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Jun 7, 2017

उदंती.com जून - 2017

उदंती.com  जून - 2017
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पृथ्वी और आकाश, जंगल और मैदान, झीलें और नदियाँ, पहाड़ और समुद्र, ये सभी बेहतरीन शिक्षक हैं और हमें इतना कुछ सिखाते हैं जितना हम किताबों से नहीं सीख सकते.
                             - जॉन लुब्बोक


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                  पर्यावरण विशेष
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लाल बत्ती संस्कृति...

लाल बत्ती संस्कृति...

-डॉ. रत्ना वर्मा

संस्कृति किसी भी मानव सभ्यता की पहचान होती है, उसकी अमूल्य निधि होती है। जाहिर है यदि मनुष्य को बेहतर सांस्कृतिक पर्यावरण नहीं मिलेगा, तो वह एक अच्छा इंसान नहीं बन पाएगा।  जिस प्रकार मनुष्य को स्वस्थ रहने के लिए शुद्ध हवा पानी और स्वच्छ वातारवरण चाहिए बिल्कुल उसी तरह संस्कृति एक ऐसा पर्यावरण है जिसके बीच रहकर मानव एक सामाजिक प्राणी बनता है।
संस्कृति को लेकर उपरोक्त भूमिका बांधने के पीछे मेरा आशय विश्व की सबसे प्राचीनतम भारतीय संस्कृति पर चर्चा करना नहीं है, बल्कि इन दिनों देश भर में लाल बत्ती संस्कृति को लेकर हो रही चर्चा के बारे में है। केन्द्र सरकार ने वीआईपी संस्कृति को समाप्त करने के उद्देश्य से मंत्रियों और वरिष्ठ अधिकारियों की गाड़ियों पर लाल बत्ती लगाने की व्यवस्था को एक मई 2017 से समाप्त दिया है।
ज्ञात हो कि वर्ष 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को सलाह दी थी कि लाल बत्ती वाले वाहनों के दुरुपयोग को रोकने के लिए सरकार को उचित कदम उठाना चाहिए। उस समय सुनवाई कर रहे जज जीएससिंघवी और जस्टिस सी नगप्पन ने सुनवाई के दौरान सबसे पहले अपनी गाड़ी से लाल बत्ती हटा दी थी। तब कोर्ट की इस सलाह पर सरकार ने कोई निर्णय नहीं लिया था।
कुछ देर से ही सही परंतु अब केन्द्र सरकार के इस फैसले के बाद कोई मंत्री या वरिष्ठ अधिकारी लाल बत्ती का उपयोग नहीं कर सकेगा।  सरकार का यह फैसला देश से पूरी तरह से वीआईपी और वीवीआईपी संस्कृति को खत्म करने के लिए चलाया गया कदम है। इस ऐतिहासिक फैसले के पीछे जो प्रमुख कारण बताए गए हैं उसमें लाल बत्ती लगे वाहनों के गुजरने से आम रास्तों का बंद किया जाना है, जिसके चलते आम लोगों को आने जाने में होने वाली परेशानी है। बंद रास्तों के दौरान बीमार लोगों को अस्पताल पहुँचाने में देरी और रुके मार्ग के कारण गम्भीर रूप से बीमार लोगों के मरने तक की खबरें सामने आती रही हैं।
 फैसले के बाद अब लाल बत्ती वाली गाडिय़ों का उपयोग सिर्फ देश के पाँच वीवीआईपी के लिए होगा। राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायधीश और लोकसभा स्पीकर। सिर्फ आपातकालीन वाहनों एम्बुलेंस, पुलिस और अग्निशामक वाहनों पर नीली बत्ती का उपयोग किया जा सकेगा।
 एक लोकतांत्रिक देश में लाल बत्ती वाली गाड़ियों का काफिला देश के नागरिकों को दो वर्गों में विभक्त कर देता था। एक खास और एक आम। लाल बत्ती वाली गाड़ी जैसे ही सडक़ पर से गुजरती थी आम आदमी सचेत हो जाता था और यह कहते हुए ( या गाली देते हुए) वह उसके लिए रास्ता बना देता था कि किसी वीआईपी की गाड़ी जा रही है; क्योंकि आज़ादी के बाद से ही यह उसकी आदतों में शुमार हो गया है। राजा और रंक की यह संस्कृति अंग्रेज राज की देन है। अंग्रेजी राज में तो और भी बहुत कुछ होता था; पर उनके चले जाने के बाद भी जिस वीआईपी संस्कृति को हम ढोते चले आ रहे हैं उनमें से एक यह लालबत्ती-संस्कृति भी है।
किसी बड़े, सम्मानित, ज्ञानी, देश का गौरव कहलाने वाले व्यक्ति का सम्मान करना हमारी संस्कृति है, और उनके लिए हर भारतीय पलकें बिछाने को भी तैयार रहता है, परंतु उन्हीं के द्वारा एक चुना हुआ प्रतिनिधि या उन्हीं की सेवा के लिए नियुक्त एक अधिकारी अपनी गाड़ी में लाल बत्ती लगा कर अपने लिए मार्ग छोड़ने को कहते हुए शान से यूँ गुजरता है, मानों जनता उनके रहमो-करम पर जीती है । इस परिस्थिति में एक लोकतांत्रिक देश में ऐसे प्रतिनिधियों ऐसे प्रशासनिक अधिकारियों के लिए सम्मान से नहीं ; बल्कि मजबूरी में उनके लिए रास्ता बनाता है। किसी वीवीआईपी के आने से शहर के विभिन्न मार्गों में जब बैरीकेट लगा कर मार्ग अवरुद्ध किया जाता है और तब आम जनता इस गली से उस गली भटकती रहती है और उसके बाद भी अपने निर्धारित स्थान तक नहीं पहुँच पाती , तो वह वीवीआईपी के आने पर कभी खुश नहीं होता; उल्टे नाराज होता हुआ उन्हें गाली ही देता है।
 अब देखना ये है कि सरकार के इस लाल बत्ती हटाने के फैसले के बाद खुद को वीआईपी कहने वाले लोग अपनी सोच में भी बदलाव ला पाएँगे या लालबत्ती की जगह एक और नई संस्कृति चला देंगे। हम अब तक तो यही देखते आ रहे हैं कि इस देश में राजनैतिक पार्टी की सदस्यता पाते ही हर छोटा-बड़ा नेता अपने आपको वीआईपी समझने लगता है। यही नहीं पद के हटने के बाद भी अपनी गाड़ियों में पूर्व सांसद, पूर्व विधायक पूर्व जिला अध्यक्ष के नेमप्लेट का तमगा लगाए बहुत से नेता घूमते नज़र आते हैं। जब बिना सुविधा के ही लोग यहाँ फायदा उठाते नज़र आते है तो ऐसे में बाकी मिलने वाली बेवजह की वीआईपी सुविधाओं के लिए तो वे एड़ी- चोटी का जोर लगाएँगे ही। एक बार विधायक बन जाओ एक बार सांसद बन जाओ और जिंदगी भर मिलने वाली सुविधाओं का लाभ उठाओ।
 इन सबको देखते हुए सवाल यही है कि क्या सरकार उन सभी वीआाईपी सुविधाओं का खात्मा कर पाएगी, जो आम आदमी के लिए नहीं है। जैसे हवाई अड्डों और रेलवे स्टेशनों पर वीआईपीलांज, वीआईपी. अस्पताल वार्ड, हवाई और रेल आरक्षण में वीआईपी दर्जा, भारत के संसद में प्रवेश के लिए वीआईपी  प्रवेश द्वार, वीआईपी सीट, वीआईपीजैडप्लस, जैड, वाई, एक्स सुरक्षा, वीआईपी  कोटा, और भी न जाने क्या क्या.... बहुत लम्बी लिस्ट बनानी पड़ेगी। कहने का तात्पर्य यही है कि इस तरह वीआईपी सुविधाओं का भी खात्मा ज़रूरी है।
लालबत्ती गाड़ी पर प्रतिबंध लगाकर एक शुरूआत तो हो गई है; पर अभी और भी बहुत सारी वीआईपी संस्कृति का चलन बाकी है; जिन पर प्रतिबंध लगाया जाना जरूरी है।  कैबिनेट में फैसला लेने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट करते हुए कहा तो है कि सभी भारतीय स्पेशल और सभी वीआईपी है। ऐसे में अपने कथन के अनुसार या तो वे उपर्युक्त सभी सुविधाएँ आम जनता को भी उपलब्ध कराएँ या फिर ये सब विशेष सुविधा तुरंत बंद करें। जनता ने जिस उम्मीद और काम के लिए उन्हें कुर्सी पर बिठाया है, वे वही काम करें और लोगों के दिलों में वीआईपी का दर्जा पाएँ। तभी भारत सही में लोकतांत्रिक भारतीय संस्कृति के रूप में पहचाना जाएगा, अन्यथा आने वाली पीढ़ी सिर्फ इतिहास की पुस्तकों में भारतीय संस्कृति की प्राचीनता के बारे में ही पढ़ती रह जाएगी और वर्तमान संस्कृति में वह भ्रष्टाचार, आतंकवाद, नक्सलवाद, जालसाजी, घूसखोरी, करचोरी जैसी बातें ही पढ़ेगी। 

