Sep 18, 2016
समय और तिथि से परे...
जीवन की संवेदनशील
आवेगमयी सघन अनुभूतियों का दैनंदिन साहित्यिक अभिलेखी करण डायरी है, इसमें दिन/तिथि/माह/वर्ष और समय का
उल्लेख प्रामाणिकता से अधिक स्मृतियों की
संभावी व्याख्या में सहायता के लिए होता
है। प्राय: घरेलू हिसाब-किताब की डायरी का प्रयोग हमारे दैनंदिन आय-व्यय, वैयक्तिक लेन-देन, किसी भेंट और आवागमन की स्मृति के लिए
होता है। जहाँ सामान्य डायरी इन भौतिक स्थितियों का उद्घाटन करती है/ स्मरण कराती
है, वहीं साहित्यिक डायरी
हमारे भीतर के संवेदन का उद्घाटन करती है। इस डायरी को किसी अनुभूत सत्य को समय और
तिथि के साथ जीने की कला भी कहा जा सकता है। इसे लिखते हुए अरस्तू के विरेचन
(कैथार्सिस) की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। डायरी को यदि विरेचन के सिद्धांत की व्यावहारिक व्याख्या कहा
जाए तो भी गलत न होगा। संस्मरण से अधिक ईमानदारी की दरकार डायरी में होती है। एक
बहुत अच्छी डायरी समय और तिथि आदि से कभी भी बँधी नहीं रहती है। वह इन्हें भावों
और विचारों के उड़ान भरने और उतरने के समय के अलावा कभी भी और कहीं भी किनारे कर
सकती है।
डायरी
के लिए कोशों में कैलेंडर, जंत्री, दैनिकी, रोजनामचा, दैनंदिनी, दिनचर्या
पत्रिका, दैनिक विवरणिका, दैनिक वृत्त की पुस्तिका, पाकेट बुक, ब्राडकास्ट, दिनपत्रिका, तिथि-पत्रक और दैनिक वृत्त की पुस्तक
आदि शब्द भी मिलते हैं जो सभी यही दर्शाते हैं कि हमारे दैनिक जीवन की घटनाओं और
ब्योरों के लिपिबद्धीकरण का नाम डायरी है; लेकिन इन सबमें
सूचनापरकता का शुष्कता बोध है, जिनसे साहित्यिक
डायरी का बोध नहीं होता। जब यही डायरी अपनी सूचनात्मक शैली को त्यागते हुए जीवन
में घटित -अघटित का वस्तु से व्यक्तिनिष्ठ होकर वर्णन करती है, अपनी भाषा- शैली में सरस हो जाती है और कथ्य में
भावों का तीव्र आलोडन- विलोडन होता है तो यही डायरी साहित्यिक हो जाती है।
साहित्यिक डायरी सूचना से संवेदना की ओर
प्रस्थान करती है जबकि अन्य डायरियाँ संवेदना से सूचना की ओर यात्रा करती हैं।
- डॉ. गंगाप्रसाद शर्मा 'गुणशेखर’
(प्रोफेसर (हिंदी) एवं संपादक 'इंदु संचेतना’ कुआंगतोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, कुआंगचौ, कुआंगतोंग प्रांत, चीन)
(प्रोफेसर (हिंदी) एवं संपादक 'इंदु संचेतना’ कुआंगतोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, कुआंगचौ, कुआंगतोंग प्रांत, चीन)
डायरी बोलती है...
80 के दशक में जब मैंने पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश किया था और दैनिक नवभारत में प्रशिक्षु पत्रकार के रूप में अपनी नयी पारी की शुरूआत की तो सपने तो बहुत थे पर भविष्य की कोई स्पष्ट रूपरेखा मन में नहीं थी। उस समय मेरे लिए इतना ही बहुत था कि मैं स्वावलम्बी बन गई हूँ। समय आगे सरकता गया और पता ही नहीं चला कि अखबारों में काम करते करते जिंदगी के इतने साल कब बीत गए। एक दौर ऐसा आया जब मुझे विभिन्न समाचार-पत्रों में नौकरी करते- करते उब सी होने लगी, तब मुझे लगा कि अब स्वयं की ही पत्रिका निकालनी चाहिए, पर साहस नहीं कर पा रही थी, मन में एक भय था कि अकेले क्या यह मैं कर पाऊँगी। 2001 में एक पत्रिका का शीर्षक दिल्ली से अनुमोदित होकर आ भी गया था , पर तब उसे निकाल नहीं पाई थी। पर परिवार में सभी का सहयोग और प्रोत्साहन मिला तो हिम्मत आ गई।
और अंतत: जब 2008 में जब मैं उदंती.com की तैयारी कर रही थी तब लगा था काश मेरे बाबूजी मेरे साथ होते। हृदयघात से 1987 में वे हम सबको छोड़कर चले गए। वे होते तो शायद मैं बहुत पहले ही अपनी पत्रिका निकाल चुकी होती। अकेले साहस बटोरते- बटोरते कई साल बीत गए, हाँ इतना जरूर है कि उनके आशीर्वाद से उदंती के प्रकाशन को भी आठ साल बीत गए। इन आठ वर्षों में मैंने अपने बाबूजी को हर पल याद किया। उनकी सिखाई, बताई बातें और उनके दिए संस्कारों को लेकर हमने सभी बाधाओं को पार किया और आगे बढ़ते ही चले गए।
मुझे याद है, जब मैंने पत्रकारिता के क्षेत्र में कदम रखा , तब मैं घर में सबसे बड़ी थी। मुझसे बड़ी बहन की शादी हो चुकी थी। छोटे भाई बहन तब स्कूल कॉलेज में पढ़ाई कर रहे थे। माँ- बाबूजी के साथ मेरा ज्यादा समय बीतता था। तब बाबूजी मेरी प्रत्येक सप्ताह प्रकाशित होने वाली फीचर रिपोर्ट और अन्य लेखों को बड़े ध्यान से पढ़ते और मुझे प्रोत्साहित करते, साथ ही सलाह भी देते। कई फीचर्स की तैयारी में तो उन्होंने मेरी भरपूर सहायता भी की। इसी तरह स्कूल और कॉलेज के समय में अच्छी पत्र- पत्रिकाएँ घर लाकर पढऩे- लिखने का जो चस्का उन्होंने लगाया था, वह सब आगे जाकर मेरे बहुत काम आया। बाबूजी ने अपनी इच्छाओं को हम बच्चों पर कभी नहीं थोपा। हमें पढऩे लिखने का उचित माहौल दिया और आगे बढऩे के लिए हमेशा उत्साहित किया।
जब से होश सम्भाला है अपने बाबूजी को मैंने खादी के कपड़ों में ही देखा है। खादी का कुर्ता पाजामा हो या धोती कुर्ता, ठंड के मौसम में जैकेट या कोट, वे सब खादी की ही पहनते थे। उनकी वह उज्ज्वल छवि आँखों में बसी हुई है। यह सब लिखते हुए मैं उन्हें महसूस कर पा रही हूँ। एक बार उन्होंने मुझसे अपने गाँव पलारी को केन्द्र में रख कर रिपोर्ताज तैयार करवाया था। मैं तभी से जान गई थी कि वे बहुत अच्छा लिख सकते हैं। राजनीति में रहते हुए उन्हें विभिन्न विषयों पर बोलते हुए तो बहुत सुना था, वकील थे तो प्रत्येक विषय पर उनकी पकड़ थी ; लेकिन उनकी लेखनी से परिचय उनके जाने के बाद हुआ ।माँ ने उनकी अलमारी से उनकी लिखी डायरी के बारे में बताया। ये डायरी उन्होंने 1975- 76 में आपातकाल के दौरान जेल में रहते हुए लिखीं थीं।
26 जून 1975 से इंदिरा गांधी ने जब पूरे देश में आपातकाल लगाया था तब कांग्रेस विरोधी राजनैतिक दलों के प्रमुख कार्यकर्ताओं को देश भर के विभिन्न जेलों में बंद कर दिया गया। मेरे बाबूजी भी उन्हीं में से एक थे। आपातकाल में 22 महीने जेल यात्रा के दौरान, जेल की एकाकीपन को खत्म करने के लिए उन्होंने डायरी लिखना आरंभ किया था ; जिसमें उन्होंने अपने बचपन से लेकर शिक्षा, वकालत, परिवार, गाँव- घर और वहाँ के लोग तथा राजनीतिक जीवन की घटनाओं को सिलसिलेवार ऐसे लिखा है मानों बचपन से लेकर अब तक के लम्हों को वे फिर से जी रहे हों। जाहिर है इस डायरी में राजनीति की बातें सबसे ज्यादा हैं, आखिर उनके जीवन का सबसे अधिक समय राजनीति में ही तो बीता है। उनके अपने पारिवारिक और व्यक्तिगत जीवन में जो भी उतार- चढ़ाव आए ,उसे उन्होंने जैसा महसूस किया , वैसे का वैसा अपनी सीधी- सरल और खड़ी भाषा में डायरी के पन्नों पर उतार दिया है। सही मायनों में यह जेल डायरी एक प्रकार से उनका जीवन- वृत्तान्त है।
