उदंती.com को आपका सहयोग निरंतर मिल रहा है। कृपया उदंती की रचनाओँ पर अपनी टिप्पणी पोस्ट करके हमें प्रोत्साहित करें। आपकी मौलिक रचनाओं का स्वागत है। धन्यवाद।

Aug 1, 2021

उदंती.com, अगस्त -2021

वर्ष- 13, अंक- 12

एक देश जो अपनी मिट्टी को खत्म कर देता है वह अपने आप को नष्ट कर देता है। जंगल हमारे जमीन के फेफड़े है, वे हमारी हवा को शुद्ध करते है और लोगों को नयी उर्जा देते है।
                      -फ्रैंकलिन रूजवेल्ट

अनकहीः बन्दे तू कर बन्दगी... डॉ. रत्ना वर्मा

आलेखः कोविड-19:   स्कूल खोलना कितना सुरक्षित - स्रोत फीचर्स

अध्ययनः दीर्घ कोविड से जुड़े चार अहम सवाल - स्रोत फीचर्स

उपचारः  एँटीबॉडी युक्त नेज़ल स्प्रे बचाएगा कोविड से

भूली बिसरीः  ऐ मेरे वतन के लोगो... -देवमणि पांडेय

कविता: पढ़ना चाहता हूँ, परिंदें, कविता मेरे लिए, नदी  -सुभाष नीरव

कहानीः पुराना मित्र -डॉ. कुँवर दिनेश सिंह

व्यंग्यः आइए हाइजैक करें! -रामेश्वर काम्बोज हिमांशु

ताँकाः ले उड़ान जी भर -डॉ. सुधा गुप्ता

तीन हाइबन 1. दीवार का मन, 2. आषाड़, 3. गुलमोहर -अनिता मंडा

संस्मरणः गुज़ारिश  -प्रीति गोविन्दराज

आलेखः राजस्थान के रणवीर -शंकर लाल माहेश्वरी

कविताः दूर ब्याही बेटियाँ  -अंजू खरबंदा  

लघुकथाः आसमान हरभगवान चावला

किताबेंः मानवीय अनुभूतियों का आकाश -डॉ. शील कौशिक

लघुकथाः जापानी गुड़िया -डॉ. महिमा श्रीवास्तव

जीवन दर्शनः सुख : साधन, समाधान एवं स्वाद -विजय जोशी

अनकही- बन्दे तू कर बन्दगी...

डॉ. रत्ना वर्मा
कभी- कभी अख़बार के किसी एक कोने में छपी कोई सकारात्मक खबर चेहरे पर मुस्कान ला देती है और तब उस भले मानुष के लिए हजारों- हजार दुआएँ निकलती है, जिसने यह नेक काम किया। खबर संक्षेप में कुछ इस तरह है- झारखंड जमशेदपुर की पाँचवीं में पढऩे वाली 11 साल की तुलसी की पढ़ाई इसलिए रुक गई थी; क्योंकि ऑनलाइन क्लास के लिए उसके पास मोबाइल नहीं था। तुलसी की पारिवारिक हालत इतनी अच्छी नहीं थी कि वह एक स्मार्टफोन ले सके। अपनी पढ़ाई जारी रखने और पैसे जुटाने के लिए तुलसी सड़क किनारे बैठकर आम बेचने लगी। सोशल मीडिया के जरिए तुलसी की कहानी मुंबई के रहने वाले वैल्युएबल एडुटेनमेंट कंपनी के वाइस चेयरमैन अमेया हेते तक पहुँची, उन्होंने तुलसी की मदद करने का फैसला लिया और तुलसी के 12 आम 1 लाख 20 हजार रुपये में खरीद लिये। इस मदद से तुलसी ने एक स्मार्टफोन खरीद लिया है और बाकी पैसे अपनी आगे की पढ़ाई के लिए बैंक में जमा कर दिए।

अमेया को तुलसी की इस बात ने प्रभावित किया कि एक छोटी बच्ची ने पैसे न होने की वजह से अपनी किस्मत को दोष न देकर अपनी मेहनत से कुछ करने की सोची। मदद के लिए आगे आए अमेया हेते की उस सोच को सलाम जिन्होंने आर्थिक संकट का सामना कर रही तुलसी की मदद की।

अवसाद और लगातार मिल रही दु:खद खबरों के बीच यह खबर सुकून तो देती हैं और दिल से यही दुआ निकलती है कि देश के उन हजारों, लाखों छात्राओं को ऐसे ही दानदाता मिलें, जो स्मार्टफोन के अभाव में आगे पढ़ाई करने में असमर्थ हैं। हमारे देश में आज भी एक वर्ग ऐसा है, जो लड़कियों की पढ़ाई को उतना महत्त्व नहीं देता, खासकर निम्नवर्ग के परिवार में जिनके लिए दो वक्त की रोटी जुटाना भी मुश्किल होता है, वे स्मार्ट फोन के बारे में तो सोच भी नहीं सकते।

सरकार लड़कियों को पढ़ाने के लिए नई- नई योजनाएँ अवश्य बनाती है, परंतु केवल योजनाओं से स्थिति नहीं बदलने वाली। इस सोच को बदलने के लिए और भी बहुत सारे सामाजिक काम करने होंगे। एक समय प्रौढ़ शिक्षा का कार्यक्रम जोर-शोर से चला। तब लोगों ने अपना नाम लिखना तो सीख लिया; पर उनकी सोच में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया। विचारों में परिपक्वता सिर्फ साक्षर होने से नहीं आती, इसके लिए शिक्षित होना जरूरी है। किसी नतीजे के परिणाम के लिए हमें एक या दो पीढ़ी तक इंतजार करना होता है। जब एक पूरा परिवार शिक्षित होता है खासकर परिवार की महिलाएँ, तब कहीं जाकर हम महिलाओं की शिक्षा, स्वतंत्रता, आत्मनिर्भरता आदि की बात सोच पाते हैं और उनकी सामाजिक सोच में बदलाव आता है।

बात शुरू हुई थी कोरोना के इस दौर में ऑनलाइन शिक्षा के कारण निम्न वर्ग के बच्चों को आनेवाली कठिनाई के बारे में। सोशल मीडिया के जहाँ फायदे हैं, तो नुकसान भी कम नहीं हैं। अफवाहें आग की तरह फैलती हैं और आग की ही तरह नुकसान भी पहुँचाती हैं। शिक्षा आज इसलिए भी जरूरी है; क्योंकि इसके अभाव में स्वास्थ्य सेवाओं में भी समस्याएँ खड़ी हो रही हैं।

कोरोना महामारी के इस दौर में इन दिनों पूरे देशभर में टीकाकरण कार्यक्रम जोर-शोर से चल रहा है। सरकार पुरजोर से इस  कार्यक्रम को पूरा करने में लगी हुई है। टीकाकरण और मास्क जैसी कई सावधानी ही इस महामारी से निपटने का एकमात्र उपाय है, इसका जोर-शोर से प्रचार- प्रसार हो रहा है, परंतु जिस प्रकार सोशल मीडिया तुलसी जैसे बच्चों का कभी- कभी भला कर देती है उसी प्रकार ज्यादातर मामलों में सोशल मिडिया के माध्यम से उड़ी अफवाहें समाज को बहुत ज्यादा नुकसान भी पहुँचाती है। इस संदर्भ में मैं हाल ही का अपना एक अनुभव आप सबसे साझा करना चाहूँगी-

मेरे घर दो महिलाएँ काम करने आती हैं, एक झाड़ू पोछा और बर्तन धोने का काम करती है और दूसरी खाना पकाने का। पहली काम वाली ने दो दिन की छुट्टी यह कहकर ली कि मैं और मेरे बच्चे टीका लगवाने जा रहे हैं। टीका लगवाने के बाद बुखार और चक्कर आता है; इसलिए छुट्टी चाहिए। दो दिन आराम करने के बाद जब वह काम पर लौटी, तो पता चला कि उसने बेटियों को अभी टीका नहीं लगवाया है। तभी मैंने खाना बनाने वाली से भी पूछा तुम टीका लगवाने नहीं जा रही हो, तो उसने मेरी ओर प्रश्नवाचक नज़रों से देखा और बोली- एक बात पूछूँ दीदी? सब कह रहे हैं लड़कियों को टीका लगवाने से वे बच्चे पैदा करने लायक नहीं रहेंगी

