हम भारतवासियों के लिए उत्साह, उमंग और
खुशियों के साथ मिल-जुलकर मनाने वाला, साल का सबसे बड़ा सांस्कृतिक पर्व है -दीपावली। कोरोना के साए में पिछले सभी पर्व-
त्योहार हमने सावधानी बरतते हुए, अकेले- अकेले यह कहते हुए मना
लिये कि दीवाली तक तो सब कुछ सामान्य हो ही जाएगा, तब उजालों
के इस महापर्व को हम सब मिल-जुलकर एकसाथ मनाएँगे। यह तो आप सब मानेंगे कि धैर्य और
साहस के साथ हर मुसीबत का सामना करते हुए सकारात्मक सोच के साथ आगे बढ़ना ही
मनुष्य का सबसे बड़ा गुण और धर्म है। इसे बहुत ही जिम्मेदारी से प्रत्येक भारतीय नागरिक ने अब तक निभाया है और
आगे भी निभाएँगे।
लेकिन फिर भी हम मनुष्य ही तो हैं , जब विपदा
आती है, तो कुछ लोग कमज़ोर पड़ जाते हैं और निराशा के अंधकार में डूब जाते
हैं , ऐसे समय में किसी का भी धैर्य न टूटे बस इसका ही तो ध्यान रखना है, क्योंकि
कहते हैं न जब पानी सर से ऊपर चला जाता है, तो फिर कोई बाँध उसको बिखरने से रोक नहीं सकता। आज इस अनिश्चितकालीन वैश्विक
आपदा की घड़ी में हम सबको एक दूसरे का संबल बनकर, सबको साथ लेकर चलना
है। पिछले कई महीनों से हम अपने आस-पास देख ही रहे हैं कि इस वायरस ने असंख्य अपनों
को, असंख्य लोगों के सुनहरे सपनों को, असमय छीन लिया है। किसी के लिए भी यह अपूरणीय क्षति है। इस दुःख से उबरना उनके लिए बहुत मुश्किल
है। यह तब और अधिक दुःखदायी हो जाता है , जब इस महामारी की
चपेट में आए अपने परिजन को उनका परिवार कंधा तक नहीं दे पाता। पारम्परिक संस्कारों
से बँधा परिवार कितनी सघन पीड़ा सहने को मजबूर है; यह शब्दों से बयाँ नहीं किया जा सकता। ऐसे समय में भावनात्मक संबल
ही सबसे बड़ा सहारा बनता है।
इस दौर में अनेक परिवार अलग- अलग भी हो गए हैं।
जिनके बच्चे बाहर नौकरी कर रहे हैं,
वे अपने माता- पिता के पास नहीं आ पा रहे हैं, आ भी रहे हैं तो एक
दूरी बनाकर उनसे मिलने जाते हैं । बुजुर्ग माता- पिता के लिए यह एकाकीपन झेलना
बहुत भारी हो गया है। स्कूल –कॉलेज बंद हैं, तो बच्चे घर के
भीतर कैद हो कर रह गए हैं। युवाओं में एकाकीपन और नकारात्मकता घर करती जा रही है। घर में रह कर घर- बाहर, पति, बच्चे सबको संभाल रही महिलाएँ
जिस प्रकार का तनाव झेल रही हैं, उनकी व्यथा का तो बखान ही नहीं किया जा सकता। असंख्य
परिवार आर्थिक रूप टूट चुके हैं । इस प्रकार अनेक पारिवारिक, सामाजिक और मानसिक
समस्याएँ इस दौर में उभर कर आ रही हैं । हम इन सबसे किस प्रकार बाहर निकल सकते
हैं, टूटे- बिखरे लोगों को फिर से किस प्रकार से सक्षम बना सकते हैं, समाज की मुख्य धारा में पूर्व की तरह उन्हें किस प्रकार से शामिल कर सकते हैं, यह गंभीरता
से सोचना होगा; ताकि
उनके भीतर उभर रहे नकारात्मक सोच को निकालकर सकारात्मक ऊर्जा भर सकें।
इस दौर में
बहुतों को अपने उद्योग और व्यापार में नुकसान हुआ है , पिछले कई महीनों से उनका
कारोबार ठप्प हो गया है और उनसे
जुड़े असंख्य कर्मचारी भी बेकार हो गए हैं, जिनके लिए चाहकर भी वे कुछ नहीं कर पा
रहे, ऐसे में बेकार हो चुके मजदूर और कर्मचारियों को जीवन के आवश्यक संसाधन
जुटाना मुश्किल हो रहा है, उन्हें अपना और अपने परिवार का पेट भरने के लिए दूसरे
रोजगार के साधन अपनाने पड़ रहे हैं। ऐसे कई परिवारों की
लोगों ने सहायता भी की है, ताकि वे अपना रोजगार फिर से खड़ा
कर सकें, यही सबसे बड़ा मानव धर्म है। इस मामले में सोशल मीडिया ने बहुत बड़ी
भूमिका निभाई है, जो काबिले- तारीफ़ है।
आधुनिक जगत् में दिनचर्या में आनेवाले कई प्रकार के