बरसों तक उनकी लिखी ये डायरियाँ माँ के पास सुरक्षित रखी रहीं। अपने जीवन काल में बाबूजी ने भी कभी इनकी ओर पलट कर नहीं देखा और न कभी हम बच्चों से इसकी चर्चा की। उनके चले जाने के कई बरस बाद , जब माँ ने इन्हें निकाला और हम सब धीरे- धीरे एक एक डायरी पढ़ने लगे तो भौचक रह गई कि 22 महीनों में उन्होंने अपने जीवन के हर पहलू को याद करते हुए बस लिखा ही लिखा है। आपातकाल की 30 वीं बरसी 2008 में सांध्य दैनिक छत्तीसगढ़ के संपादक सुनील कुमार जी से इस डायरी के संदर्भ में मेरी बात हुई तब उन्होंने अपनी साप्ताहिक पत्रिका इतवारी अखबार में आपातकाल की कहानी बृजलाल वर्मा की जुबानी शीर्षक से किश्तवार प्रकाशित करने की अनुमति दी। (उन दिनों मैं उक्त पत्रिका में सहायक संपादक के रुप में कार्य कर रही थी)
यह मेरा सौभाग्य है कि मुझे उनकी इस डायरी को पढऩे और इसे संपादित करने का अवसर मिला है। मुझे अपने पर गर्व है कि मैं उनकी बेटी हूँ। उदंती के नौवें वर्ष में प्रवेश करने के अवसर पर, इस अंक को मैं अपने बाबूजी पर केन्द्रित कर रही हूँ। उनकी डायरी के कुछ अंश आप सबसे साझा करते हुए मैं अपनी आदरांजलि प्रगट कर रही हूँ। विश्वास है आप सबको यह अंक पसंद आयेगा।
आपातकाल- जेल डायरी के अंश
जिन्दगी के वे अनमोल क्षण
-बृजलाल वर्मा (संपादन- डॉ. रत्ना वर्मा)
-बृजलाल वर्मा (संपादन- डॉ. रत्ना वर्मा)
रायपुर सेंट्रल जेल २९ जून १९७५
मीसा में गिरफ्तारी के लिए वारंट मेरे पास पलारी (गृह ग्राम) भेजा
गया पर वहाँ की पुलिस ने मुझे गिरफ्तार नहीं किया। एस.डी.ओ. खन्ना और सरकल थानेदार
को बतलाकर वारंट लाने वाले चले गए। मेरी गिरफ्तारी की खबर मुझे २६ जून को ही लग गई
थी उसके लिए मैं तैयार भी था।
दूसरे दिन २७ जून मैं बलौदाबाजार
में था जहाँ बिना वारंट दिखाये मुझे गिरफ्तार किया गया और रायपुर जेल में लगभग ७
बजे शाम को लाया गया। गिरफ्तारी के पहले मैं बलौदाबाजार में अपने कुछ साथियों से
मिला जिसमें त्रिवेदी, उत्तम अग्रवाल आदि थे। उनने मुझसे पूछा कि हमें अब क्या करना
चाहिए तो मैंने उन्हीं पर छोड़ दिया कि जो
ठीक लगे करो। थोड़े दिनों बाद वे सत्याग्रह करके डी.आई.आर. में रायपुर जेल आये फिर
जमानत में छोड़ दिये गए। उन सबने भी साहस का कार्य किया।
जेल में आते ही मुझे डॉ. रमेश, कौशिक, लिमिये जी आदि ने, जो आपातकाल लगने के पहले ही रायपुर जेल आ गए थे, मेरा स्वागत किया।
जेल में पार्टी के अब काफी
साथी आ गए हैं। जिनके साथ हमारी चर्चा चलती रहती है कि कांग्रेस सरकार
कम्युनिस्टों से मिलकर तानाशाही लाना चाह रही है तथा मीसा कानून में ऐसा परिवर्तन
कर रही है,
जिससे बंदियों
के लिए अदालत का दरवाजा बंद हो जाएँ। मेरी गिरफ्तारी भी गलत आरोप लगा।कर की गई है, मैंने कभी भी संवैधानिक अधिकारों
के खिलाफ अप्रजातांत्रिक कार्य नहीं किया है। न कभी कोई हिंसक कार्य किया और न
दूसरों को ही हिंसक कार्य के लिए प्रेरित करता हूँ। मैं जब कांग्रेस से
के.एम.पी.पी. में आया फिर पी.एस.पी. में आकर थोड़े दिनों के लिए अशोक मेहता के साथ
कांग्रेस में जाकर जनसंघ में शामिल हुआ वहाँ कहीं भी मेरी ऐसी प्रकृति नहीं रही कि
राजनीति में किसी प्रकार की हिंसा का
प्रवेश हो।
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पत्नी निरेन्द्री के साथ |
प्रिय निरेन्द्री ( पत्नी को पत्र) २९ जून १९७५ मैं जब परसों तुम्हें घर पर छोड़कर पुलिस गाड़ी में बैठकर जेल चला गया ,तब तुम्हारे दिल में पीड़ा तो थी ;पर तुमने जरा भी मेरे सामने उसे प्रगट होने नहीं दिया। मैं तुम्हारे चेहरे से भाँप गया। तुमने तो एक दिन पहले ही जान लिया था कि मैं जेल जा रहा हूँ। तुमने ही इसकी सूचना मुझे दी थी। इतना ही नहीं मेरी सभी जरूरत के सामान को भी तुमने तैयार करके रखा था; क्योंकि तुम जानती थी कि मुझसे कुछ बात करने का ज्यादा मौका नहीं मिलेगा। मुझे यह भी याद है कि जब मैं हाथ- मुँह धोने अंदर रायपुर के घर में गया, यह कहते हुए कि बलौदाबाजार से गिरफ्तारी के समय जो पुलिस वालों मेरे साथ हैं, उन्हें चाय पिला दो। उसी दौरान पुलिस इंसपेक्टर के यह जानकारी लेने पर कि घर के पीछे कोई दरवाजा है क्या? तुमने थोड़ा नाराज होते हुए उससे कहा था कि क्या तुम यह सोचते हो ,वे भाग जाएँगे। फिर पुलिस ने तुमसे क्षमा माँगी। वे अपनी ड्यूटी निभा रहे थे। यह बात पुलिस ने मुझ बाद में बताई तो मुझे लगा तुम बहुत साहसी हो और वह होना भी चाहिए ;क्योंकि वह तुम्हारे खून में है, एक क्रांतिकारी के घर में जो पैदा होता है वह ऐसी परिस्थितियों का मुकाबला साहस से ही करता है मुझे इस पर अभिमान है। माँ बाप का असर बच्चों पर जरूर ही पड़ता है।
८ जुलाई १९७५
मैं तुम्हें हर एक दो दिन में पत्र द्वारा अपने जरूरतों तथा
स्वास्थ्य के बारे में लिखता रहा तथा घर का काम काज भी लगातार बतलाता रहा; जिसे तुम धीरज के साथ पूरा करती
रही । मुझे लगा कि तुम पर बहुत भार हो गया और उस भार को कम करने के लिए सरहूराम
वोटगन वाले को बुलाकर बात करके कुछ काम में लगा लेने के लिए भी लिखा ,जैसा तुमने किया भी। मैं राजनीति
की गतिविधियों में इतना ज्यादा व्यस्त रहता रहा हूँ कि घर का कार्य करीब-करीब
तुम्हीं लोग करते रहे हो; इसी कारण से मैं जरा निश्चित रहता था। पर आर्थिक स्थिति दिन प्रतिदिन
कमजोर होने से बाप- दादों की जायदाद को बेचकर पूरा करना तथा अपना खर्च पूरा करना कई वर्षों से चला आ रहा था। खर्च मेरा ही ज्यादा रहता है और हिसाब- किताब
में भी बहुत ज्यादा लापरवाह हूँ, इसलिए संयम से खर्च नहीं कर पाता, न नियमित बजट ही बनाता। जब तुम
पलारी में थी ,तब कुछ न कुछ करके यानी रहन वगैरह रखकर कुछ पैसा अर्जन भी कर लेती
थी। अब वह भी ४-५ वर्षों से बंद हो गया
है। तो भी तुम कैसे खर्च चलाती ही ,यह तुम्हीं जानों; क्योंकि दिन पर दिन खर्च बढ़ रहा है और आमदनी कम होती जा रही है।
बच्चे सब पढ़ाई में लगे हैं। बाबू का अब आखरी साल है ।मुझे पूर्ण आशा तो है कि वह
इस वर्ष अपनी पढ़ाई पूरी करके आ जाएगा और किसी न किसी कार्य में लग जाएगा। घर आने
पर ही पता चलेगा कि वह क्या करना चाहता है। मैं तो तुम्हें कई बार कह चुका हूँ कि
बाबू को घर के खेती- बाड़ी के पचड़े से अलग रखकर कोई स्वतंत्र कार्य करने को कहूँगा ,पर वह क्या करता है ;यह तो उसी पर ज्यादा निर्भर है।
