ब्रह्मराक्षस का शिष्य
- गजानन माधव 'मुक्तिबोध'
सड़कपर दोपहर के दो बजे, एक देहाती लड़का, भूखा- प्यासा अपने सूखे होठों पर जीभ फेरता हुआ, उसी बगल वाले ऊंचे सेमल के वृक्ष के नीचे बैठा हुआ था। हवा के झोकों से, फूलों का रेशमी कपास हवा में तैरता हुआ, दूर- दूर तक और इधर- उधर बिखर रहा था। उसके माथे पर फिक्रें गुंथ- बिंध रही थीं। उसने पास में पड़ी हुई एक मोटी ईंट सिरहाने रखी और पेड़- तले लेट गया।
वह चमत्कार उसे प्रभावित नहीं कर रहा था, जो उसने हाल-हाल में देखा। तीन कमरे पार करता हुआ वह विशाल वज्रबाहु हाथ उसकी आंखों के सामने फिर से खिंच जाता। उस हाथ की पवित्रता ही उसके खयाल में आती किन्तु वह चमत्कार, चमत्कार के रूप में उसे प्रभावित नहीं करता था। उस चमत्कार के पीछे ऐसा कुछ है, जिसमें वह घुल रहा है, लगातार घुलता जा रहा है। वह 'कुछÓ क्या एक महापण्डित की जिन्दगी का सत्य नहीं है? नहीं, वही है! वही है!!
पांचवी मंजिल से चौथी मंजिल पर उतरते हुए, ब्रह्मचारी विद्यार्थी, उस प्राचीन भव्य भवन की सूनी- सूनी सीढिय़ों पर यह श्लोक गाने लगता है।
मेघैर्मेदुरमम्बरं वनभुव: श्यामास्तमालद्रुमै:
नक्तं भीरूरयं त्वमेव तदिमं राधे गृहं प्रापय।
इत्थं नंदनिदेशतश्चलितयो: प्रत्यध्वकुंजद्रुमं,
राधामाधवयोर्जयन्ति यमुनाकूले रह: केलय:।
इस भवन से ठीक बारह वर्ष के बाद यह विद्यार्थी बाहर निकला है। उसके गुरू ने जाते समय, राधा- माधव की यमुना- कूल- क्रीड़ा में घर भूली हुई राधा को बुला रहे नन्द के भाव प्रकट किये हैं। गुरू ने एक साथ श्रृंगार और वात्सल्य का बोध विद्यार्थी को करवाया। विद्याध्ययन के बाद, अब उसे पिता के चरण छूना है। पिताजी! पिताजी! मां! मां! यह ध्वनि उसके हृदय से फूट निकली।
किन्तु ज्यों- ज्यों वह छन्द सूने भवन में गूंजता, घूमता गया त्यों- त्यों विद्यार्थी के हृदय में अपने गुरू की तसवीर और भी तीव्रता से चमकने लगी।
भाग्यवान है वह जिसे ऐसा गुरू मिले!
जब वह चिडिय़ों के घोंसलों और बर्रों के छत्तों- भरे सूने ऊंचे सिंह- द्वार के बाहर निकला तो यकायक राह से गुजरते हुए लोग भूत- भूत कह कर भाग खड़े हुए। आज तक उस भवन में कोई नहीं गया था। लोगों की धारणा थी कि वहां एक ब्रह्मराक्षस रहता है।
बारह साल और कुछ दिन पहले-
सड़कपर दोपहर के दो बजे, एक देहाती लड़का, भूखा- प्यासा अपने सूखे होठों पर जीभ फेरता हुआ, उसी बगल वाले ऊंचे सेमल के वृक्ष के नीचे बैठा हुआ था। हवा के झोकों से, फूलों का रेशमी कपास हवा में तैरता हुआ, दूर- दूर तक और इधर- उधर बिखर रहा था। उसके माथे पर फिक्रें गुंथ- बिंध रही थीं। उसने पास में पड़ी हुई एक मोटी ईंट सिरहाने रखी और पेड़- तले लेट गया।
धीरे- धीरे, उसकी विचार- मग्नता को तोड़ते हुए कान के पास उसे कुछ फुसफुसाहट सुनाई दी। उसने ध्यान से सुनने की कोशिश की। वे कौन थे?
