यमुना कोठी की जेन्नी
जेन्नी शबनम
यादों के बक्से में रेत-से सपने
हैं जो उड़-उड़ कर अदृश्य हो जाते हैं और फिर भस्म होता है मेरा मैं, जो भाप की तरह शनै:-शनै: मुझे पिघलाता रहा है। न जाने खोने पाने का यह कैसा सिलसिला है जो साँसों की तरह अनवरत मेरे साथ चलता है। टुकड़ों में मिला प्रेम और खुद के खिलाफ़ मेरी अपनी शिकायतों की गठरी मेरे पास रहती है जो मुझे सम्बल देती रही है। रिश्तों की एक लम्बी फेहरिस्त है मेरे पास जिसमें अपने पराये का भेद मेरे समझ से परे है। ज़ेहन में अनकहे किस्सों का एक पिटारा है जो किसी के सुने जाने की प्रतीक्षा में रह-रह कर मन के दरवाजे पर आ खड़ा होता है।
हैं जो उड़-उड़ कर अदृश्य हो जाते हैं और फिर भस्म होता है मेरा मैं, जो भाप की तरह शनै:-शनै: मुझे पिघलाता रहा है। न जाने खोने पाने का यह कैसा सिलसिला है जो साँसों की तरह अनवरत मेरे साथ चलता है। टुकड़ों में मिला प्रेम और खुद के खिलाफ़ मेरी अपनी शिकायतों की गठरी मेरे पास रहती है जो मुझे सम्बल देती रही है। रिश्तों की एक लम्बी फेहरिस्त है मेरे पास जिसमें अपने पराये का भेद मेरे समझ से परे है। ज़ेहन में अनकहे किस्सों का एक पिटारा है जो किसी के सुने जाने की प्रतीक्षा में रह-रह कर मन के दरवाजे पर आ खड़ा होता है।
सोचती हूँ कैसे तय किया मैंने ज़िन्दगी
का इतना लंबा सफ़र, एक-एक पल
गिनते-गिनते जीते-जीते पूरे पचास साल। कभी-कभी यूँ महसूस होता मानो 50 वर्ष नहीं
50 युग जी आई हूँ। जब कभी अतीत की ओर देखती हूँ, तो लगता है -जैसे मैंने जिस बचपन
को जिया वो कोई सच्चाई नहीं ; बल्कि एक फ़िल्म की कहानी है ; जिसमें मैंने
अभिनय किया था।
जन्म के बाद 2-3 साल तक की ज़िन्दगी ऐसी
होती है ,जिसके किस्से खूब मनोयोग से दूसरों से सुनते हैं। इसके बाद शुरू होता है -एक-एक
दिन का अलग-अलग किस्सा जो मस्तिष्क के किसी हिस्से में दबा छुपा रहता है।
अब जब फ़ुर्सत के पल आए हैं तो बात-बात पर अतीत अपने पन्नों को खोल कर मैं
उस दुनिया में पहुँचना चाहती हूँ जहाँ से ज़िन्दगी की शुरुआत हुई थी।
उम्र के बारह साल ज़िन्दगी से कब निकल गए,
पता ही न चला। पढ़ना, खेलना, खाना, गाना सुनना, घूमना इत्यादि आम
बच्चों- सा ही था। पर थोड़े अलग तरह से हम लोगों की परवरिश हुई। चूँकि मेरे पिता
गाँधीवादी और नास्तिक थे ,तो घर का माहौल भी वैसा ही रहा। ऐसे में इन विचारों को
मैं भी आत्मसात् करती चली गई। हम लोग भागलपुर में नया बाज़ार में यमुना
कोठी में रहते थे। उन दिनों इस कोठी का अहाता बहुत बड़ा था। हमारे अलावा कई सारे
किरायेदार यहाँ रहते थे। मोहल्ले के ढेरों बच्चे एकत्र होकर इसी अहाते में
