हम मछली खाकर बने बुद्धिमान
-डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन
उष्णकटिबंधीय मछली में पाए जाने वाले पौष्टिक तत्वों ने ही मानव मस्तिष्क के विकास में मदद की थी। इससे उनकी बुद्धि में इतना विकास हो गया कि वे और अधिक मात्रा में और सफलता के साथ मछलियों का शिकार करने लगे। और इस तरह मछली में पाया जाने वाला पौष्टिक तत्व मानव शिशु के मस्तिष्क और शरीर के अनुपात को बढ़ाने और उसे बरकरार रखने में काफी अहम हो गया।जीव विज्ञान की पहेलियों में यह गुत्थी हमेशा बनी रही है कि मानव मस्तिष्क का विकास इतनी तेजी से कैसे हुआ। विचारवान मनुष्य यानी होमो सेपिएन्स बनने में करीब दस लाख साल लगे होंगे। आखिर यह पता कैसे लगा? शरीर और मस्तिष्क के अनुपात की तुलना करके। आदिमानव के मस्तिष्क का आयतन जहां 600 से 800 मि.ली. था, वहीं आज के मानव के मस्तिष्क का आयतन 1250 मि.ली. है। इस तरह हमारे सबसे नजदीकी पूर्वजों या चिम्पैंजी की तुलना में हमारे मस्तिष्क के भीतर कहीं कुछ ज्यादा है। चिम्पैंजी के मस्तिष्क का आयतन 410 मि.ली. होता है।
मस्तिष्क-शरीर अनुपात
यह तो वयस्क मनुष्य के मस्तिष्क का आयतन है। यदि हम एक नवजात शिशु के मस्तिष्क और शारीरिक अनुपात की तुलना करें तो उसका परिमाण आदिमानव की प्रजातियों के मस्तिष्क और शारीरिक अनुपात से अलग नहीं होगी। एक नवजात बच्चे के मस्तिष्क का आकार उतना ही होता है, जितना कि चिम्पैंजी के मस्तिष्क का लेकिन हम मनुष्यों का मस्तिष्क जन्म के बाद काफी तेजी से बढ़ता है, जबकि अन्य प्राणियों का नहीं।तो सवाल यह है कि आखिर मनुष्य के मस्तिष्क के आकार में तेज बढ़ोतरी के पीछे मूल वजह क्या है? बीस लाख साल पहले, जब हम आदिमानव की अन्य प्रजातियों से अलग होने लगे थे, यह परिवर्तन कैसे आया? इसका उत्तर है, यह तब हुआ जब हमने मछली खाना शुरू किया था।
एक अहम शोध पत्र
डॉ. डेविड ब्राउन और उनके सहयोगियों ने हाल ही में प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज के 1 जून 2010 के अंक में प्रकाशित शोध पत्र में आदिमानव की मशहूर बसाहट के निकट मछलियों की हड्डियों के ऐतिहासिक साक्ष्य के बारे में बताया है। यह बसाहट अफ्रीका की रिफ्ट वैली में 19.5 लाख साल पहले थी। इसी क्षेत्र को मनुष्यों का उद्गम स्थल माना जाता है। मछलियों की इन हड्डियों में दांतों के जो निशान पाए गए हैं, वे मनुष्य के दांतों से मेल खाते हैं, न कि चिम्पैंजी के दांतों से।आखिर यह शोध पत्र इतना महत्वपूर्ण क्यों है? इसके लिए मैं डॉ सी. एल. ब्राडहर्स्ट, एस.सी. कुनाने और एम.ए. क्राफोर्ड के एक समीक्षा आलेख को उद्धृत कर सकता हूं जो आज से करीब 12 साल पहले ब्रिटिश जर्नल ऑफ न्यूट्रिशन में प्रकाशित हुआ था। यह ऐसी समीक्षा है जो हमें शरलॉक होम्स के तर्कों की याद दिलाती है।
उनकी परिकल्पना है कि पूर्वी अफ्रीकी रिफ्ट वैली के विशिष्ट भूगर्भीय और इकॉलॉजिकल परिवेश ने मानव मस्तिष्क के आकार को बढ़ाने के लिए पौष्टिक संसाधन प्रदान किए थे।
वे पूछते हैं, 'युगांतरकारी इतिहास के इतने छोटे-से हिस्से में ही हमारी बौद्धिक क्षमता का विकास कैसे हो गया? हालांकि मानव के विकास में कई अन्य कारकों जैसे शारीरिक, दो पैरों पर चलना, बोलना, पारिस्थितिकीय, शाकाहारी व मांसाहारी दोनों तरह के खाद्य पदार्थों का सेवन, शुष्क वातावरण के प्रति स्वयं को अनुकूल बनाना, सांस्कृतिक अनुकूलन, औजारों का इस्तेमाल करना, समूहों में रहना, वगैरह की भूमिका रही है, लेकिन इनका उस बौद्धिक क्षमता और संस्कृति के विकास में कोई विशेष योगदान नहीं रहा है, जो आज के मनुष्य में मौजूद है। यदि बात इतनी ही होती तो हमें पूछना होगा कि अन्य प्राणी इस तरह से विकसित क्यों नहीं हो पाए।'
