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Jun 7, 2017

प्रकृति और पर्यावरण के तीन रंग:

                                                                                    - बाबा मायाराम

1. दयाबाई 
मिट्टी, पानी और पर्यावरण को बचाने का जतन

दयाबाई का नाम बरसों से सुन रहा था, लेकिन मुलाकात हाल ही में हुई। मामूली सी लगने वाली इस वयोवृद्ध महिला से मिला तो उसे देखता ही रह गया। सूती गुलाबी साड़ी, पोलका, गले में चाँदी की हँसली, रंग-बिरंगीगुरियों की माला। किसी सामाजिक कार्यकर्ता की ऐसी वेश-भूषा शायद ही मैंने कभी इससे पहले देखी हो।
नाम के अनुरूप ही 75 वर्षीय दयाबाई का पूरा व्यक्तित्व ही दया और करुणा से भरा है। रचनात्मक कामों के साथ वे अन्याय से लड़ने के लिए हमेशा तत्पर रहती हैं। बिना रासायनिक की जैविक खेती, पानी बचाने और वृक्षारोपण, पर्यावरण के प्रति जागरुकता जगाने, मूर्तिकला, पशुपालन, नुक्कड़ नाटक कर अलग जीवनशैली जीती हैं। और जनता में चेतना जगाने की कोशिश करती हैं।
4 मार्च को मैं अपने एक केरल के मित्र शुबू राज के साथ दयाबाई से मिलने उनके गाँव गया था। नरसिंहपुर से बस से हर्रई और वहाँ से फिर बस बदलकर बटकाखापा जाने वाली सडक़ पर बारूल गाँव पहुँचे। यह पूरा रास्ता पहाड़ और जंगल का बहुत ही मनोरम था। वे गाँव से दूर एक छोटी पहाड़ी की तलहटी में अपने खेत में ही रहती हैं। इसी पहाड़ पर उनके प्रयास से एक बाँध बना है, जिससे आसपास के प्यासे खेतों को पानी मिलता है।
दयाबाई हमें एक मिट्टी और बाँस से बने घर में ले गईं। जहाँ उन्हें मिले हुए सम्मान की ट्रॉफी रखी हुई थी। इस बाँस, मिट्टी से बने सुन्दर घर की दीवार पर संविधान की प्रस्तावना अंकित थी।
उनके साथ दो कुत्ते थे,जिनसे उन्होंने हमारा परिचय कराया। एक का नाम चंदू और दूसरे का नाम आशुतोष था। चंदू ने हमसे नमस्ते की। कुछ देर बाद एक बिल्ली आई जिसका नाम गोरी था।
वे बताती हैं कि वे पहले चर्च से जुड़ी थी। मुम्बई से सामाजिक कार्य (एमएसडब्ल्यू) की पढ़ाई की है। कानून की डिग्री भी है। उन्होंने बताया कि वे पहली बार सामाजिक कार्य की पढ़ाई के दौरान मध्य प्रदेश आईं और फिर यहीं की होकर रह गई। वे चर्च की सीमाओं से आगे काम करना चाहती थीं ; इसलिए  वे सीधे गोंड आदिवासियों के बीच काम करने लगीं। और उन्होंने अपने आपको डी-क्लास कर लिया। आदिवासियों की तरह रहीं, उन्हीं की तरह खाना खाया। उनके ही घर में रहीं और उनकी ही तरह मजदूरी भी की।
दयाबाई पहले 20 साल तक यहाँ के एक गाँव में रहीं और बाद में बारूल में 4 एकड़ जमीन खरीदकर और वहीं घर बनाकर रहने लगीं;लेकिन इलाके की समस्याओं व देश-दुनिया के छोटे-बड़े आन्दोलन से जुड़ी रहती हैं। नर्मदा बचाओ से लेकर केरल के भूमि आन्दोलन तक भागीदार रही हैं। परमाणु बिजली से लेकर पर्यावरण आन्दोलन में शिरकत कर रही हैं।