प्रकृति और पर्यावरण के तीन रंग:

                                                                                    - बाबा मायाराम

1. दयाबाई 
मिट्टी, पानी और पर्यावरण को बचाने का जतन

दयाबाई का नाम बरसों से सुन रहा था, लेकिन मुलाकात हाल ही में हुई। मामूली सी लगने वाली इस वयोवृद्ध महिला से मिला तो उसे देखता ही रह गया। सूती गुलाबी साड़ी, पोलका, गले में चाँदी की हँसली, रंग-बिरंगीगुरियों की माला। किसी सामाजिक कार्यकर्ता की ऐसी वेश-भूषा शायद ही मैंने कभी इससे पहले देखी हो।
नाम के अनुरूप ही 75 वर्षीय दयाबाई का पूरा व्यक्तित्व ही दया और करुणा से भरा है। रचनात्मक कामों के साथ वे अन्याय से लड़ने के लिए हमेशा तत्पर रहती हैं। बिना रासायनिक की जैविक खेती, पानी बचाने और वृक्षारोपण, पर्यावरण के प्रति जागरुकता जगाने, मूर्तिकला, पशुपालन, नुक्कड़ नाटक कर अलग जीवनशैली जीती हैं। और जनता में चेतना जगाने की कोशिश करती हैं।
4 मार्च को मैं अपने एक केरल के मित्र शुबू राज के साथ दयाबाई से मिलने उनके गाँव गया था। नरसिंहपुर से बस से हर्रई और वहाँ से फिर बस बदलकर बटकाखापा जाने वाली सडक़ पर बारूल गाँव पहुँचे। यह पूरा रास्ता पहाड़ और जंगल का बहुत ही मनोरम था। वे गाँव से दूर एक छोटी पहाड़ी की तलहटी में अपने खेत में ही रहती हैं। इसी पहाड़ पर उनके प्रयास से एक बाँध बना है, जिससे आसपास के प्यासे खेतों को पानी मिलता है।
दयाबाई हमें एक मिट्टी और बाँस से बने घर में ले गईं। जहाँ उन्हें मिले हुए सम्मान की ट्रॉफी रखी हुई थी। इस बाँस, मिट्टी से बने सुन्दर घर की दीवार पर संविधान की प्रस्तावना अंकित थी।
उनके साथ दो कुत्ते थे,जिनसे उन्होंने हमारा परिचय कराया। एक का नाम चंदू और दूसरे का नाम आशुतोष था। चंदू ने हमसे नमस्ते की। कुछ देर बाद एक बिल्ली आई जिसका नाम गोरी था।
वे बताती हैं कि वे पहले चर्च से जुड़ी थी। मुम्बई से सामाजिक कार्य (एमएसडब्ल्यू) की पढ़ाई की है। कानून की डिग्री भी है। उन्होंने बताया कि वे पहली बार सामाजिक कार्य की पढ़ाई के दौरान मध्य प्रदेश आईं और फिर यहीं की होकर रह गई। वे चर्च की सीमाओं से आगे काम करना चाहती थीं ; इसलिए  वे सीधे गोंड आदिवासियों के बीच काम करने लगीं। और उन्होंने अपने आपको डी-क्लास कर लिया। आदिवासियों की तरह रहीं, उन्हीं की तरह खाना खाया। उनके ही घर में रहीं और उनकी ही तरह मजदूरी भी की।
दयाबाई पहले 20 साल तक यहाँ के एक गाँव में रहीं और बाद में बारूल में 4 एकड़ जमीन खरीदकर और वहीं घर बनाकर रहने लगीं;लेकिन इलाके की समस्याओं व देश-दुनिया के छोटे-बड़े आन्दोलन से जुड़ी रहती हैं। नर्मदा बचाओ से लेकर केरल के भूमि आन्दोलन तक भागीदार रही हैं। परमाणु बिजली से लेकर पर्यावरण आन्दोलन में शिरकत कर रही हैं।
पलाश, इसे टेसू भी कहते हैं, फूल मोह रहे हैं। दयाबाई के खेत में भी हैं। अचार, सन्तरा, अमरूद, बेर जैसे फलदार पेड़ हैं तो सब्जियों की बहुतायत है। मसूर और चने की कटाई हो रही है। गोबर गैस भी है, लेकिन उसका इस्तेमाल कम होता है। चूल्हे में लकड़ियों से खाना पकता है।
दोपहर भोजन का समय हो गया है। मैंने उनके हरे-भरे खेत पर नजर डाली- सन्तरे और नींबू से लदे थे। बेर पके थे। तालाब में पानी भरा था। और सामने की पहाड़ी के पास से स्टापडेम से नहर से पानी बह रहा है। मौसम में ठंडक है।
न यहाँ बिजली है, न पंखा। न टेलीविजन की बकझक है और न कोई और तामझाम। सौर ऊर्जा से बत्तियाँ जलती हैं। दयाबाई ने बताया कि वे बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के किसी भी सामान का उपयोग नहीं करतीं। साबुन भी बिना डिटरजेंट का इस्तेमाल करती हैं। उनकी जिन्दगी सादगी से भरी हुई है।
वे पशुप्रेमी हैं। वे उनसे बातें करती हैं, उनके साथ सुख-दुख बाँटती हैं। वे उनके सहारा भी हैं। चंदू और आशुतोष के पहले उनके पास एथोस नाम का कुत्ता था, वह नहीं रहा, उसकी यादों को संजोए चंदू और आशुतोष पर प्यार लुटाती हैं।
बिना रासायनिक खाद के खेती करती हैं। वे कहती हैं यहाँ की मिट्टी पथरीली है। नीचे चट्टान-ही-चट्टान हैं। हमने मेहनत कर पानी-मिट्टी का संरक्षण किया, तब जाकर अब फसलें हो रही हैं। फसलें अच्छी होने के लिए  मिट्टी की सेहत बहुत जरूरी है। हमें मिट्टी से खाना मिलता है, उसे भी हमें जैव खाद के रूप भोजन देना है। वे कहती हैं, जो हमें व जानवरों को नहीं चाहिए ,वह मिट्टी को जैव खाद के रूप में वापस दे देते हैं। केंचुआ का खाद इस्तेमाल करती हैं, वह बिना स्वार्थ के पूरे समय जमीन को बखरते रहता है। पेड़ लगाएँ हैं और पानी संरक्षण के उपाय भी किए  हैं। खेत में कोदो, कुटकी, मड़िया, मक्का लगाती हैं। कई तरह की दाल उगाती हैं जिनसे खेत को नाइट्रोजन मिलती है। सब्जियों में सेम (बल्लर), गोभी, चुकन्दर, गाजर, कुम्हड़ा, लौकी और कद्दू, टमाटर लगाती हैं। मैंने बरसों बाद कांच के कंचों की तरह छोटे टमाटर देखे ,जिसकी चटनी बहुत स्वादिष्ट लगती है।
उनका जीवन सादगी से भरा है। सार्थक और उद्देश्यपूर्ण है। वे साधारण महिला हैं, जिन्होंने एक असाधारण जीवन का रास्ता चुना है। वे एक रोशनी हैं उन सबके लिए  जो कुछ करना चाहते हैं। जो बदलाव चाहते हैं। उन्होंने उम्मीदों के बीज बोएँ हैं। अँधेरे में रोशनी दिखाई है। ऐसा नहीं है कि उन्होंने सभी समस्याओं के हल खोज लिये हैं। लेकिन उस दिशा में प्रयास जरूर किए  हैं।
वे गाँधी को उद्धृत करती हुई कहती हैं कि धरती हर व्यक्ति की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकती है, लेकिन किसी एक व्यक्ति के लालच की नहीं। इसलिए  हमें प्राकृतिक संसाधनों के शोषण की नहीं बल्कि मिट्टी, पानी और पर्यावरण का संरक्षण करना है।

