बच्चों के लिए क्या लिखें?
- डॉ. हरिकृष्ण देवसरे
बाल पत्रिका पराग के पूर्व संपादक डॉ. हरिकृष्ण देवसरे जी द्वारा आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन 2007 में बाल साहित्य विषय पर पढ़े गए इस वक्तव्य को अनकही के स्थान पर ज्यों का त्यों प्रकाशित कर रहे हैं। उन्होंने बाल साहित्य को लेकर जो चिंता जाहिर की थी वह आज भी उतनी ही चिन्तनीय और प्रासंगिक है। देवसरे जी 14 नवम्बर 2013 को हम सब को छोड़ गए। उन्होंने बच्चो के लिए तीन सौ से अधिक बाल पुस्तकें प्रकाशित कीं। हिन्दी बाल साहित्य पर प्रथम शोध-प्रबन्ध प्रस्तुत किया है। हिन्दी बाल साहित्य: एक अध्ययन और बाल साहित्य: रचना और समीक्षा देवसरे जी के मानक ग्रंथ माने जाते हैं। दूरदर्शन के लिए अनेक धारावाहिकों, वृत्तचित्रों तथा टेलीफिल्मों का लेखन, निर्देशन एवं निर्माण किया। सन् 1984 से 1991 तक लोकप्रिय बाल पत्रिका 'पराग' का संपादन किया। विभिन्न राज्य सरकारों, केंद्र सरकार, अकादमियों एवं साहित्य- संस्थानों से बीस से अधिक पुरस्कारों से सम्मानित देवसरे जी को नमन...- डॉ. हरिकृष्ण देवसरे
आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन में बाल साहित्य विषय पर विशेष सत्र के आयोजन ने, हिन्दी के आलोचकों द्वारा प्रचारित उस मिथक को तोड़ा है कि हिन्दी बाल साहित्य है ही कहाँ? दरअसल हिन्दी में बाल साहित्य कितना समृद्ध है इसे जानने-पढ़ने का प्रयास हुआ ही नहीं, जबकि मैं इस विश्व हिन्दी मंच पर यह बताना चाहता हूँ कि हिन्दी का बाल साहित्य, भारत की सभी भाषाओं की तुलना में कही ज्यादा समृद्ध हैं। हिन्दी के बाल साहित्य में स्वतन्त्रता के बाद लगभग सभी विधाओं में न केवल पर्याप्त और श्रेष्ठ बाल साहित्य लिखा गया ; बल्कि बाल साहित्य लेखन की सार्थकता और अपने समय के बच्चों से उसके सम्बन्धों को लेकर बहसें भी हुई। राजा-रानी की सामंती प्रवृत्ति को पोषक कहानियों, परियों के झूठे हिंडोले पर झुलाने वाली परी कथाओं आदि सभी की सार्थकता पर हिन्दी में जो बहस चली वह आगे जाकर मराठी, गुजराती आदि भाषाओं में भी स्वीकार हुई। दरअसल, विगत शताब्दी के सातवें दशक से हिन्दी बाल साहित्य लेखन की चिन्तनधारा में बहुत आया और उसे आधुनिक युग के बच्चों की आवश्यकता और उनकी सोच के अनुरूप लिखे जाने पर बल दिया गया। इस मुहिम में धर्मयुग, पराग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान आदि पत्रिकाओं ने उल्लेखनीय योगदान किया। मैं यहाँ यह भी रेखांकित करना चाहता हूँ कि बाल साहित्य आलोचना सम्बन्धी सर्वाधिक पुस्तकें आज केवल हिन्दी में उपलब्ध हैं। अब तक बाल साहित्य के विविध विषयों पर सत्तर-अस्सी शोध-प्रबन्ध विभिन्न विश्वविद्यालयों की पी.एच.डी., एम-फिल आदि के लिए लिखे जा चुके हैं। इस समय हिन्दी क्षेत्र के चालीस से अधिक विश्वविद्यालयों में बाल साहित्य पर शोधकार्य चल रहा है।
