उदंती.com को आपका सहयोग निरंतर मिल रहा है। कृपया उदंती की रचनाओँ पर अपनी टिप्पणी पोस्ट करके हमें प्रोत्साहित करें। आपकी मौलिक रचनाओं का स्वागत है। धन्यवाद।

May 16, 2014

बालकथा

1 चोरी का फल
-श्याम सुन्दर अग्रवाल 
जब से चिंकी बंदर ने गरम-गरम जलेबियाँ बना कर बेचनी शुरू कीं, सुन्दरवन में उसकी दुकान खूब चल निकली। चिंकी की बनाई हुई जलेबियाँ स्वादिष्ट भी बहुत होती हैं। सभी जानवर जलेबियों की तारीफ करते नहीं थकते। चिंकी बंदर है भी बहुत ईमानदार। छोटे से बड़े तक सबको एक जैसा माल देता है, ठीक तौल कर देता है। तभी तो उसकी दुकान पर सुबह से शाम तक ग्राहकों की भीड़ लगी रहती है।जब सुन्दरवन में कालू नाम का एक चूहा भी रहता था। कालू को भी जलेबियाँ बहुत स्वाद लगती थीं। वह जब भी चिंकी की दुकान के सामने से गुजरता तो गरम व रसीली जलेबियाँ देख उसके मुँह में पानी आ जाता। कालू को अपने माता-पिता से इतने पैसे नहीं मिलते थे कि वह रोज पेट भर जलेबियाँ खा सके। वैसे भी उसके माता-पिता नहीं चाहते थे कि वह अधिक जलेबियाँ खाये। अधिक मिठाई खाने से सेहत जो खराब हो जाती है।
एक दिन कालू का दोस्त रमलू चिंकी की दुकान से जलेबियाँ लेने जा रहा था। कालू भी उसके साथ हो लिया। जब चिंकी रमलू को जलेबियाँ दे रहा था तो कालू ने चुपके से एक जलेबी खिसका ली। चिंकी को इसका पता नहीं चला। चोरी की वह जलेबी तो कालू को ओर भी स्वाद लगी।
फिर तो कालू का यह रोज का काम ही हो गया। जब भी उसका कोई मित्र चिंकी की दुकान पर जलेबियाँ खरीदने जाता तो वह भी उसके साथ हो लेता। कालू अपने साथ एक लिफाफा भी ले जाता। जब चिंकी जलेबियाँ तौलने में लगा होता तो कालू आँख बचा कर दो-तीन जलेबियाँ अपने लिफाफे में डाल लेता। काम में व्यस्त होने के कारण चिंकी उसे देख नहीं पाता। 
कालू के मित्र उसे बहुत समझाते कि चोरी का फल अच्छा नहीं होता। परन्तु कालू पर उनकी बात का कुछ असर न होता। वह हँस कर कहता, तुम क्या जानो चोरी की जलेबी का स्वाद! चोरी की जलेबी तो बहुत मीठी होती है। कभी चोरी की जलेबी खा कर तो देखो।
एक दिन सुबह-सुबह ही कालू का मन जलेबी खाने को करने लगा। उसने अपना लिफाफा लिया और कालू की दुकान की तरफ चल पड़ा।