2. मंजुला सन्देश पाडवी

महिला किसान की
 जैविक खेती

एक अकेली महिला किस तरह जैविक खेती कर सकती है, इसका बहुत अच्छा उदाहरण मंजुला सन्देश पाडवी है। न केवल उसने इससे अपने परिवार का पालन-पोषण किया बल्कि अपनी बेटी को पढ़ाया लिखाया और अब वह नौकरी भी कर रही है।
महाराष्ट्र के नंदुरबार जिले के वागशेपा गाँव की मंजुला की जैविक खेती की चर्चा अब फैल गई है। मंजुला के पास 4 एकड़ जमीन है। उसका पति 10 साल पहले छोडक़र चला गया था। उसके खुद का हृदय बाल्व बदला है, दवाएँ चलती रहती हैं। इसके बाद भी उसने हिम्मत नहीं हारी। खुद खेती करने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली।
बचत समूह से कर्ज लेकर खेत में मोटर पम्प लगाया। मिट्टी को उपजाऊ बनाने के लिए  गोबर खाद खरीदकर डाली। सरकारी योजनाओं के पैसे से बैल-जोड़ी खरीदी। खेत में खुद हल-बक्खर चलाती है। फसल की निंदाई-गुड़ाई करती है। मक्का और ज्वार खेत में लगाया था। अच्छा उत्पादन हुआ।
वह कहती है कि बाजू वाले खेतों की फसल कमजोर होती है। पिछले साल उनका मक्का नहीं हुआ, हमारा अच्छा हुआ। इसका कारण बताते हुए वह कहती है कि हमने जैविक खाद का इस्तेमाल किया, जबकि वे रासायनिक खाद डालते हैं। इस साल फिर मक्का- ज्वार की फसल खड़ी है।
नंदुरबार स्थित जन सेवा मण्डल ने इस इलाके में 15 बचत समूह बनाए हैं। इन समूहों में जो पैसा जमा होता है, उससे किसान खेती के लिए  कर्ज लेते हैं। बिना रासायनिक और देसी बीज वाली खेती को प्रोत्साहित किया जाता है। पहले देसी बीज बैंक भी बनाए थे। सब्जी, फलदार वृक्ष और अनाजों की मिली-जुली खेती की जा रही है। मंजुला भी उनमें से एक है। आज उसकी बेटी मनिका को अपनी माँ पर गर्व है। वह कहती है मेरी माँ बहुत अच्छी है।
खेती के विकास में महिलाओं का बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। परम्परागत खेती में वे पुरुषों के साथ बराबरी से काम करती हैं। बल्कि उनसे ज्यादा काम करती हैं। खेत में बीज बोने से लेकर उनके संरक्षण-संवर्धन और भण्डारण का काम करती हैं। पशुपालन से लेकर विविध तरह की सब्जियाँ लगाने व फलदार वृक्षों की परवरिश में महिलाओं का योगदान होता है।
लेकिन जब खेती का मशीनीकरण होता है तो वे इससे बाहर हो जाती हैं। मंजुला की खेती भी यही बताती है, उसका पति उसे छोडक़र चला गया। न केवल उसने खेती को सम्भाल लिया, अपना व अपने बच्चों का पालन-पोषण कर लिया, बल्कि उन्हें पढ़ा-लिखा इस लायक बना दिया कि उसकी लडक़ीनर्स बन गई और आज जलगाँव में नौकरी कर रही है।
उसका काम इसलिए  और महत्त्वपूर्ण हो जाता है जब किसान संकट में हैं। उसने खेती की ऐसी राह पकड़ी जो टिकाऊ, बिना रासायनिक, कम खर्चे वाली है। आज बिना रासायनिक वाली खेती ही जरूरत है जिसमें महिलाओं की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो सकती है। बल्कि पहले थी ही।
टिकाऊ खेती की ओर इसलिए बढऩा जरूरी है क्योंकि बेजा रासायनिक खादों के इस्तेमाल से हमारी उपजाऊ खेती बंजर होती जा रही है, भूजल खिसकता जा रहा है, प्रदूषित हो रहा है और खेती की लागत बढ़ती जा रही है, उपज घटती जा रही है, इसलिए  किसान आत्महत्या कर रहे हैं।
मंजुला जैसी महिलाएँ आज एक उदाहरण हैं, जो अकेली होकर भी सफल किसान हैं। उनकी खेती से सीखकर मिट्टी, पानी और पर्यावरण के संरक्षण वाली खेती की ओर बढ़ना ही, आज समय की माँग है।

3. प्रेम भाई

प्रकृति के करीब कुछ सोचने और तलाशने...

पिछले माह मुझे गुजरात में कच्छ-भुज में स्थित प्राकृतिक चिकित्सा फार्म में ठहरने का मौका मिला। हम वहाँ एक कार्यक्रम के सिलसिले में गए थे। इस फार्म का नाम था- निजानंद फार्म।
यह हरीपर गाँव में था। भुज से चार-पाँच किलोमीटर दूर। सबसे कम बारिश वाले इलाके में बहुत हरा-भरा फार्म मनमोहक था। सरसराती हवा, रंग-बिरंगे फूल, शान्त वातावरण। कुछ सोचने और तलाशने का वातावरण।
यह फार्म जय भाई का है, जो खुद प्राकृतिक चिकित्सक हैं। लेकिन इसकी देखभाल प्रेम भाई और उनकी पत्नी करते हैं। मैंने उनके साथ इस फार्म को देखा। यहाँ कई औषधि पौधे भी थे, जो रंग-रूप, स्वाद में अलग थे, बल्कि उनके उपयोग भी अलग-अलग थे। मैंने इन्हें करीब से देखा जाना। इनमें से कुछ को मैं पहले से जानता था, पर कुछ नए भी थे। अमलतास, सर्पगन्धा, अडूसा, करौंदा, पारिजात, नगोड़, रायन, समंदसोख, कंजी, इमली और तीन प्रकार की तुलसी- राम, श्याम व तिलक इत्यादि। पेड़ों पर लिपटी गुडवेल दिखी, जो पहले गाँव में भी आसानी से मिल जाती थी।
जय भाई ने यह जड़ी-बूटी का बगीचा लगाया है, क्योंकि वे प्राकृतिक चिकित्सा में इन सबका इस्तेमाल करते हैं। प्रेम भाई इनके बारे में बारीकी से बता रहे थे, मैं फूल, पत्ते और फल को देख रहा था।
प्रेम भाई की पत्नी ने बताया कि पहले वे लोग मुम्बई में रहते थे। वहाँ प्रिटिंग का काम करते थे, लेकिन वहाँ वे बीमार रहती थी। रहने की जगह अच्छी नहीं थी, लेकिन जब से इस फार्म में रह रही हैं, पूरी तरह स्वस्थ हैं। बिना इलाज, बिना दवाई।
यहाँ दो बातें कहनी जरूरी हैं- एक, पहले हर घर में जड़ी-बूटी का भले ही ऐसा व्यवस्थित बगीचा नहीं होता था; लेकिन तुलसी, अदरक, पुदीना और इस तरह के पौधे होते थे, जिनसे घरेलू इलाज कर लेते थे। और दूसरी बात घर के आसपास हरे-भरे पेड़ होते थे, जो शुद्ध हवा और पानी के स्रोत होते थे। स्वस्थ जीवन के लिए  इनका बड़ा योगदान है।
मेरे पिताजी खुद जड़ी-बूटी के जानकार थे। घर के आगे-पीछे कई तरह जड़ी-बूटी के पौधे लगाए थे। जंगल से भी पौधों की छाल, पत्ते, फल, फूल लेकर आते थे। उन्हें कूटते, छानते बीनते थे। अर्क, चूर्ण और बटी बनाते थे। इनकी खुशबू घर में फैलती रहती थी।
अगर इस तरह के पेड़-पौधे घर में लोग लगाएँ तो छोटी-मोटी बीमारी का इलाज खुद कर सकेंगे, जो पहले करते ही थे। और इनसे शुद्ध हवा, पानी भी मिल सकेगा। पेड़ भी पानी ही है। इसे कालमवाटर कहते हैं। सिर्फ नदी नालों, कुओं, बावड़ियोंय़ों में ही पानी नहीं रहता, पेड़ों में भी होता है।
यह जड़ी-बूटी का बगीचा सदा याद आएगा, चार दिन हम रहे, रोज सुबह की सैर की। और प्रकृति को नजदीक से देखा, उसके पास, उसके साथ रहे।
Email- babamayaram@gmail.com