उनमें से एक कह रहा था, अरे, वह भट्ट। नितान्त मूर्ख है और दम्भी भी। मैंने जब उसे ईशावास्योपनिषद् की कुछ पंक्तियों का अर्थ पूछा, तो वह बौखला उठा। इस काशी में कैसे- कैसे दम्भी इकठ्ठे हुए हैं?
वार्तालाप सुनकर वह लेटा हुआ लड़का खट से उठ बैठा। उसका चेहरा धूल और पसीने से म्लान और मलिन हो गया था, भूख और प्यास से निर्जीव।
वह एकदम, बात करने वालों के पास खड़ा हुआ। हाथ जोड़े, माथा जमीन पर टेका। चेहरे पर आश्चर्य और प्रार्थना के दयनीय भाव! कहने लगा, हे विद्वानों! मैं मूर्ख हूं। अनपढ़ देहाती हूं किन्तु ज्ञान- प्राप्ति की महत्वाकांक्षा रखता हूं। हे महाभागो! आप विद्यार्थी प्रतीत होते हैं। मुझे विद्वान गुरू के घर की राह बताओ।
पेड़- तले बैठे हुए दो बटुक विद्यार्थी उस देहाती को देखकर हंसने लगे; पूछा -
कहां से आया है?
दक्षिण के एक देहात से! ...पढऩे- लिखने से मैंने बैर किया तो विद्वान पिताजी ने घर से निकाल दिया। तब मैंने पक्का निश्चय कर लिया कि काशी जाकर विद्याध्ययन करूंगा। जंगल- जंगल घूमता, राह पूछता, मैं आज ही काशी पहुंचा हूं। कृपा करके गुरू का दर्शन करवाइए।
अब दोनों विद्यार्थी जोर- जोर से हंसने लगे। उनमें- से एक, जो विदूषक था, कहने लगा-
देख बे सामने सिंहद्वार है। उसमें घुस जा, तुझे गुरू मिल जायेगा। कह कर वह ठठाकर हंस पड़ा।
आशा न थी कि गुरू बिलकुल सामने ही है। देहाती लड़के ने अपना डेरा- डण्डा संभाला और बिना प्रणाम किये तेजी से कदम बढ़ाता हुआ भवन में दाखिल हो गया।
दूसरे बटुक ने पहले से पूछा, तुमने अच्छा किया उसे वहां भेज कर? उसके हृदय में खेद था और पाप की भावना।
पहला बटुक चुप था। उसने अपने किये पर खिन्न होकर सिर्फ इतना ही कहा, आखिर ब्रह्मराक्षस का रहस्य भी तो मालूम हो।
सिंहद्वार की लाल- लाल बर्रें गूं- गूं करती उसे चारों ओर से काटने के लिए दौड़ी; लेकिन ज्यों ही उसने उसे पार कर लिया तो सूरज की धूप में चमकने वाली भूरी घास से भरे, विशाल, सूने आंगन के आस- पास, चारों ओर उसे बरामदे दिखाई दिये- विशाल, भव्य और सूने बरामदे जिनकी छतों में फानूस लटक रहे थे। लगता था कि जैसे अभी- अभी उन्हें कोई साफ करके गया हो! लेकिन वहां कोई नहीं था।
आंगन से दीखने वाली तीसरी मंजिल की छज्जे वाली मुंडेर पर एक बिल्ली सावधानी से चलती हुई दिखाई दे रही थी। उसे एक जीना भी दिखाई दिया, लम्बा- चौड़ा, साफ- सुथरा। उसकी सीढिय़ां ताजे गोबर से पुती हुई थीं। उसकी महक नाक में घुस रही थी। सीढिय़ों पर उसके चलने की आवाज गूंजती; पर कहीं, कुछ नहीं!