खेलते आते थे। सबसे ज्यादा पसंद का खेल था जिसमें हम दीवार पर पेंसिल से लकीर बना
कर खेलते थे। एक्खट दुक्खट, पिट्टो, नुक्का चोरी, कोना कोनी कौन
कोना, ओक्का बोक्का, घुघुआ रानी कितना पानी, आलकी पालकी
जय कन्हैया लाल की आदि खेलते थे। टेनी क्वेट, ब्लॉक, आदि से भी खेलते
थे।
बचपन में भैया और मेरे बीच में मम्मी
सोती थी और हम दोनों मम्मी से कहते थे कि वो मेरी तरफ देखे। ऐसे में मम्मी क्या
करती, बिलकुल सीधे सोती
थी ताकि किसी एक की तरफ न देखे। मैं हर वक्त मम्मी से चिपकी रहती थी। स्कूल जाने
में बहुत रोती थी और हर रोज़ मम्मी को साथ जाना होता था। मम्मी के साथ खाना, मम्मी के साथ सोना, मम्मी के बिना
फोटो तक नहीं खिंचवाती थी। हम दोनों भाई बहन हाथ पकड़कर स्कूल जाते और लौटने
में भी हाथ पकड़ कर ही आते थे। भाई एक साल बड़ा था और खूब चंचल था ; पर मैं बहुत
शांत थी। स्थिर से चलना, धीरे से बोलना, गंभीरता से रहना। खेल में भी झगड़ा पसंद नहीं था। अगर कोई बात पसंद नहीं ,तो
बोलना बंद कर देती थी।
अहाते में एक झा परिवार था। उनके तीन
बेटे अरविन्द रविन्द और गोविन्द थे तथा एक बेटी विभा थी, जो शायद मेरी पहली दोस्त रही होगी। एक बार खेलने में मैंने एक ईंट फेंकी
जो जाकर उसके सर पर लग गई। मैं बहुत डर गई, लेकिन मुझे किसी ने नहीं डाँटा। हम दोनों ने साथ ही झाडू की
लकड़ी पर स्वेटर बुनना सीखा। बाद में उसके पिता की बदली हो गई और वे लोग
चले गए। फिर आज तक नहीं पता कि वे कहाँ है, उसे कुछ याद भी है या नहीं। अहाते में एक अग्रवाल परिवार था। जिनके यहाँ
ब्याह कर नई बहू आई थी; जिन्हें मैं बिन्दु चाचीजी कहती थी। वो मुझे बहुत
अच्छी लगती थी। उनके साथ हम कुछ बच्चे छोटे चूल्हे पर छोटे-छोटे बर्तन में खाना
बनाते थे, गुड्डा गुडिय़ा
बनाते और खेलते थे।
मेरी एक मौसी भागलपुर में रहती थी। उनके
तीन बच्चे थे। अक्सर उनके घर हमलोग जाते और खूब खेलते थे। मौसा उच्च सरकारी पद पर
थे ,तो सिनेमा हॉल में पास मिलता था। उन दिनों पिक्चर पैलेस एक हॉल था ,जिसके
बॉक्स में कुछ कुर्सी और बिस्तर लगा हुआ था। कुछ सिनेमा जिसमें हमें भी ले जाया
जाता था, हम बच्चे बिस्तर
पर बैठ कर सिनेमा देखते थे।
मेरे पिता के एक मित्र थे प्रोफ़ेसर
करुणाकर झा। उनको दो बेटे और चार बेटियाँ थे। तीसरे नंबर वाली नीलू
थी ,जो मेरी दोस्त थी। वे लोग उन दिनों बुढ़ानाथ में रहते थे। हमलोग अक्सर एक
दूसरे के घर जाते थे। छोटा रास्ता जो गंगा के किनारे होकर जाता था, उससे ही हमलोग जाते रहे। घाट किनारे लोहे की रेलिंग बनी थी, जिसपर
हम लोग अवश्य झुला झूलते फिर आगे जाते।
आदमपुर में छोटी -सी एम एस स्कूल से भैया