खतरों से जूझ रही धरती

               खतरों से जूझ रही धरती 

                                         - तरुणधर दीवान

पर्यावरण एवं प्रकृति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जनसामान्य के लिए जो प्रकृति है, उसे विज्ञान में पर्यावरण कहा जाता है। परि+आवरणयानी हमारे चारों ओर जो भी वस्तुएँ हैं, शक्तियाँ, जो हमारे जीवन को प्रभावित करती हैं, वे सभी पर्यावरण बनाती हैं। मोटे तौर पर जल, हवा, जंगल, जमीन, सूर्य का प्रकाश, रात का अँधकार और अन्य जीव जंतु सभी हमारे पर्यावरण के भिन्न तथा अभिन्न अंग है। जीवित और मृत को जोड़ने का काम सूर्य की शक्ति करती है।
प्रकृति जो हमें जीने के लिए स्वच्छ वायु, पीने के लिए साफ शीतल जल और खाने के लिए कंद-मूल-फल उपलब्ध कराती रही है, वही अब संकट में है। आज उसकी सुरक्षा का सवाल उठ खड़ा हुआ है। यह धरती माता आज तरह-तरह के खतरों से जूझ रही है।
लगभग 100-150 साल पहले धरती पर घने जंगल थे, कल-कल बहती स्वच्छ सरिताएँ थीं। निर्मल झील व पावन झरने थे। हमारे जंगल तरह-तरह के जीव जंतुओं से आबाद थे और तो और जंगल का राजा शेर भी तब इनमें निवास करता था। आज ये सब ढूँढे नहीं मिलते, नदियाँ प्रदूषित कर दी गई हैं।
राष्ट्रीय नदी का दर्जा प्राप्त गंगा भी इससे अछूती नहीं है। झील- झरने सूख रहे हैं। जंगलों से पेड़ और वन्य जीव गायब होते जा रहे हैं। चीता तथा शेर हमारे देश से देखते-ही-देखते विलुप्त हो चुके हैं। अभी वर्तमान में उनकी संख्या अत्यंत ही कम है। सिंह भी गिर के जंगलों में हीं बचे हैं। इसी तरह राष्ट्रीय पक्षी मोर, हंस कौए और घरेलू चिड़ियों पर भी संकट के बादल मँडरा रहे हैं। यही हाल हवा का है। शहरों की हवा तो बहुत ही प्रदूषित कर दी गई है, जिसमें हम सभी का योगदान है।
महानगरों की बात तो दूर हम छत्तीसगढ़ में हीं देखें, तो रायगढ़, कोरबा, रायपुर जैसे मध्यम आकार के शहरों की हवा भी अब साँस लेने लायक नहीं हैं। आंकड़े बताते हैं की वायु में कणीय पदार्थ की मात्रा जिसे आर.एस.पी.एम. (क्र.स्.क्क.रू.) कहते हैं, में रायगढ़ का पूरे एशिया में तीसरा स्थान पर आना  चिन्ता  की बात है। इस सूची में कोरबा और रायपुर भी शामिल हैं।
शहरी हवा में सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड जैसी जहरीली गैसें घुली रहती हैं। कार्बन मोनोऑक्साइड और कार्बन डाइऑक्साइड जैसी गैसों की मात्रा हाइड्रो कार्बन के साथ बढ़ रही है। वहीं खतरनाक ओजोन के भी वायुमंडल में बढऩे के संकेत हैं। विकास की आंधी में मिट्टी की भी मिट्टी पलीद हो चुकी है। जिस मिट्टी में हम सब खेले हैं, जो मिट्टी  खेत और खलीहान में है, खेल का मैदान है, वह तरह-तरह के कीटनाशकों को एवं अन्य रसायनों के अनियंत्रित प्रयोग से प्रदूषित हो चुकी हैं।
खेतों से ज्यादा-से-ज्यादा उपज लेने की चाह में किए गए रासायनिक उर्वरकों के अंधाधुंध उपयोग के कारण वर्तमान में पंजाब एवं हरियाणा की हजारों हेक्टेयर जमीन बंजर हो चुकी है। हमारे कई सांस्कृतिक त्योहार एवं रिती-रिवाज भी पर्यावरण हितैषी नहीं हैं। दीपावली और विवाह के मौके पर की जाने वाली आतिशबाजी हवा को बहुत ज्यादा प्रदूषित करती है। होली भी हर गली-मोहल्ले की अलग-अलग न जलाकर एक कॉलोनी या कुछ कॉलोनियाँ मिलकर एक सामूहिक होली जलाएँ तो इससे ईंधन भी बचेगा और पर्यावरण भी कम प्रदूषित होगा।
जब हम स्वचालित वाहन चलाते हैं, तब हम यह नहीं सोचते की इससे निकलने वाला धुआं हमारे स्वास्थ्य को भी खराब करता है। इससे निकली गैसें अम्लीय वर्षा के रूप में हम पर ही बरसेगी व हमारी मिट्टी तथा फसलों को खराब करेगी। यूरोपीय देशों की अधिकांश झीलें अम्लीय वर्षा के कारण मर चुकी हैं। उनमें न तो मछली जिंदा बचती हैं, न पेड़-पौधे।
सवाल यह है कि इन पर्यावरणीय समस्याओं का क्या कोई हल है? क्या हमारी सोच में बदलाव की जरूरत है? दरसअल प्रकृति को लेकर हमारी सोच में ही खोट है। तमाम प्राकृतिक संसाधनों को हम धन के स्रोत के रूप में देखते हैं और अपने स्वार्थ के खातिर उसका अंधाधुंध दोहन करते हैं। हम यह नहीं सोचते हैं कि हमारे बच्चों को स्वच्छ व शांत पर्यावरण मिलेगा या नहीं।
वर्तमान स्थितियों के लिए मुख्य रूप से हमारी कथनी और करनी का कर्म ही जिम्मेदार है। एक ओर हम पेड़ों की पूजा करते हैं तो वहीं उन्हें काटने से जरा भी नहीं हिचकते। हमारी संस्कृति में नदियों को माँ कहा गया है, परंतु उन्हीं माँ स्वरूपा गंगा-जमुना, महानदी की हालत किसी से छिपी नहीं है। इनमें हम शहर का सारा जल-मल, कूड़ा-कचरा, हार फूल यहां तक कि शवों को भी बहा देते हैं। नतीजतन अब देश की सारी प्रमुख नदियां गंदे नालों में बदल चुकी हैं। पेड़ों को पूजने के साथ उनकी रक्षा का संकल्प भी हमें उठाना होगा।
पर्यावरण रक्षा के लिए कई नियम भी बनाए गए हैं। जैसे खुले में कचरा नहीं जलाने एवं प्रेशरहॉर्न नहीं बजाने का नियम है, परंतु इनका सम्मान नहीं किया जाता। हमें यह सोच भी बदलनी होगी कि नियम तो बनाए ही तोड़ने के लिए जाते हैं। पर्यावरणीय नियम का न्यायालय या पुलिस के डंडे के डर से नहीं;  बल्कि दिल से सम्मान करना होगा। सच पूछिए तो पर्यावरण की सुरक्षा से बढक़र आज कोई पूजा नहीं है।
प्रकृति का सम्मान ईश्वर के प्रति सच्ची श्रद्धा होगी कहा भी जाता है की प्रकृति भी ईश्वर है। अगर आप सच्चे ईश्वर भक्त हैं तो भगवान की बनाई इस दुनिया कि हवा, पानी जंगल और जमीन को प्रदूषित होने से बचाएं वर्तमान संदर्भों में इससे बढ़कर कोई पूजा नहीं है। जरूरत हमें स्वयं सुधरने की है, साथ ही हमें अपनी आदतों में पर्यावरण की ख़ातिर बदलाव लाना होगा। याद रहे हम प्रकृति से हैं प्रकृति हम से नहीं।
तमाम सख्ती व कोर्ट के आदेश के बावजूद राज्य में अनेक फैक्ट्रियाँ अवैध रूप से चलाई जा रही हैं। इनमें से हर रोज निकलने वाली खतरनाक रसायन व धुआँ हवा में जहर घोल रहा है। तालाब, पोखर, गढ़ही, नदी, नहर, पर्वत, जंगल और पहाडिय़ाँ आदि सभी जलस्रोत परिस्थितिकी में संतुलन बनाए रखते हैं। इसलिए पारिस्थितिकीय संकटों से उबरने और स्वस्थ पर्यावरण के लिए इन प्राकृतिक देनों की सुरक्षा करना आवश्यक है, ताकी सभी संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा दिए गए अधिकारों का आनन्द ले सकें।
