एक थी बुढ़िया। उसके एक लड़का था। आंगन में पीपल का एक पेड़ था। पेड पर एक बंदरिया रहती थी। बुढ़िया और उसका बेटा दोनों खा-पीकर चैन से रहते थे।
खाते-पीते उसके सब पैसे खर्च हो गए। लड़के ने कहा, "मां! मैं कमाई करने परदेस जाऊं?"
बुढ़िया बोली, "बेटे! तुम चले जाओगे तो मैं यहां बहुत दुखी हो जाऊँगी। यह बंदरिया मुझको आराम से रोटी नहीं खाने देगी।"
बेटे ने कहा, "मां, यह बंदरिया तुम्हारा क्या बिगाड़ेगी? तुम एक लकड़ी अपने पास रखना और जब भी बंदरिया आए, तुम उसे मारना। माँ ! कुछ दिनों में तो मैं वापस आ ही जाऊँगा।" ऐसा कहकर लड़का परदेस चला गया।
माँ बूढ़ी थीं मुँह में एक भी दाँत नहीं था। कुछ भी चबा नहीं पातीथी ; इसलिए वह रोज़ खीर बनाती और ज्यों ही वह उसे थाली में ठण्डा करने रखती, पेड़ से नीचे कूदकर बंदरिया घर में पहुँच जाती। मां को धमकाकर सारी खीर खा जाती।
बुढ़िया रोज़ खीर ठण्डी करती और बंदरिया रोज़ खा जाती। बेचारी बुढ़िया रोज भूखी रहती। वह दिन-पर-दिन दुबली होती गई। आँखे गड्ऐ में धँस गईं। चेहरा उतार गया। वह सूखकर काँटा हो गई।
होते-होते एक साल पूरा हुआ और लड़का घर लौटा।
लड़के ने कहा, "मां, तुम इतनी दुबली क्यों हो गई, तुम्हें क्या हो गया है?"
माँ ने कहा, "बेटे! हुआ तो कुछ भी नहीं, लेकिन यह बंदरिया मुझे कुछ खाने ही नहीं देती। मैं रोज़ खीर ठण्डी करती हूँ और बंदरिया रोज आकर खा जाती है।"
लड़के ने कहा, "अच्छी बात है। अब कल देख लेंगे।"
सवेरे उठकर लड़के ने सारे घर में गीली मिट्टी फैला दी। सिर्फ़ रसोईघर में माँ के बैठने लायक सूखी जगह रखी।
लड़के ने आवाज लगाई:
बंदरिया, ओ बंदरिया! आओ, खीर खाने आओ!
बंदरिया तो तैयार ही बैठी थी। कूदकर अन्दर आ गई।
बंदरिया हाथ-पैर ऊँचे उठाती जाए, नाक-भौह चढ़ाती जाय और पूछती जाए, "मैं कहाँ बैठू? कहाँ बैठू?"
लड़के ने एक दहकता हुआ पत्थर दिखाकर कहा, "आओ, ओआ, बंदरिया बहन! सोने के इस पाटे पर बैठो।"
बंदरिया कूदकर आ बैठी। बैठते ही बुरी तरह जल गई। फिर "हाय, राम मैं, जली, मैं जल गई" कहती हुई भाग गई। (अनुवाद : काशीनाथ त्रिवेदी)
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