रिश्तों के बुलबुले
- डॉ.
आरती स्मित
‘घर’ मंदिर के घंटे की अनुगूँज -सा पावन शब्द। ‘घर’ कहने मात्र से
रिश्तों की सतरंगी डोर आँखों के सामने लहराने लगती है। कानों में चिंकी, सोनू, मम्मी, पापा, दादा-दादी, बुआ, चाचा, ताया आदि-आदि शब्द रिश्तों की मिठास के साथ गूँजने लगते हैं। कहीं किलकारी
भरते शिशु का दृश्य उभरता है तो कभी बुजुर्ग के साँस की आहट; कभी पति-पत्नी की नोंकझोंक तो कहीं देवर-भाभी का हास -परिहास छलक पड़ता है।
कुल मिलाकर प्रेममय वातावरण का दूसरा नाम है घर, जहाँ प्रेमिल रिश्ते अंकुरित होते हैं।
बड़े-बुज़ुर्ग मानते हैं कि वक्त तेज़ी
से बदल रहा है। क्या सचमुच?.... क्या उस
बदलाव की नींव की ईंट वर्षों पहले नहीं रख दी गई थी?... क्या आहिस्ते-आहिस्ते बदलती हमारी जीवनशैली ने हममें से हरएक को लीक से ज़रा हटकर चलने पर विवश नहीं
किया?... क्या हमारी
मानसिकता पहले से अधिक बदल नहीं गई और इस बदलाव में क्या परिवेश का बहुत बड़ा हाथ
नहीं है?
अन्तर्मन टटोलते हुए हमें उत्तर मिलता है- हाँ!
अन्तर्मन की गुहा में प्रवेश करने पर कुछ और उत्तर मिलते हैं- बढ़ती
महत्त्वाकांक्षा, बढ़ती आबादी के
साथ घटते रोजगार के अवसर, शहरीकरण के विकास
के साथ अपेक्षाकृत सुसंस्कृत और
सुसभ्य बने रहने की कृत्रिम होड़ में
छूटते गाँव, निश्छल परिवेश और
संयुक्त परिवार।
ग्राम समाज में आज भी बड़े-बुज़ुर्गों की
छत्रछाया में परिवार विस्तार पाता है। आज भी पुरातन संस्कार गाँवों में सुरक्षित
है। किंतु, यह कहना भी अनुचित
या अतिशय नहीं होगा कि संयुक्त परिवार की टूटती रीढ़ के पीछे अनपढ़ या कम पढे-
लिखे माता- पिता की यह आकांक्षा कि उनकी संतान पढ़- लिखकर, कहीं नौकरी पाकर इज़्ज़त की ज़िदगी बसर
करे, वह न सहे, जो उन्होंने सहे हैं। इसी इच्छा ने पहले ग्रामीण माता-पिता के बेटों को शहर
तक पहुँचाया; नगर से महानगर और
महानगर से विदेश जाने के पीछे समान इच्छा ही कार्यरत है।
कृषि अर्थव्यवस्था का मूल आधार होते हुए
भी वह जीवन देने में असमर्थ रही, जो
नौकरीपेशा या व्यापारी वर्ग में देखने को मिलता रहा। इस लिप्सा ने यह भुलाने में
योगदान दिया कि सुख-साधन की प्राप्ति के बाद अभाव में जीना कठिनतम है।
मनोवृत्तियाँ बदल जाती हैं और अनदेखी खाई रिश्तों के बीच पनपने लगती है।
शहरीकरण अपने साथ कुछ संस्कारों का बीजारोपण
करता है। उसकी अपनी कुछ माँग होती है और निवासियों की अपनी कुछ विवशताएँ। बढ़ती
महँगाई और जीवन -स्तर ऊँचा उठाने की, अपने हिस्से के आसमान को कुछ अधिक व्यापक बनाने की मनोवृत्तियाँ आज विवशता
में परिणत हो चुकी है। इसका परोक्ष प्रभाव परिवार पर ही पड़ता है, ख़ासकर शहरों और महानगरों में रह रहे तथाकथित संयुक्त परिवार पर, जहाँ तीन पीढिय़ाँ एक साथ एक छत के नीचे रह रही हैं।