पर्यावरण बदलने से भुखमरी का खतरा मंडराने लगा है। दुनिया की जानी मानी संस्था ऑक्सफैम का कहना है कि पर्यावरण में हो रहे बदलावों के कारण ऐसी भुखमरी फैल सकती है, जो इस सदी की सबसे बड़ी मानवीय त्रासदी साबित होगी। इस अंतरराष्ट्रीय चैरिटी संस्था की नई रिपोर्ट के अनुसार पर्यावरण में बदलाव गरीबी और विकास से जुड़े हर मुद्दे पर प्रभाव डाल रहा है।
बदलती जलवायु के प्रमुख कारण कार्बन डाइऑक्साइड की अधिक मात्रा से गरमाती धरती का कहर बढ़ते तापमान के रूप में अब स्पष्ट दृष्टि गोचर होने लगा है। तापमान का बदलता स्वरूप मानव द्वारा प्रकृति के साथ किए गए निर्मम तथा निर्दयी व्यवहार का सूचक है। अपने ही स्वार्थ में अंधे मानव ने अपने ही जीवन प्राण वनों का सफाया कर प्रकृति के प्रमुख घटकों-जल, वायु तथा मृदा से स्वयं को वंचित कर दिया है।
बढ़ते कार्बन डाइऑक्साइड ने वायुमंडल में ऑक्सीजन को कम कर दिया है। वायुमंडलीय परिवर्तन को ग्लोबलवार्मिंगका नाम दिया गया है। इसने संसार के सभी देशों को अपनी चपेट में लेकर प्राकृतिक आपदाओं का तोहफा देना प्रारंभ कर दिया है। भारत और चीन सहित कई देशों में भूमि कंपन, बाढ़, तूफान, भुस्खलन, सूखा, अतिवृष्टि, अल्पवृष्टि, भूमि की धडक़न के साथ ग्लेशियरों का पिघलना आदि प्राकृतिक आपदाओं के संकेत के रूप में भविष्यदर्शन है।
गरमाती धरती का प्रत्यक्ष प्रभाव समुद्री जल तथा नदियों के जल के तापमान में वृद्धि होना है, जिसके कारण जलचरों के अस्तित्व पर सीधा खतरा मँडरा रहा है। यह प्रत्यक्ष खतरा मानव पर अप्रत्यक्ष रूप से उसकी क्षुधा-पूर्ति से जुड़ा है। पानी के आभाव में जब कृषि व्यवस्था का दम टूटेगा तो शाकाहारियों को भोजन का अभाव झेलना एक विवशता होगी तो मरती मछलियों-प्रास (झिंगा) तथा अन्य भोजन जलचरों के अभाव में मांसाहारियों को कष्ट उठाना होगा।
उक्त दोनों प्रक्रियाओं से आजीविका पर सीधा असर होगा तथा काम के अभाव में शिथिल होते मानव अंग अब बीमारी की जकड़ में आ जाएँगे। वैश्विक जलवायु मानव को गरीबी की ओर धकेलते हुए आपराधिक दुनिया की राह दिखाएगा, जिसमें पर्यावरण आतंकवाद को बढ़ावा मिलेगा तथा दुनिया में पर्यावरण शरणार्थियों को शरण देने वाला कोई नहीं होगा। बढ़ता तापक्रम विश्व के देशों की वर्तमान तापक्रम प्रक्रिया में जबरदस्त बदलाव लाएगा, जिसके कारण ठंडे देश गर्मी की मार झेलेंगे तो गर्म उष्णकटिबंधीय देश में बेतहशा गर्मी से जलसंकट गहरा जाएगा और वृक्षों के अभाव में मानव जीवन संकट में पड़ जाएगा।
वैश्विक जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणाम फलस्वरूप कृषि तंत्र प्रभावित होकर हमें कई सुलभ खाद्य पदार्थों की सहज उपलब्धि से वंचित कर सकता है। अंगूर, संतरा, स्ट्रॉबेरी, लीची, चैरी आदि फल ख्वाब में परिवर्तित हो सकते हैं। इसी प्रकार घोंघे, यूनियों, छोटी मछलियाँ, प्रासबाइल्डपेसिफिकसेलमान, स्कोलियोडोने जैसे कई जलचर तथा समुद्री खाद्य शैवाल मांसाहारियों के भोजन मीनू से बाहर हो सकते हैं। तापक्रम में वृद्धि के कारण वर्षा वनों में रहने वाले प्राणी तथा वनस्पति विलुप्त हो सकते हैं।
हमारी सांस्कृतिक ऐतिहासिक धरोहरों को नुकसान पहुँच सकता है और हम पर्यटन के रूप में विकसित स्थलों से वंचित हो सकते हैं। वर्षों तक ठोस बर्फ के रूप में जमे पहाड़ों की ढलानों पर स्कीइंग खेल का आनंद बर्फ के अभाव में स्वप्न हो सकता है। हॉकी, बेसबॉल, क्रिकेट, बैडमिंटन, टेनिस, गोल्फ, आदि खेलों पर जंगलों में उपयुक्त लकड़ी का अभाव तथा खेल के मैदानों पर सूखे का दुष्प्रभाव देखने को मिल सकता है। विभिन्न खेलों में कार्यरत युवतियों की आजीविका छीनने से व्यभिचार और भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिल सकता है।
तापक्रम परिवर्तन के कारण अलग-थलग पड़े समुद्री जलचर अपनी सीमा लाँघ सकते हैं तथा समुद्री सीमाओं को लांघकर अन्य जलचरों को हानि पहुँचा सकते हैं। वैश्विक तापक्रम वृद्धि के फलस्वरूप जंगली जीवों की प्रवृत्ति तथा व्यवहार में परिवर्तन होकर उनकी नस्लों की समाप्ति हो सकती हैं। प्रवजन पक्षी (माइग्रेट्रीबर्ड्स) अपना रास्ता बदलकर भूख और प्यास से बदहाल हो सकतें हैं। चिड़ियों की आवाजों से हम वंचित हो सकते हैं। साँप, मेंढक तथा सरीसर्पप्रजाति के जीवों को जमीन के अंदर से निकल कर बाहर आने को बाध्य होना पड़ सकता है।
पिघलते ध्रुवों पर रहने वाले स्लोथबीयर जैसे बर्फीले प्रदेश के जीवों को नई परिस्थितियों और पारिस्थितिकी से अनुकूलनता न होने के कारण अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ सकता है। बढ़ते तापमान के कारण उत्पन्न लू के थपेड़ों से जन-जीवन असामान्य रूप से परिवर्तित हो कर हमारे पूर्वजों की दूरदर्शिता की याद के रूप में गहरे कुओं व बावडिय़ों, कुइयों आदि के निर्माण का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं।
विश्व स्वास्थ संगठन ने हाल ही में जारी अपनी रिपोर्ट में वैश्विक जलवायु परिवर्तन के भावी परिदृश्य के रूप में बढ़ते तापमान के साथ बढ़ते प्रदूषण से बीमारियों विशेषत: हार्टअटैक, मलेरिया, डेंगू, हैजा, एलर्जी तथा त्वचा के रोगों में वृद्धि के संकेत देकर विश्व की सरकारों को अपने स्वास्थ्य बजट में कम से कम 20 प्रतिशत वृद्धि करने की सलाह दी है।
विभिन्न देशों के विदेश मंत्रालयों तथा सैन्य मुख्यालयों द्वारा जारी सूचनाओं में वैश्विक तापमान वृद्धि से विश्व के देशों की राष्ट्रीय सुरक्षा पर खतरे के मंडराने का संकेत दिया गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ महासचिव (बान की मून) ने इसी वर्ष अपने प्रमुख भाषण में वैश्विक तापमान वृद्धि पर  चिन्ता  व्यक्त करते हुए इसे युद्धसे भी अधिक खतरनाक बताया है। वैश्विक जलवायु परिवर्तन के भविष्य दर्शन के क्रम में यह स्पष्ट है कि पर्यावरण के प्रमुख जीवी घटकों हेतु अजीवीय घटकों वायु, जल और मृदा हेतु प्रमुख जनक वनों को तुरंत प्रभाव से काटे जाने से संपूर्ण संवैधानिक शक्ति के साथ मानवीय हित के लिए रोका जाए, ताकि बदलती जलवायु पर थोड़ा ही सही अंकुश तो लगाया जा सके।
अन्यथा सूखते जल स्रोत, नमी मुक्ति सूखती धरती, घटती आक्सीजन के साथ घटते धरती के प्रमुख तत्व, बढ़ता प्रदूषण, बढ़ती व्याधियाँ, पिघलते ग्लेशियरों के कारण बिन बुलाए मेहमान की तरह प्रकट होती प्राकृतिक आपदाएँ मानव सभ्यता को कब विलुप्त कर देंगी, पता नहीं चल पाएगा। आवश्यकता है वैश्विक स्तर पर पूर्ण निष्ठा एवं समर्पण के साथ प्रस्फुटित संतुलन का एकनिष्ठ भाव निहित हो। (पर्यावरण विमर्श से)
सम्पर्क: राजेंद्र नगर, विलासपुर (छ.ग.)

