दी बांधवगढ़ गौर
- प्रमोद भार्गव
हमारे देश में यह पहली बार सम्भव हुआ है कि किसी वन्य जीव का सफल
पुनर्वास हुआ है,
वह भी बड़ी संख्या में! और तो और इस पुनर्वास की हरेक गतिविधि का
फिल्म के रूप में दस्तावेज़ीकरण किया गया है। श्टर्निंग दी क्लॉक बैक- दी बांधवगढ़
गौर्य शीर्षक से बनाई गई इस डॉक्यूमेंट्री का निर्माण व निर्देशन अनिल यादव ने
किया है। अनिल मध्यप्रदेश के विदिशा जिले की तहसील गंज बसौदा के एक कस्बाई पत्रकार
हैं। यह फिल्म बन तो 2014 में ही गई थी, लेकिन वह महत्त्व
नहीं मिला, जो ऐसे साहसिक कार्य को मिलना था। अलबत्ता अब ज़रूर
यह चर्चा में है ;क्योंकि 39 मिनट की इस फिल्म को दिल्ली के
अंतर्राष्ट्रीय फिल्म मेला में शामिल कर लिया गया है। इस मेले में 68 देशों की 221
फिल्में दिखाई गईं। यह शायद पहला अवसर था, जब एक नितांत
गैरव्यावसायिक और अंग्रेज़ी नहीं जानने वाले कस्बाई पत्रकार द्वारा वन्य प्राणी पर
निर्मित फिल्म को इस आयोजन की प्रतिस्पर्धा में भागीदारी का अवसर मिला। वैसे पूरी
तरह स्थानीय स्तर पर तैयार इस फिल्म की स्क्रीनिंग गत वर्ष सिंतबर माह में दिल्ली
में आयोजित श्वुडपैकर अंतर्राष्ट्रीय फिल्म मेले में भी की गई थी। इसमें अनिल यादव
वुडपैकर अचीवर अवॉर्ड से सम्मानित किए गए थे।
वन्य-जीवों का पुनर्वास जितना जटिल व जोखिम भरा काम है, उतना ही कठिन काम प्राकृतिक
रूप में अठखेलियाँ कर रहे किसी वन्य प्राणी पर फिल्म बनाना भी है। हमारे यहाँ अब
तक इस काम को गैरव्यावसायिक रहते हुए रोमेश बेदी और उनके पुत्र नरेश व राजेश बेदी
ने किया है। गंगा के घडिय़ालों से लेकर हिमालय की शिखर गुहाओं में रहने वाले हिम
चीता पर फिल्में पहले-पहल उन्होंने ही बनाई हैं। जंगल की दुनिया पर हिन्दी में
विपुल व रोचक लेखन रोमेश बेदी ने ही किया है। पाँच खंडों में सचित्र प्रकाशित उनका
वनस्पति कोश एक उपयोगी ग्रंथ है।
देश में अब तक दुर्लभ वन्य प्राणियों के सरंक्षण की दृष्टि से जो भी प्रयोग
हुए हैं,
वे असफल ही रहे हैं। पुनर्वास के क्रम में एक बड़ी कोशिश मध्य प्रदेश
के ही शिवपुरी में स्थित माधव राष्ट्रीय उद्यान में बाघों की हुई थी। 1989 में
स्वर्गीय माधवराव सिंधिया के विशेष प्रयासों से उद्यान के 10 हैक्टर क्षेत्र में
तारों की बाड़ लगाकर टायगर सफारी बनाई गई थी। इसमें तारा और पेटू नाम के मादा व नर
बाघ छोड़े गए थे। आरंभ में तो यह प्रयोग सफल रहा, क्योंकि
बाघों के लिए अनुकूल आवास, आहार व प्रजनन की प्राकृतिक
सुविधाएँ मिल जाने के कारण इनके वंश में उत्तरोत्तर वृद्धि होती रही; किंतु जब बाघों की संख्या बढ़कर 13 हो गई तो वन प्रबंधन संकट में आ गया।
तारा जो इस कुटुम्ब की जननी थी, नरभक्षी हो गई और उसने
उद्यान में काम करने वाली दो महिलाओं का शिकार कर लिया। इन घटनाओं से अन्य बाघों
के भी आदमखोर हो जाने की आशंका बढ़ गई। नतीजतन वन प्रबंधन के हाथ पैर फूल गए और
सफारी के बाघ देश के चिडिय़ाघरों में भेजकर इन्हें हमेशा के लिए बंद कर दिया गया।
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पुनर्वास का दूसरा प्रयास सोनचिडिय़ा अभयारण्य, करैरा के कृष्ण मृगों का हुआ