पलाश, इसे टेसू भी कहते हैं, फूल मोह रहे हैं। दयाबाई के खेत में भी हैं। अचार, सन्तरा, अमरूद, बेर जैसे फलदार पेड़ हैं तो सब्जियों की बहुतायत है। मसूर और चने की कटाई हो रही है। गोबर गैस भी है, लेकिन उसका इस्तेमाल कम होता है। चूल्हे में लकड़ियों से खाना पकता है।
दोपहर भोजन का समय हो गया है। मैंने उनके हरे-भरे खेत पर नजर डाली- सन्तरे और नींबू से लदे थे। बेर पके थे। तालाब में पानी भरा था। और सामने की पहाड़ी के पास से स्टापडेम से नहर से पानी बह रहा है। मौसम में ठंडक है।
न यहाँ बिजली है, न पंखा। न टेलीविजन की बकझक है और न कोई और तामझाम। सौर ऊर्जा से बत्तियाँ जलती हैं। दयाबाई ने बताया कि वे बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के किसी भी सामान का उपयोग नहीं करतीं। साबुन भी बिना डिटरजेंट का इस्तेमाल करती हैं। उनकी जिन्दगी सादगी से भरी हुई है।
वे पशुप्रेमी हैं। वे उनसे बातें करती हैं, उनके साथ सुख-दुख बाँटती हैं। वे उनके सहारा भी हैं। चंदू और आशुतोष के पहले उनके पास एथोस नाम का कुत्ता था, वह नहीं रहा, उसकी यादों को संजोए चंदू और आशुतोष पर प्यार लुटाती हैं।
बिना रासायनिक खाद के खेती करती हैं। वे कहती हैं यहाँ की मिट्टी पथरीली है। नीचे चट्टान-ही-चट्टान हैं। हमने मेहनत कर पानी-मिट्टी का संरक्षण किया, तब जाकर अब फसलें हो रही हैं। फसलें अच्छी होने के लिए  मिट्टी की सेहत बहुत जरूरी है। हमें मिट्टी से खाना मिलता है, उसे भी हमें जैव खाद के रूप भोजन देना है। वे कहती हैं, जो हमें व जानवरों को नहीं चाहिए ,वह मिट्टी को जैव खाद के रूप में वापस दे देते हैं। केंचुआ का खाद इस्तेमाल करती हैं, वह बिना स्वार्थ के पूरे समय जमीन को बखरते रहता है। पेड़ लगाएँ हैं और पानी संरक्षण के उपाय भी किए  हैं। खेत में कोदो, कुटकी, मड़िया, मक्का लगाती हैं। कई तरह की दाल उगाती हैं जिनसे खेत को नाइट्रोजन मिलती है। सब्जियों में सेम (बल्लर), गोभी, चुकन्दर, गाजर, कुम्हड़ा, लौकी और कद्दू, टमाटर लगाती हैं। मैंने बरसों बाद कांच के कंचों की तरह छोटे टमाटर देखे ,जिसकी चटनी बहुत स्वादिष्ट लगती है।
उनका जीवन सादगी से भरा है। सार्थक और उद्देश्यपूर्ण है। वे साधारण महिला हैं, जिन्होंने एक असाधारण जीवन का रास्ता चुना है। वे एक रोशनी हैं उन सबके लिए  जो कुछ करना चाहते हैं। जो बदलाव चाहते हैं। उन्होंने उम्मीदों के बीज बोएँ हैं। अँधेरे में रोशनी दिखाई है। ऐसा नहीं है कि उन्होंने सभी समस्याओं के हल खोज लिये हैं। लेकिन उस दिशा में प्रयास जरूर किए  हैं।
वे गाँधी को उद्धृत करती हुई कहती हैं कि धरती हर व्यक्ति की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकती है, लेकिन किसी एक व्यक्ति के लालच की नहीं। इसलिए  हमें प्राकृतिक संसाधनों के शोषण की नहीं बल्कि मिट्टी, पानी और पर्यावरण का संरक्षण करना है।

