आस्था और सभ्यता का संगम
राजिम
का स्थान छत्तीसगढ़ के प्रमुख दर्शनीय स्थलों में आता है। यह महानदी के तट पर
स्थित है। प्राचीन समय से राजिम अपने पुरातत्त्वों और प्राचीन सभ्यताओं के लिए प्रसिद्ध है। राजिम मुख्य रूप से भगवान श्री राजीव लोचन जी
के मंदिर के कारण प्रसिद्ध है। राजीवलोचन मंदिर में भगवान विष्णु की प्रस्तर
प्रतिमा प्रतिष्ठित हैं। राजिम का यह मंदिर आठवीं शताब्दी का है। यहाँ कुलेश्वर
महादेव जी का भी मंदिर है जो संगम स्थल पर विराजमान है।
राजिम में प्रति वर्ष होने वाले कुम्भ मेले का
स्वरूप पहले ऐसा नहीं था। कुछ वर्ष पहले
तक यहाँ प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा से महाशिवरात्रि तक पंद्रह दिनों का मेला लगता
था।2001 से
राजिम मेले को राजीव लोचन महोत्सव के रूप में मनाया जाता था। 2005 से इसे कुम्भ के
रूप में मनाया जाने लगा है जो राजिम कुम्भ के नाम से जाना जाता है। प्रतिवर्ष राजिम कुम्भ का आयोजन छत्तीसगढ़ शासन
के धार्मिक न्यास एवं धर्मस्व तथा पर्यटन एवं संस्कृति विभाग करता है। प्रतिवर्ष
माघ पूर्णिमा से शिवरात्रि तक चलने वाले राजिम कुम्भ का मेले में प्रशासन द्वारा
विविध सांस्कृतिक व धार्मिक आयोजन आदि होते रहते हैं।
राजिम
तीन नदियों का संगम है। महानदी, पैरी और सोंढुर
नदी। त्रिवेणी संगम होने के कारण राजिम को छत्तीसगढ़ का प्रयाग कहलाने का भी गौरव
प्राप्त है। संगम में अस्थि विसर्जन तथा संगम किनारे पिंडदान, श्राद्ध
एवं तर्पण किया जाता है। संगम के बीचोबीच कुलेश्वर महादेव का विशाल मन्दिर बना हुआ
है। किंवदन्ती है कि त्रेता युग में अपने वनवास काल के समय भगवान श्री राम ने इस
स्थान पर अपने कुलदेवता महादेव जी की पूजा की थी इसलिये इस मन्दिर का नाम कुलेश्वर
हुआ।
प्राचीनकाल
में राजिम को कमलक्षेत्र के नाम से जाना जाता था। माना जाता है कि शेषशैय्या पर
सोये हुए भगवान विष्णु के नाभि से निकला कमल, जिससे ब्रह्मा जी
की उत्पत्ति हुई थी, यहीं पर स्थित था
जिससे इसका नाम कमलक्षेत्र पड़ा। ब्रह्मा जी ने राजिम से ही सृष्टि की रचना की थी।
इस
प्राचीन नगरी का नाम राजिम क्यों पड़ा, इस संबंध में
किंवदंती है कि राजिम नामक तेलिन महिला को भगवान विष्णु की आधी मूर्ति मिली, दुर्ग
नरेश रत्नपुर सामंत वीरवल जयपाल को स्वप्न हुआ, तब
एक विशाल मंदिर बनवाया। तेलिन ने नरेश को इस शर्त के साथ मूर्ति दिया कि भगवान के
साथ उनका भी नाम जुडऩा चाहिए। इसी कारण इस मंदिर का नाम राजिमलोचन पड़ा, जो
बाद में राजीव लोचन कहलाने लगा।
इस
मन्दिर में बारह स्तम्भ हैं। आयताकार क्षेत्र के मध्य स्थित मंदिर के चारों कोण
में अष्ट भुजा वाली दुर्गा, गंगा-यमुना
और विष्णु के विभिन्न अवतारों, जैसे- राम, वराह
अवतार,
वामन अवतार, नृसिंह
अवतार तथा बद्रीनाथ जी आदि के चित्र बने हुए हैं।
गर्भगृह
में पालनकर्ता लक्ष्मीपति भगवान विष्णु की श्यामवर्णी चतुर्भुजी मूर्ति है जिनके
हाथों में शंख,
चक्र, गदा
और पद्म है। 12 खंबों से सुसज्जित