पति-पत्नी का काम पर जाना, थके- हारे शाम को लौटना; ऐसे में
उनसे एक ओर वृद्धावस्था की ओर अग्रसर/ सेवा निवृत्त या गाँव से आकर बसे माता- पिता
और दूसरी ओर बच्चों की यह अपेक्षा वे उन्हें सुने-समझें और उनकी इच्छानुसार कार्य
करें, ऐसे दम्पत्ति के लिए
दुरूह हो जाता है। इसका असर सबसे अधिक घर की बहू पर पड़ता है, जो पत्नी और माँ भी है। उसकी बची-खुची शक्ति ममत्व के उबाल के साथ ही संतान
के वर्तमान और भविष्य की चिंता में लग जाती है। बच्चे ने ठीक से खाया या नहीं; स्कूल में क्या पढ़ाई हुई; ट्यूटर हैं
तो वे क्या पढ़ा रहे हैं। बच्चा सही ढंग से समझ पा रहा है या नहीं, उसकी तैयारी, उसका रिजल्ट
आदि-आदि । कहीं न कहीं यह भाव कि वह नौकरी तो इन्हीं की बेहतरी के लिए कर रही है, कहीं इस फेर में बच्चों की देखभाल में कमी न हो जाए और फिर वह अपने और
बच्चों के बीच फैली समय की रिक्तता को भरने में लग जाती है। पति अपने ज़रूरी काम से
फुरसत पाकर टीवी, नेट या फोन पर
व्यस्त हो जाते हैं ,ताकि दिनभर का बोझिलपन दूर हो सके। इस व्यस्त दिनचर्या में समय ही नहीं बच पाता माँ-बाप के लिए
कि वह घंटों उनके साथ बिताए। माता-पिता चाहते हैं कि बेटा अपना दुख-सुख उन्हें
सुनाए और उनका हाल जाने। उनकी सेवा के लिए बहू को कहे। आखिऱ किस दिन के लिए बेटे
को ब्याहा उन्होंने। उनकी यही चाहत उनके अंदर पीड़ा भरने लगती है। वे घर में स्वयं
को उपेक्षित महसूस करने लगते हैं। दफ़्तर से आकर बहू का बच्चों के साथ अपने कमरे में
चले जाना उन्हें नागवार गुजरता है और वे अपने समय, बुज़ुर्गों के प्रति अपनी कर्तव्यनिष्ठा की दुहाई देने लगते हैं। नतीजा, माता-पिता और बेटे-बहू के बीच भावनात्मक खाई बढ़ती जाती है। एक छत के नीचे
सगे अजनबी बनते चले जाते हैं और बाहरी लोग अपने। कारण, वही भावनात्मक रिक्तता की आपूर्ति।
कई घरों में, (ख़ासकर जो
माता-पिता बेटे- बहू के साथ रहने आते हैं) यह भी देखा गया है कि सारी सुख- सुविधाओं के बीच बुज़ुर्ग
स्वयं को इसलिए उपेक्षित महसूस करते हैं, क्योंकि परिवार के हर सदस्य की अपनी बँधी दिनचर्या से हटकर चलना उनके लिए
मुमकिन नहीं होता, (बुज़ुर्ग के
अनुसार बच्चे उनके कहे अनुसार अब चलते नहीं) वे स्वयं को घर की बेकार वस्तु मानने लगते हैं और पीड़ा
को चिड़चिड़ाहट में बदलने से रोक नहीं पाते और फिर घर में सुख- सुविधाओं के बीच
कलह का जन्म हो जाता है। बुज़ुर्ग अपनी संतान का प्रत्यक्ष स्नेह चाहते हैं, जो मिल नहीं पाता और....।
दूसरी अवस्था उन बुज़ुर्गों की है, जिनकी छत के नीचे बेटे-बहू, बेटी रहते हैं। यहाँ उनके द्वारा फैलाए अनुशासन के जाल को जब बेटे-बहू तोड़