वह आगे- आगे चढ़ता- बढ़ता गया। दूसरी मंजिल के छज्जे मिले जो बीच के आंगन के चारों ओर फैले हुए थे। उनमें सफेद चादर लगी गद्दियां दूर- दूर तक बिछी हुई थीं। एक ओर मृदंग, तबला, सितार आदि अनेक वाद्य- यन्त्र करीने से रखे हुए थे। रंग-बिरंगे फानूस लटक रहे थे और कहीं अगरबत्तियां जल रही थीं।
इतनी प्रबन्ध- व्यवस्था के बाद भी उसे कहीं मनुष्य के दर्शन नहीं हुए। और न कोई पैरों की आवाजें सुनाई दीं, सिवाय अपनी पग- ध्वनि के। उसने सोचा शायद ऊपर कोई होगा।
उसने तीसरी मंजिल पर जाकर देखा। फिर वही सफेद- सफेद गद्दियां, फिर वही फानूस, फिर वही अगरबत्तियां। वही खाली-खालीपन, वही सूनापन, वही विशालता, वही भव्यता और वही मनुष्य- हीनता।
अब उस देहाती के दिल में से आह निकली। यह क्या? वह कहां फंस गया; लेकिन इतनी व्यवस्था है तो कहीं कोई और जरूर होगा। इस खयाल से उसका डर कम हुआ और वह बरामदे में से गुजरता हुआ अगले जीने पर चढऩे लगा।
इन बरामदों में कोई सजावट नहीं थी। सिर्फ दरियां बिछी हुई थीं। कुछ तैल- चित्र टंगे थे। खिड़कियां खुली हुई थीं जिनमें- से सूरज की पीली किरणें आ रही थीं। दूर ही से खिड़की के बाहर जो नजर जाती तो बाहर का हरा- भरा ऊंचा- नीचा, ताल- तलैयों, पेड़ों- पहाड़ों वाला नजारा देखकर पता चलता कि यह मंजिल कितनी ऊंची है और कितनी निर्जन।
अब वह देहाती लड़का भयभीत हो गया। यह विशालता और निर्जनता उसे आतंकित करने लगी। वह डरने लगा। लेकिन वह इतना ऊपर आ गया था कि नीचे देखने ही से आंखों में चक्कर आ जाता। उसने ऊपर देखा तो सिर्फ एक ही मंजिल शेष थी। उसने अगले जीने से ऊपर की मंजिल चढऩा तय किया।
डण्डा कन्धे पर रखे और गठरी खोंसे वह लड़का धीरे- धीरे अगली मंजिल का जीना चढऩे लगा। उसके पैरों की आवाज उसी से जाने क्या फुसलाती और उसकी रीढ़ की हड्डी में- से सर्द संवेदनाएं गुजरने लगतीं।
जीना खत्म हुआ तो फिर एक भव्य बरामदा मिला, लिपा- पुता और अगरू- गन्ध से महकता हुआ। सभी ओर मृगासन, व्याघ्रासन बिछे हुए। एक ओर योजनों विस्तार- दृश्य देखती, खिड़की के पास देव- पूजा में संलग्न- मन मुंदी आंखों वाले ऋषि- मनीषि कश्मीर की कीमती शाल ओढ़े ध्यानस्थ बैठे।
लड़के को हर्ष हुआ। उसने दरवाजे पर मत्था टेका। आनन्द के आंसू आंखों में खिल उठे। उसे स्वर्ग मिल गया।
ध्यान- मुद्रा भंग नहीं हुई तो मन- ही- मन माने हुए गुरू को प्रणाम कर लड़का जीने की सर्वोच्च सीढ़ी पर लेट गया। तुरन्त ही उसे नींद आ गयी। वह गहरे सपनों में खो गया। थकित शरीर और सन्तुष्ट मन ने उसकी इच्छाओं को मूर्त- रूप दिया। ..वह विद्वान बन कर देहात में अपने पिता के पास वापस पहुंच गया है। उनके चरणों को पकड़े, उन्हें अपने आंसुओं से तर कर रहा है और आर्द्र-हृदय हो कर कह रहा है, पिताजी! मैं विद्वान बन कर आ गया, मुझे और सिखाइए। मुझे राह बताइए। पिताजी! पिताजी! और मां आंचल से अपनी आंखें पोंछती हुई, पुत्र के ज्ञान- गौरव से भर कर, उसे अपने हाथ से खींचती हुई गोद में भर रही है। साश्रुमुख पिता का वात्सल्य- भरा हाथ उसके शीश पर आशीर्वाद का छत्र बन कर फैला हुआ है।
वह देहाती लड़का चल पड़ा और देखा कि उस तेजस्वी ब्राह्मण का दैदिप्यमान चेहरा, जो अभी- अभी मृदु और कोमल होकर उस पर किरणें बिखेर रहा था, कठोर और अजनबी होता जा रहा है।
ब्राह्मण ने कठोर होकर कहा, तुमने यहां आने का कैसे साहस किया? यहां कैसे आये?
लड़का आतंकित हो गया। मुंह से कोई बात नहीं निकली।
ब्राह्मण गरजा, कैसे आए? क्यों आए?
लड़के ने मत्था टेका, भगवन! मैं मूढ़ हूं, निरक्षर हूं, ज्ञानार्जन करने के लिए आया हूं।
ब्राह्मण कुछ हंसा। उसकी आवाज धीमी हो गयी किन्तु दृढ़ता वही रही। सूखापन और कठोरता वही।
तूने निश्चय कर लिया है?
जी!
नहीं, तुझे निश्चय की आदत नहीं है। एक बार और सोच ले! ...जा फिलहाल नहा-धो उस कमरे में, वहां जा और भोजन कर लेट, सोच-विचार! कल मुझ से मिलना।
दूसरे दिन प्रत्युष काल में लड़का गुरू से पूर्व जागृत हुआ। नहाया-धोया। गुरू की पूजा की थाली सजायी और आज्ञाकारी शिष्य की भांति आदेश की प्रतीक्षा करने लगा। उसके शरीर में अब एक नयी चेतना आ गयी थी। नेत्र प्रकाशमान थे।
विशालबाहु, पृथु-वक्ष तेजस्वी ललाटवाले अपने गुरू की चर्या देखकर लड़का भावुक रूप से मुग्ध हो गया था। वह छोटे-से-छोटा होना चाहता था कि जिससे लालची चींटी की भांति जमीन पर पड़ा, मिट्टी में मिला, ज्ञान की शक्कर का एक-एक कण साफ देख सके और तुरंत पकड़ सके!
गुरू ने संशयपूर्ण दृष्टि से देख उसे डपट कर पूछा, सोच-विचार लिया?
जी! की डरी हुई आवाज!
कुछ सोच कर गुरू ने कहा, नहीं, तुझे निश्चय करने की आदत नहीं है। एक बार पढ़ाई शुरू करने पर तुम बारह वर्ष तक फिर यहां से निकल नहीं सकते।
सोच-विचार लो। अच्छा, मेरे साथ एक बजे भोजन करना, अलग नहीं!
और गुरू व्याघ्रासन पर बैठकर पूजा-अर्चना में लीन हो गये। इस प्रकार दो दिन और बीत गये। लड़के ने अपना एक कार्यक्रम बना लिया था, जिसके अनुसार वह काम करता रहा। उसे प्रतीत हुआ कि गुरू उससे सन्तुष्ट हैं।
एक दिन गुरू ने पूछा, तुमने तय कर लिया है कि बारह वर्ष तक तुम इस भवन के बाहर पग नहीं रखोगे?
नतमस्तक हो कर लड़के ने कहा, जी!
गुरू को थोड़ी हंसी आयी, शायद उसकी मूर्खता पर या अपनी मूर्खता पर, कहा नहीं जा सकता। उन्हें लगा कि क्या इस निरे निरक्षर के आंखें नहीं है? क्या यहां का वातावरण सचमुच अच्छा मालूम होता है? उन्होंने अपने शिष्य के मुख का ध्यान से अवलोकन किया।
एक सीधा, भोला-भाला निरक्षर बालमुख! चेहरे पर निष्कपट, निश्छल ज्योति!
अपने चेहरे पर गुरू की गड़ी हुई दृष्टि से किंचित विचलित होकर शिष्य ने अपनी निरक्षर बुद्धिवाला मस्तक और नीचा कर लिया।
गुरू का हृदय पिघला! उन्होंने दिल दहलाने वाली आवाज से, जो काफी धीमी थी, कहा, देख! बारह वर्ष के भीतर तू वेद, संगीत, शास्त्र, पुराण, आयुर्वेद, साहित्य, गणित आदि- आदि समस्त शास्त्र और कलाओं में पारंगत हो जाएगा। केवल भवन त्याग कर तुझे बाहर जाने की अनुज्ञा नहीं मिलेगी। ला, वह आसन। वहां बैठ।
और इस प्रकार गुरू ने पूजा-पाठ के स्थान के समीप एक कुशासन पर अपने शिष्य को बैठा, परम्परा के अनुसार पहले शब्द-रूपावली से उसका विद्याध्ययन प्रारम्भ कराया।
गुरू ने मृदुता ने कहा, बोलो बेटे
राम:, रामौ, रामा: - प्रथमा
रामम्, रामौ, रामान्- द्वितीया।
और इस बाल-विद्यार्थी की अस्फुट हृदय की वाणी उस भयानक नि:संग, शून्य, निर्जन, वीरान भवन में गूंज-गूंज उठती।
सारा भवन गाने लगा
राम: रामौ रामा: प्रथमा!
धीरे- धीरे उसका अध्ययन सिद्धान्तकौमुदी तक आया और फिर अनेक विद्याओं को आत्मसात् कर, वर्ष एक के बाद एक बीतने लगे। नियमित आहार- विहार और संयम के फलस्वरूप विद्यार्थी की देह पुष्ट हो गयी और आंखों में नवीन तारूण्य की चमक प्रस्फुटित हो उठी। लड़का, जो देहाती था अब गुरू से संस्कृत में वार्तालाप भी
करने लगा।
केवल एक ही बात वह आज तक नहीं जान सका। उसने कभी जानने का प्रयत्न नहीं किया। वह यह कि इस भव्य- भवन में गुरू के समीप इस छोटी- सी दुनिया में यदि और कोई व्यक्ति नहीं है तो सारा मामला चलता कैसे है? निश्चित समय पर दोनों गुरू-शिष्य भोजन करते। सुव्यवस्थित रूप से उन्हें सादा किन्तु सुचारू भोजन मिलता। इस आठवीं मंजिल से उतर सातवीं मंजिल तक उनमें से कोई कभी नहीं गया। दोनों भोजन के समय अनेक विवादग्रस्त प्रश्नों पर चर्चा करते। यहां इस आठवीं मंजिल पर एक नयी दुनिया बस गयी।
जब गुरू उसे कोई छन्द सिखलाते और जब विद्यार्थी मन्दाक्रान्ता या शार्दूलविक्रीडि़त गाने लगता तो एकाएक उस भवन में हलके-हलके मृदंग और वीणा बज उठती और वीरान, निर्जन, शून्य भवन वह छन्द गा उठता।
एक दिन गुरू ने शिष्य से कहा, बेटा! आज से तेरा अध्ययन समाप्त हो गया है। आज ही तुझे घर जाना है। आज बारहवें वर्ष की अन्तिम तिथि है। स्नान- सन्ध्यादि से निवृत्त हो कर आओ और अपना अन्तिम पाठ लो।
पाठ के समय गुरू और शिष्य दोनों उदास थे। दोनों गम्भीर। उनका हृदय भर रहा था। पाठ के अनन्तर यथाविधि भोजन के लिए बैठे।
दूसरे कक्ष में वे भोजन के लिए बैठे थे। गुरू और शिष्य दोनों अपनी अन्तिम बातचीत के लिए स्वयं को तैयार करते हुए कौर मुंह में डालने ही वाले थे कि गुरू ने कहा, बेटे, खिचड़ी में घी नहीं डाला है?
शिष्य उठने ही वाला था कि गुरू ने कहा, नहीं, नहीं, उठो मत! और उन्होंने अपना हाथ इतना बढ़ा दिया कि वह कक्ष पार जाता हुआ, अन्य कक्ष में प्रवेश कर एक क्षण के भीतर, घी की चमचमाती लुटिया लेकर शिष्य की खिचड़ी में घी उड़ेलने लगा। शिष्य कांप कर स्तम्भित रह गया। वह गुरू के कोमल वृद्ध मुख को कठोरता से देखने लगा कि यह कौन है? मानव है या दानव? उसने आज तक गुरू के व्यवहार में कोई अप्राकृतिक चमत्कार नहीं देखा था। वह भयभीत, स्तम्भित रह गया।
गुरू ने दु:खपूर्ण कोमलता से कहा, शिष्य! स्पष्ट कर दूं कि मैं ब्रह्मराक्षस हूं किन्तु फिर भी तुम्हारा गुरू हूं। मुझे तुम्हारा स्नेह चाहिए। अपने मानव- जीवन में मैंने विश्व की समस्त विद्या को मथ डाला किन्तु दुर्भाग्य से कोई योग्य शिष्य न मिल पाया कि जिसे मैं समस्त ज्ञान दे पाता। इसीलिए मेरी आत्मा इस संसार में अटकी रह गयी और मैं ब्रह्मराक्षस के रूप में यहां विराजमान रहा।
तुम आये, मैंने तुम्हें बार- बार कहा, लौट जाओ। कदाचित् तुममें ज्ञान के लिए आवश्यक श्रम और संयम न हो किन्तु मैंने तुम्हारी जीवन- गाथा सुनी। विद्या से वैर रखने के कारण, पिता-द्वारा अनेक ताडऩाओं के बावजूद तुम गंवार रहे और बाद में माता-पिता द्वारा निकाल दिये जाने पर तुम्हारे व्यथित अहंकार ने तुम्हें ज्ञान- लोक का पथ खोज निकालने की ओर प्रवृत्त किया। मैं प्रवृत्तिवादी हूं, साधु नहीं। सैंकड़ों मील जंगल की बाधाएं पार कर तुम काशी आये। तुम्हारे चेहरे पर जिज्ञासा का आलोक था। मैंने अज्ञान से तुम्हारी मुक्ति की। तुमने मेरा ज्ञान प्राप्त कर मेरी आत्मा को मुक्ति दिला दी। ज्ञान का पाया हुआ उत्तरदायित्व मैंने पूरा किया। अब मेरा यह उत्तरदायित्व तुम पर आ गया है। जब तक मेरा दिया तुम किसी और को न दोगे तब तक तुम्हारी मुक्ति नहीं।
शिष्य, आओ, मुझे विदा दो।
अपने पिताजी और मांजी को प्रणाम कहना। शिष्य ने साश्रुमुख ज्यों ही चरणों पर मस्तक रखा आशीर्वाद का अन्तिम कर- स्पर्श पाया और ज्यों ही सिर ऊपर उठाया तो वहां से वह ब्रह्मराक्षस तिरोधान हो गया।
वह भयानक वीरान, निर्जन बरामदा सूना था। शिष्य ने ब्रह्मराक्षस गुरू का व्याघ्रासन लिया और उनका सिखाया पाठ मन ही मन गुनगुनाते हुए आगे बढ़ गया।
मुक्तिबोध की यह कहानी