गाँव में उसे मैं नहीं रहने देना चाहता, यह मेरी इच्छा है। यह सब उससे मालूम करके बतलाना।
जेल से लिखे पत्र में बचपन की यादें
१० जुलाई १९७५
दिल्ली में परिवार से साथ नातिन का प्रथम जन्मदिन मनातेे हुए |
मैंने अपने तथा अपने परिवार के बारे में पहले जो लिखा उसे पूरा करने
हेतु कुछ और बाते लिखना जरूरी समझता हूँ। मेरे दादा मोहन लाल अपने पिता के अकेले
पुत्र थे। उनके पास बहुत जमीन जायदाद थी दो ग्रामों में खेती व मालगुजारी थी
बरबंदा तथा पलारी ग्रामों में करीब १८-१९ सौ एकड़ जमीन थी। कुछ में खेती करते थे और
कुछ पड़ती पड़ी रहती थी। मेरे दादा ने पलारी में कई लोगों को जो कि उनसे किसी न किसी
रूप में सम्बन्धिधित थे १० एकड़ से ३० एकड़ जमीन मुफ्त में दी तथा उनके नाम पर चढ़ा
दिया। बरबंदा हमारे पुरखों का ग्राम था, जिसे शायद हमारे दादा के दादा ने अपने हिस्से में पाया था। बाद में
हमारे दादा के दादा ने पलारी को खरीदा। लोगों का कहना है पलारी ग्राम को सिर्फ उन
दिनों १०० रुपये में खरीदा! उस वक्त रुपये की कीमत भी बहुत थी। गाँव जंगल था २५-२०
लोगों की बस्ती थी। कुल मिलाकर गाँव में हमारे ही परिवार के लोगों की बस्ती थी।
परिवार के लोगों ने दूसरों को जमीन दे दे देकर बसाया। मेरी जानकारी के अनुसार पलारी ग्राम में हमारा
परिवार करीब १५० से २०० वर्षों पूर्व आकर बसा है ,ऐसा अनुमान है। इससे पहले बरबंदा
गाँव में हमरे खानदान के लोग बसे थे। वहाँ मेरे पूर्वज कब आए, मैं अंदाज नहीं लगा सकता। हमारे खानदान की एक खास बात और है
कि परिवार में लगातार चार वंशों तक एक ही
पुत्र पैदा होते रहा। इसीलिए इतनी अधिक जमीन मेरे दादा मोहनलाल के पास थी। पर उसके
बाद वंश बढ़ा मेरे दादा जी के ६ पुत्र हुए।
एक जो छोटे थे रामलाल उनकी मृत्यु बिना बाल बच्चों के युवाकाल में ही हो गई
और दूसरे पुत्र बंशीलाल की एक ही लड़की हुई, पर उनकी भी युवावस्था में ही मृत्यु हो गई। इन्हीं बंशीलाल की पत्नी
ने मुझे अपने पुत्र के समान मेरा लालन - पालन किया है।
मेरी पढ़ाई के बारे में पिता जी को हमेशा बहुत ज्यादा चिंता रहती थी।
चौथी हिन्दी पास करने के बाद (जब तक मैं अपने बड़े पिता सदाराम जी के ही यहाँ रहता
रहा) मुझे २-४ माह के लिए रायपुर अंग्रेजी स्कूल में भेजा पर फिर वहाँ से मुझे एक
संस्था जो पं. माखनलाल जी चतुर्वेदी खंडवा वाले (महान कवि तथा स्वतंत्रता संग्राम
सेनानी) की संस्था सेवा सदन हिरनखेड़ा ग्राम जो कि होशंगाबाद के इटारसी स्टेशन के
पास जंगल में है, पढऩे भेज दिया गया, यह सोच कर कि मुझे स्वदेशी शिक्षा मिलेगी तथा ४ साल में मैट्रिक भी
कर लूँगा।
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मॉरीस कॉलेज नागपुर में दोस्तों के साथ |
जब मैं हिरनखेड़ा गाँव सेवा सदन संस्था में पढऩे गया तो हमारे एक
मुनीम नत्थूलाल देवांगन के पिता मुझे पहुँचाने गए वे वहाँ एक दिन ठहरकर आ गए । मैं
तब लगभग १० वर्ष का था। वहाँ २०-२५ विद्यार्थी थे। मेरे जाने के कुछ दिनों बाद
मेरा भांजा द्वारका प्रसाद सैहावाले, वीर सिंह बंरछिहा, पलारी के प्यारेलाल त्रिपाठी के लड़के, हथबन के ज्वालाधर शर्मा, कुकरडी के मुरितराम मिश्रा, कसडोल के भूपेन्द्रनाथ मिश्रा लकडियाँ
के जगदम्बा प्रसाद तिवारी आदि लगभग १५-१६ लड़के छत्तीसगढ़ के ही वहाँ पढ़नेऩे गए थे। होशंगाबाद इटारसी के आसपास के १०-१२ लड़के
थे। वहाँ जंगल था हम झोपड़ी में रहते थे वहीं एक आम व बीही (अमरूद) का बगीचा था ,जहाँ हम लोग चोरी करके आम व बीही
खाया करते थे। वहाँ हमें पढ़ाने वाले रामदयाल चतुर्वेदी, हरिप्रसाद चतुर्वेदी( दोनों पं.
माखनलाल जी के सगे भाई थे )तथा एक दो और शिक्षक थे। वहाँ ठंड खूब पड़ती थी। पर जंगल
का अलग ही आनंद था। मैंने वहीं के तालाब में पहले पहल तैरना सीखा। वहाँ पर ४ बजे सुबह से उठकर दौडऩा पड़ता था (नहीं तो
मार पड़ती थी) मैं तथा भूपेन्द्रनाथ मिश्र
ही पूरे ४ वर्ष वहाँ रहे बाकी सब एक दो साल बाद वापस आ गए। विष्णुदत्त (मेरा चचेरा
भाई) भी वहाँ गया पर वह भी तीन- चार माह
बाद ही वापस आ गया। मैंने दो वर्षों में मिडिल बोर्ड से खंडवा गवर्नमेन्ट हाई
स्कूल में परीक्षा दिला कर पास कर लिया। दो वर्ष के बाद बनारस से मैट्रिक में बैठा
तो मैट्रिक में फेल हो गया जब फिर से मैंने हिरनखेड़ा जाने की अनइच्छा प्रगट की तो
फिर बनारस ही भेज दिया गया वहाँ दो वर्षों तक रहा।
गंगा मैया की गोद
बनारस की जिंदगी पढ़ाई व दिगर वातावरण के ख्याल से मेरे जिंदगी का
(विद्यार्थी) सबसे अच्छा रहा ऐसा कहूँगा। मैं बहुत दुबला पतला था तो मुझे वहाँ दंड, बैठक, दौडऩा, तैरना आदि ज्यादा कराया जाता था।
मैं गंगा में खूब तैरता था तथा दंड बैठक भी करता था। वहाँ मैं खूब खाना खाता था, सब हजम हो जाता था। बनारस में
कमच्छा एक मुहल्ला है जहाँ बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी सेंट्रल हिंदू स्कूल था वह भी
राजनीति का केन्द्र था; क्योंकि पं. मदन मोहन मालवीय जी वहाँ के सर्वेसर्वा थे। एक दिन की
बात याद है शायद सन् १९३२ या १९३३ का साल होगा पं. जवाहरलाल नेहरू, यूनिवर्सिटी में भाषण देने आये
हम सब कालेज व स्कूल के लड़के शिवाजी हाल गए । हम सब लड़के जवाहरलाल जी का भाषण
सुनते ही नहीं थे हल्ला करने लगे। जवाहरलाल जी गुस्से में थे कहा कि मैं बिना भाषण
दिये यहाँ से हटूँगा ही नहीं। शिवाजी हाल बहुत बड़ा था एक साथ करीब ५ हजार लोग बैठ
सकते थे। पं. मालवीय जी अध्यक्षता कर रहे थे। उन्हें खड़ा होना पड़ा और जब उनने
सिर्फ दो शब्द कहे कि इन्हें हमने मेहमान के बतौर बुलाया है, क्यों हल्ला करते हो तो सब चुप
हुए और फिर शांति से भाषण हुआ। मालवीयजी का वहाँ बहुत ज्यादा आदर तथा प्यार
था। उनकी बात को कोई भी टाल नहीं सकता था।
मुझे अभी भी गर्व है कि मैंने उनकी संस्था से मेट्रिक किया।
मेरी जिंदगी में सेवा सदन की ४ वर्षों की शिक्षा तथा बनारस के दो
वर्षों की शिक्षा ने सार्वजनिक कार्य तथा स्वतंत्र विचारधारा बनाने में बहुत अधिक
प्रभाव डाला। मैं सेवासदन हिरनखेड़ा भी दो वर्षों के बाद अकेला जाने आने लगा था। घर
से कोई साथ नहीं आता था । १२ वर्ष की उम्र से ही रेल में अकेले जाने में जरा भी
कोई भय नहीं रहता था। (उन दिनों रेल में अधिकारियों का व्यवहार ठीक रहता था तथा
कोई ज्यादा स्टेशनों या रास्ते में कोई गड़बड़ी भी नहीं होती थी। )
१९४२ का आजादी आंदोलन-
जब मैं परीक्षा से वंचित कर दिया गया

नागपुर में ही मैंने एल.एल.बी. किया। इस प्रकार से मैं ५ वर्षों तक