नहीं पाते तो चुपके से अलग रहने की व्यवस्था करते हैं। कुछ ऐसे परिवार भी हैं, जहाँ भाइयों और उनकी पत्नियों में इसलिए अधिक एकता है, क्योंकि वे वृद्ध माता -पिता के विचार , व्यवहार और अंकुश लगाने की प्रवृत्ति से समान रूप से परेशान हैं। इस तरह, माता-पिता के साथ होकर भी वे साथ नहीं होते और अपने ही घर में ये वृद्ध
अजनबी -से बने रह जाते हैं। उन सबकी पीड़ा एक ही होती है कि युवा होने के बाद
बच्चे उनकी भावना, उनकी जरूरतों को
नहीं समझते , अपने में तल्लीन
रहते हैं।
पार्क में टहलते हुए एक वृद्ध दंपत्ति से मैंने
बातचीत की। सुसभ्य, सौम्य व्यक्तित्व।
बात ही बात में, जब मैंने पूछा बहू
क्या करती है? उत्तर में वृद्धा
के चेहरे पर क्षोभ उभरा, फिर जवाब, ‘अजी नौकरी करती है।’
‘शाम को?’
‘शाम को करना क्या? आकर चाय-वाय पीती
है और फिर बच्चों को लेकर अपने कमरे में। हमारा हाल पूछने का समय कहाँ है उसके
पास!’
‘पोते-पोतियों में तो मन रमा रहता होगा?’ जवाब में बुजुर्ग ने सिर हिलाकर हामी भरी किंतु वृद्धा माताजी दुखी स्वर
में सुनाने लगीं ‘अजी, दिनभर बच्चे
परेशान करते रहते हैं, तनिक सुस्ताने भी
नहीं देते, लेकिन माँ के आते
ही बिल में घुस जाते हैं।‘
उनके जवाब से मैं ज़रा परेशान हुई कि
पोते-पोतियों के साथ रहना भी इन्हें गवारा
नहीं तो फिर? क्या इसे ही
संयुक्त परिवार कहते हैं जहाँ एक साथ रहते हुए भी सभी अलग-थलग हैं।
संयुक्त परिवार में बिखराव का मूल कारण करीब तीस
घरों (मध्यमवर्गीय) में एक समान मिला, वह यह कि पीढिय़ों के वैचारिक अंतर के साथ ही माँ- बेटी और सास- बहू के
रिश्ते का झीना, मगर मजबूत अंतर, जो रिश्ते को
धीरे- धीरे इतना कसने लगता है कि परिवार का हर सदस्य बंधन से मुक्ति की चाह रखने
लगता है। घर का परिवेश बाहर के परिवेश पर हावी होना चाहता है, लेकिन बाहरी परिवेश में मिली आज़ादी का एहसास घर को मंदिर की जगह कैदख़ाना
का रूप देने लगता है। घर लौटकर आना विवशता बन जाती है, चेहरे पर सुकून नहीं, थकान होती
है कि फिर वही चिकचिक। आश्चर्य तो इस बात का है कि यह समानता कस्बाई शहरों से लेकर
महानगरों तक में पाई गई। कहीं बेटे- बहू ने अलग रहने का निर्णय लिया, कहीं साथ रहने की ज़िद में बेटे-बहू का तलाक हो गया; बच्चे बिखर गए और समाज ने सारा दोष बहू के सिर मढ़ दिया।
दिल्ली में स्थित वृद्धावास के गार्ड ने
जो बताया, वह सरकार की
सूझबूझ का परिचायक है। वृद्धावास में सुविधा सम्पन्न परिवार की ऐसी महिलाएँ रहती
हैं, जिनके बच्चे या तो
विदेश में हैं, या देश में रहकर
भी इतने व्यस्त हैं कि माँ की दिनचर्या के साथ उनकी दिनचर्या मेल नहीं खाती और एक
