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Feb 23, 2018

धीरे- धीरे बहती एक पतली सी उथली धारा...

धीरे- धीरे बहती एक पतली सी 
उथली धारा... 
-डॉरत्ना वर्मा
 सोशल मीडिया अब विचारों के आदान-प्रदान का एक बहुत बड़ा माध्यम बन गया है। कुछ सार्थक बहस और चर्चा भी यहाँ हो जाती है। पत्रकारिता के पुराने सहयोगी निकष परमार (स्व. नारायणलाल परमार के पुत्रकी वॉल पर पिछले दिनों छत्तीसगढ़ की नदी पैरी के चित्र के साथ नदी के लेकर लिखी उनकी चार पंक्तियों ने सोचने पर मजबूर कर दिया कि हम विकास की किसी राह पर चल रहे हैं। निकष ने लिखा हैं- “पैरी नदी के बारे में ज्यादा नहीं जानता; लेकिन इससे एक भावनात्मक लगाव है; क्योंकि पापाजी के बचपन का एक हिस्सा इसके आसपास बीता। गरियाबंद में वे प्राइमरी स्कूल पढ़े और पांडुका में उन्होंने पढ़ाया। इसी दौरान उन्होंने उपन्यास लिखे। उनकी बातों में पैरी नदी का जिक्रआता था। अभी दोस्तों के साथ उधर से गुजरना हुआ। रुककर नदी में उतरे। एक पतली सी उथली धारा धीरे-धीरे बह रही थी। पानी इतना साफ कि उसके भीतर किताबें रखकर पढ़ी जा सकती थीं। नर्सरी के बच्चों को वहाँ पिकनिक पर ले जाना चाहिए उन्हें प्रकृति से प्यार हो जाएगा।
सही कहा, बच्चों को वहाँ ले जाना चाहिए। मुझे अपना बचपन याद आ रहा है- हमें स्कूल और कॉलेज से पिकनिक के लिए आस- पास के चिडिय़ाघर, संग्रहालय, कोई पुरातत्त्व- स्थल या नदी किनारे किसी बाँध पर ले जाया जाता था। प्रकृति के साथ-साथ अपनी संस्कृति को जानने- समझने का इससे अच्छा कोई माध्यम हो ही नहीं सकता। ऐसा नहीं है कि आज के बच्चों को पिकनिक पर नहीं ले जाते, ले जाते, पर आज विदेशों की सैर करवाते हैं, ट्रेकिंग पर ले जाते हैं- और इन सबके लिए पैकेज टूर बनाया जाता है। जिन अभिभावकों की ताकत उस पैकेज टूर का खर्च वहन करने की है उनके बच्चे तो विदेश तक घूम आते हैं, भले ही उन्होंने अपने शहर का संग्रहालय तक न देखा हो। जब पूरी शिक्षा व्यवस्था ने व्यवसाय का रूप ले लिया है तो बाकी चीजों के बारे में क्या कहें।
तो बात हमारी नदियों की हो रही थी। भारतीय सभ्यता का मूल हमारी नदियाँ हैं। इन जीवनदायी नदियों को हम रेगिस्तान में बदलते जा रहे हैं। नदी पहाड़, जंगल, कला- संस्कृति आदि को बचाने की बात या चिंता हमेशा ही की जाती है।  पाठ्य पुस्तकों में भी सब पढ़ाया जाता है। पर्यावरण और संस्कृति की चिंता करने वाले देश के अनेक मनीषियों ने तो इन सबके लिए अपना जीवन ही समर्पित कर दिया है। पर प्रकृति की रक्षा के लिए इतना ही प्रयास पर्याप्त नहीं है। अन्यथा हमारे पर्यावरण चिंतक यह रिपोर्ट क्यों देते कि निकट भविष्य में पीने के पानी का संकट तो आने ही वाला है, उसके साथ समूची धरती पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं।