था। इस हेतु अमेरिका के वन्य प्राणी विशेषज्ञों की देखरेख में इन काले हिरणों का
पुनर्वास करैरा से शिवपुरी के माधव राष्ट्रीय उद्यान में किया जाना था। हिरणों को
पकडऩे के लिए अभरायण्य क्षेत्र में अनेक तकनीकी रूप से सक्षम जाल बिछाए गए थे।
लेकिन हिरणों को शायद पूर्वाभास हो गया कि ये जाल उनके जीवन के लिए संकट का सबब
हैं। तीन दिन की मशक्कत के बावजूद एक सैकड़ा से भी ज़्यादा देशी-विदेशी प्राणी
विशेषज्ञों का समूह एक भी हिरण नहीं पकड़
पाया। तकनीकी प्रबंध और किताबी ज्ञान धरे के धरे रह गए। हिरण जालों के समीप तक
नहीं आए। पुनर्वास की इस प्रक्रिया का गवाह यह लेखक स्वयं भी रहा है। तब मैंने
पत्रकार राजेश बादल के सहयोग से समाचार स्टोरी बनाई थी। जिसका प्रसारण दूरदर्शन के
‘परख’ प्रकरण में ‘मृग प्रसंग’ शीर्षक से हुआ था।

इन शावकों का पहले ग्वालियर के चिडिय़ाघर में लालन-पालन किया गया। जब ये वयस्क हो गए तो दो मादाओं ने गर्भधारण किया और पाँच
शावक जने। इन सिंहों के बड़े होने के बाद इन्हें शिवपुरी व श्योपुर के जंगलों में
स्वच्छंद विचरण के लिए छोड़ दिया गया। किंतु जल्दी ही ये सिंह नरभक्षी हो गए और
इन्होंने दर्जन भर लोगों को मार गिराया। प्रजा में हाहाकार मचने के बाद इन्हें
पकड़वा लिया गया।
अब फिर,
ढाई दशक से भी ज़्यादा समय से सिंहों के पुनर्वास की कोशिश चल रही है,
किंतु गुजरात सरकार सिंह नहीं दे रही है,जबकि
इस परियोजना के क्रियान्वयन के चलते 22 आदिवासी ग्राम उजाड़े जा चुके हैं। करोड़ों रुपये
खर्च कर दिए जाने के बावजूद, सिंहों के पुनर्वास की कवायद किसी मंज़िल पर नहीं
पहुँची है।
सफेद शेरों की भी अपने आदिम क्षेत्रों में पुनर्वास की कोशिश चल रही है। एक
समय रीवा,
सीधी एवं शडहोल के जंगलों में इनका नैसर्गिक रहवास था। 27 मई 1951
को पहली बार रीवा के महाराज गुलाब सिंह ने एक पीले रंग की काली पट्टी वाली शेरनी
को चार शावकों के साथ देखा था। इनमें तीन पीले और एक सफेद था। रीवा महाराज ने इस
अद्भुत शावक को पकड़वा लिया। इसका नाम मोहन रखा गया। वयस्क होने पर इसका राधा नाम की शेरनी के साथ संगम
कराया गया। अक्टूबर 1958 में राधा ने चार सफेद शावकों को जन्म दिया। आज देश-दुनिया
में जहां भी सफेद बाघ हैं वे इसी राधा-मोहन जोड़ी के वंशज हैं।
ये बाघ दुनिया में तो अपनी वंश वृद्धि करते रहे, लेकिन अपने मूल आवास स्थल सीधी
ज़िले की गोपद-बनास तहसील से पूरी तरह लुप्त हो गए। अब इनके पुनर्वास की पहल
युद्धस्तर पर चल रही है। जहां इन्हें फिर से आबाद किया जा रहा है, उसे मुकुंदपुर चिडिय़ाघर नाम दिया गया है। यहां फिलहाल रेस्क्यू सेंटर और
सफेद बाघ सफारी प्रजनन केंद्र विकसित कर दिए गए हैं, लेकिन
अभी बाघों का जोड़ा आना बाकी है। यह प्रयोग गौर के पुनर्वास की तरह सफल हो जाता है ,तो
एक बार फिर से कैमूर विंध्याचल क्षेत्र में सफेद शेर की दहाड़ गूँजने लगेगी।

बहरहाल यह संयोग ही था कि 2005 में दक्षिण अफ्रीका की एक बड़ी कम्पनी ‘एण्ड बियॉन्ड’ ने भारत में कारोबार
करने का निर्णय लिया। इस मकसद की पूर्ति के लिए कम्पनी के प्रमुख और प्रकृति
विज्ञानी सरत चंपाति ने म.प्र. के प्रधान मुख्य वन सरंक्षक (वन्य प्राणी) डॉ.
