- हरिकृष्ण देवसरे
अपनी बात शुरू करने से पहले एक छोटा-सा किस्सा सुनाता हूँ। अकबर के दरबार में एक बार बीरबल विलम्ब से पहुँचे। अकबर ने बीरबल से विलम्ब का कारण पूछा तो बीरबल ने कहा, हुजूर, मेरे घर में एक छोटा बच्चा रूठ गया था। उसे मनाने में देर लग गई ।
क्या कहते हो बीरबल। भला बच्चे को मनाना कोई मुश्किल काम है, जो तुम्हे इतनी देर लगी। अकबर ने कहा।
यकीन कीजिए हुजूर बच्चों को मनाना बड़ा मुश्किल काम है। बीरबल ने कहा।
हम नहीं मानते। अकबर ने कहा। तब बीरबल बोले, हुजूर हाथ कंगन को आरसी क्या? मैं बच्चा बन जाता हूँ आप मुझे मनाकर देखिए।
बादशाह अकबर सहमत हो गए। बीरबल ने बच्चा बनकर रोना शुरू किया।
अकबर ने पूछा, क्यों रोता है?
मुझे गन्ना चाहिए। बीरबल ने कहा।
ठीक है गन्ना पेश किया जाये। अकबर ने आदेश दिया।
गन्ना आया तो बीरबल ने कहा, इसकी गंडेरिया काट दो। तुरंत गन्ना छीलकर उसकी गंडेरिया काट दी गईं, लेकिन बीरबल फिर रोने लगे।
‘’अब क्या चाहिए?’’- अकबर ने पूछा
इन गंडेरियों को जोड़ दो। बीरबल के यह कहने पर अकबर सचमुच चकरा गए और बोले, मान गए बीरबल, तुम ठीक कहते थे। लेकिन अब हम असली बच्चे का मज़ा देखना चाहते हैं।
बीरबल ने तुरंत अपने नाती को बुलवा भेजा। नाती आया तो आते ही मचल गया।
अरे बच्चे, क्या चाहिए। अकबर ने पूछा।
एक गिलास पानी चाहिए। बच्चे ने कहा।
तुरन्त पानी पेश किया गया। पानी आने पर बोला, अब नहीं पीना पानी। और रोने लगा।
तो क्या चाहिए? बीरबल ने पूछा।
मुझे हाथी चाहिए!
अकबर बोले, बेटे इतना बड़ा हाथी, हमारे दरबार में यहाँ कैसे आ सकता है? लेकिन बच्चे ने तो हाथी के लिए जिद पकड़ ली थी। वह रोने लगा।
बीरबल ने कहा, हुजूर परेशान न हों। मैं कुछ उपाय करता हूँ। और बीरबल ने छोटा-सा हाथी का खिलौना मँगा दिया,
लेकिन बच्चा फिर रोने लगा। बोला, हाथी को पानी के गिलास में डाल दो।
लो डाल दिया! बीरबल ने कहा।
अब हाथी पर बादशाह को बिठा दो। बच्चे ने जैसे ही यह कहा तो सारे दरबार में हँसी का फौव्वारा छूट पड़ा।
अकबर ने कहा, बीरबल, हम बिल्कुल मान गए। बच्चे को मनाना बहुत मुश्किल काम है।
बच्चों की रुचि को समझना, उन्हें मनाना और प्रसन्न रखना सरल काम नहीं है। बच्चों को मनाने का पारम्परिक उपाय उन्हें तरह-तरह की कहानियाँ सुनाना भी रहा है। बड़ी उम्र के बच्चों को रात में आराम की नींद सुलाने में भी कहानियों की बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। कहानियाँ बच्चों को सपने में वास्तविकता का आनंद देती हैं। अपने कल्पना-जगत् में उन कहानियों के नायक वे स्वयं बनकर उनके सुख-दुख को अनुभव करते हैं। बच्चों को उन्हीं कहानियों को सुनने में आन्न्द आता, जिन पात्रों से उनका तादात्म्य स्थापित हो जाता है। बच्चों को कहानियाँ सुनाने वाले दादा-दादी या नाना-नानी जानते हैं कि ऐसी कहानियों का चयन करना कितना मुश्किल काम है। बच्चों को वे जैसे ही कहानी सुनाना शुरू करते हैं कि बच्चे कह देते हैं, ये