- डॉ. कविता भट्ट
निर्द्वन्द्व मन
शान्त नील गगन
प्रेमघन-से
प्रिय छाए-घुमड़े
आँधी जग की
तेज चलती रही
मैं भी अडिग
तुम भी थे हठीले
हुए घनेरे
निशि-साँझ-सवेरे
तन यों मेरे
झरी प्रेम फुहारें
तपती धरा
अभिसिंचित हुई
उड़ी सुगंध
कुछ सोंधी-सोंधी-सी,
उन बूँदों से
है अतृप्त जीवन
अस्तु शेष हैं
पुन:-पुन: अब भी
प्रेमघन को
मन के आमंत्रण
और आशा भी-
बरसेगा अमृत
सुगन्धित हो
होगा तृप्त जीवन
खिलेगा उपवन
सम्पर्क- FDC, PMMMNMTT, द्वितीय तल, प्रशासनिक ब्लॉक-ll, हे.न.ब. गढ़वाल विश्वविद्यालय, श्रीनगर गढ़वाल उत्तराखंड- 246174
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