ऐसी कई तरह की अफवाहें बहुत तेजी से फैल रही हैं, यह मुझे पता था। मैंने तुरंत उसे समझाया कि ऐसी कोई बात नहीं है ये सब अफवाह हैं इस बीमारी से बचने ले लिए यह टीका सबके लिए बहुत जरूरी है।  कुछ समय बाद 18 से कम उम्र के बच्चों के लिए भी यह टीका आ जाएगा। मुझे यह आभास तो हुआ कि मैं उसके मन में उठे सवालों का उचित जवाब दे पाई और उसने मेरी बात पर विश्वास किया। खाना बनाने वाली यह महिला दो किशोरवय बच्चों की माँ है और उसने स्वयं 10 वीं तक की शिक्षा प्राप्त की है तथा अपने दोनों बच्चों को पढ़ा रही है, जाहिर है वह अपने बच्चों को अपने से ज्यादा शिक्षित तो करेगी ही। लेकिन बाहर फैलने वाली अफवाहों से जब अच्छे- अच्छे पढ़े- लिखे नहीं बच पाते, तो यह तो खाना बनाकर अपने घर में आर्थिक सहयोग करने वाली निम्न वर्ग की यह महिला भला इससे कैसे अछूती रह सकती है। खुशी की बात यह है कि उसने कम से कम अपनी शंका का समाधान करने के लिए मुझसे पूछताछ तो की।

कहने का तात्पर्य यही कि हम सब इंसानियत के अपने धर्म को निभाते चलें और कुछ न कुछ भलाई का काम करते जाएँ। अपने आस-पास होने वाली खबरों और सामाजिक बदलाव पर ध्यान दें और सचेत रहें तो तुलसी जैसी अनेक बालिकाओं के जीवन में उजाला लाने के लिए अमेया हेते जैसे हजारों लोग आगे आ सकते हैं और अफवाहों के जाल में उलझी अनेक पढ़ी- लिखी पर एक बंद दायरे में कैद महिलाओं को सच्चाई से रुबरू कराकर उनकी सोच बदलने में सहायक हो सकते हैं।

तो आइए सकारात्मक सोच के साथ अच्छा कर्म करते हुए आशा का एक- एक कदम बढ़ाते चलें। कबीर जी कहते हैं-

बन्दे तू कर बन्दगी, तो पावै दीदार।

औसर मानुष जन्म का, बहुरि न बारम्बार।

कोविड-19- स्कूल खोलना कितना सुरक्षित


पिछला एक वर्ष हम सभी के लिए चुनौती भरा दौर रहा है। एक ओर तो महामारी का दंश तथा दूसरी ओर लॉकडाउन के कारण मानसिक तनाव। साथ ही समस्त शिक्षण का ऑनलाइन हो जाना। इस एक वर्ष में प्रारंभिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा एवं शोध कार्य प्रभावित हुए हैं। पहली बार स्कूल जाने वाले बच्चों को तो यह भी नहीं मालूम कि स्कूल कैसा दिखता है।

लेकिन इस वर्ष मार्च में अमेरिका के कई क्षेत्रों में स्कूल दोबारा से शुरू करने के विचार पर गरमागरम बहस छिड़ गई है। अमेरिका के सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (सीडीसी) ने वायरस संचरण को रोकने के सुरक्षात्मक प्रयासों के साथ स्कूल दोबारा से खोलने का सुझाव दिया लेकिन इस घोषणा से अभिभावक, स्कूल कर्मचारी और यहाँ तक कि वैज्ञानिक भी असंतुष्ट नज़र आए। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय की संक्रामक रोग शोधकर्ता मोनिका गांधी ने स्कूल खोलने का पक्ष लिया, तो उन्हें काफी विरोध का सामना करना पड़ा और उन पर बच्चों की जान से खिलवाड़ करने जैसे आरोप लगे।

जैसे-जैसे यह शैक्षिक सत्र समाप्त हो रहा है, कई देशों में स्कूल प्रबंधन अपने पुराने अनुभव के आधार पर नए सत्र की तैयारी कर रहे हैं। वे चाहते हैं कि स्वास्थ्य महकमा उनका मार्गदर्शन करे। यूके में बच्चों ने मार्च-अप्रैल में स्कूल जाना शुरू कर दिया। फ्रांस में तीसरी लहर के कारण कुछ समय के लिए तो स्कूल बंद रहे; लेकिन मई में दोबारा शुरू कर दिए गए। अमेरिका में भी जून के अंत तक लगभग आधे से अधिक शाला संकुल खोल दिए गए थे और सभी स्कूलों में प्रत्यक्ष शिक्षण शुरू कर दिया गया।

लेकिन सच तो यह है कि विश्व भर में 77 करोड़ बच्चे ऐसे हैं, जो अभी तक भी पूर्णकालिक रूप से स्कूल नहीं जा पा रहे हैं। इसके अलावा 19 देशों के 15 करोड़ बच्चों के पास प्रत्यक्ष शिक्षण तक भी पहुँच नहीं है। ऐसे बच्चे या तो वर्चुअल ढंग से पढ़ रहे हैं या फिर पढ़ाई से पूरी तरह कटे हुए हैं। ऐसी संभावना भी है कि यदि स्कूल खुल भी जाते हैं, तो कई बच्चे वापस स्कूल नहीं जा पाएँगे।

युनेस्को ने पिछले वर्ष अनुमान व्यक्त किया था कि महामारी के कारण लगभग 2.4 करोड़ बच्चे स्कूल छोड़ देंगे। न्यूयॉर्क में युनिसेफ के शिक्षा प्रमुख रॉबर्ट जेनकिंस का मत है कि स्कूल शिक्षण के अलावा भी बहुत सारी सेवाएँ प्रदान करते हैं। अत: स्कूल सबसे आखरी में बंद और सबसे पहले खुलना चाहिए। अजीब बात है कि कई देशों में माता-पिता परिवार के साथ बाहर खाना खाने तो जा सकते हैं, लेकिन उनके बच्चे स्कूल नहीं जा पा रहे हैं।

हालांकि, इस सम्बंध में काफी प्रमाण मौजूद हैं कि स्कूलों को सुरक्षित रूप से खोला जा सकता है; लेकिन यह बहस अभी भी जारी है कि स्कूल खोले जाएँ या नहीं और वायरस संचरण को नियंत्रित करने के लिए क्या उपाय अपनाए जाएँ। संभावना है कि कई देशों में सितंबर में नए सत्र में स्कूल शुरू होने पर यह बहस एक बार फिर शुरू हो जाएगी।

जहाँ अमेरिका और अन्य सम्पन्न देशों में किशोरों और बच्चों को भी टीका लग चुका है, वहीं कम और मध्यम आय वाले देशों में टीकों तक पहुँच अभी भी सीमित ही है। टीकाकरण के लिए इन देशों में बच्चों को अभी काफी इंतज़ार करना है। और वायरस के नए-नए संस्करण चिंता का विषय बने रहेंगे।

पिछले वर्ष सार्स-कोव-2 के बारे में हमारी पास बहुत कम जानकारी थी और ऐसा माना गया कि बीमारी का सबसे अधिक जोखिम बच्चों पर होगा इसलिए मार्च में सभी स्कूलों को बंद कर दिया गया। लेकिन जल्द ही वैज्ञानिकों ने बताया कि बच्चों में गंभीर बीमारी विकसित होने की संभावना कम है। लेकिन यह स्पष्ट नहीं था कि क्या बच्चे भी संक्रमित हो सकते हैं और क्या वे अन्य लोगों को संक्रमित कर सकते हैं। कुछ शोधकर्ताओं का मानना था कि बच्चों को स्कूल भेजने से महामारी और अधिक फैल सकती है। लेकिन जल्दी ही यह बहस वैज्ञानिक न रहकर, राजनीतिक हो गई।

तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने जुलाई 2020 में सितंबर से स्कूल शुरू करने की बात कही। वैज्ञानिक समुदाय स्कूल खोलने के पक्ष में था। ट्रम्प के प्रति अविश्वास के चलते स्कूल दोबारा से शुरू करने की बात का समर्थन करना मुश्किल हो गया। अन्य देशों में भी इस तरह की तकरार देखने को मिली। अप्रैल 2020 में डेनमार्क में प्राथमिक स्कूल शुरू करने पर अभिभावकों के विरोध का सामना करना पड़ा। फ्रांस में अधिकतर स्कूल खुले रहे, लेकिन  नवम्ब माह में विद्यार्थियों ने विरोध किया कि कक्षाओं के अंदर कोविड-19 से सुरक्षा के पर्याप्त उपाय नहीं किए जा रहे हैं। कुछ ज़िलों में सामुदायिक प्रसार के कारण शिक्षक भी स्कूल से गैर-हाज़िर रहे। इसी तरह बर्लिन में इस वर्ष जनवरी में आंशिक रूप से स्कूल खोलने की योजना को अभिभावकों, शिक्षकों और सरकारी अधिकारियों के विरोध के बाद रद्द कर दिया गया।

इस बीच टीकाकारण में प्राथमिकता का भी एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा रहा। मार्च-अप्रैल में स्कूल खुलने के बाद भी अधिकतर शिक्षकों का टीकाकारण नहीं हुआ था। इस कारण स्कूल शिक्षकों और अन्य कर्मचारियों पर बीमार होने का जोखिम बना रहा और इसके चलते कक्षा में शिक्षकों की अनुपस्थिति भी रही।

इसके अलावा, शोधकर्ताओं ने दावा किया कि दूरस्थ शिक्षा से कई देशों के श्वेत और अश्वेत विद्यार्थियों के बीच असमानताओं में वृद्धि होगी। सिर्फ यही नहीं इससे विकलांग और भिन्न सक्षम बच्चों के पिछड़ने की भी आशंका है। महामारी से पहले भी यूएस की शिक्षा प्रणाली अश्वेत लोगों को साथ लेकर चलने में विफल रही है।

