अहल्या
- सुमन मिश्र
कल नीरव रात भयानक थी
बूँदों की टिप टिप जारी थी
कुछ स्वप्न दिखे आड़े- तिरछे
पर दृश्यों में भी खुमारी थी
मैं विहर रहा था अलकों से
झर-झर नयनों की पलकों से
कुछ स्वेद गिरे थे मेरे थे
वो दिवस श्रमिक परिचायक थे
कुछ दूर चले हम ठिठक गए
थे बंद नयन विस्फारित हुए
एक प्रस्तर नारी भ्रमित लगी
थी शिला मगर जीवंत दिखी
बरखा की बूँदों से लिपटी
पर नयन- अश्रु से भरी हुई
मैंने पूछा -क्या दु:ख तुमको
बोली -हर नारी मैं ही हूँ,
वो तो राम ने तार दिया
एक चरण अहल्या पे वार दिया
पर बोलो क्या मैं तर पाई
शक्ति बनकर भी लड़ पाई
हूँ हर रूपों में परित्यक्ता
हर युग में बची नहीं अस्मिता
है शिल्पी पुरुष हमारा भी
करता प्रहार है गढ़ने को
जब पूर्ण हुयी मेरी काया
उसकी नजरों में दर्प भरा
बोली- लगती है अब भी तो
नारी ही अहल्या घर- घर में।
E-mail- sumansrg781@gmail.com
Labels: कविता, सुमन मिश्र
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