सब कुछ
लुटाकर होश में आए
तो क्या किया?
-स्वराज सिंह
आज का चौंका देने और व्यथित करने वाला समाचार 'छह लाख
तीस हज़ार मेडिकल छात्रों को 4 हफ़्ते में दोबारा देनी होगी परीक्षा’-यह आदेश
सुप्रीम कोर्ट को देना पड़ा। कारण-परीक्षा की आंसर की लीक होना। इस काम में
संलिप्त छात्र, शिक्षक और डॉक्टर पकड़ में आए। लीक करने का सौदा 15-50 लाख में हुआ। क्यों हुआ ऐसा? हमेशा इस
तरह की घटनाएँ क्यों होती हैं? कुछ प्रदेशों
में नकल का खुला ताण्डव होता रहा। कुछ ऐसे भी स्थान हैं, जहाँ
सीढ़ी लगाकर नकल कराने की घटनाएँ नहीं होतीं। क्या वे संस्थाएँ पाक- साफ़ हैं।
छापामार दस्ते अपने आने की सूचना पहले दे दें या चालाक लोग अपने सूत्रों से पहले
ही पता कर लें, तो कुछ भी पता नहीं लगेगा। कहीं-कहीं ऊपर के
अधिकारियों का नकल कराने में मौन सहयोग होता है। इस तरह से स्कूली परीक्षाएँ पास
करने वाले हर बार कुछ न कुछ रास्ते तलाश लेंगे। जो आज पचास लाख देकर पेपर या 'आंसर की’खरीदेगा
वह कल जन सेवा करेगा या लूट का बाज़ार खड़ा करेगा?
आज हमारे
देश में शिक्षा का स्तर इतना गिर चुका है कि जब मैंने इसकी हक़ीक़त को जानने का
प्रयास किया तो हक़ीक़त जानकर मैं सन्न रह गया। मेरे एक परिचित का बच्चा दिल्ली के
एक सरकारी स्कूल में पढ़ता है। वह 9वीं कक्षा में इस वर्ष फेल हो गया। उन्होंने
मुझे अपने बच्चे के फेल होने के बारे में बताया।
मैंने अपने कुछ परिचित शिक्षकों से इस सम्बन्ध में गहराई से बात की, तो पता
लगा यह सब CCE
पैटर्न और NDP( No
Detention Policy) की देन
है। आठवीं तक कोई छात्र फेल नहीं हो सकता ,इसलिए
छात्रों ने पढऩा-लिखना बिलकुल छोड़ दिया। आठवीं तक तो छात्र स्कूल में नाम लिखवाकर
वर्षभर स्कूल न भी आए, तो भी वह पास हो जाता है। बस उस छात्र को एक
दिन आकर उत्तर पुस्तिका पर केवल रोल नम्बर लिखने की जरूरत है। परीक्षक उसकी उत्तर
पुस्तिका पर शून्य नम्बर दे देगा और वह अगली कक्षा में चला जाएगा। आठवीं तक छात्र
के माता-पिता चाहें तो भी उसे फेल नहीं कर सकते। छात्रों में पढऩे की आदत बिल्कुल
नहीं रही या ये कहे कि आदत पड़ी ही नहीं। पढऩे की उम्र में जिसने नहीं पढ़ा वह आगे
चलकर क्या पढ़ेगा? यही कारण है कि यह छात्र 9वीं कक्षा में फेल हो
गया। पिछले वर्ष से 9वीं कक्षा की SA संकलित
मूल्यांकन) में 25 प्रतिशत अंक लाना अनिवार्य कर दिया। छात्रों की पढऩे की
आदत है नहीं ; अत: मैं
जिस विद्यालय की बात कर रहा हूँ वहाँ 9वीं में 300 में से केवल 75 छात्र ही SA परीक्षा
में 25 प्रतिशत अंक ले पाए। बाक़ी बच्चे फेल हो गए। उन्होंने बताया कि 2014-2015 तक
जो विद्यार्थी ग्यारहवीं कक्षा में आते थे उनमें से बहुत से SA परीक्षा
में फेल होते थे ,परंतु वे दसवीं की FA