नागपुर में रहा। जब मैं ला की पढ़ाई कर रहा था तब सन् १९४२ में चारों ओर आंदोलन हुआ
और उस आंदोलन और गोली बारी में एक दिन एग्रीकल्चर कालेज के बोर्डिंग में जहाँ मैं
खाना खाता था फंस गया। पुलिस ने बोर्डिंग में धावा बोला कि यहाँ से पत्थर बाजी
होती है। हम भी पकड़े गए और एक वर्ष के लिए
परीक्षा में बैठने से वंचित कर दिये गए । हमें जेल तो नहीं भेजा गया पर थाने में
४-६ घंटा जरूर बिठा कर रखा। पुलिस उस वक्त आज कल सरीखा लड़कों से खराब व्यवहार नहीं
करती थी हमें ठीक प्रकार से बोर्डिंग से ले गए, सब नाम पता लिखकर कुछ देर बैठाकर
कि अब गड़बड़ न करना कहकर छोड़ दिया।
जब पिताजी बीमार हुए
इसी साल पिताजी भी बहुत बीमार रहने लगे ।मैं भी कालेज से अलग था; क्योंकि परीक्षा में तो बैठ नहीं
सका था ,इसलिए लगातार पिताजी के ही साथ
एक साल रहा। मेरी शादी सन् १९३८ में हो गई थी। पत्नी कौशिल्या और मौसी माँ भी
पिताजी के साथ ही रहते थे। पिताजी का इलाज कई स्थानों पर हुआ। करीब ४-६ माह तो
हसदा में रहकर वहाँ के वैद्य से इलाज कराया। तिल्दा अस्पताल में ४-६ माह रहकर इलाज
हुआ, फिर रायपुर अस्पताल में कुछ दिन रहे। वहाँ उन्हें कुछ
अच्छा लगा। रायपुर पुराने अस्पताल के एक अंग्रेज सी.एस. एलेन ने मुझे प्रेम से
सलाह दी कि वे मेरे पिता जी को बिल्कुल अच्छे कर देंगे। फिर अस्पताल में करीब ७-८
माह रहकर इलाज हुआ और वे अच्छे होकर गए । इस प्रकार से उनकी बीमारी की वजह से बिना
पढ़े ही १९४३ में मैंने परीक्षा दिलाई। पिताजी के मन के खिलाफ मैं नागपुर परीक्षा देने
चला गया;
क्योंकि मालूम
नहीं उन्हें ऐसा लगता था कि मैं उन्हें एक घंटा भी न छोड़ूँ। बार-बार वे मुझे पूछते
ही रहते थे। उनके प्रेम को देखकर मैं भी एक दो घंटे घूमकर फिर उनके पास आ जाया
करता था। भले ही कुछ काम नहीं रहता था।
मुझे परीक्षा देने के लिए नागपुर भेजने का श्रेय डोमार सिंह जी जरवेवाले को
हैं;
क्योंकि वे ही
ऐसे व्यक्ति थे जो जोर देकर कुछ भी बात कहते थे। उनकी वजह से ही मुझे नागपुर भेजने
के लिए तैयार हुए। नहीं तो सब जानते हैं कि पिताजी कितने गुस्सैल तबियत के थे।
उनसे बात करना कितना कठिन होता था। उनका रुतबा घर तथा बाहर व दिगर सभी तरफ के
ग्रामों में था। ऑफिसर वर्ग तो कभी हमारे घर उनके डर से आते तक नहीं थे; क्योंकि किसी भी ऑफिसर से वे
सीधे बात नहीं करते थे। स्वतंत्रता आंदोलन से सम्बन्ध होने के कारण
लोगों में उनका बड़ा प्रभाव भी था।
जब मैं १९४४ में एल एल बी करके नागपुर से आया, तो थोड़े दिन के बाद पिताजी ने
मुझे वकालत के लिए बलौदाबाजार भेज दिया। उन्होंने हमेशा मुझे गाँव से व खेती से
अलग रखा। मेरे वकील बनने के पहले से ही दो प्लाट सन् १९४३ में बलौदाबाजार में ले
रखा था जिसमें एक में मकान है और एक को डॉ. यदु को बेच दिया।
मैंने जब १९४४ से बलौदाबाजार में वकालत शुरू की। साथ ही जल्दी ही मैं
सार्वजनिक कार्यों में लग गया। मैं बलौदा बाजार तहसील कांग्रेस कमेटी का
प्रेसीडेन्ट चुन लिया गया; क्योंकि पं. लक्ष्मी प्रसाद तिवारी जो एक बुजुर्ग व्यक्ति कांग्रेस
के पुराने आदमी तथा अध्यक्ष भी थे, वे मुझे पहले से घरेलू सम्बन्ध
के कारण ज्यादा चाहते थे। जबकि चक्रपाणि शुक्ला के चाचा बलभद्र शुक्ला जी
ने गुपचुप विरोध किया, पर किसी ने उनकी न सुनी। इस समय तक कांग्रेसियों में किसी प्रकार की
गुटबाजी नहीं थी और सब चाहते थे कि अच्छे लोग कांग्रेस में आएं। उस वक्त स्व.
बैनर्जी वकील बलौदाबाजार में कांग्रेस के मुखिया थे पर वे बलौदाबाजार छोड़कर रायपुर
चले गए थे; इसलिए शिक्षित वर्ग खासतौर से
किसी वकील या डॉक्टर को अपने साथ रखना पसंद करते थे; क्योंकि जो जेल यात्री कांग्रेस
आंदोलन में थे, वे सभी करीब-करीब ग्रामीण क्षेत्र के थे और उन पर हमारे खानदान का
अच्छा प्रभाव था। इस तरह मैं जल्दी ही राजनीति में आगे आ गया उसका श्रेय मैं अपने
खानदान तथा पिताजी को ही दूँगा, भले ही उनने मेरे लिए न कभी एक शब्द कहा और न कभी भी किसी पद या
चुनाव के वक्त मेरे लिए घर से बाहर निकले।
(आपातकाल १९७५-७६ के दौरान जेल में लिखे गए बृजलाल वर्मा की डायरी के
अंश)
आपातकाल- जेल डायरी के अंश
कुछ खट्टी-मीठी यादें
-बृजलाल वर्मा ( संपादन- डॉ. रत्ना वर्मा)
(सेंट्रल जेल रायपुर ता. १६ जुलाई १९७५)
हिरनखेड़ा सेवा सदन (होशंगाबाद के पास) जो पं. माखनलाल चतुर्वेदी की
संस्था थी,
में मुझे चौथी
(हिन्दी) पास करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए भेजा गया, क्योंकि मेरे पिताजी के अनुसार
वहाँ पर स्वराज्य अंदोलन तथा स्वदेशी शिक्षा राष्ट्रीय विचार धारा के आधार पर होती
थी। वहाँ हम सब को खादी पहनने को कहा जाता था तथा दिनचर्या के सभी काम अपने हाथ से
करने के लिए प्रोत्साहित करते थे।
यह संस्था जंगल के बीच स्थित थी। हिरनखेड़ा गाँव के एक मालगुजार जो
कुर्मी जाति के थे, ने इस संस्था के लिए जमीन दान में दी थी। हमें संस्था में खाने के
लिए सुबह नाश्ता नहीं मिलता था ।अधिकतर रोटी ही खाया करते थे। मेरे लिए पिता जी ने
अलग से नाश्ते का इंतजाम करने को जरूर कहा, पर वहाँ किसी के साथ भेदभाव का बर्ताव नहीं किया जाता था, सबको सामूहिक रूप से रहना पड़ता
था;
अत: अलग से एक
दो के लिए नाश्ते की व्यवस्था संभव नहीं थी। वहाँ हम सब अपना कपड़ा अपने हाथ से
धोते थे,
नहाने का पानी
भी कुएँ से स्वयं निकालते थे तथा अपने रहने का स्थान यानी अपनी कुटिया भी सब मिलकर
साफ करते थे। इस तरह हर प्रकार से हमें स्वावलंबी बनने की शिक्षा दी जाती थी।
प्रतिदिन सुबह चार बजे राष्ट्रीय प्रार्थना होती थी। सुबह इतनी अधिक ठंड होती थी
कि उठने में मुझे आलस आता था , पर मजबूरी थी; क्योंकि ऐसा न करूँ या कोई इस नियम का पालन न करें ,तो बेंत की मार खानी पड़ती थी।
रोज सुबह पंडित जी को प्रणाम करने भी जाना पड़ता था ;जबकि पंडित जी अपनी कुटिया में
मजे से रजाई ओढ़कर सोये रहते थे। वे सबको आशीर्वाद देते थे और ध्यान भी रखते थे कि
कौन उनके पास आया और कौन नहीं आया, क्योंकि वे सबकी आवाज पहचानते थे। उस वक्त तो वे कुछ नहीं कहते थे ,पर बाद में अच्छी मरम्मत होती
थी। खाने को भी साधारण भोजन मिला करता था; लेकिन पिताजी ने, मुझे दूसरों से दुगुना घी दिया जाए इसकी व्यवस्था कर दी थी, जो कि मुझे मिलता भी था। मुझे उस
घी का स्वाद अभी भी याद है। वहाँ का घी बड़ा शुद्ध और स्वादिष्टï होता था। मैं अपने घर पलारी आता
था ,तो घर का घी मुझे उतना अच्छा
नहीं लगता था, मालूम नहीं क्या बात थी?