अब महामारी को एक वर्ष से अधिक हो चुका है और शोधकर्ताओं के पास कोविड-19 और उसके संचरण के बारे में काफी जानकारी है। हालाँकि, कुछ बच्चे और शिक्षक कोविड-19 से पीड़ित अवश्य हुए;  लेकिन स्कूलों का वातावरण ऐसा नहीं है जहाँ व्यापक स्तर पर कोविड-19 के फैलने की संभावना हो। देखा गया है कि स्कूल में संक्रमण की दर समुदाय में संक्रमण की तुलना में काफी कम हैं।

अमेरिका के स्कूलों में कोविड-19 पर कई व्यापक अध्ययन किए गए हैं। इनमें से शरद ऋतु में उत्तरी कैरोलिना में 90,000 से अधिक विद्यार्थियों और शिक्षकों का अध्ययन शामिल है। इस अध्ययन की शुरुआत में वैज्ञानिकों ने सामुदायिक संक्रमण दर के आधार पर स्कूलों में लगभग 900 मामलों का अनुमान लगाया था;  लेकिन विश्लेषण करने पर स्कूल-संचारित 32 मामले ही सामने आए। इन परिणामों के बाद भी अधिकतर स्कूल बंद रहे। एक अन्य अध्ययन में विस्कॉन्सिन के ग्रामीण क्षेत्र के 17 स्कूलों का अध्ययन किया गया। शरद ऋतु के 13 सप्ताह के दौरान जब संक्रमण काफी तेज़ी से फैल रहा था, तब स्कूल कर्मचारियों और विद्यार्थियों में कुल 191 मामलों का पता चला,  जिनमें से केवल सात मामले स्कूल से उत्पन्न हुए थे। इसके अलावा नेब्रास्का में किए गए एक अप्रकाशित अध्ययन में पता चला था कि साल भर संचालित 20,000 से अधिक छात्रों और कर्मचारियों वाले स्कूल में पूरी अवधि के दौरान संचरण के केवल दो मामले ही सामने आए।       

हालाँकि, आलोचकों का कहना है कि इस अध्ययन में बिना लक्षण वाले बच्चों की पहचान नहीं की गई थी, इसलिए वास्तविक संख्या अधिक हो सकती है। शोधकर्ताओं का कहना है कि इन आँकड़ों को यदि दुगना या तिगुना भी कर दिया जाए तब भी स्कूल की संक्रमण दर सामुदायिक संक्रमण दर से काफी कम रहेगी। नॉर्वे के एक स्कूल में 5 से 13 वर्ष की आयु के 13 संपुष्ट मामलों की पहचान के बाद उन बच्चों के 300 निकटतम संपर्कों का भी परीक्षण किया गया। सम्पर्क में आए केवल 0.9 प्रतिशत बच्चों में और 1.7 प्रतिशत वयस्कों में वायरस संक्रमण के मामले पाए गए।

साल्ट लेक सिटी में शोधकर्ताओं ने ऐसे 700 से अधिक विद्यार्थियों और स्कूल कर्मचारियों का कोविड-19 परीक्षण किया जो 51 कोविड पॉज़िटिव विद्यार्थियों में से किसी भी एक के संपर्क में आए थे। इनमें से केवल 12 मामले पॉज़िटिव पाए गए, जिनमें से केवल पाँच मामले स्कूल से सम्बंधित थे। इससे पता चलता है कि वायरस से संक्रमित विद्यार्थियों के माध्यम से स्कूल में संक्रमण नहीं फैला है। न्यूयॉर्क में किए गए इसी तरह के अध्ययन में भी ऐसे परिणाम मिले।

हालांकि, सुरक्षात्मक उपायों के अभाव में संचरण दर काफी अधिक हो सकती है। जैसे इज्राइल में मई 2020 में स्कूल खोलने पर मात्र दो सप्ताह में ही एक माध्यमिक शाला में बड़ा प्रकोप उभरा। यहाँ विद्यार्थियों में 13.2 प्रतिशत और स्कूल कर्मचारियों एवं शिक्षकों में 16.6 प्रतिशत की संक्रमण दर दर्ज की गई। जून के मध्य तक इन लोगों के निकटतम संपर्कों में 90 मामले देखने को मिले।

कई अध्ययनों से यह साबित हुआ है कि स्कूल के बच्चे वायरस संक्रमण नहीं फैला रहे हैं। फिर भी यह कहना तो उचित नहीं है कि बच्चों में किसी प्रकार का कोई जोखिम नहीं है। इस रोग से कुछ बच्चों की मृत्यु भी हुई है। मार्च 2020 से फरवरी 2021 के बीच सात देशों में कोविड-19 से सम्बंधित मौतों में 231 बच्चे शामिल थे। अमेरिका में जून तक यह संख्या 471 थी। अध्ययनों में यह भी देखा गया कि संक्रमित बच्चों में काफी लम्बे समय तक लक्षण बने रहे। लिहाज़ा कुछ विशेषज्ञ बच्चों को इस वायरस के प्रकोप से दूर रखने का ही सुझाव देते हैं।

लेकिन बच्चों का स्कूल से दूर रहना भी किसी जोखिम से कम नहीं है। बच्चों का सामाजिक अलगाव और ऑनलाइन शिक्षण काफी चुनौतीपूर्ण रहा है। कुछ हालिया अध्ययनों से पता चला है कि दूरस्थ शिक्षा प्राप्त करने वाले बच्चे अकादमिक रूप से पिछड़ रहे हैं। स्कूल शिक्षा के अलावा भी बहुत कुछ प्रदान करता है। यह बच्चों को सुरक्षा प्रदान करता है, मुफ्त खाना और अपना दिन गुज़ारने के लिए एक सुरक्षित स्थान देता है। स्कूल में आने वाले बच्चों पर घरेलू हिंसा या यौन शोषण के लक्षण भी शिक्षक और स्कूल काउंसलर समझ जाते हैं और आवश्यक हस्तक्षेप भी कर पाते हैं। कामकाजी अविभावकों के लिए स्कूल बंद होना किसी आपदा से कम नहीं है। ऐसे में उनको अपनी ज़िम्मेदारियाँ निभाना काफी मुश्किल हो गया है। ऐसी परिस्थिति में भी स्कूल का खुलना काफी ज़रूरी हो गया है।

गौरतलब है कि जिन देशों में टीकाकारण कार्यक्रम तेज़ी से आगे बढ़ रहे हैं वहाँ कुछ प्रतिबंधों और सुरक्षात्मक उपायों के साथ स्कूल खुलने की संभावना है। हालाँकि, वायरस के नए संस्करणों से काफी अनिश्चितता बनी हुई है। डेल्टा संस्करण अल्फा संस्करण की तुलना में 40 से 60 प्रतिशत अधिक संक्रामक बताया जा रहा है। यूके में इस संस्करण के मामले काफी तेज़ी से बढ़े हैं। इसमें चिंताजनक बात यह है कि पाँच से 12 वर्ष के बच्चों में इसका प्रभाव अधिक पाया गया है।

स्कूलों में वायरस के अधिक संक्रामक संस्करणों के प्रसार को रोकने के लिए मास्क पहनने और बेहतर वेंटिलेशन जैसे तरीके अपनाए जा सकते हैं। अलबत्ता, इन सुरक्षात्मक उपायों को लेकर असमंजस की स्थिति है। जैसे, पहले सीडीसी ने स्कूलों में छह फुट की दूरी रखने की सलाह दी थी;  लेकिन मार्च में कुछ अध्ययनों के आधार पर इसे आधा कर दिया गया। यूके में केवल यथासंभव दूरी बनाए रखने के दिशानिर्देश जारी किए गए। देखा जाए, तो वसंत ऋतु में विस्कॉन्सिन के स्कूलों में कक्षा में तीन फुट से भी कम दूरी पर बच्चों को बैठाया गया। इसके बाद भी परीक्षण में केवल दो ही मामले सामने आए।

बंद जगहों में मास्क के उपयोग को लेकर भी दुविधा है। मार्च में इंग्लैंड में स्कूल खुलने पर सिर्फ माध्यमिक शाला के विद्यार्थियों को मास्क पहनना आवश्यक था;  लेकिन यूके डिपार्टमेंट ऑफ एजुकेशन ने 17 मई को बच्चों तथा शिक्षकों और स्कूल कर्मचारियों को मास्क न लगाने का सुझाव दिया। फिर जिन स्कूलों में मामले बढ़ने लगे वहां एक बार फिर मास्क का उपयोग करने की घोषणा की गई। इसी तरह अमेरिका के अलग-अलग ज़िलों तथा राज्यों में भी मास्क के उपयोग को लेकर विभिन्न निर्णय लिए गए। मई में सीडीसी ने मास्क के उपयोग में बदलाव करते हुए बताया कि टीकाकृत लोगों को मास्क का उपयोग करने की ज़रूरत नहीं है।