हिन्दी बालसाहित्य के लिए यद्यपि यह बड़ी चिन्तनीय बात है कि बच्चों के लिए कुछ गिनी-चुनी पत्रिकाएँ ही उपलब्ध है जबकि हिन्दी के विशाल क्षेत्र में बालपाठकों का बहुत बड़ा समूह उपलब्ध है। फिर भी इस बात का संतोष है कि पराग ने जिस आधुनिकताबोध के बाल साहित्य के प्रकाशन की परम्परा 1951 में शुरू की थी उसे भारत सरकार की पत्रिका बाल भारती और हिन्दुस्तान टाइम्स प्रकाशन की पत्रिका नंदन भी अब आगे बढ़ा रही हैं। ग्रामोफोन में रिकॉर्ड में फँसी सुई से निकलकर नंदन इन दिनों आधुनिक बच्चों की रुचि के अधिक अनुकूल प्रकाशित हो रही है।
आज जब हिन्दी बाल साहित्य की बात वैश्विक मंच पर की जाती है तो हमें नहीं भूलना चाहिए कि सत्तर के दशक में अमर चित्रकथाओं ने धूम मचा दी थी; क्योंकि उस समय प्रवासी भारतीय चाहते थे कि उनके बच्चे भारतीय इतिहास, संस्कृति, साहित्य आदि से जुड़े रहें। लेकिन, धीरे-धीरे स्थिति में बदलाव आया। प्रवासी भारतीय बच्चों में हिन्दी की पुस्तकों के प्रति कमी आई। यह कमी स्कूलों में हिन्दी पढ़नेवाले बच्चों में भी परिलक्षित हुई। अपने एक लेख में कमलेश्वर जी ने, विदेश मंत्रालय द्वारा आयोजित प्रथम मध्य-पूर्व क्षेत्रीय हिन्दी सम्मेलन का जिक्र करते हुए उस सम्मेलन में अलधु्रवा ओमान के इंडियन स्कूल के श्याम बिहारी द्विवेदी के कथन को उद्धृत करते हुए कहा- कक्षा नौ और दस में शत-प्रतिशत अंक पाने की होड़ में छात्रों ने द्वितीय भाषा के रूप में हिन्दी के स्थान पर अब फ्रेंच या अरबी पढऩा शुरू कर दिया है... क्योंकि हिन्दी में, मुश्किल हिन्दी साहित्य पढ़ाया जाता है। कक्षा नौ की पाठ्य-पुस्तक का पहला पाठ है श्री प्रतापनारायण मिश्र जैसे विख्यात साहित्यकार की व्यंग्य रचना-दाँत जो संस्कृत के कठिन शब्दों और उद्धरणों से भरी पड़ी है। बच्चों की इसमें रुचि नहीं है।
बच्चों की बदलती मानसिकता, औद्योगिकता का उन पर प्रभाव और फिर नई सामाजिक संरचना ने जब अस्सी के दशक में यह अनिवार्य बना दिया कि घिसी-पिटी कहानियों, कविताओं आदि से मुक्त करके बच्चों को आधुनिकताबोध की रचनाएँ दी जाएँ तो लोगों को भय लगा कि हम कहीं अपने इतिहास संस्कृति या भारतीयता से उखड़ न जाएँ। लेकिन यह सोच बड़ी नकारात्मक सोच थी क्योंकि यह भी तो उचित न था कि दुनिया आगे निकल जाए और हम कूपमंडूक बने बैठे रहें। बाल साहित्य में आधुनिकता बोध की जब चर्चा की गई तो उसका तात्पर्य जहाँ वर्तमान सामाजिक संरचना और परिवेश से रहा है वहीं उस भविष्य के संदर्भ में देखती है- उस भविष्य के पार जो बेहद चुनौतियों भरा है, जिसमें संस्कृतियों और परम्पराओं के लिए चुनौतियाँ हैं जिसमें नई मान्यताएँ और जीवन-शैली पल्लवित होगी और जिसमें मानवता का स्वरूप क्या होगा इस बारे में विद्वानों और चिन्तकों में तरह-तरह की शंकाएँ हैं। हम जो भविष्य बच्चों को देनेवाले हैं, वह कैसा होगा? उसमें क्या मानवता जीवित बचेगी या दम तोड़ देगी? ये और ऐसे ही अनेक प्रश्न आज केवल भारतीय संदर्भ में ही हमारे