घर में रहकर भी उनकी आपस में मुलाकात या बातचीत नहीं हो पाती और उन्हें या तो दाई
के भरोसे या अकेले रहना पड़ता। ऐसे में वे अवसाद की शिकार होने लग रही थीं। माँ को
मनचाहा समय न दे पाने की विवशता के साथ ही कैरियर बनाने की लगन में कमी या भटकाव
होने की स्थिति में उन्हें यह फैसला लेना पड़ा। कुछ की सिर्फ बेटियाँ हैं जो
अपने-अपने परिवार में मशरूफ हैं। यहाँ वृद्धाओं के रहने- खाने और स्वस्थ्य की
देखभाल की उत्तम व्यवस्था है। बच्चे प्रतिमाह फीस जमा करने के साथ ही व्यक्तिगत
खर्च के लिए पैसे दे जाते हैं और छुट्टियों में मिलने आते हैं। वृद्ध महिलाओं को
हमउम्र मिल जाती हैं। मनोरंजन के लिए टीवी हर कमरे में लगा है। बैठने -टहलने के
लिए पार्क भी है। ऐसे में यह कहकर सहानुभूति जताना कि जिस माँ ने पाल- पोसकर बड़ा
किया, उनके प्रति बच्चे
कठोर हो गए, पूरी तरह उचित
नहीं होगा क्योंकि महानगरीय जीवन-शैली में यह आवश्यकता बन गई कि बुज़ुर्गों को घर
में अकेले न छोड़ा जाए। आए दिन अखबार ऐसी खबरों से भरे पड़े हैं कि बुजुर्ग
दंपत्ति की हत्या करके घर लूट लिया गया। कहीं ड्राइवर और नौकरों की
मिली भगत से यह सब होता है, कहीं बाहरी लोगों
के द्वारा। सुरक्षात्मक दृष्टिकोण से सरकार के द्वारा उठाया गया यह कदम सराहनीय
है।
दूसरी ओर कुछ ऐसे वृद्ध दंपत्ति या अकेले
जीवन व्यतीत करते वृद्ध स्त्री-पुरुष भी मिले, जिन्होंने संतान के प्रति अपने
कर्तव्य को भली- भाँति निबाहा, किंतु उनसे
सेवा की अपेक्षा न रखते हुए उन्हें उनके आसमान में पर फैलाने की स्वच्छंदता दी और
स्वयं को साहित्यिक, सांस्कृतिक तथा
समाज-कल्याण में संलग्न कर विश्व को परिवार बना लिया। पहले की ही तरह ऊर्जावान रहते
हुए युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणा स्रोत बने हुए हैं। उनकी संतानें उन्हें बहुत
प्यार करती हैं और उनपर गर्व करती हैं। वे अवकाश में इकट्ठे होते हैं और एक एक
क्षण रसमय बना देते हैं और आपसी रिश्तों को इतनी प्रगाढ़ता दे देते हैं कि शरीर से
अलग रहकर भी वे परस्पर मन के बहुत करीब रहते हैं। उनके मकान अलग और दूर हैं, मगर घर एक ही है -रिश्तों का पुंजस्वरूप; जहाँ रिश्ते बुलबुले की तरह क्षणभंगुर नहीं, वरन समुद्र के जल की तरह सदैव अस्तित्व कायम रखने वाले हैं और वृद्ध उनके
संरक्षक भी हैं और मार्गदर्शक भी।
वर्तमान समय ऐसे ही वटवृक्षों को पुकार
रहा है- नई संतति को छाया देने के लिए।
सम्पर्क: 622 (प्रथम तल), पश्चिम परमानंद कॉलोनी, दिल्ली- 9, मो- 8376836119, 8882868530, dr.artismit@gmail.com
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