फिर भी कुछ विशेषज्ञों का मत है कि एहतियात के तौर पर मास्क का उपयोग किया जाना चाहिए। क्योंकि अमेरिका में बिना टीकाकृत लोगों में अभी भी संक्रमण का जोखिम काफी अधिक है और बच्चों का अभी तक टीकाकरण नहीं हो पाया है। इसलिए अभी भी सावधानी बरतना आवश्यक है। कुछ विशेषज्ञों को उम्मीद है कि स्कूलों का बंद होना स्कूल प्रणाली की पुन: रचना करने का मौका देगा। इस महामारी ने वर्तमान शिक्षा प्रणाली की व्यापक खामियों को उजागर किया है।

युनिसेफ के जेनकिंस के अनुसार ऐसी परिस्थितियों में शिक्षकों और स्कूल प्रबंधन को रचनात्मक तरीके सीखने व अपनाने की आवश्यकता है। किस प्रकार से वे प्रौद्योगिकी का उपयोग करते हुए वर्चुअल शिक्षण प्रदान कर सकते हैं, सवाल छुड़ाने जैसे महत्त्वपूर्ण कौशल को कैसे पढ़ाएँगे, शिक्षण के साथ-साथ मानसिक स्वास्थ्य, पोषण, सामाजिक-भावनात्मक विकास को कैसे सम्बोधित करेंगे। देखा जाए तो हमें कुछ बदलाव लाने का मौका मिला है। इस अवसर से फायदा न उठा पाना हमारे लिए काफी शर्म की बात होगी। (स्रोत फीचर्स)

अध्ययन- दीर्घ कोविड से जुड़े चार अहम सवाल


कोविड-19 संक्रमण से उबरने के बाद कई लोग लंबे समय तक तमाम लक्षणों से जूझ रहे हैं। इसे दीर्घ कोविड कहा जाने लगा है। युनिवर्सिटी कॉलेज लंदन की तंत्रिका वैज्ञानिक एथेना अक्रामी ने 3,500 से अधिक लोगों पर किए अध्ययन में दीर्घ कोविड के 205 लक्षण पाए हैं। इनमें थकान, सूखी खाँसी, सांस में तकलीफ, सिरदर्द और मांसपेशीय दर्द वगैरह शामिल हैं। थकान, काम के बाद अस्वस्थता और संज्ञानात्मक विकार जैसे लक्षण छह महीने तक बने रहे। वैसे लक्षणों की तीव्रता लगातार एक जैसी नहीं रहती, लोग बीच-बीच में थोड़ा बेहतर महसूस करते हैं।

महामारी की शुरुआत में गंभीर मामलों से निपटने की प्राथमिकता में दीर्घ कोविड की अनदेखी हुई। लेकिन मई 2020 में, पीड़ितों का एक फेसबुक ग्रुप बना जिसमें वर्तमान में 40,000 से अधिक लोग जुड़े हैं।

अब दीर्घ कोविड सार्वजनिक-स्वास्थ्य समस्या के रूप में पहचाना जा चुका है। जनवरी में WHO ने कोविड-19 उपचार के दिशानिर्देशों में जोड़ा है कि दीर्घ कोविड के मद्देनज़र कोविड-19 के रोगियों की संक्रमण उपरांत देखभाल तक पहुँच होनी चाहिए।

कई फंडिंग एजेंसियाँ  भी दीर्घ कोविड के विभिन्न अध्ययनों को वित्तीय समर्थन देने के लिए आगे आई हैं। यूके बायोबैंक ने स्व-परीक्षण किट उपलब्ध कराने की योजना बनाई है ताकि कोविड-19 से संक्रमितों की पहचान की जा सके और उन्हें अध्ययनों में शामिल किया जा सके।

दीर्घ कोविड से सम्बंधित चार बड़े सवालों पर नेचर पत्रिका ने प्रकाश डालने की कोशिश की है।

दीर्घ कोविड कितने लोगों में होता है, कौन अधिक जोखिम में है?

फिलहाल पक्के तौर पर यह नहीं कहा जा सकता कि यह कुछ ही लोगों को क्यों होता है और अधिक जोखिम किसे है। अधिकांश शुरुआती अध्ययन उन लोगों पर ही हुए थे जो गंभीर कोविड-19 के कारण अस्पताल में भर्ती हुए थे। कोलंबिया युनिवर्सिटी इरविंग मेडिकल सेंटर की कार्डियोलॉजिस्ट अनी नलबंडियन और उनके साथियों ने नौ अध्ययनों के आधार पर पाया कि कोविड-19 से उबरने के बाद 32.6 से 87.4 प्रतिशत रोगियों में कम से कम एक लक्षण कई महीनों तक बना रहता है।

लेकिन वास्तव में कोविड-19 से संक्रमित अधिकांश लोग इतने बीमार नहीं पड़ते कि उन्हें अस्पताल में भर्ती होना पड़े। ऐसे लोग अध्ययनों से छूट जाते हैं। इसलिए यूके के राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (ONS) ने अप्रैल 2020 के बाद से कोविड-19 पॉज़िटिव पाए गए 20,000 से अधिक लोगों पर नज़र रखी। ONS ने पाया कि उबरने के 12 हफ्ते बाद भी 13.7 प्रतिशत लोगों ने कम से कम एक लक्षण अनुभव किया। आम तौर पर संक्रमण मुक्त होने के बाद 4 हफ्ते से अधिक समय तक लक्षण बने रहते हैं तो इसे दीर्घ कोविड कहा जाता है। पुरुषों की तुलना में महिलाओं में यह स्थिति अधिक दिखती है - 23 प्रतिशत महिलाओं और 19 प्रतिशत पुरुषों में संक्रमण के पाँच सप्ताह बाद भी लक्षण मौजूद थे।

इसके अलावा अधेड़ लोगों में भी इसका जोखिम अधिक है। ONS के अनुसार, 35 से 49 वर्ष की आयु के 25.6 प्रतिशत लोगों में पाँच सप्ताह बाद भी लक्षण बरकरार थे। युवाओं व वृद्ध लोगों में ये कम दिखे। हालांकि अन्य शोधकर्ताओं का कहना है कि बुज़ुर्गों में दीर्घ कोविड कम दिखने की एक वजह यह हो सकती है कि अधिकतर संक्रमित बुज़ुर्गों की मृत्यु हो जाती है। 2-11 वर्ष के लगभग 10 प्रतिशत संक्रमित बच्चों में पाँच सप्ताह बाद भी लक्षण दिखे हैं।

अभी तक की समझ के आधार पर, अधिक जोखिम में कौन है इसका पूर्वानुमान करने में उम्र, लिंग और संक्रमण के पहले सप्ताह में लक्षणों की गंभीरता महत्वपूर्ण लगते हैं।

लेकिन कई अनिश्चितताएँ बनी हुई हैं। खासकर यह स्पष्ट नहीं है कि दीर्घ कोविड से महज 10 प्रतिशत लोग ही क्यों प्रभावित होते हैं? लेकिन यदि मात्र 10 प्रतिशत लोग भी प्रभावित होते हैं, तो भी यह आंकड़ा लाखों में होगा।

दीर्घ कोविड क्यों होता है?

वैसे तो दीर्घ कोविड के विविध लक्षणों पर विस्तृत अध्ययन किए जा रहे हैं, लेकिन यह होता क्यों है इसका कोई स्पष्ट कारण पता नहीं चला है। देखा गया है कि दीर्घ कोविड कई अंगों को प्रभावित करता है, इससे लगता है कि यह बहु-तंत्रीय विकार है।

अध्ययनों में देखा गया है कि कुछ हफ्तों बाद यह वायरस शरीर से लगभग खत्म हो जाता है इसलिए यह संभावना तो कम है कि संक्रमण ही इतना लंबा चल रहा है। लेकिन वायरस के अवशेष (जैसे प्रोटीन अणु) ज़रूर महीनों तक शरीर में बने रह सकते हैं। भले ही ये अवशेष कोशिकाओं को संक्रमित न करें, लेकिन हो सकता है कि वे शरीर के कामकाज में कुछ बाधा डालते हों।

इसके अलावा एक संभावना यह है कि दीर्घ कोविड प्रतिरक्षा प्रणाली के अति सक्रिय होने और शरीर के बाकी हिस्सों पर हमला करने की वजह से होता है। यानी दीर्घ कोविड एक ऑटोइम्यून बीमारी हो सकती है। अलबत्ता, यह कहना जल्दबाज़ी होगी कि इनमें से कौन-सी परिकल्पना सही है। यह भी हो सकता है कि अलग-अलग लोगों के लिए कारण अलग-अलग हों।