बाल साहित्य की चिन्ता का विषय नहीं है बल्कि विश्व के संदर्भ में भी बाल साहित्य लेखकों की यह चिन्ता उनकी रचनाओं में अभिव्यक्त हो रही है क्या हिन्दी के बाल साहित्य को इन समसामयिक सरोकारों से नहीं जुडऩा चाहिए? मुझे लगता है कि इस परिप्रेक्ष्य में जब आधुनिकताबोध के बाल साहित्य की रचना की पहल की गई तो उस समय से आज तक जिस बाल साहित्यकारों ने इस वैचारिक प्रतिबद्धता के साथ बालसाहित्य लिखा उनके ही प्रयत्नों का फल है बच्चों की मानसिकता में निरन्तर बदलाव आया है और हर पीढ़ी ने बड़े होकर अपनी भावी पीढ़ी को वह सोच और वैज्ञानिक विरासत दी है जिस आधुनिकताबोध का बाल साहित्य कहा गया।
आज के बाल साहित्य की रचना से यह उपेक्षा की जाती है कि वह आज की नई संस्कृति, वैज्ञानिक दुनिया और सूचना प्रौद्योगिकी के युग में भारतीय मूल्यों की रक्षा करते हुए उन्हें उनकी आज की भाषा में उपलब्ध हो। उनकी विषय-वस्तु और कथानाक ऐसे हो जो उसे अपने में बाँध लें। इसलिए बाल साहित्य लेखकों को बच्चों के उस भविष्य को पहचानना होगा जो उन्हें चुनौतियों के रूप में मिलने वाला है। आज बालसाहित्य लेखक के चिन्तन का फलक इतना विस्तृत होना चाहिए कि वह राष्ट्रीयता और देश की सीमाओं के पार सुदूर अन्तरिक्ष तक फैला हो। आज छोटे-छोटे बच्चे अन्तरिक्ष में उड़ान की बात करते हैं विज्ञान की कथाओं में भविष्य मॉडल बनाते हैं तब हम उन्हें संस्कृतनिष्ठ शब्दों से युक्त प्रतापनारायण मिश्र का व्यंग्य निबन्ध ‘दाँत’ पढ़ाकर क्या बताना चाहते है? हमारी परम्परा, हमारा इतिहास हमें प्रेरणा दे सकता है, मूल्यों की रक्षा करना सिखा सकता हैं। किन्तु यदि वह भविष्य में अग्रसर होने की भावना को कुंठित बनाने लगे तो वह घातक हो सकता हैं ; क्योंकि हमें नहीं भूलना है कि आज बच्चे इतना सक्षम हैं कि वे आपको स्वयं नकार देंगे। आपकी और अपनी व्यवस्थाओं को रिजेक्ट कर देंगे, क्योंकि उन्हें पता है कि उन्हें क्या चाहिए। मैं यहाँ अंग्रेजी के एक बालसाहित्य आलोचक की उक्ति कहना चाहता हूँ कि आप बच्चों को कोई भी पुस्तक पढऩे के लिए बाध्य नहीं कर सकते हैं और यह भी जरूरी नहीं है कि उनके लिए लिखी गई बाल साहित्य की हर पुस्तक वे स्वीकार ही कर लें। बालसाहित्य तो वहीं है ,जिसे बच्चे पढऩा पसन्द करें, फिर चाहे वह बुनियादी तौर पर बड़ों के लिए ही क्यों न लिखा गया हो। आज विश्व बालसाहित्य के क्लेसिक्स-गुलीवर्स टेल्स, राबिसन्न क्रूसो, डेविड कॉपरफील्ड, टॉमसायर आदि बच्चों के लिए नहीं लिखे गये थे, लेकिन बच्चो ने उन्हें अपना लिया। इसलिए हिन्दी में बाल साहित्य लेखन को इस सोच से बाहर निकालना होगा कि उन्होंने जो लिखा वह ही सही बाल साहित्य है।