(रचनात्मक मूल्यांकन) के 40 अंकों के आधार पर परीक्षा उत्तीर्ण कर लेते थे। तब 25
प्रतिशत की शर्त नहीं थी। SA व FA के नम्बर
जुड़कर पास होते थे। 9वीं कक्षा में यदि SA परीक्षा
में 25% अंक लाने की शर्त न होती, तो ये सभी
पास हो गए होते। इनकी बातों में मुझे सच्चाई नज़र आई। मैंने सोचा यदि शिक्षा
व्यवस्था की सही जानकारी चाहिए तो शिक्षकों से अवश्य बात करनी चाहिए। शिक्षकों से
ही क्यों; बल्कि विद्यालय के छोटे-बड़े हर कर्मचारी से।
हर व्यक्ति कोई न कोई गहरी बात बताता है और अच्छा सुझाव भी देता है। परंतु
विडम्बना यह है कि पॉलिसी ऐसे लोग बनाते है, जिनका
स्कूली शिक्षा से कोई नाता नहीं होता। शिक्षक भी छात्रों का हित चाहते है; परंतु जब
छात्र स्कूल ही न आए, आए तो किताब कॉपी न लाए तो अध्यापक किसे और
कैसे पढ़ाएँ। अभिभावक बुलाने से भी बच्चे के बारे में बात करने स्कूल नहीं आते।
पैसा लेने जरूर आ जाते हैं। ड्रेस के लिए मिले पैसे से ड्रेस नहीं खरीदते और
किताबों के लिए मिले पैसे से किताबें नहीं खरीदते।
सरकार
द्वारा छात्रों को हर सम्भव सहायता प्रदान करने के बाद भी छात्रों का विद्यालय से
पलायन रुकने का नाम नहीं ले रहा है। शाम की पाली के विद्यालयों की स्थिति और भी
भयावह है, अधिकतर बच्चें अपने घर के किसी न किसी काम काज़
से जुड़े होते है; कोई पटरी बाजार लगता है, कोई सब्जी
बेचता है, कोई किसी होटल में कार्य करता है। होटल में काम
करने वाले एक छात्र से बात हुई, उसका कहना
था कि उसके घर में बहुत ही अशांति है। बार-बार इस छात्र का नाम कट जाता था फिर भी
इसके माता-पिता स्कूल नहीं आते थे। यह छात्र अनेक तरह के नशे करता था। आखिर दो साल
फेल होकर वह छात्र घर बैठ गया। सरकारी विद्यालयों में जो छात्र पढऩे आते है , वे
बहुधा मज़दूरी करने वाले परिवारों से है। आठवीं कक्षा में पढऩे वाले एक छात्र ने
इसी साल अपने पिता का मर्डर कर दिया; कारण यह
था कि उसका पिता रोज़ दारू पीकर घर में हंगामा करता था और उसकी माँ को पीटता था।
घर का जो सामान हाथ लग जाए, उसे बेच लेता था। एक दिन अपनी माँ का पिटना इससे देखा
नहीं गया; इसने कृपाण से अपने पिता पर वार कर दिया, जिससे
उसकी मृत्यु हो गई। यह छात्र अभी भी पढ़ रहा है और किसी प्रकार अपना घर भी चला रहा
है।
स्कूलों
में बँटने वाला मिड डे मील भी जी का जंजाल अधिक है। एक तो उसे बाँटने की
जिम्मेदारी ऊपर मिड डे मील की गुणवत्ता। आए दिन मिड डे मील खाने से बीमार होने
वाले छात्रों के समाचार आते रहते है।
विद्यालय का काफी समय मिड डे मील बाँटने में ही लग जाता है। अब तक कोई ऐसी
व्यवस्था नहीं बन पाई कि समय भी बच जाए और गुणवत्ता को भी बनाया जा सके। कब, कहाँ, कौन क्या
लापरवाही कर दे; कुछ पता नहीं।
बारहवीं