हमारी छत्तीसगढ़ सरकार ने भी प्रयास शुरू किए हैं। ईशा फाउंडेशन के साथ मिलकर नदियों को बचाने के प्रयास की खबरें हैं। नदियों के दोनों तरफ एक किलोमीटर के दायरे में पेड़ लगाकर नदियों को बचाने की योजना है। दरअसल पेड़ लगानापेड़ों को बचाना प्रकृति को हर मुसीबत से बचाना है; क्योंकि जहाँ कभी घने जंगल थे, वे भी अब घट रहे हैं। फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार तेजी से कटते साल वनों के कारण बस्तर के जंगल का अस्तित्व संकट में है। आँकड़ों के मुताबिक 2001 में जहाँ बस्तर में 8202 वर्ग किमी क्षेत्र वनों से आच्छादित था, वहीं 2017 में यह रकबा कम होकर 4224 वर्ग किमी पर ही सिमट गया है। इतनी बड़ी संख्या में कम होते वनों का कारण अतिक्रमण, अवैध कटाई, खनन, सिंचाई परियोजनाओं के लिए उपयोग शामिल है, वहीं बढ़ती आबादी का बस्तर के साल वनों पर खासा दबाव पड़ा है। यदि यह रफ्तार जारी रही तो एक दिन आएगा कि बस्तर जो कभी घने जंगल के लिए जाना जाता था, उजाड़ और बंजर हो जाएगा।
देश के कुछ प्रदेशों में अच्छे काम होने की भी खबर है जैसे- प्रोजेक्ट ग्रीन हैंड्स के तहत बड़े पैमाने पर पेड़ लगाने का जो काम हुआ ,उससे अब तक पूरे तमिलनाडू में 3 करोड़ से ज्यादा पौधे लगाए जा चुके हैं। राजस्थान सरकार ने भी जलाशयों के आस-पास पेड़ लगाने का शानदार काम किया है ,जिसका असर भूमिगत जल के बढ़ते स्तरों के रूप में देखा जा सकता है। मध्य प्रदेश सरकार ने भी हाल ही में, नर्मदा के आस-पास पेड़ों की फसल उगाने वाले किसानों को आर्थिक सहायता देनी शुरू की है। कुछ समय पहले, उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने गंगा को एक जीवंत अस्तित्व के रूप में पहचान देते हुए उसे कानूनी अधिकार दिए हैं, और सरकार को उसकी सफाई और देख-रेख के लिए एक बोर्ड बनाने के निर्देश दिए हैं। ये सही दिशा में उठाये गए शुरुआती कदम हैं। एक नजर में प्रकृति को उजाड़ होने से बचाने का एकमात्र समाधान वृक्ष लगाना ही है। पेड़ लगेंगे तो नदियाँ बचेंगी, पहाड़ बचेंगे, धरती बचेगी।
तो जरूरत वृहद पैमाने पर कदम उठाने की है, सबको जगाने और जागने की है, सिर्फ सरकार की ओर ताकने की नहीं। छत्तीसगढ़ की पैरी नदी की एक पतली-सी उथली धारा, जो धीरे- धीरे बह रही है, को देखकर हुई चिंता को जन-जन की चिंता का विषय बनाया जाए। हम सब जिम्मेदार हैं अपनी प्रकृति की बर्बादी के लिए तो सबको मिलकर ही समाधान निकालना होगा। हमारी जीवनदायी इन नदियों पर सिर्फ कुम्भ जैसे भव्य आयोजन करके, लाखों दीप जलाकर, इनकी प्राचीनता का मात्र गुणगान करने से हम इन्हें नहीं बचा सकते। नदियों को जीवनोपयोगी बनाए रखने के लिए इनका सही तरकी से संरक्षण, संवर्धन हो ऐसा प्रयास करना होगा। नदियाँ हमारी जीवन-रेखा हैं। इनकी उपेक्षा करना जीवन की उपेक्षा करना है।                                

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