हम वहाँ जंगल के बीच रहते थे। रोज जंगली सुअर हमारे कमरों के आसपास
रात में घूमते रहते थे कभी- कभी उनके बच्चों को हम लोग पकड़ लेते थे, तो वे (सुअर) हमारा कमरा घेर
लेते थे;
तब हमें उनके
बच्चे को छोडऩा पड़ता था। बड़े- बड़े दाँत वाले सुअर खतरनाक थे। चूँकि सेवा सदन जंगल
के पास स्थित था, इसलिए आस- पास हमेशा साँप, बिच्छू का भी भय बना रहता था, दो- चार दिनों में एक दो साँप हम लोगों को मारना ही पड़ता था। हमारे
पास हॅाकी स्टिक रहती थी, खेलने के लिए उससे ही साँपों को मारने और कुत्तों को भगाने का काम
लेते थे। यह सब हमारी दिनचर्या का अंग बन गया था; इसलिए हमें डर नहीं लगता था, इन सबकी आदत पड़ गई थी और हमें
बहुत मजा आता था। हममें से बहुत से विद्यार्थियों को हिन्दी बोलना नहीं आता था; क्योंकि हम सब गाँव से गए थे । दूसरे विद्यार्थी हमारी भाषा सुनकर हँसते
थे।
इन खट्टी- मीठी यादों के साथ हिरनखेड़ा में चार वर्षों का जो समय
मैंने बिताया वह कई अर्थों में मेरे लिए बहुत उपयोगी रहा। मेरे भविष्य के लिए, सामाजिक व राजनैतिक नींव वहाँ
रहने से ही पड़ी। बाहर रहकर पढ़ाई करने से स्वावलंबी बनने में सहायता तो मिली ही साथ
ही घर के लोगों से अलग, अकेले रहने की आदत भी पड़ी। उन दिनों मेरे बचपन के जो साथी थे, उनसे आज भी आत्मीयता बनी हुई है।
कुछ तो अभी भी हैं कुछ स्वर्ग सिधार गए हैं, उनकी याद हमेशा आती है। हम सब हिरनखेड़ा में प्रेम से रहते थे। हमने
अपने बचपन का एक अच्छा समय साथ में बिताया था।
मैं साल में एक बार घर आता था; परंतु एक बार बीच में ही घर आ गया, तो पिताजी बहुत नाराज हुए और
मुझे घर में घुसने नहीं दिया। जब काकाजी (बलीराम- पिताजी के छोटे भाई) तथा बड़े
पिताजी सदारामजी (पिताजी के बड़े भाई) को पता चला, तो वे दुखी हुए और मुझे अपने पास
छिपाकर रखा। जब पिताजी का गुस्सा शांत हो गया तब मैं घर गया। इन सबके बावजूद मुझे
याद नहीं है कि पिताजी ने मुझे अपने सामने खड़ा करके मेरे प्रति कभी गुस्सा किया हो
या डाँट लगाई हो। कभी कुछ कहना भी होता था, तो दूसरों के जरिये या मेरी गैरहाजरी में। बाद में जब मैं पढ़ाई पूरी
कर वकालत करने लगा, तब मुझे महसूस हुआ कि वे जो भी कहते थे, मेरे हित के लिए कहते थे। लोगों
ने यह भी बताया कि बाद में उन्हें बहुत दु:ख होता था तथा कभी- कभी उनके आँसू भी
निकाल आते थे।
पिताजी ने मुझे आगे बढ़ाने में, चाहे वह पढ़ाई हो, सामाजिक कार्य हो, घर का काम हो या राजनीति हमेशा प्रोत्साहित किया, किसी भी कार्य के लिए बाधा नहीं
डाली तथा दिल खोलकर अपना पूरा प्यार दिया। अब जबकि वे नहीं हैं, मुझे लगता है काश वे होते तो
मुझे तथा मेरे परिवार को देखकर कितना सुख व आनंद का अनुभव करते, मैं उस पल को लिखने में असमर्थ
हूँ। मैं सिर्फ अनुभव कर सकता हूँ तथा दिल को थाम कर रह जाता हूँ। ईश्वर उनकी
आत्मा को शांति प्रदान करें। यही कहकर चुप बैठ जाता हूँ कि ऐसा पिता सभी को मिले
यही कामना है मेरी।
सेवा सदन हिरनखेड़ा में पढऩे के दौरान की कुछ ऐसी बातें आज याद आ रहीं
हैं,
जिसे मैं कभी
भूल नहीं पाता। जैसा कि पहले ही बता चुका हूँ कि वहाँ रायपुर जिले से बहुत से साथी
एक साथ रहते थे एक दिन सुबह करीब ७-८ बजे हम कुछ साथी एक साथ दौडऩे या खेलने गए थे, हमारे साथ लकड़िया गाँव का रहने
वाला जगदम्बा प्रसाद तिवारी भी साथ में थे, जो अब बसंत कुमार तिवारी कहलाने
लगे हैं । वह मुझसे शरीर में तगड़ा था तथा खेलकूद, तैरने आदि में मुझसे आगे ही रहता
था। वह दातून तोड़ने के लिए एक नीम के पेड़ पर काफी ऊपर तक चढ़ गया। अचानक मैंने देखा
कि वह नीचे जमीन पर गिर गया है। हम लोगों की उम्र तब लगभग १२ साल रही होगी। मैं
एकदम घबरा गया ।वह थोड़ा बेहोश -सा लगा पर कुछ चोट नहीं लगी, फिर उठकर धीरे- धीरे साथ चला
आया॥वह जहाँ से गिरा था ,वह लगभग २० -२२ फुट ऊँचाई से कम नहीं था। ईश्वर ने उस दिन साथ दिया
मेरे प्यारे साथी को ज्यादा चोट नहीं आई और हम सकुशल संस्था वापस आ गए। मुझे वह
घटना आज भी याद है पर उसे याद है या नहीं कह नहीं सकता। हम लोगों ने डर कर पंडित
जी से यह बात नहीं बतलाई थी।
जब भी मैं गर्मी की छुट्टियों में पलारी आता था- (उस समय दीवाली, दशहरा में आना नहीं होता था) तो
अधिकांश समय खेलकूद में ही बिताता था। सुबह- सुबह पलारी के कुछ लड़कों को साथ लेकर
बालसमुंद जाता और वहाँ घंटे - दो घंटे खूब
तैरता। यह सब मैंने करीब १४-१५ साल की उम्र तक किया। उसी दौरान मैंने घर में
पिताजी की लाल घोड़ी, जो बड़ी तेज तथा बदमाश थी, जिस पर सिर्फ पिताजी ही सवारी किया करते थे, की भी घुड़सवारी करने लगा। मैं उस
घोड़ी में दो माह तक रोज सुबह उठकर घुड़सवारी करता था। सईस से कहकर उसे अस्तबल से
बाहर निकलवाता और घर में बिना किसी को बताए चुपचाप निकल पड़ता था, क्योंकि घर के लोग उस घोड़ी पर
बैठने से मना करते थे कि घोड़ी बदमाश है
गिरा देगी,
मत बैठना। सच
भी था वह घोड़ी किसी को अपनी पीठ पर बैठने नहीं देती थी। पहले तो मैं उसकी आँख में
टोपा बाँध देता था फिर एक ऊँचे स्थान पर ले जाता था और कूदकर बैठ जाता। वह दोनों
पैर से कूदती थी। पर मैं एक बार बैठ गया ,तो फिर मुझे डर नहीं लगता था। वह बड़ी तेजी से दौड़ती थी। मैं चाल से
दौड़ाना तो जानता नहीं था; अत: उसे पल्ला दौड़ाता था इसलिए वह सीधे खेतों की मेढ़ों को कूदती हुई
छलांग मारती बहुत तेजी से भागती थी। इस तरह से उसके दौडऩे से मेरा शरीर भी नहीं
हिलता था। इतनी तेज भागने वाली बहुत कम घोड़ियाँ होती हैं, मुझे उसपर घुड़सवारी करने में बड़ा
आनंद आता था। कुछ दिनों के बाद घर में सब जान गए, तब फिर मुझे उस पर बैठने से मना
भी नहीं किया। अपने इस घुड़सवारी के शौक के कारण ही, जब भी गाँव में किसी की अच्छी
बड़ी घोड़ा- घोड़ी आती ;मैं बैठने की जरूर इच्छा करता और कुछ देर बैठकर जरूर मजा ले लेता था।
एक वक्त की बात है कि हम
बहुत से लोग गर्मी की छुट्टी में गाँव आए और (तुरतुरिया पलारी गाँव के पास का
पर्यटन स्थल) जाने की इच्छा व्यक्त की, पर गाड़ी से नहीं, घोड़े से तब सबके लिए करीब ८-१० घोड़े बुलवाये गए। मैंने पास के गाँव
दतान के एक घोड़े की बहुत तारीफ सुनी थी वह भी लाया गया था। उसे सुबह पानी पिलाने
जब सहीश ले जा रहा था तो मैं ले चलता हूँ कहकर उसपर बैठ गया। मेरे बैठते ही वह
घोड़ा अड़ गया मैंने खूब पैर मारा तब कहीं वह रास्ते में आया मैंने भी उसे खूब
दौड़ाया। नये तालाब के पार के ऊपर बड़ी तेजी उसे दौड़ा रहा था तभी ठोकर खाकर घोड़े
सहित गिर गया। मैं पहले गिरा और मेरे ऊपर घोड़ा पर तालाब के पार में उतार होने से
मैंने घोड़े को अपनी छाती पर से लुढ़का दिया। वह दिन मेरी मौत का- सा दिन था मालूम