का परीक्षा परिणाम भी यहाँ नक़ल के बल पर ही आता है। स्कूलों के शिक्षक परीक्षा
केंद्रों पर जाकर नक़ल कराते है। अधिकारी भी चाहते है कि उनके क्षेत्र के विद्यालयों
का रिजल्ट अच्छा रहे , अत: वे भी नक़ल रोकने के स्थान पर उसे बढ़ावा
देते हैं। सी बी एस ई बोर्ड के परीक्षा सेंटर आपस में ऐसे स्कूलों में डालें जाते
है, जहाँ छात्रों को एक-दूसरे विद्यालयों की नक़ल
में सहायता मिल सके। बहुत से छात्र तो ऐसे है जो अपना नाम भी नहीं लिख पाते।
ग्यारहवीं कक्षा में पढऩे वाले अधिकतर छात्र किताब पढऩे में असमर्थ रहते है।
शिक्षा का स्तर गिरने का एक बड़ा कारण स्कूलों में वर्ष भर बँटने वाला पैसा भी है।
अध्यापक वर्षभर विभिन्न योजनाओं के तहत पैसा बाँटने और छात्रों के एकाउंट खुलवाने
में लगे रहते हैं।
प्रधानाचार्यों
का ध्यान छात्रों की शिक्षा की और कम विभिन्न मदों में खरीदारी से मिलने वाले
कमीशन में अधिक रहता है। ज्यादातर हैड ऑफ स्कूल ऐसे हैं, जो सामान
उन्हीं डीलर से खरीदते है,जो ज्यादा
कमीशन देते है। कुछ तो ऐसे हैं, जो एजेंट
से खाली बिल लेते है। सामान पहले का ख़रीदा हुआ ही दिखा देते है। अधिकतर स्कूलों
में सामान की खरीदारी के लिए कोई कमेटी भी नहीं होती । यदि होती है तो उसमे ऐसे
लोगों को रखते है, जो विद्यालय प्रमुख से गाहे- बगाहे कोई न कोई
लाभ उठाते रहते हैं। उनको जहाँ भी कहा जाए, वे आँख
बंद करके हस्ताक्षर कर देते है।
शिक्षकों को पढ़ाई के इतर भी अन्य कार्य करने
पड़ते हैं, जैसे-कभी मकान गणना, कभी
जनगणना तो कभी आर्थिक सर्वे। चुनाव ड्यूटी के दौरान तो छात्रों की पढ़ाई बिलकुल
चौपट हो जाती है। चुनावी ट्रेनिग जो काम एक दिन में हो सकता है, चुनाव
आयोग द्वारा उसके लिए कई-कई दिन बुलाया
जाता है। अनेक विद्यालयों में अध्यापकों को अपने ऑफिस के कार्य भी स्वयं करने
पड़ते है।
यदि हम
शिक्षा के स्तर में सुधार चाहते हैं तो अन्य उपायों के साथ-साथ यह भी जरूरी है कि
स्कूलों में एजेंट के माध्यम से की जाने वाली ख़रीदारी पर अंकुश लगाया जाए और पहले
की तरह सुपर बाज़ार और कॉपरेटिव स्टोर जैसी संस्थाएँ स्थापित की जाए, जहाँ
विद्यालयों की ज़रूरत का सभी सामान मिल सके। इससे विद्यालयों में व्याप्त
भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाया जा सकेगा। विद्यालयों के मुखिया का ध्यान पूरी एकाग्रता
के साथ विद्यालय और विद्यार्थियों के हित में लग सकेगा। कुछ वर्ष पहले विद्यालयों
में छात्रों की दाखिला प्रक्रिया केन्द्रीयकृत करके दाखिले में धाँधली को लगभग बंद
कर दिया गया। इसी प्रकार के प्रयास से विद्यालय के लिए खरीदारी में होने वाले भ्रष्टाचार को रोका जा
सकेगा।
शिक्षा में सुधार के लिए छात्रों की दसवीं बोर्ड
की परीक्षा को अनिवार्य बनाया जाए। एक सेक्शन में छात्रों की अधिकतम संख्या