और मैंने पढ़ाई किया। फिर मैं 6 महिना मोक्षदा स्कूल में पढ़ी। छुट्टियों में हम
गाँव गए ,तो बाढ़ में फँस गए। फिर पापा ने हमलोग को गाँव में ही छोड़ दिया। मेरे
घर के सामने कभी पापा द्वारा ही खुलवाया हुआ प्राइमरी स्कूल था, उसमें हम पढऩे जाने लगे। वहाँ सभी बच्चे बोरा बिछाकर बैठ कर पढ़ते थे और
बेंच पर शिक्षक बैठते थे। मुझे खास सुविधा दी गई, और मास्टर साहब ने मुझे बेंच के दूसरी तरफ बैठाने का बंदोबस्त किया। वहाँ
सिर्फ दो हो शिक्षक थे, नाम तो मुझे याद
नहीं ; लेकिन एक शिक्षक को सभी बकुलवा मास्टर कहते थे, क्योंकि उनकी गर्दन लम्बी थी। यहाँ कुछ ही दिन पढ़ाई की उसके बाद मेरे पिता
के बड़े भाई पास के गाँव सुन्दरपुर में प्राइमरी स्कूल में शिक्षक थे। उन्हें हम बड़का
बाबूजी कहते थे । उनके साथ उनके
स्कूल जाने लगी। वहाँ से परीक्षा पास कर 7 वीं में शिवहर मिडिल स्कूल में पढऩे गई।
मेरी क्लास में मुझ सहित सिर्फ तीन लड़की थी। कालिंदी और मैं। छठी कक्षा में
सिर्फ दो लड़कियाँ पढ़ती थीं। दोनों क्लास में किसी का भी गेम
पीरियड होता ,तो दोनों को छुट्टी मिल जाती थी; ताकि हम सभी एक साथ खेल सकें। हमलोग सबसे ज्यादा
कैरम खेलते थे। मेरी क्लास में एक लड़का था, उमेश मंडल; जो यह गाना बहुत अच्छा
गाता था– ‘कर चले हम फ़िदा जानो तन साथियों, अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों’। मेरा भाई महुवरिया हाई स्कूल में पढ़ता था, 7वीं की परीक्षा का सेंटर वही पड़ा था मेरा। इसके बाद पापा मुझे
भागलपुर ले आए; लेकिन भाई को गाँव में ही पढऩे को छोड़ आए।
गाँव का जीवन बड़ा ही सरल था। न भय न
फिक्र। गुल्ली डंडा, पिट्टो, बैडमिन्टन, कबड्डी, लूडो, साँप-सीढ़ी आदि
खूब खेलते थे। यहाँ लड़के- लड़की का कोई भेद नहीं था। बड़का बाबूजी के
दोनों बेटे अवधेश भैया और मिथिलेश, हम करीब-करीब साथ ही रहते थे, यूँ हमारा घर अलग अलग था। मेरी सबसे बड़ी फुआ का एक बेटा कृष्ण बिहारी भैया
जिसे मैंने नाम दिया था, अमिया भैया, हमारे साथ ही रहता था। मेरी सबसे छोटी बुआ अक्सर गाँव आती तो महीनों
रहती थी। उनके तीन बेटी और दो बेटे थे। उनकी बीच वाली बेटी बेबी दीदी से हम सबसे
ज्यादा नज़दीक थे, दोस्त की तरह।
भैया के हमउम्र दोस्त भी हमारे घर ही पढ़ने के लिए आ जाते थे; क्योंकि हमारे घर में बिजली थी। हम सभी मिलकर साथ पढ़ते और खेलते थे।
जो हमारे खेती का काम करते थे ,उसमें एक
का नाम था छकौड़ी महरा। उसकी पत्नी कहती कि पति का नाम नहीं लेते हैं। तो हमलोग
जिद करते कि नाम बोलो, तो वो कहती कि छौ
गो कौड़ी, और हम लोग ठहाके
लगाते। एक और था लक्षण महतो। वह कभी कभी किसी किसी शब्द को बोलने में हकलाता था।