दबाव और तनाव भरी जिंदगी में सुख और शांति पाने के लिए जरूरी है हमारा दृष्टिकोण
सकारात्मक हो, तभी हम इस आपदा के साथ आगे बढ़ सकते हैं। जो
सब दृष्टि से सबल हैं, वे आगे आकर इस संकट की घड़ी में मानव
सेवा करके अपने जीवन को सार्थक मोड़ दे सकते हैं। हमारी संस्कृति में सेवा को ही
सर्वश्रेष्ठ धर्म माना गया है। ‘सेवा परमो धर्मः’ की बात कही जाती है। सेवा के अंदर दान, त्याग तथा
समर्पण का भाव छुपा होता है। ज़रूरतमंद की सेवा करके आप अपनी
भी सेवा करते हैं; क्योंकि आप जितना दोगे, उससे कई गुना पाओगे। अपने लिए तो सब जीते हैं, एक
बार दूसरों के लिए जीकर देखिए ;कितनी आत्मिक शांति मिलती हैं
यह आप जान जाएँगे!।
तो आइए
, उजाले के इस पर्व पर मन का अँधेरा मिटाएँ
और सबके दिलों में रोशनी के दीप जलाएँ। बाहरी चमक-दमक से नुकसान ही होता है, यह
इस कोरोना काल ने सबको अच्छे से बता दिया है, तो क्यों न मिट्टी के दिये जलाकर
बिना शोर- शराबे के प्रदूषण मुक्त दीवाली मनाकर एक नया उदाहरण सबके सामने रखें।
अपने घरों को बिजली के लट्टुओं से जगमग करने के बजाय उसपर
खर्च होने वाले पैसे से किसी एक गरीब के घर को रोशन करें,
अर्थात् उन्हें आथिर्क रूप से संबल बनाएँ। कानफोड़ू पटाखों
पर लाखों खर्च करके आप अपने ही स्वास्थ्य के साथ नाइंसाफी कर रहे हैं। बच्चों को
एक बार कह कर तो देखिए कि इन पटाखों पर जितना पैसा तुम एक दिन में खर्च कर रहे हो
उससे किसी एक परिवार का सात दिन का भोजन आ सकता है? ऐसा नहीं
है कि हम प्रदूषण मुक्त दीपावली की बात पहली बार कर रहे हैं, हर साल करते हैं ,
सरकार भी अपने स्तर पर प्रतिबंध लगाने की बात करती है; पर कभी
सफलता नहीं मिलती। लेकिन प्रयास तो हम
सबको मिलकर ही करना होगा। बस एक बार दृढ़ निश्चय करने की आवश्यकता है, फिर देखिए
कैसे खुशियों से रोशन हो जाएगी आपकी ही नहीं, हम सबकी दीवाली।
हम सबको आलोकित करें, तो हम स्वयं भी आलोकित
होंगे। दीप पर्व की असंख्य शुभकामनाओं के साथ-
जहाँ तक हो
सके हमदर्दियाँ बाँटो ज़माने में,
ज़मीं को सींचते रहने से दरिया कम नहीं होता। (
डॉ .गिरिराज शरण अग्रवाल)
6 comments:
बहुत ही सुंदर. कठिनाई भरे इस दौर में जरुरत है सकारात्मक सोच के साथ आगे बढ़कर समाज हित सेवा का संकल्प, जो सार्थक स्वरूप के साथ उभरा है उपरोक्त लेख में. अहर्निषं सेवामहे. सो हार्दिक बधाई.
बहुत सुंदर सकारात्मक सोच। दृढ़ निश्चय से सब कुछ सम्भव हो सकता है।हार्दिक बधाई
बहुत बढ़िया लेख रत्ना जी...सकारात्मक सोच ही नई उम्मीदों को जाग्रत कर हमें इस विषमकाल से निकाल कर ले जाएगी। उम्मीदों के दीपक जब तक जलते रहेंगे, आगे बढ़ने के हौसले हमको बहुत कुछ नया देंगे।
रत्ना जी की 'अनकही ' में सब कुछ सिमट आया । आलेख में सामाजिक सरोकार के सभी बिन्दुओं पर चर्चा हुई है ।कोरोनाकाल जनित समस्याएँ और पीड़ाओं पर भी चर्चा की गयी है ।आलेख में इस विपरीत समय मे सकारात्मकता बनाए रखने को प्रेरित किया है । गिरिराजशरण अग्रवाल भाई की पंक्तियाँ प्रेरणादायी हैं ।रत्नाजी की बधाई ।
इस मिट्टी की काया में,जागृति का तेल डाल, मन के दिये जलाने होंगें!..यही सहज, सुंदर संदेश देती आपकी मंशा का हार्दिक अभिनन्दन रत्ना जी!...सच है अपने अंदर का अंधकार मिट गया, तो हर ओर, ज्ञान और संतोष का उज्ज्वल प्रकाश फैल जाएगा! हर दिन दीवाली होगी! आपको व आपकी समस्त टीम को बहुत बहुत बधाई! सभी को दीवाली की अनेकों शुभकामनाएँ!
दीपावली की बहुत बहुत शुभकामनाओं के साथ आप सबका बहुत बहुत आभार, शुक्रिया
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