इसके कारण को बेहतर समझने के लिए पोस्ट हॉस्पिटलाइज़ेशन कोविड-19 स्टडी (PHOSP-COVID) के तहत यूके के 1000 से अधिक रोगियों के रक्त के नमूनों में शोथ, हृदय सम्बंधी समस्याओं और अन्य परिवर्तनों का पता लगाया जा रहा है। इसके अलावा, शोधकर्ताओं के एक दल ने कोविड-19 से पीड़ित 300 लोगों के हर चार महीने के अंतराल पर रक्त और लार के नमूने लेकर उनमें शोथ, रक्त का थक्का बनाने वाली प्रणाली में बदलाव और वायरस की मौजूदगी के प्रमाण तलाशे। अध्ययन में उन्होंने रक्त में साइटोकाइन्स (जो प्रतिरक्षा का नियमन करते हैं) का स्तर परिवर्तित पाया। इससे लगता है कि प्रतिरक्षा प्रणाली असंतुलित थी। इसके अलावा ऐसे प्रोटीन संकेतक भी मिले जो तंत्रिका तंत्र सम्बंधी विकार की ओर इशारा करते हैं। शोधकर्ता इस काम में मशीन लर्निंग की भी मदद ले रहे हैं।

इसी कड़ी में PHOSP-COVID अध्ययन में शामिल रेचेल इवांस और उनके साथियों ने अपने अध्ययन में कोविड-19 से संक्रमित हो चुके 1077 लोगों में शारीरिक दुर्बलता, दुश्चिंता जैसी मानसिक-स्वास्थ्य सम्बंधी तकलीफों और संज्ञानात्मक क्षति को जांचा। उन्होंने इसमें उम्र और लिंग जैसी बुनियादी जानकारी शामिल की और जैव रासायनिक डैटा (जैसे सी-रिएक्टिव प्रोटीन) का स्तर भी रिकॉर्ड किया। गणितीय विश्लेषण की मदद से देखा गया कि क्या एक जैसे लक्षण वाले रोगियों के समूह दिखाई देते हैं? कोविड-19 की गंभीरता, या अंगों की क्षति के स्तर और दीर्घ कोविड की गंभीरता के बीच बहुत कम सम्बंध पाया गया।

विश्लेषण में दीर्घ कोविड के भिन्न-भिन्न लक्षणों वाले चार समूहों की पहचान हुई। तीन समूहों में अलग-अलग स्तर की मानसिक और शारीरिक दुर्बलता थी, जबकि संज्ञानात्मक समस्या नहीं या बहुत कम थी। चौथे समूह के लोगों में मध्यम स्तर की मानसिक और शारीरिक दुर्बलताएँ थी, लेकिन संज्ञानात्मक समस्याएँ अत्यधिक थीं।

क्या यह संक्रमण-उपरांत लक्षण है?

कुछ वैज्ञानिक के लिए दीर्घ कोविड की स्थिति कोई हैरत की बात नहीं थी। संक्रमण ठीक होने के बाद लंबे समय तक लक्षण बने रहना कई मामलों में देखा गया है। दरअसल मायेल्जिक एन्सेफलाइटिस या क्रॉनिक फटीग सिंड्रोम (ME/CFS

) वायरस संक्रमणों के बाद उपजी एक स्थिति है जिसमें लोग सिरदर्द, थोड़े से काम के बाद काफी थकान जैसे लक्षणों का अनुभव करते हैं।

वायरस या बैक्टीरिया से संक्रमित हो चुके 253 लोगों पर हुए एक अध्ययन में देखा गया था कि लगभग 12 प्रतिशत लोगों में 6 महीने बाद भी थकान, मांसपेशीय-कंकालीय दर्द, तंत्रिका सम्बंधी समस्या और मनोदशा में गड़बड़ी जैसे लक्षण मौजूद थे। यानी दीर्घ कोविड संक्रमण-उपरांत लक्षण हो सकता है।

लेकिन दीर्घ कोविड के लक्षण ME/CFS से काफी अलग हैं। उदाहरण के लिए दीर्घ कोविड वाले लोगों में सांस की तकलीफ ME/CFS वाले लोगों की तुलना में अधिक दिखती है।

क्या किया जा सकता है?

चूंकि इस विकार को अभी पूरी तरह समझा नहीं जा सका है इसलिए उपचार/मदद सम्बंधी विकल्प काफी सीमित हैं। जर्मनी, इंगलैंड वगैरह कुछ देशों में दीर्घ कोविड से पीड़ित लोगों के लिए क्लीनिक खोले जा रहे हैं। यह एक अच्छी पहल है, लेकिन इस विकार से निपटने के लिए कई क्षेत्रों के विशेषज्ञों की ज़रूरत है क्योंकि दीर्घ कोविड शरीर के कई हिस्सों को प्रभावित करता है। दीर्घ कोविड से पीड़ित हर व्यक्ति में औसतन 16-17 लक्षण दिखाई देते हैं, लेकिन अक्सर क्लीनिकों में सभी के उपचार की व्यवस्था नहीं होती।

इसकी सामाजिक और राजनीतिक चुनौती सबसे बड़ी है। दीर्घ कोविड से जूझ रहे लोगों को आराम की ज़रूरत है, अक्सर कई महीनों तक वे बहुत काम नहीं कर सकते और ऐसे में उन्हें सहयोग की आवश्यकता है। खास तौर से श्रमिक वर्ग के लिए यह एक बड़ी चुनौती हो सकती है। एक सुझाव है कि उनकी स्थिति को विकलांगता के रूप में पहचाना जाना चाहिए।

कुछ लोग इसकी दवा खोजने की दिशा में भी काम कर रहे हैं। यूके के HEAL-COVID नामक अध्ययन का उद्देश्य दीर्घ कोविड की स्थिति बनने से रोकना है। इसमें कोविड-19 के अस्पताल में भर्ती रोगियों को ठीक होने के बाद विशिष्ट दवाइयाँ  दी जाएँगी।

और अंत में यह सवाल कि कोविड-19 के टीके इसमें क्या भूमिका निभा सकते हैं? बेशक ये टीके कोविड-19 के खिलाफ कारगर हैं लेकिन क्या वे दीर्घ कोविड से भी बचाव करते हैं?

हालिया अध्ययन में दीर्घ कोविड से पीड़ित 800 लोगों पर टीके के प्रभाव जाँचे गए। इनमें से 57 प्रतिशत लोगों के लक्षणों में सुधार दिखा, 24 प्रतिशत में कोई परिवर्तन नहीं दिखे और 19 प्रतिशत लोगों की हालत टीके की पहली खुराक के बाद और बिगड़ गई। अनुमान है कि यदि संक्रमण पश्चात वायरस के कुछ अवशेष शरीर में छूट भी गए हैं तो टीका उनका खात्मा कर सकता है या प्रतिरक्षा प्रणाली में आए असंतुलन को ठीक कर सकता है।

कुल मिलाकर दुनिया भर के शोधकर्ता दीर्घ कोविड को समझने और लोगों को उससे उबारने की जद्दोजहद में हैं। (स्रोत फीचर्स)


उपचार- एँटीबॉडी युक्त नेज़ल स्प्रे बचाएगा कोविड से

 

महामारी की शुरुआत से वैज्ञानिक कोविड-19 के उपचार के लिए एँटीबॉडी विकसित करने का प्रयास कर रहे हैं। फिलहाल कई एँटीबॉडी क्लीनिकल परीक्षण के अंतिम दौर में हैं और कइयों को अमेरिका और अन्य देशों की नियामक एजेंसियों द्वारा आपातकालीन उपयोग की अनुमति दी गई है।

अलबत्ताडॉक्टरों के बीच एँटीबॉडी उपचार अधिक लोकप्रिय नहीं है। गौरतलब है कि फिलहाल एँटीबॉडी इंट्रावीनस मार्ग (रक्त शिराओं) से दी जाती हैं न कि सीधे सांस मार्ग जबकि वायरस मुख्य रूप से वहीं पाया जाता है। इस वजह से काफी अधिक मात्रा में एँटीबॉडी का उपयोग करना होता है। एक अन्य चुनौती यह है कि सार्स-कोव-2 वायरस के कुछ संस्करण ऐसे भी हैं जो एँटीबॉडीज़ को चकमा देने में सक्षम हैं।

इस समस्या के समाधान के लिए युनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास के हेल्थ साइंस सेंटर के एँटीबॉडी इंजीनियर ज़ीचियाँ ग एन और उनकी टीम ने ऐसी एँटीबॉडी विकसित कीं जिन्हें सीधे श्वसन मार्ग में पहुंचाया जा सके जहाँ  उनकी ज़रूरत है। इसके लिए टीम ने स्वस्थ हो चुके लोगों की हज़ारों एँटीबॉडीज़ की जांच की और अंतत: ऐसी एँटीबॉडीज़ पर ध्यान केंद्रित किया जो सार्स-कोव-2 के उस घटक की पहचान कर पाएँ जो वायरस को कोशिकाओं में प्रवेश करने में मदद करता है। इनमें से सबसे प्रभावी IgG एँटीबॉडीज़ पाई गर्इं जो संक्रमण के बाद अपेक्षाकृत देर से प्रकट होती हैं लेकिन विशिष्ट रूप से किसी रोगजनक के खिलाफ कारगर होती हैं।

