जब से शहर आया हूँ
हरी साड़ी में नहीं देखा धरती को
सीमेंट-कांक्रीट में लिपटी है
जींस-पेंट में इठलाती नवयौवना हो जैसे
धानी चूनर में शर्माते
बलखाते नहीं देखा धरती को
जब से शहर आया हूँ,
हरी साड़ी में नहीं देखा धरती को।
गाँव में,
ऊँचे पहाड़ से
दूर तलक हरे लिबास में दिखती वसुन्धरा।
शहर में,
आसमान का सीना चीरती इमारत से
हर ओर डामर की बेडिय़ों में कैद
देखा बेबस, दुखियारी धरती को
हँसती, फूल बरसाती नहीं देखा धरती को
जब से शहर आया हूँ
हरी साड़ी में नहीं देखा धरती को।।
बारिश की बेरुखी
और चिलचिलाती धूप में
वो बूढ़ा दरख्त सूख गया है
साखों पर बने घोंसले उजड़ गए
उजड़े घोंसलों के बाशिन्दे/ परिन्दे
नए ठिकाने/ आबाद दरख्त
की तलाश में उड़ चले
बूढ़ा दरख्त तन्हा रह गया
आँसू बहाता, चिलचिलाती धूप में।
सोच ही रहा था, इस ओर
शायद ही अब कोई लौटकर आए
तभी उसे दूर दो अक्स दिखे
कुल्हाड़ी और आरी लिये
ये वही हैं, जिन्हें कभी उसने
आशियाना बनाने के लिए लकड़ी
जीने के लिए हवा-पानी-खाना दिया
वो बूढ़ा दरख्त इसी सोच में
और सूख गया
दुनिया से 'अभी भी काम का हूँ ’ कहकर
अलविदा कह गया, चिलचिलाती धूप में।
सम्पर्क: सहायक प्राध्यापक, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल, E-mail- lokendra777@gmail.com
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