धरती की सतह पर घटता पानी

धरती की सतह पर घटता पानी

उपग्रह से प्राप्त तस्वीरों के विश्लेषण से पता चला है कि तीस साल पहले के मुकाबले आज धरती की ज़्यादा सतह पानी से ढंकी है। मगर साथ ही एक तथ्य यह भी है कि मध्य एशिया और मध्य पूर्व के कुछ देशों में सतह पर मौजूद आधा पानी गायब हो गया है।
इससे पहले सतही पानी (यानी झीलों, नदियों, तालाबों और समुद्रों के पानी) के अनुमान इस बात पर आधारित होते थे कि प्रत्येक देश स्वयं क्या अनुमान पेश करता है। इसके लिए उपग्रह तस्वीरों का सहारा लिया जाता है। मगर उपग्रह तस्वीरों के आधार पर निष्कर्ष निकालने में दिक्कत यह आती है कि गहराई, पाए जाने के स्थान वगैरह के कारण पानी बहुत अलग-अलग नज़र आता है।
अब यूरोपीय संघ के संयुक्त अनुसंधान केंद्र के ज़्यां-फ्रांस्वापेकेल और उनके साथियों ने कृत्रिम बुद्धि का उपयोग करके पूरे लैण्डसैट संग्रह को खंगाला है। 1984 से उपलब्ध लगभग 30 लाख तस्वीरों का विश्लेषण करके उन्होंने सतही जल का एक विश्व व्यापी नक्शा तैयार किया है।
विश्लेषण से पता चला है कि स्थायी रूप से जल-आच्छादित क्षेत्रफल में 3 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। 1980 के दशक के बाद से अब तक कुल 1 लाख 84 हज़ार वर्ग किलोमीटर नया क्षेत्र स्थायी रूप से पानी से ढंका रहने लगा है। इसके अलावा करीब 29,000 वर्ग कि.मी. क्षेत्र मौसमी तौर पर पानी में डूबा रहता है।
इनमें से कई नई जलराशियाँ तो बाँध निर्माण के परिणामस्वरूप बनी हैं मगर तिब्बत के पठार में हिमालय के ग्लेशियर पिघलने के कारण कई कुदरती झीलें भी अस्तित्व में आई हैं।
इस वैश्विक तस्वीर के विपरीत करीब 90,000 वर्ग कि.मी. स्थायी जलराशियाँ समाप्त हो गई हैं। इसके अलावा, करीब 62,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र स्थायी की बजाय मौसमी तौर पर ही पानी से ढका रहने लगा है।
सतही जलराशियों का सबसे ज़्यादा ह्रास तो कज़ाकिस्तान,उज़बेकिस्तान, ईरान और अफगानिस्तान में देखा गया है। उदाहरण के लिए कज़ाकिस्तान और उज़बेकिस्तान में लगभग पूरा अरब सागर खत्म हो गया है ,जो एक समय में दुनिया की चौथी सबसे बड़ी झील थी। ईरान, अफगानिस्तान और इराक में क्रमश: 56, 54 और 34 प्रतिशत सतही जल सूख चुका है।

हालाँकि इस अध्ययन में इस बात पर विचार नहीं किया गया है कि सतही जल में ये परिवर्तन किन वजहों से हुए हैं मगर पेकेल का कहना है कि यह मूलत: मानवीय गतिविधियों का नतीजा है। इनमें खास तौर से सिंचाई के लिए पानी का उपयोग प्रमुख है। एक अनुमान के मुताबिक दुनिया भर में खेती के लिए जितना पानी लगता है वह सारी दुनिया की नदियों के कुल पानी का आधा होता है। (स्रोत फीचर्स)