इसके बाद टीम ने सार्स-कोव-2 को लक्षित करने वाले IgG अंशों को IgM नामक एक अन्य अणु से जोड़ा। IgM संक्रमण के प्रति काफी शुरुआती दौर में प्रतिक्रिया देता है। इस तरह से तैयार किए गए IgM ने सार्स-कोव-2 के 20 संस्करणों के विरुद्ध मात्र IgG की तुलना में अधिक शक्तिशाली प्रभाव दर्शाया। नेचर में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार जब विकसित किए गए IgM को चूहों के श्वसन मार्ग में संक्रमण के 6 घंटे पहले या 6 घंटे बाद डाला गया तो दो दिनों के भीतर चूहों में वायरस का संक्रमण कम हो गया।

लेकिन फिलहाल ये प्रयोग चूहों पर किए गए हैं और महत्त्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या ये एँटीबॉडी मनुष्यों में उसी तरह से काम करेंगी।

एन का मत है कि यह एँटीबॉडी एक तरह का रासायनिक मास्क है जिसका उपयोग सार्स-कोव-2 के संपर्क में आए व्यक्ति कर सकते हैं। यह उन लोगों के लिए रक्षा का एक और कवच हो सकता है जो टीका लगने के बाद पूरी तरह सुरक्षित नहीं हुए हैं।

IgM अणु अपेक्षाकृत टिकाऊ होते हैंइसलिए इनको नेज़ल स्प्रे के रूप में आपातकालीन उपयोग के लिए रखा जा सकता है। फिलहाल कैलिफोर्निया आधारित IgM बायोसाइंस नामक एक बायोटेक्नॉलॉजी कंपनी द्वारा एन के साथ मिलकर इस एँटीबॉडी के क्लीनिकल परीक्षण की योजना है। (स्रोत फीचर्स)

भूली बिसरी- ऐ मेरे वतन के लोगो...

-देवमणि पांडेय
दिल्ली के नेशनल स्टेडियम में प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू
 के साथ लता मंगेशकर (1962)

अक्टूबर 1962 में जब हम अपने घरों में बैठकर दीवाली मना रहे थेउस समय हमारी सेना के जवान हिमालय की दुर्गम बर्फ़ीली पहाड़ियों में दुश्मनों के साथ ख़ून की होली खेल रहे थे। चीन के साथ हमने हिंदी चीनी भाई- भाई की चादर बुनी थी। रिश्तों की वह चादर तार-तार हो गई थी। चीन ने हमारे ऊपर आक्रमण करके हमें स्तब्ध कर दिया था। चीन की भारी-भरकम सेनाओं के सामने टिकना आसान काम नहीं था। हमारे हिंदुस्तानी जवानों ने बहुत बहादुरी से मुक़ाबला किया। हमारी सैन्य तैयारी पूरी नहीं थी। हमारी सेना के पास बर्फ़ में पहने जाने वाले समुचित कपड़े और जूते नहीं थे। परिणाम य हुआ कि हमारे काफ़ी सैनिक इस  युद्ध में शहीद हुए। पूरे देश में दुख और हताशा छा गई। यह तय किया गया कि गणतंत्र दिवस के अवसर पर युद्ध में शहीद जवानों के परिवारों के सहायतार्थ रक्षा मंत्रालय और फ़िल्म जगत की ओर से एक चैरिटी कार्यक्रम का आयोजन किया जाए।

मुंबई के फ़िल्म जगत में यह सूचना पहुँचते ही निर्देशक महबूब ख़ान की अध्यक्षता में एक संयोजन समिति बनाई गई। दिलीप कुमार, सी रामचंद्र, मदन मोहन और नौशाद ने कार्यक्रम की तैयारी शुरू कर दी। जब लोगों को मालूम हुआ कि मुंबई के कलाकारों को सेना के विशेष विमान से दिल्ली ले जाया जाएगा और फाइव स्टार होटल में ठहराया जाएगा, तो कई कलाकार इस प्रयास में जुट गए कि वे भी इसी बहाने दिल्ली घूम आएँ। गीतकार पं प्रदीप सीधे साधे इंसान थे। वे इस तरह के झमेले से दूर रहना पसंद करते थे। यही कारण था कि जब सी रामचंद्र ने दो-तीन बार उनसे इस मौक़े के लिए एक गीत लिखने का अनुरोध किया तो वे लिख दूँगा, लिख दूँगाकहकर उन्हें टालते रहे। लगभग सारी तैयारी हो चुकी थी। उस समय फ़िल्म के प्रदर्शन के पहले उसके गीतों की पब्लिसिटी नहीं होती थी। फ़िल्म- जगत् में इस बात की बड़ी चर्चा थी कि संगीतकार नौशाद ने फ़िल्म लीडरके लिए मो. रफ़ी की आवाज़ में जो गीत रिकॉर्ड किया है, उसे दिल्ली में पेश किया जाएगा। फ़िल्म लीडरउस समय तक प्रदर्शित नहीं हुई थी। शकील बदायूँनी का लिखा हुआ वह गीत था-

अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नहीं

सर कटा सकते हैं लेकिन सर झुका सकते नहीं 

ज़रा याद करो क़ुर्बानी  

पं प्रदीप की उदासीनता से संगीतकार सी रामचंद्र परेशान थे। इसका पता महबूब ख़ान को लग गया। अगले दिन सुबह कुर्ता -लुंगी पहने महबूब ख़ान प्रदीप के घर पहुँच गए। दोनों बहुत अच्छे मित्र थे। महबूब ख़ान ने कहा- देखो प्रदीप, तुम्हारी एक नहीं चलेगी। इस कार्यक्रम के लिए तुम्हें एक गीत तो लिखना ही पड़ेगा। जब तक तुम हाँ नहीं कहते, मैं यहीं बैठा रहूँगा। आख़िरकार उन्होंने प्रदीप को गीत लिखने के लिए राज़ी कर लिया।

रात भर करवटें बदलने के बावजूद प्रदीप को कोई विषय नहीं सूझा। सुबह वे अख़बार पढ़ रहे थे। उसमें शेर सिंह, होशियार सिंह आदि कुछ बहादुर सैनिकों की शौर्य गाथाएँ प्रकाशित हुई थीं कि किस तरह उन्होंने बड़ी बहादुरी के साथ दुर्गम बर्फ़ीली पहाड़ियों में दुश्मनों से लोहा लिया और देश की ख़ातिर क़ुर्बान हो गए। अचानक प्रदीप के मन में एक मंज़र उभरने लगा। कितनी बहनों ने अपने भाइयों की कलाई पर राखी बाँधकर, कितनी माताओं ने अपने बेटों के मस्तक पर तिलक लगाकर और कितनी वीरांगनाओं ने अपने पतियों की आरती उतारकर उनको रणक्षेत्र में भेजा होगा। देश की ख़ातिर सीमा पर दुश्मनों से लड़ते हुए इन सपूतों ने अपना जीवन बलिदान कर दिया। वे लौटकर घर नहीं आए।

कवि प्रदीप को विषय मिल गया था। अभी उसे इज़हार का रास्ता नहीं मिल पाया था। शाम को वे अपने मित्र फ़िल्म शहीद के खलनायक राम सिंह से मिलने के लिए शिवाजी पार्क गए थे। शिवाजी पार्क में प्रदीप के मन में गीत का जन्म हुआ। उनके होठों से कुछ शब्द छलक उठे- जो शहीद हुए हैं उनकी , ज़रा याद करो क़ुर्बानी। इसी एक लाइन को गुनगुनाते हुए प्रदीप घर पहुँचे तो गीत का मुखड़ा बन गया। गाड़ी को इंजन मिल जाए , तो डिब्बा जोड़ने में देर नहीं लगती। अगले दिन गीत तैयार था। 

संगीतकार सी रामचंद्र आए। प्रदीप ने गीत का मुखड़ा सुनाया। उनका चेहरा उतर गया। बोले- गुरु, आपने ये क्या लिख दिया। यहाँ तो सर कटाने की बात चल रही है और आप रोने -धोने बैठ गए। क्या मुझे नीचा दिखाएँगे। प्रदीप ने उन्हें समझाया- अन्ना, पहले तुम शांत चित्त से पूरा गीत सुनो। जोश की अपेक्षा करुणा में ज़्यादा शक्ति होती है। अन्ना ने पूरा गीत सुना। उन्हें महसूस हुआ कि प्रदीप जी की बात में वज़न है। प्रदीप जी की ख़ासियत है कि अपने लिखे अधिकतर गीतों की धुन उन्होंने ख़ुद बनाकर संगीतकारों को दीं। संगीतकारों की सुविधा के लिए उनके पलंग के नीचे हमेशा एक हारमोनियम रखा रहता था। सी रामचंद्र ने हारमोनियम निकाला। ज़मीन पर बैठ गए। प्रदीप जी के सामने एक ट्रे में चाय का कप रखा हुआ था। उन्होंने कप नीचे रखा। तश्तरी को उल्टा करके गोद में रखा और बजाते हुए गाना शुरू कर दिया- 