2. मंजुला सन्देश पाडवी

महिला किसान की
 जैविक खेती

एक अकेली महिला किस तरह जैविक खेती कर सकती है, इसका बहुत अच्छा उदाहरण मंजुला सन्देश पाडवी है। न केवल उसने इससे अपने परिवार का पालन-पोषण किया बल्कि अपनी बेटी को पढ़ाया लिखाया और अब वह नौकरी भी कर रही है।
महाराष्ट्र के नंदुरबार जिले के वागशेपा गाँव की मंजुला की जैविक खेती की चर्चा अब फैल गई है। मंजुला के पास 4 एकड़ जमीन है। उसका पति 10 साल पहले छोडक़र चला गया था। उसके खुद का हृदय बाल्व बदला है, दवाएँ चलती रहती हैं। इसके बाद भी उसने हिम्मत नहीं हारी। खुद खेती करने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली।
बचत समूह से कर्ज लेकर खेत में मोटर पम्प लगाया। मिट्टी को उपजाऊ बनाने के लिए  गोबर खाद खरीदकर डाली। सरकारी योजनाओं के पैसे से बैल-जोड़ी खरीदी। खेत में खुद हल-बक्खर चलाती है। फसल की निंदाई-गुड़ाई करती है। मक्का और ज्वार खेत में लगाया था। अच्छा उत्पादन हुआ।
वह कहती है कि बाजू वाले खेतों की फसल कमजोर होती है। पिछले साल उनका मक्का नहीं हुआ, हमारा अच्छा हुआ। इसका कारण बताते हुए वह कहती है कि हमने जैविक खाद का इस्तेमाल किया, जबकि वे रासायनिक खाद डालते हैं। इस साल फिर मक्का- ज्वार की फसल खड़ी है।
नंदुरबार स्थित जन सेवा मण्डल ने इस इलाके में 15 बचत समूह बनाए हैं। इन समूहों में जो पैसा जमा होता है, उससे किसान खेती के लिए  कर्ज लेते हैं। बिना रासायनिक और देसी बीज वाली खेती को प्रोत्साहित किया जाता है। पहले देसी बीज बैंक भी बनाए थे। सब्जी, फलदार वृक्ष और अनाजों की मिली-जुली खेती की जा रही है। मंजुला भी उनमें से एक है। आज उसकी बेटी मनिका को अपनी माँ पर गर्व है। वह कहती है मेरी माँ बहुत अच्छी है।
खेती के विकास में महिलाओं का बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। परम्परागत खेती में वे पुरुषों के साथ बराबरी से काम करती हैं। बल्कि उनसे ज्यादा काम करती हैं। खेत में बीज बोने से लेकर उनके संरक्षण-संवर्धन और भण्डारण का काम करती हैं। पशुपालन से लेकर विविध तरह की सब्जियाँ लगाने व फलदार वृक्षों की परवरिश में महिलाओं का योगदान होता है।
लेकिन जब खेती का मशीनीकरण होता है तो वे इससे बाहर हो जाती हैं। मंजुला की खेती भी यही बताती है, उसका पति उसे छोडक़र चला गया। न केवल उसने खेती को सम्भाल लिया, अपना व अपने बच्चों का पालन-पोषण कर लिया, बल्कि उन्हें पढ़ा-लिखा इस लायक बना दिया कि उसकी लडक़ीनर्स बन गई और आज जलगाँव में नौकरी कर रही है।
उसका काम इसलिए  और महत्त्वपूर्ण हो जाता है जब किसान संकट में हैं। उसने खेती की ऐसी राह पकड़ी जो टिकाऊ, बिना रासायनिक, कम खर्चे वाली है। आज बिना रासायनिक वाली खेती ही जरूरत है जिसमें महिलाओं की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो सकती है। बल्कि पहले थी ही।
टिकाऊ खेती की ओर इसलिए बढऩा जरूरी है क्योंकि बेजा रासायनिक खादों के इस्तेमाल से हमारी उपजाऊ खेती बंजर होती जा रही है, भूजल खिसकता जा रहा है, प्रदूषित हो रहा है और खेती की लागत बढ़ती जा रही है, उपज घटती जा रही है, इसलिए  किसान आत्महत्या कर रहे हैं।
मंजुला जैसी महिलाएँ आज एक उदाहरण हैं, जो अकेली होकर भी सफल किसान हैं। उनकी खेती से सीखकर मिट्टी, पानी और पर्यावरण के संरक्षण वाली खेती की ओर बढ़ना ही, आज समय की माँग है।

3. प्रेम भाई

प्रकृति के करीब कुछ सोचने और तलाशने...