महज़ रस्म अदायगी का त्योहार बन गया -पर्यावरण दिवस

       महज़ रस्म अदायगी का त्योहार बन गया 

                   पर्यावरण दिवस 


                                            - सुधीर कुमार
राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से लेकर देश के छोटे-बड़े अन्य शहरों की आबोहवा दूषित होती जा रही है। आलम यह है कि जैव विविधता के मामले में आदिकाल से धनी रहे भारत जैसे देश के अधिकतर शहर आज प्रदूषण की भारी चपेट में है। पर्यावरणीय संकेतों तथा विकास के सततपोषणीय स्वरूप की अवहेलना कर अनियंत्रित आर्थिक विकास की हमारी तत्परता का नतीजा है कि कई शहरों में प्रदूषण का स्तर मानक से ऊपर जाता दिख रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, दुनिया के 20 सबसे प्रदूषित शहरों में 13 शहर भारत के हैं। प्रदूषित शहरों की फेहरिस्त में दिल्ली, ग्वालियर, इलाहाबाद, पटना, रायपुर, कानपुर और लखनऊ जैसे शहर शीर्ष पर विराजमान हैं, जबकि अन्य शहर भी भूमि, वायु और जल प्रदूषण से लहूलुहान हैं।
इन शहरों में आधुनिक जीवन की चकाचौंध तो है, लेकिन कटु सत्य यह भी है कि यहाँ इंसानी जीवनशैली नरक के समान हो गई है। विडंबना देखिए, पर्यावरण में चमत्कारिक रूप से विद्यमान तथा जीवन प्रदान करने वाली वायु आज प्रदूषित होकर मानव जीवन के लिए  खतरनाक और कुछ हद तक जानलेवा हो गई है। पर्यावरण से निरंतर छेड़छाड़ तथा विकास की अनियंत्रित भौतिक भूख ने आज इंसान को शुद्ध पर्यावरण से भी दूर कर दिया है। शुद्ध ऑक्सीजन की प्राप्ति मानव जीवन जीने की प्रथम शर्त है ; लेकिन, जीवनदायिनी वायु में जहर घुलने से समस्त मानव जीवन अस्तव्यस्त हो गया है। लोग शुद्ध हवा में साँस लेने के लिए  तरसते नजर आ रहे हैं। एक अमेरिकी शोध संस्था ने दावा किया है कि वायु प्रदूषण भारत में पाँचवाँ सबसे बड़ा हत्यारा है। गौरतलब है कि वायु प्रदूषण के कारण विश्व में 70 लाख, जबकि भारत में हर साल 14 लाख लोगों की असामयिक मौतें हो रही हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि विश्व में 10 व्यक्तियों में से नौ खराब गुणवत्ता की हवा में साँस ले रहे हैं। इधर, कुछ दिनों से मीडिया में छाई रही दिल्ली की धुंध की खबरों ने देशवासियों तथा हुक्मरानों को गहरे अवसाद में डाल दिया है। पर्यावरण क्षेत्र से जुड़ी प्रमुख संस्था सीएसई ने कहा कि राष्ट्रीय राजधानी में पिछले 17 वर्षों में सबसे खतरनाक धुंध छाई हुई है। वायु प्रदूषण बढ़ने के कारण राजधानी में स्वास्थ्य आपात्काल जैसी स्थिति बनी हुई है। बच्चों, बूढ़ों और साँस सम्बन्धी बीमारियों से जूझ रहे लोगों के लिए  वातावरण का यह स्वरूप आफत बनकर सामने आया है।
यह सब हमारी ही करनी का नतीजा है, लिहाजा इन विपरीत परिस्थितियों से लडऩे के लिए  खुद को तैयार करना होगा। विशेषज्ञ बता रहे हैं कि दिल्ली की फ़िज़ाओं में जहर घुलने के पीछे कई कारण उत्तरदायी रहे हैं। अलबत्ता इसकी शुरुआत तब से ही हो गई थी, जब दिल्ली से सटे कुछ राज्यों में अदालती और प्रशासनिक आदेशों के बावजूद पराली को जलाने की शुरुआत हुई थी। जबकि, सर्दी के आगमन और दीवाली पर अनियंत्रित पटाखेबाजी ने हालात को बद से बदतर बना दिया।
बीते दिनों जिस तरह जागरूकता के तमाम अभियानों को धता बताते हुए तथा पर्यावरण को नजरअंदाज करते हुए देशवासियों ने दीवाली पर आतिशबाजी की है, उससे यह साफ हो गया कि वास्तव में यहाँ किसी को पर्यावरण की फिक्र ही नहीं है। सभी को अपनी क्षणिक आवश्यकता व कथित आनंद के प्राप्ति की  चिन्ता  है, लेकिन दिनों-दिन मैली हो रही पर्यावरण की तनिक भी परवाह नहीं। सवाल यह है कि धरती पर जीवन के अनुकूल परिस्थितियों के लिए  आखिर हमने छोड़ा क्या। हमारे स्वार्थी कर्मों का नतीजा है कि हवा, जल, भूमि तथा भोजन सभी प्रदूषित हो रहे हैं। पौधे हम लगाना नहीं चाहते और जो लगे हैं, उसे विकास के नाम पर काटे जा रहे हैं। ऐसे में हमें धरती पर जीने का कोई नैतिक हक ही नहीं बनता।
हर साल अक्टूबर और नवंबर माह में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसानों द्वारा धान की फसल की कटाई के बाद उसके अवशेषों यानी पराली को जलाने का सिलसिला शुरू हो जाता है। नई फसल की जल्द बुवाई करने के चक्कर में किसान पराली को अपने खेतों में ही जला देते हैं। यह क्रम साल दर साल चलता रहता है। हमारे किसान इस बात से अंजान रहते हैं कि इस आग से, एक ओर जहाँ पर्यावरण में जहर घुल रहा है, वहीं खेतों में मौजूद भूमिगत कृषि-मित्र कीट तथा सूक्ष्म जीवों के मरने से मृदा की उर्वरता घटती जाती है, जिससे अनाज का उत्पादन प्रभावित होता है, लेकिन कर्ज में डूबे किसानों को इतना सोचने का वक्त कहाँ है! अमेरिकी कृषि वैज्ञानिकों की मानें तो भारत में अन्नोत्पादन में कमी का एक बड़ा कारण वायु- प्रदूषण है।
वैज्ञानिकों का यह भी कहना है कि यदि भारत वायु -प्रदूषण का शिकार न हो तो अन्न उत्पादन में वर्तमान से 50प्रतिशत अधिक तक की वृद्धि हो सकती है। पराली जलाने से वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड और मिथेन आदि विषैली गैसों की मात्रा बहुत अधिक बढ़ जाती हैं। अनुमान है कि एक टन पराली जलाने पर हवा में 3 किलो कार्बन कण, 60 किलो कार्बन मोनोऑक्साइड, 1500 किलो कार्बन डाइऑक्साइड, 200 किलो राख और 2 किलो सल्फर डाइऑक्साइड फैलते हैं। इन सब दुष्प्रभावों को ध्यान में रखकर ही दिल्ली उच्च न्यायालय तथा उनके आदेश पर सम्बन्धित राज्य सरकारों ने पराली के जलाने पर कागजी रोक लगाई थी।
इन सबसे बेफिक्र हमारे किसान चुपके से या रात्रि में पराली जलाने से बाज नहीं आए। पराली का बहुतायत में जलाया जाना, राष्ट्रीय राजधानी में प्रदूषण बढऩे की प्रमुख वजह बन गई है। एक तरह से देखा जाए तो देश में पर्यावरण प्रदूषण की  चिन्ता  सब को है। पर, न तो कोई इसके लिए  पौधे लगाना चाहता है, न ही अपनी धुआँ उत्सर्जन करने वाली गाड़ी की जगह सार्वजनिक बसों का प्रयोग करना और न ही उसके स्थान पर साइकिल की सवारी को महत्त्व देना चाहता है। परिवार बड़ा हो तो दो-तीन बाइक और परिवार रिहायशी हो तो चार पहिया वाहन भी आराम से देखने को मिल जाएंगे। स्वाभाविक है, आर्थिक उदारीकरण और दिनों-दिन बढ़ती आय ने आरामतलब जिंदगी के शौकीन लोगों को परिवहन के निजी साधनों के बहुत करीब ला दिया है। नागरिकों के इस महत्त्वाकांक्षा के कारण पर्यावरण की बलि चढ़ रही है।
दिनों-दिन प्रदूषित व अशुद्ध होते वातावरण में चंद मिनटों की चैन की साँस लेना दूभर होता जा रहा है। सुबह पौ फटने के साथ ही सड़क पर वाहनों को फर्राटा मारकर धूल उड़ाने का जो सिलसिला शुरू होता है, वह देर रात तक चलता रहता है। इस नारकीय स्थिति में जाम में फंसा व्यक्ति ध्वनि और वायु प्रदूषण की चपेट में आकर बेवजह अपने स्वास्थ्य का नुकसान कर बैठता है। काम पर जाने वाले लोगों के लिए  अब यह रोज की बात हो गई है। लोगों का एक-दूसरे को उपदेश देने और स्वयं उसके पालन न करने की पारम्परिक आदतों ने आज पर्यावरण को उपेक्षा के गहरे गर्त में धकेल दिया है।
पर्यावरण संरक्षण से संबंधित सारी चर्चा महज़ लेखों, बातों और सोशल मीडिया तक ही सीमित रह गई हैं। अगर वास्तव में लोगों को पर्यावरण की इतनी फिक्र होती तो दशकों से प्रतिवर्ष मनाए जाने वाले जल दिवस, पृथ्वी दिवस और पर्यावरण दिवस महज़ रस्म अदायगी के त्योहार तक सीमित नहीं रह जाते। व्यवहार के धरातल पर पृथ्वी को बचाने की कोशिश की गई होती तो आज हमारे पर्यावरण की यह दुर्गति नहीं हुई होती। नगरीकरण की राह तेजी में बढ़ रहे हमारे शहरों में भौतिक जीवन जरूर सुखमय हुआ है, किंतु खुला, स्वच्छ और प्रेरक वातावरण नवीन पीढ़ियों की पहुँच से दूर, बहुत दूर होता जा रहा है। कालांतर में हमारी नई पीढ़ी प्राकृतिक संसाधनों तथा स्वच्छ परिवेश से इतर घुटन भरी जिंदगी जीने को विवश होगी। आधुनिक जीवन का पर्याय बन चुके औद्योगीकरण और नगरीकरण की तीव्र गति के आगे हमारा पर्यावरण बेदम हो गया है।
यह भी स्पष्ट है कि अगर इसकी सुध न ली गई ,तो हमारे अस्तित्व की समाप्ति पर पूर्णविराम लग जाएगा। अब विचार हमें स्वयं करना है कि हम एकाधिकारवादी औद्योगिक विकास की राह चलें कि धारणीय और सततपोषणीय विकास का मार्ग पकड़ स्वस्थ और स्वच्छ परिवेश का निर्माण करें। विकास जरूरी तो है, पर ध्यान रहे कि प्राकृतिक संकेतों को तिलांजलि देते हुए अंधाधुंध विकास, विनाश के जनन को उत्तरदायी होता है। जिस आर्थिक विकास की नोक पर आज का मानव विश्व में सिरमौर बनने का सपना हृदय में सँजोए है, वह एक दिन मानव सभ्यता के पतन का कारण बनेगा। भावी पीढ़ी और पर्यावरण का ध्यान रखे बिना प्राकृतिक संसाधनों के निर्ममतापूर्वक दोहन से पारिस्थितिक तंत्र की प्रकृति बदल रही है। ऐसे में चिन्ता हर स्तर पर होनी चाहिए। न सिर्फ सरकारी, बल्कि व्यक्तिगत स्तर पर भी। (डेलीन्यूकाएक्टिविस्ट से)