उसके पहुँचने तक चिंकी ने नीम के वृक्ष तले अपनी दुकान सजा ली थी। वह गरम-गरम जलेबियाँ घी में से निकाल कर चाशनी की कड़ाही में डाल रहा था। कालू एक झाड़ी में छिपा, किसी ग्राहक के आने की प्रतीक्षा कर रहा था। वह सोच रहा था कि जब चिंकी का ध्यान ग्राहक की ओर होगा तब वह जलेबियाँ चुरा लेगा। उसने रंगू खरगोश को दुकान की तरफ जाते देखा तो वह भी छिपता-छिपाता दुकान पर पहुँच गया। 
रंगू खरगोश ने चिंकी से जलेबियाँ माँगी तो उसमे गरम चाशनी में डूबी जलेबियाँ निकाल कर कड़ाही के ऊपर रखी झरनी पर रख दीं। कालू ने देखा कि चिंकी ने अभी तक बड़े थाल में एक भी 
जलेबी नहीं रखी थी। उसने जान लिया कि आज तो जलेबियाँ झरनी के ऊपर से ही चुरानी पड़ेंगी। अगले ग्राहक के आने तक तो वह प्रतीक्षा नहीं कर पायेगा।
जैसे ही चिंकी जलेबियाँ लिफाफे में डाल कर तौलने लगा, कालू जल्दी से कड़ाही पर रखी बड़ी झरनी पर पहुँच गया। जलेबियाँ बहुत गरम थीं, इसलिए उन्हें खिसकाने में कालू को तकलीफ हो रही थी। तभी चिंकी ने एक और जलेबी लेने के लिए हाथ झरनी की ओर बढ़ाया, तो उसकी निगाह कालू पर पड़ गई। कालू हड़बड़ा गया और अपने लिफाफे समेत गरम चाशनी में जा गिरा।
गरम चाशनी में डुबकियाँ लगाते कालू को चिंकी ने चिमटे से पकड़ कर बाहर निकाला। फिर उसने कालू को गरम पानी से नहलाया। नहाते समय कालू बुरी तरह से घबराया हुआ था और थरथर काँप रहा था।
चिंकी ने सोचा, अगर कालू को उचित दंड नहीं दिया गया तो उसकी चोरी की आदत नहीं छूटेगी। इसलिए उसने नीम के पेड़ की एक पतली शाखा से कालू की पूँछ बाँधकर उसे धूप में सूखने के लिए लटका दिया।
चिंकी की दुकान पर आने वालों की नज़र ऊपर लटके कालू पर पड़ती। वे हैरान होकर चिंकी से पूछते, नीम के पेड़ पर इतना बड़ा फल कैसा लटक रहा है?
चिंकी कहता, यह नीम का फल नहीं, चोरी का फल है। फिर वह सबको कालू की करतूत के बारे में बताता।
चिंकी की बात सुन सभी जानवर खूब हँसते। कालू तो शर्म के मारे चुपचाप आँखें बंद करके लटका रहा। शाम को जब चिंकी ने कालू को नीचे उतारा तो उसने कान पकड़ कर फिर कभी भी चोरी न करने का वचन दिया।
चिंकी ने उससे कहा, चोरी करने की जगह फालतू समय में मेरे पास आकर काम किया करो। काम के बदले तुम्हें खाने को जलेबियाँ मिल जाया करेंगी।
चिंकी की बात कालू ने स्वीकार कर ली। कभी-कभी कालू के दोस्त उससे पूछते, चोरी का फल कितना मीठा होता है?
कालू उत्तर देता, चोरी का फल मीठा नहीं, बहुत कड़वा होता है।     
            
