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May 16, 2014

चार कविताएँ


- द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
1. हम अनेक किन्तु एक
हम अनेककिन्तु एक।
हैं कई प्रदेश के

किन्तु एक देश के;
विविध रुप-रंग हैं
भारती के अंग हैं।
भारतीय वेश एक

हम अनेककिन्तु एक
बोलियाँ हज़ार हैं
कंठ भी अनेक हैं
राग भी अनेक हैं।
बोल-स्वर समान एक
हम अनेक किन्तु एक।

एक मातृभूमि है
एक पितृभूमि है,
एक भारतीय हम
चल रहे मिला कदम।
लक्ष्य है समक्ष एक
हम अनेककिन्तु एक।

2.  नमन है

जिसने हम को
दी है धरती
दिया गगन है
उसे नमन है।

जिसने हम को
दिये अग्नि-जल
दिया पवन है
उसे नमन है।

जिसकी ऊर्जा
से चलता जग
का जीवन है
उसे नमन है।

है यह देन
प्रकृति की सारी
उसका ऋण है
उसे नमन है।          

 3. तरु
खग-कुल-कलरवतरु वैभव
खिलते सुन्दर सुमन सुहाने;
प्रात: सुनहरेसाँझ सुनहरी
हरी घास पर लुटे सजाने
अब तो उसका रहा खुशी का
और हर्ष का नहीं ठिकाना;
देख चकित रह गया झूमता
दुनिया का वह दृश्य सुहाना।

4. पौधे की खुशी

माटी के नीचेगहरे में
एक बीज मैंने बोया था,
उसी बीज में गहरी निद्रा
में नन्हा पौधा सोया था।
पौधा समझ रहा था सारी
दुनिया में है सिर्फ अँधेरा,
क्योंकि अभी तक उसने देखा
कभी नहीं था स्वर्ग-सवेरा।
टप-टप-टप गिर कर बूँदों ने
तब उसको आ स्वयं जगाया;
कहा- उठोआँखें खोलो
देखो दुनिया की अद्भुत माया।
उतर गगन से नन्ही किरणों
ने उसको आ स्वयं जगाया;
कहा- उठोआँखें खोलो,
देखों दुनिया की अद्भुत माया।
सर-सरमर-मर करती हुई
हवा ने दे आवाज जगाया;
कहा- उठोआँखें खोलो,
देखो दुनिया की अद्भुत माया।
कल-कल करती सरिता की
नन्हीं लहरों ने उसे जगाया;
कहा- उठोआँखें खोलो,
देखो दुनिया की अद्भुत माया।
सुन हम सब की आवाज़ेंली
पौधे ने मीठी अँगड़ाई;
आँख खोल देखा तो सचमुच
दुनिया दी अद्भुत दिखलाई।
नील गगनमृदु-मंद पवनरवि
स्वर्णियशीतल चाँद-चाँदनी;
मलमल तारागणहिम के कण                              सरिता कल-कल-कल निनादिनी।    

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