही गए हैं साथ में अच्छे पदों की सरकारी नौकरियाँ भी कर रहे हैं।
आधुनिकता की चल रही बयार की चपेट में आ जाने से होली जैसे पावन त्योहार
के भी मायने बदल गए हैं। इससे होली भी अब औपचारिक ढंग से मनाई जा रही है साथ ही
बढ़ती महँगाई ने भी होली के त्योहार पर बुरी तरह से असर डाला है। परिणाम स्वरूप
पुरानी मान्यताएँ तथा परम्पराएँ इतिहास बनने की कगार पर पहुँच गई हैं। बदले परिवेश
की चर्चा करने पर बुजुर्गवान थारू अपने जमाने को होली के रंग बिरंगे किस्से
कहानियाँ अतीत से ढूँढकर सुनाते हैं और मायूसी में वह कहते हैं कि भइया
सबकुछ बदल गया है नई पीढ़ी परम्पराओं पर चलने को तैयार नहीं है आने वाले दिनों में
हमारे साथ ही थारू संस्कृति के पुराने रीति रिवाज भी दफन हो जाएँगे।
सम्पर्क- नगर
पालिका काम्पलेक्स पलियाकलाँ, लखीमपुर-खीरी
(उ,प्र,)
1 comment:
Bahut Achcha likha dada
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