2 एक लोटा पानी

बहुत समय पहले की बात है। एक गाँव में राधा नाम की एक औरत रहती थी। राधा बहुत ही समझदार थी। उसके पास एक भेड़ थी। भेड़ जो दूध देतीराधा उसमें से कुछ दूध बचा लेती। उस दूध से वह दही जमाती। दही से मक्खन निकाल लेती। छाछ तो वह पी लेतीलेकिन मक्खन से घी निकाल लेती। उस घी को राधा एक मटकी में डाल लेती। धीरे-धीरे मटकी घी से भर गई।
राधा ने सोचाअगर घी को नगर में जा कर बेचा जाए तो काफी पैसे मिल जाएँगे। इन पैसों से वह घर की ज़रूरत का कुछ सामान खरीद सकती है। इसलिए वह घी की मटकी सिर पर उठा कर नगर की ओर चल पड़ी।
उन दिनों आवाजाही के अधिक साधन नहीं थे। लोग अधिकतर पैदल ही सफर करते थे। रास्ता बहुत लम्बा था। गरमी भी बहुत थी। इसलिए राधा जल्दी ही थक गई। उसने सोचाथोड़ा आराम कर लूँ। आराम करने के लिए वह एक वृक्ष के नीचे बैठ गई। घी की मटकी उसने एक तरफ रख दी। वृक्ष की शीतल छाया में बैठते ही राधा को नींद आ गई। जब उसकी आँख खुली तो उसने देखाघी की मटकी वहाँ नहीं थी। उसने घबरा कर इधर-उधर देखा। उसे थोड़ी दूर पर ही एक औरत अपने सिर पर मटकी लिये जाती दिखाई दी। वह उस औरत के पीछे भागी। उस औरत के पास पहुँच राधा ने अपनी मटकी झट पहचान ली।
राधा ने उस औरत से अपनी घी की मटकी माँगी। वह औरत बोलीयह मटकी तो मेरी हैतुम्हें क्यों दूँ?
राधा ने बहुत विनती कीपरन्तु उस औरत पर कुछ असर न हुआ। उसने राधा की एक न सुनी। राधा उसके साथ-साथ चलती नगर पहुँच गई। नगर में पहुँच कर राधा ने मटकी के लिए बहुत शोर मचाया। शोर सुनकर लोग एकत्र हो गए। लोगों ने जब पूछा तो उस औरत ने घी की मटकी को अपना बताया। लोग निर्णय नहीं कर पाए कि वास्तव में मटकी किसकी है। इसलिए वे उन दोनों को हाकिम की कचहरी में ले गए।
राधा ने हाकिम से कहाहुजूर! इस औरत ने मेरी घी की मटकी चुरा ली है। मुझे वापस नहीं कर रही। कृपया इससे मुझे मेरी मटकी दिला दें। मुझे यह घी बेचकर घर के लिए जरूरी सामान खरीदना है।
तुम्हारे पास यह घी कहाँ से आयाऔर इसने कैसे चुरा लियाहाकिम ने पूछा।
मेरे पास एक भेड़ है। उसी के दूध से मैने यह घी जमा किया है। रास्ते में आराम करने के लिए मैं एक वृक्ष की छाया में बैठी तो मुझे नींद आ गई। तभी यह औरत मेरी मटकी उठा कर चलती बनी। 
हाकिम ने उस औरत से पूछा तो वह बोलीहुजूरआप ठीक-ठीक न्याय करें। मैने पिछले माह ही एक गाय खरीदी हैजो बहुत दूध देती है। मैने यह घी अपनी गाय के दूध से ही
तैयार किया है। जरा सोचिएएक भेड़ रखने वाली औरत एक मटकी घी कैसे जमा कर सकती है?
हाकिम भी दोनों की बातें सुनकर दुविधा में पड़ गया। वह भी निर्णय नहीं कर पा रहा था कि वास्तव में घी की मटकी किसकी है। उसने दोनों औरतों से पूछाक्या तुम्हारे पास कोई सबूत है ?
दोनों ने कहा कि उनके पास कोई सबूत नहीं है।
तब हाकिम को एक उपाय सूझा। उसने दोनों औरतों से कहावर्षा के पानी से कचहरी के सामने जो कीचड़ जमा हो गया हैउसमें मेरे बेटे का एक जूता रह गया है। तुम पहले वह जूता निकाल कर लाओफिर मैं फैसला करूँगा।
राधा और वह औरत कीचड़ में घुस कर जूता ढूँढऩे लगीं। वे बहुत देर तक कीचड़ में हाथ-पाँव मारती रहींपरन्तु उन्हें जूता नहीं मिला। तब हाकिम ने उन्हें वापस आ जाने को कहा। दोनों कीचड़ में लथपथ हो गईं थीं। हाकिम ने चपरासी से उन्हें एक-एक लोटा पानी देने को कहाताकि वे हाथ-पाँव धोकर कचहरी में हाजि़र हो सकें।
दोनों को एक-एक लोटा पानी दे दिया गया। राधा ने तो उस एक लोटा पानी में से ही अपने हाथ-पाँव धोकर थोड़ा-सा पानी बचा लिया; परन्तु गाय वाली वह औरत एक लोटा पानी से हाथ भी साफ नहीं कर पाई। उसने कहाइतने पानी से क्या होता है! मुझे तो एक बाल्टी पानी दोताकि मैं ठीक से हाथ-पाँव धो सकूँ।
हाकिम के आदेश से उसे और पानी दे दिया गया।
हाथ-पाँव धोने के बाद जब राधा उस औरत के साथ कचहरी में पहुँची तो हाकिम ने फैसला सुना दिया-‘’घी की यह मटकी भेड़ वाली औरत की है। गाय वाली औरत जबरन इस पर अपना अधिकार जमा रही है।’’

सब लोग हाकिम के न्याय से बहुत खुश हुए ; क्योंकि उन्होंने स्वयं देख लिया था कि भेड़ वाली औरत ने कितने संयम से सिर्फ एक लोटा पानी से ही हाथ-पाँव धो लियेथे। गाय वाली औरत में संयम नाम मात्र को भी नहीं था। वह भला घी कैसे जमा कर सकती थी।   

सम्पर्क: बी- 575, गली नं. 5, प्रताप सिंह नगरकोट कपूरा (पंजाब)-151204, फोन- 01635-222517 / 320615 मो. 09888536437, Email- sundershyam60@gmail.com

No comments: