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Jan 1, 2022

अनकहीः ख़ुशी का ख़ज़ाना

- डॉ. रत्ना वर्मा
साईं इतना दीजिए जामे कुटुम समाय।

मैं भी भूखा ना रहूँ साधु ना भूखा जाए।।

कबीरदास जी कहते है कि हे ईश्वर आप मुझे केवल इतना दीजिए कि जिससे मेरे और मेरे परिवार का गुजर- बसर हो जाए और मेरे घर कोई साधु- संत आएतो वह भूखा न जाए। कबीरदास जी के इस दोहे के मर्म को यदि प्रत्येक इंसान समझ लेतो दुनिया कितनी सुखमय हो जाएपर ऐसी बातें सिर्फ कबीर जैसे ज्ञानी- ध्यानी ही कह पाते हैं। असल जिंदगी में तो इंसान अकूत धन- सम्पदा इकट्ठा करने में ही जीवन बिता देता हैवह तो यही सोचता है कि इतना धन इकट्ठा कर लोताकि उसकी सात पुश्तें आराम से अपनी जिंदगी गुजार सके। सात पुश्तों का तो नहीं मालूमपर यदि उसकी स्वयं की जिंदगी भी उसके अपने कमाए धन से सुख और आराम से व्यतीत हो जाएतो बड़ी बात होगी।  अकूत धनसम्पत्ति का मालिक भला चैन की नींद कहाँ सो पाता हैउसे तो दिन रात यही चिंता सताए रहती है कि अपनी इस अथाह सम्पत्ति को मैं कहाँ छिपाऊँकहाँ रखूँ कि लोगों की नजर इस पर न पड़ेकि कोई इसे लूट न ले।  इसी चिंता में उसके दिन का चैन और रात की नींद उड़ी रहती है। 

ऐसे ही एक टैक्स चोरी के मामले में गिरफ्तार कानपुरकन्नौज के इत्र कारोबारी पीयूष जैन का हाल पूरी दुनिया जान चुकी हैकि कैसे उसके घर से इनकम टैक्स के छापों के दौरान सोनाचांदी और चंदन की लकड़ी के साथ 257 करोड़ रुपये की संपत्ति बरामद की गई है। जिसे उसने अपने बेडरूम में तहखाना बनवाकर और दीवारोंसीढ़ियों में बक्से बनवाकर छिपाए थे। ये तो जाँच के शुरूआती दौर बात हैअभी न जाने इस इत्र कारोबारी ने और कहाँ- कहाँ धन छिपाकर रखा है और उसके तार दुनिया के कितने कोने और कितने लोगों से  जुड़े हुए हैंये सब अभी उजागर होना बाकी है।

दुनिया में पीयूष जैन जैसे अनगिनत लोग हैंजो सोने- चाँदी और नोटों की गड्डियों के ऊपर आराम से सोते हुए अपना जीवन गुजारना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि वे इतनी सावधानी से सबको चकमा देकर धन कुबेर बने हैं कि उनका कोई बालबाँका नहीं कर सकता। उनके अनुसार पैसे में बड़ी ताकत है।

प्रश्न जरा मनोवैज्ञानिक और संवेदना से जुड़ा हुआ है कि क्या इस प्रकार से काली कमाई का खुलासा हो जाने के बाद पीयूष जैन जैसे व्यक्तियों के मन में जरा सा भी पछतावा होता होगा ? कि लालच में आकर उसने अपनी जिंदगी को तो नरक में धकेल दिया हैबल्कि उसके बच्चे भी इससे अछूते नहीं हैं। इसी से जुड़ा एक सवाल और कि क्या ऐसे धाँधली करने वालों के मन में कहीं यह विश्वास छिपा होता है कि मेरे पास तो कुबेर का खजाना हैमेरा कोई क्या बिगाड़  लेगा। पैसे के बल पर मैं सब ठीक कर दूँगलेकिन क्या सचमुच ऐसा हो पाता हैअब तक देखा तो यही गया गया है कि इस तरह से गलत रास्ते पर चलते हुए घपला और गोलमाल करने वाले या तो भगोड़े बनकर विदेशों में अपना मुँह छिपाए जीवन गुजारते हैं या जेल की सलाखों के पीछे जीवन गुजारते हुए मर-खप जाते हैं।

अटूट सत्य यही है - कर्मों का फल एक दिन जरूर मिलता है। पिछले दो साल से कोरोना जैसी महामारी ने दुनिया की सेहत को हिलाकर रख दिया हैऔर लोग यह समझने लग गए हैं कि सेहत की नेमत ही असली जिंदगी हैबाकी जीवन तो आना जानी है।  तो फिर जोड़- तोड़ कर धन इक्ट्ठा करने और ऐशो- आराम के लिए सुख- सुविधाएँ जुटाने में अपना जीवन बर्बाद करने से तो अच्छा है कि उतना ही धन इक्ट्ठा करो जिससे जीवन सुख से गुजर जाए। उसके बाद तो खाली हाथ आए थे खाली हाथ जाना है। मिट्टी का यह तन मिट्टी में ही मिल जाना है। स्वर्ग और नरक दोनों इसी दुनिया में है। अच्छा कर्म करते हुए जीवन गुजर गयातो समझो स्वर्ग पर पीयूष जैन जैसे लोग जीते जी नरक ही भोगते हैं।

जैसा बीज बोया हैवैसा ही फल पाएगा।

मिट्टी का खिलौनामिट्टी में मिल जाएगा।

जीवन की इस सच्चाई को जानते- बूझते हुए भी इंसान धन की लालसा में भागता रहता है। जबकि वह चाहे तो अपना जीवन आराम से शांति से गुजार सकता है। ज्ञानी जनों ने कहा भी है जो सुख देने में है वह बटोरने में नहीं । हमारे आस-पास इतनी समस्याएँ हैं कि यदि हम अपना और अपने परिवार की आवश्यकता पूरा करने के बाद उसमें से कुछ हिस्सा किसी जरूरतमंदों के लिए रखेंतो जो सुख आपको अपनी भरी तिजोरियों को देखकर मिलता हैंउससे कहीं सौ गुना अधिक सुख दूसरों की जरूरत पूरी करने के बादउनके होंठों पर आई मुस्कान को देखकर मिलेगा । बस एक बार ऐसा कुछ करके तो देखिए!

दुनिया में असंख्य लोग हैंजिनके पास रहने को अपना घर नहीं हैंखाने को दो वक्त की रोटी नहीं है। तन ढकने को कपड़े नहीं हैं। वे अपने बच्चों को शिक्षा नहीं दिला सकतेक्योंकि परिवार को भरपेट खिलाना ही मुश्किल होता है। असंख्य लोग गंभीर बीमारी में इलाज के अभाव में बेवक्त मौत के मुँह में चले जाते हैं....कहने का तात्पर्य है कि अपनी तिजोरी को सोने चाँदी से भरते जाने की बजाय थोड़ा धन उन जरूरतमंदों के लिए निकालिएजो वक्त की मार से लाचार हैं। किसी एक बच्चे की शिक्षा का भार उठाइएकिसी एक भूखे  को खाना खिलाइएकिसी एक के इलाज का खर्च उठाइएठंड में ठिठुरते किसी बुजुर्ग को कंबल ओढ़ा दीजिएतपती गर्मी में नंगे पैर चलते किसी बच्चे को जूता दिलवा दीजिए... किसी बेरोजगार को काम देकर मेहनताना दे दीजिए। कुछ तो एक बार करके देखिए...फिर आपको एक ऐसी ख़ुशी का ख़ज़ाना मिल जाएगाजिसके सामने आपकी भरी तिजोरी भी बेकार लगेगी।

नये साल की पार्टी होबच्चे का जन्म दिन होचाहे शादी की सालगिरह हो हम हज़ारो- लाखों रुपये इस पर खर्च कर देते हैं। मैं यह नहीं कहती कि खुशियाँ मनाना छोड़ दीजिए। अपने तरीके से खुशियाँ मनाने का अधिकार सबको है । मैं यहाँ सिर्फ यही कहना चाहती हूँ कि अपनी खुशियों के साथ थोड़ी सी खुशीथोड़ी सी हँसी उन रोते हुए बच्चों को भी दे दीजिए,  जिनके लिए केक या मिठाई खाना किसी त्योहार से कम नहीं होगा। तो आइए सब मिलकर इस बार नए साल में कुछ नया करें। कुछ अलग हटकर करें। जश्न मनाएँ पर सुरक्षित रहते हुए। जहाँ भी जाएँ  प्यार बाँटें ताकि जो भी आपसे मिले खुश होकर एक मीठी सी मुस्कान लेकर मिले...

सुधी पाठकों को नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ...

13 comments:

नीलाम्बरा.com said...

बहुत ही प्रेरक और सामयिक आलेख। हार्दिक बधाई, शुभकामनाएँ।

नीलाम्बरा.com said...

वर्ष 2022की हार्दिक शुभकामनाएँ!

विजय जोशी said...

अटल सत्य कहा आपने। यही तो यक्ष से कहा था युधिष्ठिर ने। सब कुछ छोड़कर जाने के सत्य से वाकिफ होकर भी इंसान संग्रह की प्रवृत्ति नहीं छोड़ता। मुहाने तक जाते जाते लालसा और बढ़ती जाती है। अफ़सोस
वैसे भी हमारा देश दो चुनौतियों के मोर्चे पर पूरी तरह असफल है यानी देशभक्ति और ईमानदारी। अब इसमें दो पक्ष और जुड़ गए अर्थात अब धर्म तथा विचारधारा देश से ऊपर हो गई है। दुःख की बात
बहुत सामयिक बात उठाई है आपने। कोरोना भी फेल हो गया हमें सुधारने में।
सदा की तरह इस बार भी आपने सचाई से रूबरू कराया है। सो हार्दिक बधाई, आभार एवं शुभकामनाएं। सादर

Anima Das said...

अति महत्वपूर्ण आलेख... एक प्रेरणात्मक विचार... किंतु लोग यदि इन विचारों को अपने जीवन स्थान देते तो यह समाज यह जगत शांतिपूर्ण वातावरण में साँस लेता.... मैं आपसे सहमत हूँ आदरणीया 🌹🙏

शिवजी श्रीवास्तव said...

आज के परिप्रेक्ष्य में सम्यक चिंतन...ईशावास्योपनिषद में भी कहा गया है-'तेन त्यक्तेन भुंजीथा...'त्याग की भावना से ही भोग करना चाहिए,पर लोगों की तृष्णा कम नहीं होती।एक प्रश्न यह भी है कि इतना धन किस रास्ते से आ जाता है,निःसन्देह यह व्यवस्था का दोष है,प्रश्न और भी हैं जिन पर विचार आवश्यक है।समीचीन लेख हेतु बधाई।

http://bal-kishor.blogspot.com/ said...

रत्ना जी का सुंदर और प्रेरक आलेख,बधाई रत्ना जी।

रत्ना वर्मा said...

शुक्रिया हार्दिक आभार 🙏😊

रत्ना वर्मा said...

धन्यवाद 🌹

रत्ना वर्मा said...

साल दर साल आप स्नेहीजनों से मिलते प्रोत्साहन और सहयोग के लिए हार्दिक आभार 🙏😊

रत्ना वर्मा said...

शुक्रिया बहुत बहुत आभार 🙏😊

रत्ना वर्मा said...

आप सुधी जनों के प्रेरणादायक विचारों से सकारत्मक बदलाव की आशा जगती है सादर धन्यवाद

रत्ना वर्मा said...

आपका बहुत बहुत धन्यवाद🙏😊

Unknown said...

बहुत ही प्रेरक आलेख ।हमे सोच ने के लिए विवश करता है ।रत्ना जी को बहुत बहुत बधाई। स्मृति शुक्ल