इस सवाल का जवाब है कि आदिमानव ने मछलियों को पकड़कर या ढूंढकर उसे अपने भोजन का हिस्सा बना लिया। उष्णकटिबंधीय मछली में पाए जाने वाले पौष्टिक तत्वों ने ही मानव मस्तिष्क के विकास में मदद की थी। इससे उनकी बुद्धि में इतना विकास हो गया कि वे और अधिक मात्रा में और सफलता के साथ मछलियों का शिकार करने लगे। और इस तरह मछली में पाया जाने वाला पौष्टिक तत्व मानव शिशु के मस्तिष्क और शरीर के अनुपात को बढ़ाने और उसे बरकरार रखने में काफी अहम हो गया।
गौरतलब बात यह है कि चिम्पैंजी या गोरिल्ला जैसे वानर लगभग शाकाहारी होते हैं। कभी-कभार कीड़े-मकोड़े, छोटे जानवरों या कछुओं के अलावा वे शाक-पत्तियों पर ही निर्भर होते हैं। यह भी गौरतलब है कि मस्तिष्क के विकास के लिए सभी अहम पोषक तत्व मछली में होते हैं। मनुष्य का मस्तिष्क तैलीय होता है जिसमें प्रति किलो 600 ग्राम वसा होती है। साथ ही वसा अम्ल होते हैं। जैसे एरेकडोनिक एसिड, डोकोसाहेक्सेनोइक एसिड (डीएचए) जिनका निर्माण हमारे शरीर में नहीं होता है। इस तरह ये बाहर से लिए जाने वाले अनिवार्य पोषक तत्व हैं और मछलियों में बड़ी मात्रा में पाए जाते हैं।
तो सवाल यह है कि शाकाहारी जीव ऐसी अनिवार्य वसा कहां से हासिल करते हैं? हरी सब्जियों, अखरोट, मूंगफल्ली, तिल, सरसों, कपास, सूरजमुखी और तेल के अन्य स्रोतों से। यही वजह है कि आज के आहार विशेषज्ञ वनस्पति घी या ट्रांस-फैट के बजाय बहुअसंतृप्त वसा (पीयूएफए) लेने की सलाह देते हैं।
यह बात भी ध्यान में रखी जानी चाहिए कि मांस प्रोटीन से भरपूर होता है। मांस में वसा जरूर होती है, लेकिन उसमें वह वसा नहीं होती जो मस्तिष्क के लिए जरूरी होती है। जैसा कि मेरी पोती किमाया कहती है, यह 'बॉडी फूड' होता है, जबकि अखरोट-बादाम, मछली या हरी सब्जियां 'ब्रेन फूड' होते हैं। इस तरह मछली खाने का मौका मिलने पर आसपास के अन्य शाकाहारी जानवरों की तुलना में आदिमानव की तो मानो लाटरी खुल गई।
परिवेश क्या था? यह मानव सभ्यता का पलना था, यानी पूर्वी अफ्रीकी रिफ्ट वैली। करीब 1.4 और 1.9 करोड़ साल पहले हुए भौगोलिक और पर्यावरणीय बदलावों की वजह से मायोसिन काल की समाप्ति के आसपास अफ्रीका ठंडा और सूखा हो चुका था। मलावी, तंजानिका और विक्टोरिया झीलों के क्षेत्र जिंदगी के फलते-फूलते क्षेत्र बन चुके थे। भू-वैज्ञानिक इन्हें 'विफल महासागर' कहते हैं और फिर जब जंगल बंजर भूमि में बदलते गए तो पेड़ों पर चढऩे वाले चौपाए प्राणियों का दो पैरों के प्राणियों में रूपांतरण होता गया।
भोजन का स्रोत मूलत: हरी-भरी वनस्पति थी और पानी झीलों से मिलता था। ऐसी ही क्षारीय और खारी झीलों में मछलियां पैदा हुईं और उनका विस्तार हुआ। मछलियों को पकडऩे के लिए किसी तकनीक (जैसे जाल या बंशी) की जरूरत नहीं पड़ती थी। वे उन्हें हाथों से ही पकड़ लेते थे। यह वह 'ब्रेन फूड' है जिसकी पूर्ति उष्णकटिबंधीय ताजे जल की मछलियों और घोंघों ने उस समय के आदिमानव के लिए की। यह अपने आसपास के प्राणियों की जिंदगी को किसी परिवेश द्वारा ढालने का एक बहुत ही शानदार उदाहरण है। और इस तरह मनुष्य बुद्धिमान और समझदार प्राणी के रूप में उभरा। (स्रोत फीचर्स)
No comments:
Post a Comment