एक दिन मेरी दादी से बोला- स स स सतुआ बा। (सत्तू है) तब से हमलोग उसे बार बार
कहने के लिए कहते थे। हमारे एक पड़ोसी थी सियाराम महतो, जिनको हमलोग सियाराम चा कहते थे। वे थोड़ा पढ़े लिखे थे। इंग्लिश और ग्रामर
की समझ थी। वे कुछ शब्द बोलते और उसका स्पेलिंग पूछते। एक शब्द था लेफ्टिनेंट।
जिसका स्पेलिंग अलग होता और हिज्जा अलग। अक्सर सभी से ये शब्द ज़रूर पूछते। गाँव
में एक थे परीक्षण गिरी। हम लोग उन्हें महन जी (महंत जी) कहते थे। जब भी दिखते हम
लोग कहते ‘गोड लागी ले महन जी’, वे कहते ‘खूब खुस रह बऊआ’। एक थे बनारस पांड़े, जो हमारे
यहाँ अक्सर आते और मेरी दादी उनसे पूजा पाठ करवाती और दान दक्षिणा देती थी। यूँ
मेरे पापा पूजा के खिलाफ थे ; लेकिन उन्हें कुछ देने से नहीं रोकते थे। गाँव में
एक वृद्ध स्त्री थी, जिसका पति- पुत्र कोई नहीं था, नितांत अकेली थी। मेरे घर का काम करती थी। वो साइकिल को बाईस्किल कहती थी।
हम कहते कि साइकिल बोलो तो कहती कि ‘बाईस्किल’ हमलोग खूब हँसते।
गाँव में मैंने सिलबट्टे पर हल्दी पीसना सीखा। गाँव में एक खूब तेज़ और होशियार
स्त्री थी जिसे उसके बेटे के कारण हमलोग ‘बिसनथवा मतारी’ बुलाते थे। वो रोज़
मेरे घर आती और किस्सा सुनाती थी, कभी गाना
सुनाती। कई ऐसे लोग हैं जो ज़ेहन में आज भी जैसे के तैसे हैं, भले किसी से मिलना नहीं होता।
गाँव में जब तक रहे या फिर जब भी गाँव
जाते पापा के साथ दिन भर मजदूरों के साथ ही रहते। उनके पनपियाई (खाना) के लिए मेरे
यहाँ से जो भी खाना आता हम भी वही खाते। पेड़ से अमरुद तोडऩा, खेत से साग तोडऩा, सब्जी तोडऩा, फल तोडऩा, आदि दादी के साथ
करते थे। मुझे महुआ की रोटी बहुत पसंद थी, अक्सर सियाराम चाची मेरे लिए बनाकर ले आती थी। हमारे घर से काफी दूर गाँव
के अंत में मेरे छोटे चाचा रहते थे। वहीं हमारा पुराना घरारी था। यहीं मेरे पापा
के अन्य चचेरे भाई रहते थे। सभी के घर हमलोग अक्सर आना जाना करते थे।
1977 में मैं पुन: भागलपुर आ गई। मेरे
लिए दुनिया काफी बदली हुई थी। फिर से नए स्कूल में जाना। मेरा नामांकन घंटाघर
स्थित मिशन स्कूल (क्राइस्ट चर्च गर्ल्स हाई स्कूल) में हुआ। इस साल से नई शिक्षा
नीति लागू हुआ था। इस कारण मुझे पुन: 7 वीं में नामांकन लेना पड़ा , जिसे उस समय सेवेन्थ न्यू कहा
जाता था। मेरे स्कूल की प्राचार्या मिस सरकार थी। इनसे हम छात्र क्या शिक्षकगण भी
ससम्मान डरते थे। 7 वीं में मेरी क्लास टीचर थी -शीला किस्कु रपाज जो मुझे बहुत
अच्छी लगती थी। गाँव से लौटने के बाद मैं पहले से और ज्यादा शांत हो गई थी। उन
दिनों ही मेरे पिता की बीमारी की शुरुआत हो रही थी।