नहीं कैसे एकदम मुझे होश आया और मैंने अपने छाती पर हाथ रखके घोड़े को एकदम ढकेलकर
सिर के ऊपर से लुढ़का दिया। मेरा चचेरा भाई विष्णुदत्त सब देख रहा था वह दौड़ा, मेरी पूरी पीठ भर छिल गई थी पर
कोई अंदरूनी चोट नहीं लगी थी। चुपचाप घर आकर दवाई पीठ पर लगा ली, किसी (पिताजी) को मालूम नहीं
होने दिया। पर गाँव में बात छिपती कहाँ हैं बाद में मालूम हुआ तो पिताजी बहुत
नाराज़ हुए।
इसी तरह एक बार की और घटना है पलारी में ही मैं एक बदमाश घोड़े पर
बैठकर बाहर गया मुझे तो इस तरह के घोड़े पर बैठने पर मज़ा आने लगा था, पर बाहर जाकर घोड़े के साथ ऐसा
गिरा कि मेरी टाँग घोड़े के नीचे हो गई। मेरे घुटने में चोट आई और करीब २ माह तक
बहुत तकलीफ हुई। पिताजी को यह भी मालूम ही हो गया प,र वे इस बार कुछ बोले नहीं; क्योंकि वे जान गए थे कि अब मेरी आदत ही बदमाश किस्म के तेज घोड़ों
पर बैठने की हो गई है।

विद्यार्थी जीवन में मैं सन् २८-२९ से लेकर ४३-४४ तक घर से बाहर रहने
के कारण अपने गाँव और जिले में लोगों से अधिक परिचय न कर सका। स्वतंत्रता आंदोलन
के दौरान पिताजी का प्रभाव राजनैतिक सहयोगी तथा सार्वजनिक कार्यकर्ता के नाते
रायपुर व दुर्ग जिले में काफी अच्छा था, उसी का फायदा मुझे पढ़ाई करके लौटने के बाद मिला। उनकी ही बदौलत मैंने
राजनैतिक क्षेत्र के लोगों के बीच जाना शुरू किया। वकालत करने के दौरान भी बहुत से
लोगों से मेरे सम्बन्ध जुड़े।
उसके बाद के राजनैतिक व सार्वजनिक कार्यों में प्रोत्साहित करने का
पूरा श्रेय स्व. डॉक्टर खूबचंद बघेल एवं ठा. प्यारेलाल सिंह को जाता है। उन्होंने
मुझे राजनीति की अच्छी शिक्षा दी, मुझे बढ़ावा दिया तथा अपने पूर्ण विश्वास में लेकर बहुत सा कार्य
मुझसे कराया और जिम्मेदारियाँ दीं। इन दोनों महान व्यक्तियों का मैं हमेशा ॠणी
रहूँगा,
जिन्होंने
मुझे हर कार्य के लिए अपने साथ रखा। इसी तरह स्व. ठाकुर निरंजन सिंह, (नर्सिंगपुर) का भी जो प्यार एवं
सहयोग मिला वह भी नहीं भुलाया जा सकता। असेम्बली में तो मुझे उन्हीं की बदौलत
कार्य करने का ज्यादा मौका मिला। उन्होंने ही मुझे सिखाया कि असेम्बली में कैसे
कार्य करना चाहिए, कैसे प्रश्न पूछना चाहिए, किस प्रकार से बोला जाता है तथा असेम्बली के अंदर शासक दल को कैसे
अड़चन में डाला जा सकता है। असेम्बली के कार्यों में मुझे स्व. ताम्रकर (दुर्ग) ने
भी बहुत प्रोत्साहित किया। उन्होंने दो वर्षों में मुझे असेम्बली के अंदर ऐसा बना
दिया कि जब कभी विरोधी दल के हमारे प्रमुख नेता गैरहाजिर रहते थे ,तब मैं अकेला असेम्बली के सभी
विषयों पर तथा बिलों पर जवाब देता था और विरोधी दल की कोई कमजोरी शासक दल को महसूस
नहीं होने देता था।
(आपातकाल १९७५-७६ के दौरान जेल में लिखे गए बृजलाल वर्मा की डायरी के
अंश)
आपातकाल- जेल डायरी के अंश
और पिताजी की बीमारी
-बृजलाल वर्मा (संपादन- डॉ. रत्ना वर्मा)
सेंट्रल जेल रायपुर १६ जुलाई
१९७५
१९५२ का चुनाव और मेरी जीत
कांग्रेस में अनिवार्य रूप से पहले खादी पहनना तथा सूत कातना जरूरी
था। जब मैं कांग्रेस का पदाधिकारी बना, उससे पहले कुछ प्रमुख नेता ऐसे थे, जो खादी नहीं पहनते थे; पर फिर भी विभिन्न पदों पर बने
रहे थे। मैंने इसका विरोध किया और चाहा कि कांग्रेस के विधान के अनुसार कार्य हो।
ग्रामीण क्षेत्र के लोग तो इसका पालन करते थे, पर शहर के कुछ प्रमुख नेता इसका
पालन नहीं करते थे। मैंने बलौदाबाजार क्षेत्र में इसका विरोध किया ,जो बहुतों को बुरा लगा। जनपद तथा
लोक कल्याण बोर्ड के चुनावों में भी इसी कारण से मेरा विरोध होता रहा। अन्त में
मुझे जनपद से इस्तीफा देना पड़ा और आचार्य कृपलाणी की नई पार्टी किसान मजदूर प्रजा
पार्टी में १९५१ में शामिल हो गया। सन् १९५२ में मैंने विधानसभा का चुनाव लड़ा और
अपनी इच्छा के विरुद्ध ऐसे व्यक्ति के खिलाफ लड़ा; जिन्हें मैं बचपन से जानता था, उनका बड़ा आदर करता था, उन्हीं के कारण बलौदाबाजार तहसील
में कांग्रेस का अस्तित्व था। वे सन् १९३० से लगातार जेल गए, पूरे जिले व तहसील में जाने माने
नेता थे। वे थे मेरे विरोधी वकील लक्ष्मी प्रसाद जी तिवारी। उन्होंने ही मुझे
तहसील का अध्यक्ष बनाया था। वे हमारे पारिवारिक मित्र भी थे। पर मुझे पार्टी का
आदेश खासतौर से ठा. प्यारेलाल सिंह की बात मानते हुए उनके विरुद्ध चुनाव लडऩा पड़ा।
तब वे प्रांत में किसान मजदूर प्रजा पार्टी (के.एम.पी.पी.) के सर्वेसर्वा थे। उस
चुनाव में मेरी लगभग १००० वोट से जीत हुई। तिवारी जी का बड़प्पन देखिए, वे चुनाव के बाद मेरे पास आए और
मुझे आशीर्वाद दिया। उनके इस व्यवहार से पता चलता है कि चुनाव में हार -जीत को वे
आपसी सम्बन्धों के आगे बहुत छोटा समझते थे।
इन चुनाव में मुझे सबसे ज्यादा जिनका सहयोग मिला वे मेरे साथी थे-
हरिप्रेम बघेल, बद्रीप्रसाद बघेल, गुलाबराम धुरंधर, सरहूराम, पांडे, सुंद्रावन के हरिजन उम्मीदवार, चोखे लाल कश्यप, पं. बद्रीप्रसाद तिवारी, जरवे के अग्रवाल, लहौद का साहू समाज, मोतीलाल मिश्र व जगदीश प्रसाद मिश्र कसडोल आदि।
इस चुनाव में मुझे पलारी क्षेत्र से बहुत ही ज्यादा मदद मिली। इस
क्षेत्र का कोई भी गाँव ऐसा नहीं था ,जहाँ किसान मजदूर प्रजा पार्टी के लिए काम करने वाला झोपड़ी छाप का
कार्यकर्ता न हो, इतना ही नहीं वे सब अपने ही बूते पर दिन रात कार्य करते थेे। मुझसे
इस क्षेत्र के किसी भी कार्यकर्ता ने कभी चुनावी खर्च के लिए पैसा नहीं मांगा।
जिसके पास आने जाने का साधन नहीं था सिर्फ उसके लिए सायकल की व्यवस्था करनी पड़ी।
इसी क्षेत्र ने ही मुझे १९५२ के चुनाव में जीत दिलाई।
यह क्षेत्र कोसमंदी कसडोल क्षेत्र कहलाता था तथा डबल मेम्बर क्षेत्र
था। लेकिन कसडोल का दूसरा हिस्सा जो नदी के उस पार जंगल के हिस्से में आता है, से कांग्रेस की तुलना में मुझे
१० प्र.श. मत ही मिल पाया, पलारी क्षेत्र में कांग्रेस के मुकाबले ८० प्र.श. मत मिला, लेकिन हमारा हरिजन उम्मीदवार हार
गया।
मेरी जीत का कारण हमारे वे कार्यकर्ता थे जो, लगातार कई वर्षों से जगह- जगह
सभाएं लेते आ रहे थे। इन सभाओं में डॉ. प्यारेलाल सिंह, डॉ. खूबचंद बघेल, ताम्रकरजी, डॉ. ज्वालाप्रसाद तथा डॉ.
छेदीलाल आदि आते थे। एक समय तो बहुत बड़ा सम्मेलन बलौदा बाजार में हुआ वहाँ सभी बड़े नेता तो पंहुचे ही साथ में डॉ. निरंजन
सिंह और सिहौरा के काशी प्रसाद पांडे जो विधानसभा के सबसे पुराने सदस्य थे भी
पहुंचे उन्होंने ही इस सम्मेलन की अध्यक्षता की। यह एक सफल आयोजन था जिसका प्रभाव
न केवल बलौदा बाजार तहसील में पड़ा बल्कि रायपुर जिले में भी पड़ा। इस तरह की
सक्रियता के कारण ही मैं अपने पहले चुनाव में एक बहुत कर्मठ नेता पं.
लक्ष्मीप्रसाद तिवारी को मात दे सका।
![]() |
अविभाजित मध्यप्रदेश में मंत्री पद की शपथ दिलाते हुए राज्यपाल के. सी. रेड्डी |
१९५७ में दूसरी जीत
इस प्रकार जिले के इस पहले
ब्लाक के जरिये तथा साथ में पार्टी के दूसरे सभी कार्यकर्ता की मदद से मैंने १९५७
में फिर प्रजा सोसलिस्ट पार्टी ( पी. एस. पी.) से चुनाव लड़ा इस चुनाव में मुझे
ज्यादा सफलता मिली और मैं ८-९ हजार मतों से कांग्रेस से जीता। मेरा हरिजन
उम्मीदवार इस बार भी ४०-५० मतों से हार गया इसका मुझे बड़ा रंज रहा और जो खुशी
चुनाव के जीत की थी वह सब जाती रही। हमने
इस बार नहीं सोचा था कि हमारा हरिजन उम्मीदवार हार जाएगा इस बार भी यह डबल मेंबर
क्षेत्र था।
फिर तीसरा चुनाव १९६२ का आया। १९५७ तथा १९६२ के बीच मेरा
कार्यक्षेत्र बढ़ जाने के कारण मैं विधानसभा व पार्टी कार्य में प्रांतीय स्तर पर
ज्यादा समय देने लगा था, जिससे मेरा अधिकतर समय जिले और क्षेत्र के बाहर ही बीतता था।
इसी कारण आम जनता से मेरा सिम्पर्क कुछ कम
हो गया था,
परिणाम यह हुआ
कि १९६२ के चुनाव में मैं १५० से २०० मतों से हार गया। दु:ख तो हुआ; पर मैंने अपनी गलती भी महसूस की।
कार्यकर्तागण बहुत निराश हुए। बाद में मुझे पता चला कि इतने कम मतों से चुनाव
हारने का क्या कारण था। दरअसल चुनाव के ८-१० दिन पहले हमारे ३ या ४ सबसे अच्छे
कार्यकर्ताओं को कांग्रेस ने लालच देकर अपनी तरफ मिला लिया था।
इस चुनाव के ४ माह बाद मेरे प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस उम्मीदवार का
देहान्त हो गया और १९६२ में ही उपचुनाव का फिर से मौका आ गया। लोग मुझे फिर से
चुनाव के लिए कहने लगे । ठा. निरंजन सिंह और डॉ. खूबचंद बघेल ने बहुत जोर डाला कि
चुनाव तो लडऩा ही पड़ेगा; क्योंकि सबको ऐसा अंदाज था कि पं. द्वारका प्रसाद मिश्र को इस चुनाव
के लिए कांग्रेस ने अपना उम्मीदवार मान लिया है। मैं चुनाव लडऩे के पक्ष में नहीं
था;
इसलिए नहीं कि
पं. द्वारका प्रसाद मिश्र मेरे तिद्वंद्वी होंगे ;बल्कि इसलिए कि उस दौरान मेरे
पिताजी (कलीराम) का स्वास्थ्य ठीक नहीं था। पिताजी ने मेरे १९६२ के चुनाव की हार
पर कुछ भी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की थी। जब हार के बाद मैं उनसे मिला ,तो उन्होंने मुझसे कुछ अधिक ही
प्रेम से बात की और काम भी बतलाया ,जिससे मेरा मन खराब न हो और मैं व्यस्त हो जाऊँ ।
![]() |
पिता कलीराम |
पिताजी के निधन से मैं अकेला हो गया
जैसा कि मैं पहले कह चुका हूँ मेरे लिए १९६२ बहुत ही खराब साल था ;इसलिए नहीं कि चुनाव हार गया था, बल्कि इसलिए क्योंकि पिताजी बहुत
अधिक कमजोर हो गए थे। उनकी मुझे बड़ी चिंता
रहती थी। वे इलाज के लिए अधिकतर बलौदा बाजार रहते थे बीच- बीच में पलारी भी आ जाया
करते थे।
सन् १९६२ के चुनाव के बाद डॉ. खूबचंद बघेल बलौदाबाजार आए और मुझे फिर
चुनाव में खड़ा होने के लिए कहने लगे कि ठा. निरंजन सिंह तथा सभी साथियों तथा उनकी
भी इच्छा है कि मैं चुनाव लड़ूँ। उन्होंने कई बार इस बात का वादा किया हम सब इस
चुनाव की पूरी जिम्मेदारी लेते हैं। इस चुनाव में डॉक्टर साहब भी एम.पी. का चुनाव
हार गए थे और विद्याचरण शुक्ल के खिलाफ
उनकी चुनाव याचिका चल रही थी। उस केस को मैं भी देखता था। उन्हें मुझ पर विश्वास
कुछ ज्यादा ही था, कोई भी पेशी ऐसी नहीं थी जिसमें वे मुझे न ले जाते हों। लेकिन पिताजी
की हालत देखकर मैंने चुनाव लडऩे से मना कर दिया। डॉक्टर बघेल बड़े निराश हुए फिर भी
उन्होंने मेरा पीछा नहीं छोड़ा, वे पिताजी के पास गए । पिताजी डॉक्टर साहब को बहुत मानते थे। गत ३०
वर्षों का उन दोनों का सामाजिक तथा राजनैतिक कार्यों में साथ था, खासतौर से स्वतंत्रता की लड़ाई के
दौरान वे हमेशा पं. रविशंकर शुक्ल जी के साथ पलारी आया करते थे। जब पिताजी की
तबियत कुछ ठीक हुई तो डॉ. बघेल ने चुनाव की बात पुन: छेड़ दी। पिताजी ने कहा डॉक्टर
साहब 'तुम दूनो झन त हार गे हवज् ( तुम
दोनों तो हार गए हो) तब डॉक्टर साहब ने कहा कि चुनाव में उतार-चढ़ाव होता ही रहता
है क्या हुआ हार गए तो। तब पिताजी ने भी
कहा 'ठीक कहते हो हार- जीत तो लगे
रहता है,
पर मैंने सुना
है कि वकील (जब से मैंने वकालत शुरू की थी तब दूसरों के साथ बात करते समय पिताजी
मुझे वकील ही कहकर बुलाते थे) से जिसने चुनाव जीता है, उसका निधन हो गया है। यह बात
सुनकर डॉक्टर साहब को बात करने का अच्छा मौका मिल गया, कहने लगे कि मैं उन्हीं की खातिर
तो आया हूँ, पर वकील (डॉ. बघेल भी मुझे वकील ही कहा करते थे) चुनाव में खड़े होने
को राजी नहीं है। फिर पिताजी ने प्रश्न किया कि वकील चुनाव क्यों नहीं लडऩा चाहते? डॉक्टर साहब मेरे चुनाव न लडऩे
की बात पिताजी को बताने में हिचक रहे थे, पर बार-बार पूछने पर बोले कि वे आपकी तबियत को लेकर चिंतित हैं और
आपकी देखभाल करना चाहते। यह सुनकर पिताजी कुछ नाराज हो गए और बोले - बला त वकील ला
बड़ा मोर अउ घर के फिकर वाला होगे, कहाँ हे (बुलाओ तो वकील को बड़ा मेरा और घर का फिक्र वाला बनता है)
मैं बाहर खड़ा सुन रहा था, एक दो बार पुकारने के बाद मैं अंदर गया और मैंने अपनी बात फिर दोहरा
दी कि मेरी चुनाव लडऩे की इच्छा नहीं है। १० साल से तो विधायक बनते आ रहा हूँ, अब और दूसरे काम करूँगा। पिताजी
को मेरी बात ठीक नहीं लगी, उन्होंने मुझे लगभग हुक्म सा दिया- 'तोला का बात के फिकर हे मोर राहत, खरचा के बारे में सोचत होवे त
में देहूँ । मोर तबियत के बारे में सोचत
होबे त ईश्वर सब ठीक करही, तोला इंहा रहेच के जरूरत नहीं है, आवत- जावत तो रहिबे करथस। खड़ा हो, नहीं झन का, डाक्टर के कहे ला मान ले, हम जानत हन डॉक्टर ला बहुत
जिद्दी आदमी हावय, जोन काम में भिड़ जाथे वोला पूरा करके रहिथे, तैं फिकर झन कर चुनई में खड़े हो
जा।ज् (तुम्हें किस बात की फिक्र है मेरे रहते, खर्च के बारे में सोच रहे हो ,तो वह मैं दूँगा। मेरी तबियत के
बारे में सोच रहे हो तो ईश्वर सब ठीक करेंगे। तुम्हें यहाँ मेरे पास ही रहने की
जरूरत नहीं। तुम आते- जाते तो रहते ही हो। चुनाव में खड़े हो जाओ मना मत करो, डॉ. को हम बहुत दिन से जानते हैं
।वह बहुत जिद्दी आदमी हैं, जिस काम में भिड़ जाते हैं उसे पूरा करके ही मानते हैं, तुम फिक्र मत करो खड़े हो जाओ)
उनकी बात सुनकर मेरी आँखों में आँसू आ गए मैं बिना कुछ बोले कमरे से बाहर हो गया। मैं
सोचने लगा कि पिताजी बिस्तर से उठ नहीं पाते और मुझसे ऐसी बात कर रहे हैं। आखिर
उनके दिल में क्या था, क्या वे हार का बदला लेना चाहते थे? क्या उन्हें खराब लगा था कि मैं
हार गया। उस दिन मैंने महसूस किया कि वे मुझे हमेशा ऊँचा उठाने की सोचा करते थे, उस हालत में भी मुझे जोश से कह
रहे हैं कि क्यों पीछे हटते हो। यह सब सुनकर डॉक्टर साहब ने कहा मैं भोपाल पत्र
लिख देता हूँ कि तुम चुनाव में हमारे
उम्मीदवार होगे। चाहे तुम्हारे खिलाफ पं. द्वारका प्रसाद मिश्र ही क्यों न खड़े
हों। वह घड़ी मेरे लिए परीक्षा की घड़ी थी ।क्या करूँ क्या न करूँ । फिर भी मैं चुप
रहा।
![]() |
कार्यवाहक राष्ट्रपति बासप्पा दानप्पा जत्ती
मंत्री पद की शपथ दिलाते हुए- १९७७ |
थोड़े दिनों के बाद पिताजी की तबियत और भी ज्यादा खराब हो गई।
उन्होंने बलौदाबाजार से पलारी चलने के लिए कहा मैं उन्हें पलारी ले गया, फिर उनकी तबियत देखकर उन्हें
रायपुर ले आया। रायपुर के बड़े अस्पताल के एक पेइंग वार्ड में उन्हें भर्ती कर