पिछले माह मुझे गुजरात में कच्छ-भुज में स्थित प्राकृतिक चिकित्सा फार्म में ठहरने का मौका मिला। हम वहाँ एक कार्यक्रम के सिलसिले में गए थे। इस फार्म का नाम था- निजानंद फार्म।
यह हरीपर गाँव में था। भुज से चार-पाँच किलोमीटर दूर। सबसे कम बारिश वाले इलाके में बहुत हरा-भरा फार्म मनमोहक था। सरसराती हवा, रंग-बिरंगे फूल, शान्त वातावरण। कुछ सोचने और तलाशने का वातावरण।
यह फार्म जय भाई का है, जो खुद प्राकृतिक चिकित्सक हैं। लेकिन इसकी देखभाल प्रेम भाई और उनकी पत्नी करते हैं। मैंने उनके साथ इस फार्म को देखा। यहाँ कई औषधि पौधे भी थे, जो रंग-रूप, स्वाद में अलग थे, बल्कि उनके उपयोग भी अलग-अलग थे। मैंने इन्हें करीब से देखा जाना। इनमें से कुछ को मैं पहले से जानता था, पर कुछ नए भी थे। अमलतास, सर्पगन्धा, अडूसा, करौंदा, पारिजात, नगोड़, रायन, समंदसोख, कंजी, इमली और तीन प्रकार की तुलसी- राम, श्याम व तिलक इत्यादि। पेड़ों पर लिपटी गुडवेल दिखी, जो पहले गाँव में भी आसानी से मिल जाती थी।
जय भाई ने यह जड़ी-बूटी का बगीचा लगाया है, क्योंकि वे प्राकृतिक चिकित्सा में इन सबका इस्तेमाल करते हैं। प्रेम भाई इनके बारे में बारीकी से बता रहे थे, मैं फूल, पत्ते और फल को देख रहा था।
प्रेम भाई की पत्नी ने बताया कि पहले वे लोग मुम्बई में रहते थे। वहाँ प्रिटिंग का काम करते थे, लेकिन वहाँ वे बीमार रहती थी। रहने की जगह अच्छी नहीं थी, लेकिन जब से इस फार्म में रह रही हैं, पूरी तरह स्वस्थ हैं। बिना इलाज, बिना दवाई।
यहाँ दो बातें कहनी जरूरी हैं- एक, पहले हर घर में जड़ी-बूटी का भले ही ऐसा व्यवस्थित बगीचा नहीं होता था; लेकिन तुलसी, अदरक, पुदीना और इस तरह के पौधे होते थे, जिनसे घरेलू इलाज कर लेते थे। और दूसरी बात घर के आसपास हरे-भरे पेड़ होते थे, जो शुद्ध हवा और पानी के स्रोत होते थे। स्वस्थ जीवन के लिए  इनका बड़ा योगदान है।
मेरे पिताजी खुद जड़ी-बूटी के जानकार थे। घर के आगे-पीछे कई तरह जड़ी-बूटी के पौधे लगाए थे। जंगल से भी पौधों की छाल, पत्ते, फल, फूल लेकर आते थे। उन्हें कूटते, छानते बीनते थे। अर्क, चूर्ण और बटी बनाते थे। इनकी खुशबू घर में फैलती रहती थी।
अगर इस तरह के पेड़-पौधे घर में लोग लगाएँ तो छोटी-मोटी बीमारी का इलाज खुद कर सकेंगे, जो पहले करते ही थे। और इनसे शुद्ध हवा, पानी भी मिल सकेगा। पेड़ भी पानी ही है। इसे कालमवाटर कहते हैं। सिर्फ नदी नालों, कुओं, बावड़ियोंय़ों में ही पानी नहीं रहता, पेड़ों में भी होता है।
यह जड़ी-बूटी का बगीचा सदा याद आएगा, चार दिन हम रहे, रोज सुबह की सैर की। और प्रकृति को नजदीक से देखा, उसके पास, उसके साथ रहे।
Email- babamayaram@gmail.com

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