कहानी तो हम पहले सुन चुके हैं। तब हर दादा-दादी या नाना-नानी के लिए रोज एक नई कहानी सुनाना भी मुश्किल हो जाता है, लेकिन तब भी वो कुछ न कुछ सोचकर, कोई न कोई कहानी सुनाते ही हैं। मैंने ऐसे कई लोगों को देखा है, जो पुस्तकालयों में बैठकर कहानियों की किताबें पढ़ते हैं और फिर जाकर अपने पोते-पोतियों को कहानियाँ सुनाते है। लेकिन ऐसे भी लोग मैंने देखे हैं, जिनके पास कहानियों का अटूट भंडार हुआ करता था। वे लोककथाओं, पंचतंत्र, कथा सरित्सागर, अरेबियन नाइट्स आदि के अलावा अपने जीवन के अनुभवों के विपुल भंडार हुआ करते थे। ऐसे लोगों से कहानियाँ सुनने वाले बच्चे कभी ऊबते नहीं थे, क्योंकि उन्हें उनसे हर बार नई कहानी ही सुनने को मलती थी।
कहानियों के विपुल भंडार वाले ऐसे दादा-दादी या नाना-नानी की जो श्रोता बाल-मंडली होती थी, उसकी स्थिति उल्टी होती थी। उन्हें जो कहानी बहुत पसंद होती थी, उसे वे बार-बार सुनने की फरमाइश किया करते थे। उन सुनाने वालों की परेशानी यह होती थी कि उन्हें एक कहानी को कई बार सुनाने में ऊब अनुभव होने लगती थी। फिर भी, बच्चों की फरमाइश के सामने उन्हें झुकना पड़ता था। अलीबाबा चालीस चोर, सिंदबाद जहाजी के किस्से, किस्सा चहार दरवेश आदि कुछ ऐसी ही कहानियाँ थीं। इसके अलावा वे सभी कहानियाँ भी बहुत अच्छी लगती थीं, जिनमें रहस्य-रोमांच होता था, जिनमें कौतूहल होता था, जैसे किस्सा गुलबकावली आदि।
बड़ों द्वारा बच्चों को कहानी सुनाने के कई उद्देश्य होते थे और उन कहानियों से वे इन निश्चित लक्ष्यों को भी प्राप्त कर लेते थे, जिन्हें वे उन कहानियों के माध्यम से पाने का प्रयास करते थे। उनकी लोककथाओं में जीवन के अनुभव हुआ करते थे- समाज व्यवस्था, लोकव्यवहार, आचार-विचार के साथ-साथ जीवन और समाज के कुछ ऐसे शाश्वत-मूल्यों को वे बच्चों में संप्रेषित करने में सफल होते थे, जिन्हें उपदेश देकर समझाना कठिन था। ये शाश्वत- मूल्य, उनमें सत्य, न्याय, ईमानदारी, आत्म-सम्मान, बड़ों का आदर आदि अनेक सद्गुणों के बीच स्वत: ही अंकुरित करा देते थे। सर्दी की लम्बी रात हो या गर्मी की दोपहर, ऐसे बुजुर्ग लोग, अपनी कहानियों के अक्षय भंडार से बच्चों को बाँध लेते थे। इतिहास की कथाओं में जहाँ प्राचीन ऐतिहासिक पात्रों की शूरवीरता की कहानियाँ होती थीं, वहीं उनमें अपने देश और गौरव की भावना भी जागृत होती थी। रामायण, महाभारत, पुराणों की कहानियाँ उनमें भारतीय धर्म और संस्कृति के प्रति जागरूकता लाती थीं। इसके अलावा उनके अपने जीवन की अनेक ऐसी घटनाएँ होती थीं, जिनसे जीवन के प्रति बच्चों को ऐसे निर्देश मिलते थे, जिन्हें वे शायद सहज प्राप्त न कर सकें।