प्राकृतिक चिकित्सा के द्वारा इलाज के
लिए हाजीपुर में कम्युनिष्ट पार्टी के श्री किशोरी प्रसन्न सिन्हा के घर हमलोग एक
महीना रहे। वे काफी वृद्ध और सम्मानीय सदस्य थे । फिर पापा ने आयुर्वेद के द्वारा अपनी बीमारी का इलाज करवाया।
लेकिन बीमारी बढ़ रही थी। सभी के बहुत मना करने पर भी विश्व विद्यालय जाना नहीं
छोड़ रहे थे। और अंतत: 1978 में मृत्यु हो गई। मृत्यु क्या है मुझे तब तक नहीं पता
था। पापा के श्राद्ध में यूँ लग रहा था कि कोई पार्टी चल रही है। पूजा पाठ, भोज, और लोगों की
बातें। यह सब जब खत्म हुआ, तब लगा कि अरे पापा तो नहीं हैं, अब क्या होगा। पर हम
सभी धीरे-धीरे उनके बिना जीने के आदी हो गए।
यमुना कोठी के जिस हिस्से में हमलोग रहते
थे उसका आधा हिस्सा अब बिक चुका है। चूँकि इसके मकान मालिक रतन सहाय हमारे दूर के
रिश्तेदार हैं, अत: इनके परिवार से सारे सम्पर्क यथावत् हैं। अपनी यादों को
दोहराने के लिए हम अक्सर वहाँ जाते रहते हैं। मकान के अन्दर आने के लिए लोहे का एक
बड़ा-सा गेट था, जिसपर अक्सर हमलोग
झुला झूलते थे। मकान का कुछ और हिस्सा बिक जाने से वह गेट भी अब न रहा। मकान में
बाहर की तरफ एक बरामदा था, जिसपर शतरंज के डिजाइन का फ्लोर बना था। इस पर
ही हमलोग ‘कोना कोनी कौन कोना’ का खेल खेलते थे।
नया बाज़ार के ठीक चौराहे पर बंगाली बाबू
की दूकान होती थी, जहाँ से हम कॉपी पेंसिल और टॉफ़ी खरीदते थे, विशेषकर पॉपिंस मुझे बहुत पसंद था। नया बाज़ार चौक पर नाई की वह दूकान बंद
हो चुकी है, जहाँ मेरे पापा और भाई के बाल कटते थे। चौराहे पर मिठाई की एक दूकान
थी, जहाँ से खूब छाली वाली दही और पेड़ा खरीदते थे, अब उसकी जगह बदल गई है। यहीं पर एक मिल था, जहाँ हम आटा
पिसवाने आते थे। यहीं पर पंसारी की दूकान थी, जहाँ से सामान खरीदते थे। चौक पर ही
निजाम टेलर है, जिसके यहाँ अब भी मैं कपड़ा सिलवाती हूँ। निजाम टेलर मास्टर तो अब
नहीं रहे ,उनके बेटे अब सिलाई का काम करते हैं। चौक पर का मस्जिद अब भी है जहाँ
सुबह शाम अजान हुआ करती थी। शारदा टाकिज़ एक बहुत भव्य सिनेमा हॉल खुला था, जो
अब बंद हो चुका है। इसके मालिक महादेव सिंह जो नि:संतान थे। उनकी मृत्यु के
बाद यह विवाद में चला गया था। यहाँ हम खूब सिनेमा देखते थे। पिक्चर पैलेस भी बंद
हो चुका है। एक अजन्ता टाकिज और दीप प्रभा है जहाँ हाल फिलहाल भी सिनेमा देखा
मैंने।
वेराइटी चौक पर बीच में एक मंदिर है, जिससे
वहाँ चौराहा बनता है। यहीं पर आदर्श जलपान है, जहाँ गुलाब जामुन खाने हम अक्सर आते थे। नज़दीक ही आनंद जलपान था, जहाँ का डोसा बहुत पसंद था मुझे, पर अब वह बंद हो चुका है। वेराइटी चौक पर लस्सी वाला और कुल्फी वाला है, जब भी बाज़ार जाते तो लस्सी या कुल्फी खाते थे। ख़लीफाबाग चौक पर चित्रशाला