भारत आज विश्व के देशों के लिए एक बड़ा औज़ार बन गया है और हर दिशा में उपभोक्तावादी संस्कृति का आक्रमण हो रहा है- उसके केन्द्र में बच्चे पहले नम्बर पर है और दूसरे नम्बर पर महिलाएँ हैं। जो लोग आज की उपभोक्तावादी संस्कृति से परिचित है, वे यह जानते हैं कि इसके दूरगामी परिणाम हमारे लिए कितने घातक सिद्ध होने वाले हैं। वे हमें अपने आदर्शो, मूल्यों और अपनी ज़मीन से काटकर अलग कर देने वाले हैं। मुझे लगता है कि आज बाल साहित्यकार का दायित्व बच्चों के चारों ओर पल रही उपभोक्तावाद की विषैली अमरबेल के खतरों के प्रति सावधान करना है। आज के बाल साहित्य में युगानुरूप बदलाव अनिवार्य है। उसे, अमरबेल के खतरों के प्रति सावधान करना है। आज के बाल साहित्य में युगानुरूप बदलाव अनिवार्य है।
उसे, उपभोक्तावादी संस्कृति के मायाजाल और चमकदमक में फँसे रहे बच्चों को उससे सावधान करना है। बच्चों को आज के जीवन, समाज और संस्कृति, राजनीति, अपराध आदि वातावरण से अपरिचित न समझें। वे दरअसल आज के इस विषैले माहौल से बचने के रास्ते तलाश कर रहे हैं। उनहें तलाश है ऐसे शस्त्रों की जिनके बल पर वे भविष्य में, समाज की विकृतियों और विषैलेपन का विनाश कर सकें। कौन देगा उन्हें ये शस्त्र? यह बालसाहित्यकार ही है जो अपनी सशक्त रचनाओं से बच्चों में नई चेतना, नई स्फूर्ति ला सकता है और सूचना प्रौद्योगिकी एवं उपभोक्तावादी संस्कृति के विषैले दुष्प्रयोग के प्रति सावधान कर सकता है। हिन्दी बाल साहित्य के समक्ष आज ये चुनौतियाँ केवल भारत के स्तर पर ही नहीं बल्कि वैश्विक स्तर पर भी हमारी चिन्ता का विषय होना चाहिए।
विश्व मंच पर हिन्दी बाल साहित्य की लोकप्रियता की स्थिति भविष्य से ज्यादा गम्भीर हो सकती है ; क्योंकि धीरे-धीरे सूचना प्रौद्योगिकी का जो विकास हो रहा है वह किताब को और भी गैर-जरूरी बनाने की कोशिश कर रहा है विदेशों में नई पिढ़ी यों भी प्रौद्योगिकी की नवनीतन खोजों के प्रति आकृष्ट हो रही है और जहाँ हिन्दी में ब्लॉगिंग लेखन को विकसित किया जा रहा है, वहीं भाषायी टैक्नोलॉजी को भी बढ़ावा देने की कोशिशें हो रही है ताकि बहुद्देशीय कम्पनियों और भारत के बीच सहयोग में बढ़ोत्तरी हो सके। यों भी भाषा पढऩा विशेष रूप से साहित्यिक भाषा पढऩा और भी कम होता जा रहा है। तब हिन्दी पढऩे वालों और स्वयं हिन्दी का विदेशों में क्या हश्र होगा?
इसलिए यदि प्रवासी भारतीय बच्चों को बचपन से ही अपनी जड़ों से जोड़े रखना है, तो यह केवल बाल साहित्य के द्वारा ही संभव है और उसकी अहमियत को समझकर हिन्दी के विकास से जोड़ना होगा कि विश्वमंच पर उसकी जरूरत की पैरवी की जा सके। बाल साहित्य ही बच्चों को भारतीय भाषा, संस्कृति, इतिहास, भूगोल, त्योहार, रिश्तों से जोड़े रखने के संस्कार दे सकता है। बच्चों को यह सरल और रोचक ग्राह्य भाषा में मिलेगा तो वे उसे हृदयंगम कर लेंगे और तब वे अपनी जड़ों से भी दूर नहीं होंगे। इसी पर निर्भर करेगा- हिन्दी का भविष्य, हिन्दी समाज, हिन्दी संस्कृति और साहित्य का भविष्य।
सम्पर्क: 102 एच.आई.जी., ब्रजविहार पोस्ट- चन्द्रनगर, गाजियाबाद- 201011 (उत्तर प्रदेश)
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