ऐ मेरे वतन के लोगो 

ज़रा आँख में भर लो पानी 

जो शहीद हुए हैं उनकी 

ज़रा याद करो क़ुर्बानी

इन लाइनों को प्रदीप ने चार -पाँच बार दोहराया। अन्ना ने उनकी धुन को थोड़ा -सा पॉलिश किया। कुछ मित्र स्वर जोड़े और धुन तैयार हो गई। जब वही धुन हारमोनियम पर बजाकर उन्होंने प्रदीप जी को गीत के बोल सुनाए, तो प्रदीप जी भी मुग्ध हो गए। बाद में अन्ना ने प्रदीप से कहा था- अगर आप इसकी धुन बना कर नहीं देते,  तो शायद मैं कुछ और तरह की धुन बनाता और उसमें इतनी कशिश नहीं होती।

गीत के लिए गायिका का चयन

ऐ मेरे वतन के लोगों ... अमर गीत के रचयिता पं. प्रदीप के साथ
लता मंगेशकर और संगीतकार सी. रामचंद्र (1962)
प्रदीप ने अन्ना से कहा कि तुम यह वादा करके जाओ कि इस गीत के बारे में किसी को भी नहीं बताओगे। यहाँ तक कि अपने बीवी -बच्चों को भी नहीं। फ़िल्म- जगत् में आइडिया चोरी होने का बहुत ख़तरा रहता है। अन्ना ने वादा कर लिया। प्रदीप ने कहा- तुम लता से इसे गाने के लिए बात करो। अन्ना पशोपेश में पड़ गए। बोले- आप तो जानते ही हैं कि आजकल लता मुझसे नारा है। उसने मेरे साथ गाना बंद कर दिया है। वह किसी भी क़ीमत पर इसे गाने को राज़ी नहीं होगी। यही सोचकर मैंने इस गाने के लिए पहले ही आशा भोंसले को कह दिया है। प्रदीप जी ने कहा- लता की आवाज़ में जो करुणा है , वह किसी भी गायिका में नहीं है। तुम आशा को समझाओ, मैं लता से बात करता हूँ।

प्रदीप जी का बहुत सम्मान करती हैं लता मंगेशकर। उन्हें बाबूजी कहती हैं। प्रदीप जी को यक़ीन था कि वे लता को मना लेंगे। दूसरे दिन सुबह ताड़देव के फ़िल्म सेंटर में लता मंगेशकर की रिकॉर्डिंग थी,  प्रदीप वहीं पहुँच गए। लता को स्टूडियो के एक कोने में ले गए और सीधे कह दिया- लता, तुमको अन्ना के साथ मेरा एक गीत गाना है। लता आश्चर्य से बोलीं- बाबूजी, आप ये क्या कह रहे हैं। मैंने अन्ना के साथ गाना बंद कर दिया है।  प्रदीप ने समझाया- सुनो बेटी, फ़िल्म लाइन में आए दिन मनमुटाव तो होते ही रहते हैं। इसका मतलब यह थोड़े ही है कि तुम ज़िंदगी भर के लिए दुश्मनी ठान लो। और देखो, दूसरी तरफ़ मो रफ़ी भी पूरी तैयारी के साथ आ रहा है। यह इशारा काफी अहम था। उन दिनों रफ़ी और लता में भी अनबन चल रही थी। लता ने रफ़ी के साथ भी गाना बंद कर दिया था। लता यह भी जानती थीं कि प्रदीप के गीत और अन्ना के संगीत के सामने किसी और की क्या बिसात। लता मान गईं।

अचानक एक समस्या सामने आ गई। कार्यक्रम की स्मारिका प्रकाशित होने वाली थी। महबूब ख़ान ने सी रामचंद्र से कहा- आप प्रदीप के गीत का मुखड़ा दीजिए। स्मारिका में प्रकाशित करना है। उन्होंने प्रदीप जी को सम्पर्क किया। प्रदीप जी ने कहा -मैं कुछ सोचता हूँ। किसी भी हाल में किसी को भी यह पता नहीं चलना चाहिए कि लता मंगेशकर कौन- सा गीत गा रही हैं। काफ़ी सोचने के बाद प्रदीप ने गीत के मुखड़े से पहले चार लाइनें जोड़ीं और वही लाइनें स्मारिका में प्रकाशित हुईं-

ऐ मेरे वतन के लोगो 

तुम ख़ूब लगा लो नारा 

यह शुभ दिन है हम सब का 

लहरा लो तिरंगा प्यारा

पर मत भूलो सीमा पर 

वीरों ने हैं प्राण गंवाए

कुछ याद उन्हें भी कर लो  

जो लौट के घर ना आए

नेशनल स्टेडियम में संगीत समारोह  

27 जनवरी को संगीत का यह कार्यक्रम दिल्ली के नेशनल स्टेडियम में आयोजित था। इस कार्यक्रम में हेमंत कुमार, जयदेव, सी रामचंद्र, अनिल विश्वास, शंकर जयकिशन, नौशाद, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल और उषा खन्ना जैसे संगीतकारों के अलावा राज कपूर, दिलीप कुमार, देवानंद, राजेंद्र कुमार जैसे कई मशहूर अभिनेता और अभिनेत्रियाँ  शामिल होने वाली थीं। इसलिए उस दिन दिल्ली शहर में ख़ासी चहल-पहल थी। नेशनल स्टेडियम कई हज़ार श्रोताओं से खचाखच भरा था। बाहर की भारी भीड़ को देखते हुए इंडिया गेट के आसपास का यातायात दोपहर से शाम तक के लिए रोक दिया गया था।

कार्यक्रम में श्रोताओं की पहली क़तार में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन, प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू, रक्षा मंत्री यशवंतराव चव्हाण, श्रीमती इंदिरा गाँधी तथा कई अन्य मंत्री और सांसद विराजमान थे। जन गण मनसे कार्यक्रम की शुरुआत हुई। उद्घोषक थे डेविड अब्राहम। प्रमुख सितारों ने स्टेज पर आकर संगीतकारों का परिचय दिया। तलत महमूद की दो ग़ज़लें काफ़ी पसंद की गईं। महेंद्र कपूर, सुमन कल्याणपुर और शांति माथुर भी अच्छे रहे। मो. रफ़ी ने फ़िल्म लीडर का मशहूर गीत गाया- सर कटा सकते हैं लेकिन सर झुका सकते नहीं। मगर वे श्रोताओं में कोई जोश नहीं पैदा कर सके।

बंगाली कलाकारों को भारी असफलता का सामना करना पड़ा। हेमंत दा के साथ संध्या मुखर्जी, उत्पला सेन और सतिननाथ मुखर्जी आदि ने क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम का मशहूर मार्चिंग सांग ऊर्धे गगनने बाजे ढोल पेश किया। यूँ तो यह गीत आज़ादी के आंदोलन का एक हिस्सा था। पहले से ही लोकप्रिय था। मगर यहॉं वह गीत पूरी तरह फ्लॉप हो गया।

गीत सुनकर रो पड़े प्रधानमंत्री नेहरू

पं. जवाहरलाल नेहरू के साथ लता मंगेशकर
सी. रामचंद्र और लता मंगेशकर इन सारी चीज़ों को ग़ौर से देख रहे थे। अन्ना को अपने संगीत और लता की आवाज़ पर नाज़ था। लता को अपने ऊपर भरोसा था। अब लता की बारी थी। उन्होंने ईश्वर का स्मरण किया और अपनी आवाज़ का जादू बिखेरना शुरू किया। पूर्व योजना के अनुसार उन्होंने सबसे पहले गाया- आपकी नज़रों ने समझा प्यार के क़ाबिल मुझे...। लता की आवाज़ का जादू श्रोताओं पर छा गया। जब उन्होंने अल्लाह तेरो नाम ईश्वर तेरो नामगाना शुरू किया तो माहौल में पाकीज़गी उतर आई।

इस गीत को सुनकर श्रोता सम्मोहित हो चुके थे। यह गीत समाप्त हुआ, तो पल भर के अंतराल के बाद ज़ोर शोर से गरबा की धुन बजने लगी। अभी तक पूरा वातावरण सादगी और पवित्रता में लिपटा हुआ था। गरबा का लाउड संगीत सुनकर लोग चौंक कर इधर-उधर देखने लगे। मगर सन्नाटा क़ायम था। अचानक सामने पसरे सन्नाटे को चीरती हुई करुणा में भीगी लता मंगेशकर की स्वर लहरी धीरे-धीरे माहौल पर छाने लगी- 