कुछ पेड़ लगाएँ कुछ पेड़ बचाएँ

      कुछ पेड़ लगाएँ कुछ पेड़ बचाएँ 

                    - संजय भारद्वाज

लौटती यात्रा पर हूँ। वैसे ये भी भ्रम है, यात्रा लौटती कहाँ है? लौटता है आदमी.. और आदमी भी लौट पाता है क्या, ज्यों का त्यों, वैसे का वैसा! खैर सुबह जिस दिशा में यात्रा की थी, अब यूटर्न लेकर वहाँ से घर की ओर चल पड़ा हूँ। देख रहा हूँ रेल की पटरियों और महामार्ग के समानांतर खड़े खेत, खेतों को पाटकर बनाई गई माटी की सड़कें। इन सडक़ों पर मुंबई और पुणे जैसे महानगरों और कतिपय मध्यम नगरों से इंवेस्टमेंट के लिए आउटरमें जगह तलाशते लोग निजी और किराए के वाहनों में घूम रहे हैं। धरती के एजेंटोंकी चाँदी है। बुलडोजऱ और जे.सी.बी की घरघराहट के बीच खड़े हैं आतंकित पेड़। रोजाना अपने साथियों का कत्लेआम खुली आँखों से देखने को अभिशप्त पेड़। सुबह पड़ी हल्की फुहारें भी इनके चेहरे पर किसी प्रकार का कोई स्मित नहीं ला पातीं। सुनते हैं जिन स्थानों पर साँप का मांस खाया जाता है, वहाँ मनुष्य का आभास होते ही साँप भाग खड़ा होता है। पेड़ की विवशता कि भाग नहीं सकता सो खड़ा रहता है, जिन्हें छाँव, फूल-फल, लकड़ियाँ दी, उन्हीं के हाथों कटने के लिए।
मृत्यु की पूर्व सूचना आदमी को जड़ कर देती है। वह कुछ भी करना नहीं चाहता, कर ही नहीं पाता। मनुष्य के विपरीत कटनेवाला पेड़ अंतिम क्षण तक प्राणवायु, छाँव और फल दे रहा होता है। डालियाँ छाँटी या काटी जा रही होती हैं तब भी शेष डालियों पर नवसृजन करने के प्रयास में होता है पेड़।
हमारे पूर्वज पेड़ लगाते थे और धरती में श्रम इन्वेस्ट करते थे। हम पेड़ काटते हैं और धरती को माँ कहने के फरेब के बीच शर्म बेचकर ज़मीन की फरोख्त करते हैं। मुझे तो खरीदार, विक्रेता, मध्यस्थ सभी एजेंटही नजऱ आते हैं। धरती को खरीदते-बेचते एजेंट। विकास के नाम पर देश जैसे एजेंट हबहो गया है!
मन में विचार उठता है कि मनुष्य का विकास और प्रकृति का विनाश पूरक कैसे हो सकते हैं? प्राणवायु देनेवाले पेड़ों के प्राण हरती शेखचिल्ली वृत्तिमनुष्य के बढ़ते बुद्धिलब्धि (आई.क्यू) के आँकड़ों को हास्यास्पद सिद्ध कर रही है। धूप से बचाती छाँव का विनाश कर एअरकंडिशन के ज़रिए कार्बन उत्सर्जन को बढ़ावा देकर ओज़ोनलेयर में भी छेद कर चुके आदमी  को देखकर विश्व के पागलखाने एक साथ मिलकर अट्टहास कर रहे हैं। विलेजको ग्लोबलविलेजका सपना बेचनेवालेप्रोटेक्टिव यूरोपकी आज की तस्वीर और भारत की अस्सी के दशक तक की तस्वीरें लगभग समान हैं। इन तस्वीरों में पेड़ हैं, खेत हैं, हरियाली है, पानी के स्रोत हैं, गाँव हैं। हमारे पास अब सूखे ताल हैं, निरपनिया तलैया हैं, जल के स्रोतों को पाटकर मौत की नींव पर खड़े भवन हैं, गुमशुदा खेत-हरियाली  हैं, चारे के अभाव में मरते पशु और चारे को पैसे में बदलकर चरते मनुष्य हैं।
माना जाता है कि मनुष्य, प्रकृति की प्रिय संतान है। माँ की आँख में सदा संतान का प्रतिबिम्ब दिखता है। अभागी माँ अब संतान की पुतलियों में अपनी हत्या के दृश्य पाकर हताश है।
और हाँ, पर्यावरण दिवस भी दस्तक दे रहा है। हम सब एक सुर में सरकार, नेता, बिल्डर, अधिकारी, निष्क्रिय नागरिकों को कोसेंगे। कागज़ पर लम्बे, चौड़े भाषण लिखे जाएँगे, टाइप होंगे और उसके प्रिंट लिए जाएँगे। प्रिंट कमांड देते समय स्क्रीन पर भले पर शब्द उभरें-सेव इन्वायरमेंट। प्रिंट दिस ऑनलीइफनेसेसरी,’ हम प्रिंट निकालेंगे ही। संभव होगा तो कुछ लोगों खास तौर पर मीडिया को देने के लिए इसकी अधिक प्रतियाँ निकालेंगे।
कब तक चलेगा हम सबका ये पाखंड? घड़ा लबालब हो चुका है। इससे पहले कि प्रकृति केदारनाथ के ट्रेलर को लार्जस्केल सिनेमा में बदले, हमें अपने भीतर बसे नेता, बिल्डर, भ्रष्ट अधिकारी तथा निष्क्रिय नागरिक से छुटकारा पाना होगा।

चलिए इस बार पर्यावरण दिवस पर सेमिनार, चर्चा वगैरह के साथ बेलचा, फावड़ा, कुदाल भी उठाएँ, कुछ पेड़ लगाएँ, कुछ पेड़ बचाएँ। जागरूक हों, जागृति करें। यों निरीलिखत-पढ़त और बौद्धिक जुगाली से भी क्या हासिल होगा?