इस स्तंभ के अंतर्गत आप मुंशी प्रेमचंद की कहानी 'ठाकुर का कुआं' पढ़ चुके हैं। दूसरे क्रम में गजानन माधव मुक्तिबोध की अत्यंत चर्चित और अविस्मणीय कहानी 'ब्रह्मराक्षस का शिष्य' दे रहे हैं। मुक्तिबोध की यह कहानी 1957 में नया खून में प्रकाशित हुई थी। तब से लेकर अब तक इस कहानी पर लगातार चर्चा हुई है। इस कहानी में फंतासी का प्रयोग युगांतकारी कवि कथाकार मुक्तिबोध ने खूबी के साथ किया है। ब्रह्मराक्षस का शिष्य में ही नहीं, उनकी लगभग अधिकांश कहानियों में उनकी महान कविताओं का अक्स उभर आता है। 'अंधेरे में' उनकी प्रसिद्ध कविता है, इसी शीर्षक से उनकी चर्चित कहानी भी है। हिन्दी, संस्कृत एवं उर्दू की काव्य पंक्तियों का प्रयोग मुक्तिबोधजी ने अपनी कथाओं में खूब किया है। मध्यकालीन कवियों तुलसी और कबीर पर मुक्तिबोध ने शोधपरक लेखन के साथ समकालीन कवियों पर भी उन्होंने बेहद उदारतापूर्वक लिखा है।
उनकी कहानियों में कविता का आस्वाद हमें मिलता है। ठीक उसी तरह उनकी कविताओं में कथा और उप- कथाओं का सम्मोहक सिलसिला लगातार आगे बढ़ता है। उनकी सुदीर्घ और लंबी कविताओं में हम कहानियों का रस भी पाते हैं। 'ब्रह्मराक्षस का शिष्य' मध्यमवर्गीय समाज के संघर्षों की अनोखी कहानी है। मुक्तिबोध ने लिखा है, 'हम केवल साहित्यिक दुनिया में ही नहीं, वास्तविक दुनिया में रहते हैं, इस जगत में रहते हैं।' प्रखर माक्र्सवादी रचनाकार गजानन मुक्तिबोध ने इस संसार में रहने वालों के बारे में अपनी आस्था और दृष्टि के परिप्रेक्ष्य में जो कुछ लिखा वह युगांतरकारी सिद्ध हुआ। लगातार मुक्तिबोध जी का साहित्य खंगाला जा रहा है। संभवत: वे हिन्दी संसार के आधुनिक काल के सर्वाधिक चर्चित एवं सम्मानित शब्द साधक के रूप में सर्वप्रिय हैं और उनकी स्वीकृति दिनों- दिन बढ़ती ही जा रही है।
उन्हें मात्र 47 वर्षों का छोटा सा जीवन मिला। इसी जीवन काल के कुल 25-30 वर्षों का उपयोग उन्होंने लगातार लेखन के लिए किया। वे पल- प्रतिपल, सांस- सांस में संघर्षों और चुनौतियों को महसूस करते हुए जीते और लिखते रहे। 'ये गुएवारा' ने ठीक ही लिखा है- 'एक क्रांतिकारी चेतना वाले मनुष्य की नियति एक साथ बेहद गौरवशाली और यंत्रणादायिनी भी होती है।'
1917 में श्योपुर (ग्वालियर) में जन्मे मुक्तिबोध जी ने अपने जीवन के अत्यंत महत्वपूर्ण सृजनात्मक वर्षों को राजनांदगांव छत्तीसगढ़ में बिताया। वे 1964 में दिवंगत हुए। इस महान कवि का समस्त गद्य लगभग 1700 पृष्ठों में फैला है। प्रस्तुत है उनकी यह प्रसिद्ध कहानी 'ब्रह्मराक्षस का शिष्य'
संयोजक- डॉ. परदेशीराम वर्मा , एल आई जी-18, आमदीनगर, भिलाई 490009, मोबाइल 9827993494
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