ऐ मेरे वतन के लोगो 

तुम ख़ूब लगा लो नारा 

यह शुभ दिन है हम सबका 

लहरा लो तिरंगा प्यारा

यहाँ  तक तो सब कुछ ठीक-ठाक था। मगर जब लता ने अगली लाइनें पेश कीं- 

पर मत भूलो सीमा पर 

वीरों ने हैं प्राण गवाएँ 

कुछ याद उन्हें भी कर लो 

जो लौटके घर ना आए 

इतना सुनना था कि दिलों में हलचल शुरू हो गई। यूँ लगा जैसे किसी ने ताज़ा घाव कुरेद दिया हो। वहाँ पर सिर्फ़ साधारण जनता ही नहीं थी। वहाँ ऐसे कई परिवार थे, जिन्होंने चीनी युद्ध में अपना कोई न कोई प्रिय जन खो दिया था। सूनी माँग वाली विधवाएँ थीं। आहत ममता वाली माताएँ थीं। जवान बेटे को खो देने वाले लाचार बाप थे। भीगी आँखों वाली बहने थीं। बाप से बिछड़े अनाथ बच्चे थे। अपने प्रिय दोस्त को अलविदा कहने वाले ढेर सारे सैनिक थे। इन सबके बीच लता की दर्द भरी आवाज़ गूँज रही थी- 

ऐ मेरे वतन के लोगो 

ज़रा आँख में भर लो पानी 

जो शहीद हुए हैं उनकी 

ज़रा याद करो क़ुर्बानी

लोगों के चेहरों पर पीड़ा की रेखाएँ गहराने लगीं। आँखों के कोने भीगने लगे। स्टेडियम के बाहर का शोर थम गया था। अंदर तो लगता था कि लोगों ने साँस भी लेना बंद कर दिया गया है। इस संजीदा सन्नाटे में लता मंगेशकर गाती रहीं- 

जब घायल हुआ हिमालय 

ख़तरे में पड़ी आज़ादी 

जब तक थी साँस लड़े वो 

फिर अपनी लाश बिछा दी 

संगीन पे धरकर माथा

सो ग अमर बलिदानी

जो शहीद हुए हैं उनकी…

अब पं. नेहरु जी ख़ुद पर क़ाबू न रख सके। आँखों से आँसू बहने लगे। उनकी रुलाई देखकर आसपास बैठे मंत्री और राजनेताओं की भी आँखों में नमी उतर आई। पं. नेहरू जैसे महान व्यक्ति को रोता हुआ देखकर किसी को कोई ताज्जुब न हुआ। गीत में कुछ ऐसा जादू था जो सबको मर्माहत किए हुआ था। ऐसा लग रहा था जैसे कोई बेहद प्रिय व्यक्ति हमारा दुख बाँट रहा हो। हमें चीनी युद्ध का सामना अचानक करना पड़ा था। युद्ध के लिए हमारी कोई तैयारी नहीं थी। इस युद्ध में हमारे ढेर सारे निर्दोष जवान मारे गए थे। इसके लिए पं. नेहरू ख़ुद को गिल्टी महसूस कर रहे थे। उनके अंदर की सारी पीड़ा आँसुओं के साथ बह चली। कई आँखें रो रही थीं मगर सबके कान लता की आवाज़ पर लगे हुए थे- जब अंत समय आया तो’ ...

इसके साथ ही माहौल में ढेर सारे समवेत स्वर गूँजने लगे- आ आ आ  …। लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ क्योंकि स्टेज पर सिर्फ़ लता और सी रामचंद्र ही थे। इतने सारे स्वरों में जैसे आकाशवाणी हो रही थी। बात यह थी कि सी रामचंद्र ने कई लड़के लड़कियों को चुपचाप पर्दे के पीछे खड़ा कर दिया था और अब उन्हीं का कोरस गान माहौल में गूँज रहा था। इस कोरस ने जैसे सब को नींद से जगा दिया। इसी के साथ लता ने गीत की आख़िरी लाइनें पेश कीं-

जब अंत समय आया तो 

कह गए कि अब मरते हैं 

ख़ुश रहना देश के प्यारो -2 

अब हम तो सफ़र करते हैं -2 

क्या लोग थे वो दीवाने

क्या लोग थे वो अभिमानी

जो शहीद हुए हैं उनकी

पं. प्रदीप एक कार्यक्रम में पीछे बैठे हैं
 पं. जवाहरलाल नेहरू
गीत समाप्त हो गया मगर सन्नाटा बरकरार था। कोई कुछ ना बोला। लोग यादों में डूबते उतराते रहे। कई जगह सिसकियों की आवाज़ साफ़ साफ़ सुनाई पड़ रही थी। एक गीत ने इतिहास रच दिया था। लाखों लोगों की भावनाएँ उससे जुड़ गईं थीं। नेहरू जी ने रुमाल से अपनी आँखें पोछीं। धीरे से उठकर मंच पर लता के पास गए। उनके मुँह से सिर्फ़ एक वाक्य निकला- बेटी, तुमने मुझे रुला दिया। स्वर में स्नेह की गर्मी महसूस करके लता की आँखें सजल हो गईं। कुछ देर बाद नेहरु जी ने पूछा- हू इज द राइटर, मैं उससे मिलना चाहता हूँ। प्रदीप की खोज होने लगी। किसी ने बहाना बना दिया- शायद तबीयत ख़राब थी इसलिए नहीं आ पाए। 

महीने बाद पं. नेहरू कांग्रेस के एक सम्मेलन में मुंबई आए। ग्रांट रोड के रेडीमनी स्कूल ग्राउंड में आयोजित कार्यक्रम में उन्होंने कवि प्रदीप को मिलने के लिए बुलाया। नेहरु जी ने खड़े होकर प्रदीप का स्वागत किया। उनके हाथ थाम लिए और बोले- प्रदीप जी, वही गीत मैं आपकी आवाज़ में सुनना चाहता हूं। प्रदीप जी ने पंडित नेहरू के सामने अपना गीत सुनाया। प्रदीप जी एक दिन ट्रेन में यात्रा कर रहे थे। सामने वर्दी में एक सैनिक था। बातचीत में उसने प्रदीप जी को पहचान लिया। उसने प्रदीप जी के चरण स्पर्श किए। बोला- आपके गीत के अंत में आता है जय हिंद, जय हिंद की सेना। ऐसा सम्मान हमें कभी नहीं मिला। यह हिंद की सेना के लिए गौरव की बात है।  

ऐ मेरे वतन के लोगो गीत को फ़िल्म जगत के कई लोग ख़रीदना चाहते थे। मुँह मांगी क़ीमत देने को तैयार थे। प्रदीप जी ने मना कर दिया। बोले- जिस गीत के चारों ओर प्रधानमंत्री के आँसुओं की झालर लगी हो उसे मैं बेच नहीं सकता। प्रदीप जी ने इस गीत की सारी रायल्टी चीनी युद्ध में शहीद सैनिकों के परिवारों को भेंट कर दी। देश विदेश में आज तक लता मंगेशकर का ऐसा कोई स्टेज प्रोग्राम नहीं हुआ जिसमें इस गीत की फ़रमाइश न की गई हो। यह एक ऐसा प्रेरक गीत है जिसने हमें अपने देश के वीर जवानों से प्रेम करना सिखाया। उनकी क़ुर्बानी को याद करना सिखाया। ऐसे अमर गीत के रचयिता पं. प्रदीप को प्रणाम।

ऐ मेरे वतन के लोगो : पूरा गीत

ऐ मेरे वतन के लोगो

तुम ख़ूब लगा लो नारा

ये शुभ दिन है हम सब का

लहरा लो तिरंगा प्यारा


पर मत भूलो सीमा पर

वीरों ने हैं प्राण गँवाए

कुछ याद उन्हें भी कर लो 

जो लौट के घर न आये

 

ऐ मेरे वतन के लोगो

ज़रा आँख में भर लो पानी

जो शहीद हुए हैं उनकी

ज़रा याद करो क़ुरबानी


जब घायल हुआ हिमालय

ख़तरे में पड़ी आज़ादी

जब तक थी साँस लड़े वो

फिर अपनी लाश बिछा दी

संगीन पे धर कर माथा 

सो गये अमर बलिदानी, जो शहीद...


जब देश में थी दीवाली

वो खेल रहे थे होली

जब हम बैठे थे घरों में

वो झेल रहे थे गोली

थे धन्य जवान वो अपने

थी धन्य वो उनकी जवानी, जो शहीद...


कोई सिख कोई जाट मराठा

कोई गुरखा कोई मदरासी

सरहद पर मरनेवाला 

हर वीर था भारतवासी

जो ख़ून गिरा पर्वत पर

वो ख़ून था हिंदुस्तानी, जो शहीद...


थी ख़ून से लथ-पथ काया

फिर भी बन्दूक उठाके

दस-दस को एक ने मारा

फिर गिर गये होश गँवा के

जब अन्त-समय आया तो

कह गये के अब मरते हैं

ख़ुश रहना देश के प्यारो

अब हम तो सफ़र करते हैं

क्या लोग थे वो दीवाने

क्या लोग थे वो अभिमानी, जो शहीद...


तुम भूल न जाओ उनको

इस लिये कही ये कहानी, जो शहीद...


जय हिन्द... जय हिन्द की सेना 

जय हिन्द, जय हिन्द, जय हिन्द

B-103. Divya Stuti, Kanya Pada, .Gokul Dham, Film City Road, Goregaon East, Mumbai-400063,. Ph :+91- 98210-82126, Devmanipandey.blogspot.com