निश्चित की जाए। CCE पैटर्न को तुरंत समाप्त किया जाए, स्न्र
परीक्षा का वेटेज कम की जाए तथा NDP (No Detention Policy) को तुरंत समाप्त किया जाए, तभी
छात्रों का रुझान पढाई की और हो सकेगा। अन्यथा बिना पढ़े-लिखे ही पढ़े-लिखों की
कतार लंबी होती चली जाएगी और जो आने वाले समय में समाज के लिए बहुत ही घातक सिद्ध
होगा।कामचोरी करने वाले शिक्षकों पर अंकुश लगाया जाए। सरकारी स्कूलों में करोड़ों रुपये वेतन आदि पर खर्च होते हैं।
समय-समय पर शिक्षकों का भी मूल्यांकन होना
चाहिए कि उन्होंने जो बरसों पहले पढ़ा था, उसी पर
निर्भर हैं, उसी की जुगाली कर रहे हैं या कुछ नया भी पढ़
रहे हैं। कम से कम पाँच साल में किसी परीक्षा के माध्यम से यह मूल्यांकन किया जाए।
सम्भव है बहुत से शिक्षक उत्तीर्ण भी न हो
सकें। निरन्तर खोखली होती शिक्षा की जड़ को नष्ट होने से बचाया जाए। अपने देश की
परिस्थिति एवं परिवेश के अनुरूप ही शिक्षा-नीति निर्धारित की जाए। छात्रों की
उपस्थिति सुनिश्चित की जाए। स्कूल में 20 प्रतिशत उपस्थिति वाला छात्र 70 प्रतिशत
अंक कैसे लाएगा? उसके खराब परीक्षा-परिणाम के लिए किसी शिक्षक
को कैसे उत्तरदायी ठहराया जाएगा? अभिभावक
की सक्रिय भागीदारी ज़रूरी है। बोर्ड अपना परीक्षा-परिणाम सुधारने के लिए क्या
रचनात्मक काम कर रहा है, उस पर भी
नज़र रखना ज़रूरी है। हमारी पूरी पीढ़ी के भविष्य का सवाल है। अगर आज हम इस पर
ध्यान नहीं देंगे तो कल पछताने के लिए समय नहीं मिलेगा। कमोबेश यही स्थिति भारत भर
में मिलेगी। हमें जाग जाना चाहिए, अन्यथा फिर वही होगा-'सब कुछ
लुटाकर होश में आए तो क्या किया?’
1 comment:
दरअसल शिक्षा पर कोई भी सरकार आज तक गंभीर नहीं रही है। स्कूली शिक्षा की स्थिति में दिनोदिन गिरावट आती जा रही है। इसका मूल कारण वही है जिसकी ओर लेखक श्री स्वराज जी ने इशारा किया है। वास्तव में स्कूली शिक्षा के लिए जब नीतियाँ बनती हैं तो उससे सम्बन्ध रखने वाले अध्यापकों की राय भी नहीं ली जाती है और वे लोग नीतियाँ बनाते हैं जिनका स्कूली शिक्षा से कोई सम्बन्ध ही नहीं होता। जैसा कि स्वराज जी ने बताया कि No Detention Policy के तहत आजकल हर बच्चे को हम नवीं कक्षा तक बिना किसी योग्यता के मानदंड के ले जाते हैं चाहे सभी विषयों में उसके शून्य अंक हों। तो आप कल्पना कर सकते हैं कि इस नाकारा नीति के कारण यदि एक बच्चा शुरू से अपने अध्ययन पर ध्यान नहीं दे रहा हो तो नवीं कक्षा तक आते - आते वह इतना कमज़ोर हो चुका होता है कि चाहकर भी वह नवीं कक्षा उत्तीर्ण नहीं कर सकता। क्या इस घटिया नीति को बदलने की आवश्यकता नहीं है ! लेखक की चिन्ता पर राष्ट्रीय चिन्तन की आवश्यकता है।
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