एच.एस. पावला से मुलाकत की। यह कम्पनी वन्य प्राणियों को पकडऩे, उनका परिवहन करने और फिर उनके
पुनर्वास में दक्ष है। पावला ने पहले माधव राष्ट्रीय उद्यान में बाघों के पुनर्वास
का प्रस्ताव रखा। किंतु चंपाति ने कान्हा राष्ट्रीय उद्यान से बांधवगढ़ में गौरों
के पुनर्वास का सुझाव दिया। विचार-विमर्श के बाद सहमति बन गई। पावला की मंशा थी कि
एक बार यदि इस विशालकाय जीव के विस्थापन व पुनर्वास की तकनीक समझ आ जाती है, तो फिर अन्य जीवों का पुनर्वास अपने ही स्तर पर सम्भव है। भारतीय वन्य जीव संस्थान, देहरादून ने भी इस परियोजना को स्वीकृति दे दी। परियोजना पर करीब दो करोड़ रुपये
खर्च होने थे। इसमें 60 लाख रुपये का सहयोग एण्ड बियॉन्ड और ताज सफारी ने किया।
शेष राशि कान्हा और बांधवगढ़ आने वाले पर्यटकों से प्राप्त आय से जुटाई गई।
विस्थापन और पुनर्वास की कार्रवाई के फिल्मांकन के लिए अखबारों में
विज्ञप्ति दी गई। लेकिन दुर्लभ, अनिश्चय और लंबी कालावधि का काम होने के
कारण टेंडर नहीं आए।
अन्तत: पावला ने अनिल यादव से सम्पर्क साधा। अनिल
इसके पहले वन्य जीवन से सम्बंधित सात डॉक्यूमेंट्री बना चुके थे। पारदीज़- दी
अनटोल्ड स्टोरी,
पारदीज़- दी अन्हर्ड स्टोरी और गौरैया व अजगर पर बनी उनकी चर्चित
डॉक्यूमेंट्री रही हैं। इन फिल्मों के
निर्माण की जानकारी पावला को थी। बहरहाल संवाद कायमी के बाद अनिल नि:शुल्क फिल्म बनाने के लिए तैयार हो गए। आखिरकार मध्यप्रदेश पारिस्थितिकी
एवं पर्यटन विकास मंडल के साथ गौर के पुनर्वास पर फिल्म के निर्माण की रूपरेखा बन
गई।

कान्हा से बांधवगढ़ की दूरी करीब 200 किमी है। यहाँ 100 हैक्टर क्षेत्र में
एक बाड़ा तैयार किया गया था। इस क्षेत्र में पानी एवं बिजली की व्यवस्था नहीं थी।
लिहाज़ा सौर ऊर्जा के पैनल लगाए गए और एक नलकूप का खनन किया गया। 22 जनवरी 2011 की
रात को बांधवगढ़ में गौरों की पहली खेप का सफल पुनर्वास कर दिया गया। इसके बाद 14
गौर और बांधवगढ़ लाए गए। 9 मार्च 2011 को अच्छी खबर यह आई कि एक मादा ने बछड़े को
जन्म दिया है। इससे सुनिश्चित हुआ कि मादा के गर्भस्थ शिशु पर बेहोशी की दवा का
असर नहीं पड़ा था। मार्च 2012 में दूसरे चरण की शुरुआत की गई, जिसके अंतर्गत 31 गौरों का
पुनर्वास हुआ। इस प्रक्रिया में केवल एक गौर की अकाल मृत्यु हुई।
इन चार वर्षों के दौरान गौर की संख्या 49 से बढ़कर 121 तक पहुँच गई थी।
इनमें से 19 का बाघों ने शिकार कर लिया और दो की असमय मौत हो गई। वर्तमान में
बांधवगढ़ में 17 नर, 39 मादा और डेढ़ साल से कम उम्र के गौरों की संख्या 27 है।
यह खुशी की बात है कि इस बाघ संरक्षित उद्यान के कलवाह, मगधी
और ताला वन परिक्षेत्रों में गौर की संख्या लगातार बढ़ रही है। बांधवगढ़ में विलुप्त
प्राणी गौर के इस विस्थापन और पुनर्वास की गाथा को अनिल यादव ने श्टर्निंग दी
क्लॉक बैक- दी बांधवगढ़ गौर्य फिल्म में बेहद सुरुचिपूर्ण ढंग से छायांकित किया है।
(स्रोत फीचर्स)
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