दिया। वहाँ के एक्सपर्ट डॉक्टरों की सलाह से उन्हें दवाई देना शुरू किया गया पर ३
या ४ दिनों बाद उनकी तबियत ज्यादा खराब दिखने लगी, डॉक्टरों ने दवाई बदली पर कुछ भी
असर होते नहीं दिखा। एक दिन मैं किसी काम से थोड़ी देर के लिए बाहर निकला था कि
उन्होंने अपना सारा समान उठाया और रायपुर के पुराने घर में आ गए , मैं दंग रह गया कि यह क्या हो
गया। उन्होंने मुझसे इतना ही कहा मैं अस्पताल में नहीं रहना चाहता, अच्छा नहीं लग रहा है यहाँ। कोई
वैद्य बुलावो। तब मैंने वैद्य भी बुलाया लेकिन बीमारी में कोई सुधार के लक्षण नहीं
थे। उन्होंने पलारी जाने की इच्छा जताई। मैं उन्हें पलारी ले आया। वहाँ भी दवाई
चलती रही पर उनकी हालत खराब ही होती गई। मैं वह पूरी रात इधर से उधर आँगन में पागल
-सा घूमता रहा। एकादशी की सुबह लगभग ८-९ बजे उनका प्राणांत हो गया। बाद में लोगों
ने मुझे बताया कि एकादशी की सुबह कोसमंदी से मिलने आए कुछ बुजुर्गों ने जब उनकी
तबियत के बारे में पूछा था ,तब उन्होंने कहा था कि मैं अब नहीं बचूँगा। मुझे वह सब कुछ मिल गया
जो मुझे चाहिए, अपनी जिंदगी से मैं पूर्ण संतुष्ट
हूँ। मेरी इच्छा के अनुकूल पलारी के बालसमुंद के सिद्धेश्वर मंदिर का
जीर्णोद्धार भी मेरे बेटे ने कर दिया है। मुझे अपनी दोनों बहुओं तथा बेटे पर पूरा
विश्वास है कि वे मेरे घर की प्रतिष्ठा को और आगे बढ़ाएँगे। अब तो मेरे पोता- पोती
भी हो गए हैं । अब मुझे किसी भी बात की
जरा भी चिंता नहीं।
आज जब यह सब लिख रहा हूँ, मुझे फिर उनकी कुछ बातें याद आ रहीं है। मैंने उनका उत्साह तथा
प्रसन्नता जीवन में दो बार सबसे ज्यादा देखा था- जब मेरा पहला लड़का पैदा हुआ तब
उन्होंने गाँव में भव्य- भागवत कथा का आयोजन किया था और खुले दिल से हजारों लोगों
को निमंत्रण देकर बुलाया और उन्हें भोजन कराया। दूसरी बार उनकी खुशी तो देखते ही
बनती थी,
जब राजू
(दूसरा बेटा) पलारी में पैदा हुआ। उस दिन बलीराम काका जी के घर शादी थी, पर तबियत खराब होने के कारण
पिताजी पैदल आना- जाना नहीं करते थे। जबकि शादी वाले घर की दूरी बहुत कम थी, अत: वे मोटर- गाड़ी से आते- जाते
थे। शादी वाले घर में जब उन्होंने पोता होने का समाचार सुना ,तो वे यह भी भूल गए कि वे तो
मोटर गाड़ी से आते- जाते हैं। वे सीधे उठे और लम्बे- लम्बे डग भरते पैदल ही घर आ गए
। मैं उनकी वह खुशी भूल नहीं पाता।
पिताजी के स्वर्गवास के बाद
मैं कुछ दिनों तक शून्य सा हो गया अपने को अनाथ महसूस करने लगा था। मित्रों ने
मुझे दिलासा दी। पिताजी के श्राद्ध कार्यक्रम में बहुत लोग आए। उनका क्षेत्र में
बड़ा प्रभाव था। उनके चाहने वालों की भारी संख्या थी। रायपुर, दुर्ग तथा बिलासपुर से लोग दूर-
दूर से आये थे। जो नहीं आ पाए उनके ढेरों पत्र आए।
डॉ. बघेल और विद्याचरण शुक्ल की चुनावी लड़ाई
पिताजी के देहान्त के बाद मैं कुछ दिनों तक पलारी में ही रहा। फिर
बलौदाबाजार चला गया वहीं ज्यादा समय बिताने लगा; क्योंकि बच्चे बलौदाबाजार में ही
पढ़ते थे। इसी बीच डॉक्टर खूबचंद बघेल पिताजी के श्राद्ध कार्यक्रम होने के १ माह
बाद बलौदाबाजार आए और मुझे सांत्वना देते हुए बोले- जो होना था सो तो हो गया अब
ज्यादा उदास मत रहो, चुनाव की तैयारी करनी है चलो रायपुर। मेरी( बघेल जी की) चुनाव याचिका
की पेशी भी है उसमें भी तुम्हें रहना है। इस तरह मैं डॉक्टर साहब के साथ रायपुर आ
गया। डॉक्टर साहब ने बताया कि दुर्ग वाले ताम्रकर वकील जो मेरी चुनाव याचिका को
लेकर जिम्मेदारी से लड़ रहे थे, उन्होंने कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण कर ली है और अब वे याचिका की
पैरवी नहीं करेंगे। इस पर मैंने कहा कि किसी सीनियर वकील से बात कर लेते हैं। तब
डॉक्टर साहब ने कहा मैं सभी बड़े वकीलों के पास जा चुका हूँ, सबने इंकार कर दिया है और फिर
एक- दो दिनों में गवाही होनी है क्या करें? मैं सोचने लगा कि क्या किया जा सकता है। मैंने वकालत सन् ५७ से बंद
कर दी है अत: मैंने कहा कि जी.एच. अग्रवाल वकील को कानून एवं दरखास्त आदि के लिए
रख लेते हैं, बाकी गवाहों की जिरह मैं कर लूँगा। डॉक्टर साहब राजी हो गए और अग्रवाल वकील के यहाँ बैठकें होने लगी कि
गवाहों से कैसे-कैसे जिरह करना है। हमारी ओर से एक के बाद एक गवाही होने लगी। इस
केस में तिवारी जी जज थे, वे मिलिटरी से आए थे तथा बहुत ज्यादा सख्त थे। केस के दौरान जब मैं
विद्याचरण शुक्ल से जिरह कर रहा था, तब शुक्ल जी ने एक कागज पेश किया कि डॉक्टर साहब तो उनके पिताजी (पं.
रविशंकर शुक्ल) के समय से अनाप-शनाप कुछ न कुछ इल्जाम लगाते रहते हैं। और इसके बाद
उन्होंने एक पर्चा छपा हुआ पेश किया जिसमें मेरे, डॉक्टर साहब के तथा ठाकुर
रामकृष्ण के दस्तखत थे। उसमें हम तीनों ने उस वक्त अर्थात सन् १९५७ के पहले जब
शुक्ल जी मध्यप्रदेश के चीफ मिनिस्टर थे, 'तब चीफ मिनिस्टर जवाब देंज् कहकर उन पर उनके गलत कार्यों तथा गलत ढंग
से पैसा कमाने आदि को लेकर १०-१५ इल्जाम लगाए थे। लेकिन जज ने उस पर्चे को पेश
करने से इंकार कर दिया । इस पर मैंने कहा हम लोग मंजूर करते हैं कि यह पर्चा हम
लोगों ने ही छपवाया है और बाँटा है, आप फाइल में रख लें। फिर भी जज ने कहा कि इस मौके पर हम इसे रखने का
इजाजत नहीं दे सकते, तब मैंने उनसे प्रार्थना की, कि आप इस पेपर को फाइल में रख लें और आर्डरसीट में लिख दें कि इस पर
विचार नहीं किया जाएगा। मेरी बात जज ने मान ली। लीफलेट रख लिया गया। मैंने क्रास
क्यूश्चन में इस लीफलेट के बारे में पूछा पर जज ने उसे नामंजूर किया, तब मैंने कहा आप मेरा प्रश्न लिख
लीजिए और उसे इंकार करते जाइये मुझे कोई एतराज नहीं है कि आप मेरे प्रश्न का जवाब
देने के लिए इन्हें मजबूर करते है या नहीं। जज ने ऐसा ही किया। फैसले में जज ने
हमारे विरूद्ध फैसला दिया। इस पर मैंने जज को धन्यवाद देते हुए कहा कि आप ने अच्छा
किया मुझे खुशी है। यह सुनकर जज ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा- आपको हारकर भी
खुशी है। मैंने कहा आपने हमारी सभी बातें मान ली हैं। सिर्फ कानून में हमारे खिलाफ
फैसला है;
इसलिए हम आगे
जीत जाएँगे। और हाईकोर्ट में ऐसा ही हुआ हम जीत गए । इस तरह आगामी ६ साल तक
विद्याचरण शुक्ल। चुनाव में नहीं खड़े हो सकते वाली हमारी अपील मंजूर हुई। इस बड़ी
जीत पर हम सबने खुशी मनाई। पर विद्याचरण ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की वहाँ भी
उसकी हार हुई। हाई कोर्ट का फैसला मान लिया गया पर इस हाईकोर्ट के फैसले में एक
बात फिर विद्याचरण ने एक अलग से और दरखास्त लगाई कि उनके पिता पं. रविशंकर शुक्ल
के ऊपर फैसले में जज ने लिखा है कि 'पं. रविशंकर शुक्ल लाखों रुपये तो भले ही न खाए हों ,पर हजारों जरूर खाए है।ज् उसे
फैसले से अलग कर दें। आखिर इससे उनका क्या सम्बन्ध है। पर उनकी वह दरखास्त भी नामंजूर हो गई।
मैंने जिस लीफलेट का उल्लेख ऊपर किया है, जिसमें हम लोगों के दस्तखत थे, तथा जिसे जज से कहकर फाइल में रखवा दिया था, उसी पर यह ऊपर का रिमार्क हुआ।
मुझे खुशी हुई की उन्हीं का पेश किया कागज, उन्हीं के खिलाफ गया। उस दिन मैंने जज से प्रार्थना करके उसे फाइल
में रखवा लिया वही काम आया।
(आपातकाल १९७५-७६ के दौरान जेल में लिखे गए बृजलाल वर्मा की डायरी के
अंश)
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