महामंडप में श्रेष्ठ मूर्तिकला का उदाहरण प्रस्तुत किया गया है। आसन लगाकर बैठे
भगवान श्री राजीवलोचन की प्रतिमा आदमकद मुद्रा में सुशोभित है। शिखर पर मुकुट, कर्ण
में कुण्डल,
गले में कौस्तुभ मणि के हार, हृदय
पर भृगुलता के चिह्नांकित, देह में जनेऊ, बाजूबंद, कड़ा
व कटि पर करधनी का सुअंकन है। राजीवलोचन का स्वरूप दिन में तीन बार बाल्यकाल, युवा
व प्रौढ़ अवस्था में समयानुसार बदलता रहता है।
यहाँ
से प्राप्त दो अभिलेखों से ज्ञात होता है कि इस मन्दिर के निर्माता राजा जगतपाल
थे। इनमें से एक अभिलेख राजा वसंतराज से सम्बन्धित है, किंतु
लक्ष्मणदेवालय के एक दूसरे अभिलेख से विदित होता है कि इस मन्दिर को मगध नरेश
सूर्यवर्मा (8वीं शती ई.) की
पुत्री तथा शिवगुप्त की माता 'वासटा’ने
बनवाया था। राजीवलोचन मन्दिर के पास 'बोधि वृक्ष’के
नीचे तपस्या करते बुद्ध की प्रतिमा भी है।
मन्दिर
के स्तंभ पर चालुक्य नरेशों के समय में निर्मित नरवराह की चतुर्भुज मूर्ति
उल्लेखनीय है। वराह के वामहस्त पर भू-देवी
अवस्थित हैं। शायद यह प्रदेश से प्राप्त प्राचीनतम मूर्ति है।
राजिम
से पांडुवंशीय कोसल नरेश तीवरदेव का ताम्रदानपट्ट प्राप्त हुआ था, जिसमें
तीरदेव द्वारा 'पैठामभुक्ति’में
स्थित पिंपरिपद्रक नामक ग्राम के निवासी किसी ब्राह्मण को दिए गए दान का वर्णन है।
यह दानपट्ट तीवरदेव के 7वें वर्ष श्रीपुर (सिरपुर) से
प्रचलित किया गया था। फ़्लीट के अनुसार तीवरदेव का समय 8वीं
शती ई.
के पश्चात् माना जाना चाहिए।
कुलेश्वर महादेव मन्दिर
राजिम
में 'कुलेश्वर
महादेव मन्दिर’भी
प्रमुख है,
जो की नौवीं शताब्दी में स्थापित हुआ
था। यह मन्दिर महानदी के बीच में द्वीप पर बना हुआ है। इसका निर्माण बड़ी सादगी से
किया गया है। मन्दिर के पास 'सोमा’ , 'नाला’और
कलचुरी वंश के स्तम्भ भी पाए गए हैं।
बरसात के दिनों में बाढ़ का पानी कई-कई
दिनों तक मंदिर को डुबोए रखता है। मंदिर का आकार 37.75 गुना
37.30
मीटर है। इसकी ऊंचाई 4.8 मीटर
है। मंदिर का अधिष्ठान भाग तराशे हुए पत्थरों से बना है। रेत एवं चूने के गारे से
चिनाई की गई है। इसके विशाल चबूतरे पर तीन तरफ से सीढिय़ाँ बनी है। इसी चबूतरे पर
पीपल का एक विशाल पेड़ भी है। चबूतरा अष्टकोणीय होने के साथ ऊपर की ओर पतला होता
गया है। मंदिर निर्माण के लिए लगभग 2 कि.मी. चौड़ी
नदी में उस समय निर्माताओं ने ठोस चट्टानों का भूतल ढूंढ निकाला था।
मामा—भांजे का मंदिर
नदी
के किनारे पर एक और महादेव मंदिर है, जिसे मामा का मंदिर
कहा जाता है। कुलेश्वर महादेव मंदिर को भांजे का मंदिर कहते हैं। किवदंती है कि
बाढ़ में जब कुलेश्वर महादेव का मंदिर डूबता था तो वहाँ से आवाज आती थी, मामा
बचाओ। इसी मान्यता के कारण यहाँ आज भी नाव पर मामा-भांजे
को एक साथ सवार नहीं होने दिया जाता है। नदी किनारे बने मामा के मंदिर के शिवलिंग
को जैसे ही नदी का जल छूता है उसके बाद बाढ़ उतरनी शुरू हो जाती है।
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