दादा-दादी या नाना-नानी से कहानियाँ सुनने के लिए, बच्चों में आकर्षण का एक अन्य कारण भी था। वह थी- उनकी कहानी सुनाने की आकर्षक कला। हमारे यहाँ एक जमाने में किस्सागो हुआ करते थे। ये तो पेशेवर किस्सा सुनानेवाले होते थे। लेकिन घर के दादा-दादी भी कहानी सुनाने की कला में कुछ कम माहिर न हुआ करते थे। वास्तव में कहानी के साथ-साथ, उसे सुनाने की कला, सोने में सुहागे का काम किया करती थी। वे उन कहानियों को बड़े ही नाटकीय और प्रभावशाली अन्दाज में सुनाते थे और बच्चे उन्हें सुनते हुए अपनी कल्पना में उन्हें चित्ररूप में देखने लगते थे। ऐसी कहानियों का संकलन करते हुए एक बार ग्रिम-बन्धु एक गाँव में पहुँचे, जहाँ एक बुढिय़ा रहती थी और उसके पास कहानियों का भंडार था। ग्रिम बन्धु उसके पास पहुँचे और उन्होंने उससे कहानियाँ सुनाने का आग्रह किया। उस बुढिय़ा ने एक शर्त रखी कि मेरे सामने कोई श्रोता-बालक होगा, तभी मैं कहानियाँ सुनाऊँगी। ग्रिम बन्धुओं को भी बात ठीक लगी कि श्रोता होना ही चाहिए। वे तुरंत गाँव के कुछ मित्रों के पास गएऔर उनके बच्चों को वहाँ ले जाने की बात कही, किन्तु उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब उन मित्रों ने अपने बच्चों को उस बुढिय़ा के पास भेजने से साफ इनकार कर दिया। उन लोगों ने कहा, जानते हो, वह बुढिय़ा-जादूगरनी है, डायन है, चुड़ैल है... बच्चों पर ऐसा जादू करती है कि वे रात में डरावने सपने देखकर चीखते-चिल्लाते हैं, ना बाबा, हम ऐसी जादूगरनी के पास अपने बच्चे नहीं भेज सकते। तब ग्रिम- बन्धु दूर किसी गाँव में गए। वहाँ से किसी मित्र के बच्चे को लेकर आए। ग्रिम- बन्धु अपने उस अनुभव में लिखते हैं कि हमने उस बुढिय़ा के सामने बच्चे को बिठा दिया और हम दोनों दूसरे कमरे के द्वार पर पर्दे के पीछे बैठ गए। बुढिय़ा कहानी सुनाने लगी और हम कहानियाँ लिखने लगे। वह बुढिय़ा जब कहानी सुनाने लगी तो हमने अनुभव किया कि वह शायद कहानी-सुनाने की कला में माहिर विश्व की सर्वश्रेष्ठ किस्सागो थी। वह कहानी सुनाने के दौरान आवश्यकतानुसार चिडिय़ों की आवाज निकालती या शेर की तरह गुर्राती। कहने का मतलब यह कि वो वर्षा, आँधी, जानवरों, चीड़िय़ों आदि के ध्वनि प्रभाव अपने मुँह से पैदा करती और कहानी को अत्यधिक प्रभावशाली बना देती। इसी कहानी-कला का प्रभाव वह जादू था, जो बच्चों के मस्तिष्क पर छा जाता था, और उसी के प्रभाव के कारण वे सपनों में उन चित्रों को साकार देखकर डर जाते थे। लोग इस राज को जानते न थे और कहानी-सुनाने की कला में श्रेष्ठता-प्राप्त उस बेचारी बुढिय़ा को जादूगरनी या डायन कहकर, उसका तिरस्कार करते थे।
हमारे यहाँ कहानी सुनाने की कला तो लुप्त हो ही गई है, कहानी सुनाने की परम्परा भी मिटती जा रही है। एक तरफ दादा-दादी के पास कहानियों का अभाव दूसरी ओर जनसंचार माध्यमों का प्रसार और छपाई की सुविधाओं का प्रसार होने से लोग बच्चों को कहानियाँ सुनाने से कतराने लगे और आज दशा ये हो गई है कि बच्चे शायद यह भी नहीं जानते कि दादा-दादी या नाना-नानी के पास जाने या बैठने का एक अर्थ यह भी हुआ करता था कि उनसे बढिय़ा रोमांचक कहानियाँ सुनने को मिला करती थीं।
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