स्टूडियो है, जो अब आधुनिक हो गया है। जो भी फोटो हम लोग खींचते थे ,यहीं साफ़
करवाते थे। यहीं भारती भवन, किशोर पुस्तक
भण्डार आदि है ;जहाँ से किताबें खरीदते थे। यहाँ पर झालमुढ़ी, भूँजा, मूँगफली, गुपचुप (गोलगप्पे)
आदि ठेले वाले से खरीद कर खाते थे, अब भी अक्सर यहाँ खाती हूँ।
नया बाज़ार चौक पर हमारे पारिवारिक मित्र
डॉ. पवन कुमार अग्रवाल का क्लिनिक -गरीब नवाज़- है जो अब छोटा- सा अस्पताल का रूप
ले ले चुका है। डॉ. अग्रवाल शुरू से मुझे बेटी की तरह मानते थे। 1986 में मेरे
अपेंडिक्स का ऑपरेशन उन्होंने किया था। ऑपरेशन से पहले मेरी बहुत सारी ज़िद थी, जिसे उन्होंने पूरा किया फिर मैं ऑपरेशन के लिए राज़ी हुई थी। वे जब तक रहे,
अपनी सभी समस्याएँ मैं उनसे साझा करती थी। 2008 में जब उनका देहांत हो गया।
यूँ अब उनके दोनों पुत्र डॉक्टर है और बहुत अच्छी तरह क्लिनिक सँभालता है। मेरी
माँ के सहकर्मी हैं मुस्तफा अय्यूब ,जो रामसर में रहते हैं। इनकी पत्नी राशिदा
आंटी शुरू से मुझे बहुत मानती रही। हर सुख दु:ख में इन लोगों का बहुत साथ मिला।
स्कूल के बाद सुन्दरवती कॉलेज से ऑनर्स
तक की पढ़ाई हुई। रोज़ जोगसर, शंकर टाकीज
चौक, मानिक सरकार चौक, आदमपुर आदि से होते हुए खंजरपुर स्थित सुन्दरवती कॉलेज जाती थी। कॉलेज के
बाद एम ए के लिए सराय होते हुए यूनिवर्सिटी जाती थी। स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी अक्सर पैदल ही जाती थी। तब न गर्मी लगती थी ज्यादा न
जाड़ा । बी ए तक मैं बहुत अंतर्मुखी थी। बस काम से काम, न गप्पे लड़ाना पसंद न बेवज़ह घूमना। स्कूल की सहपाठियों में नीलिमा, मृदुला, बिन्दु आदि से
मिलना हुआ। कॉलेज की दोस्तों में पूनम और रेणुका से मिलती रही हूँ। यूनिवर्सिटी की
किसी भी दोस्त से सम्पर्क नहीं रहा।
ढेरों यादें और किस्से हैं, जिन्हें कभी भूलता नहीं मन। इतना ज़रूर है कि भागलपुर कभी छूटा नहीं। स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी जाने का रास्ता जैसे अब भी अपना -सा लगता है। यह सब
छूट कर भी नहीं छूटता मुझसे। शहर जाना भले न होता हो पर ज़िन्दगी जहाँ से शुरू हुई
वहीं पर अटक गई है। मेरा बचपन मुझे बार बार मुझ तक ले आता है ,जिसे मैं खुद हार
चुकी हूँ।
सम्पर्क: द्वारा- राजेश कुमार श्रीवास्तव, द्वितीय तल ५/७, सर्वप्रिय विहार नई दिल्ली, 110016, http://lamhon-ka-safar.blogspot.com, jenny.shabnam@gmail.com
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