इस तरह तो विलुप्त हो जाएगी हमारी सभ्यता
ओज़ायमैंडियास अंग्रेज़ी के कवि शैली की एक कविता का
शीर्षक है। इसमें एक विशाल एवं समृद्ध साम्राज्य के भग्नावशेष का वर्णन है। एक
समृद्ध एवं शक्तिशाली साम्राज्य बालू के विस्तार में कैसे तब्दील हो गया?
कठिन प्रयास से
निर्मित की गई इन भव्य संरचनाओं को छोड़कर इनके महान निर्माता अंतर्धान हो गए।
अतीत के ये आश्चर्यजनक भग्नावशेष हम सबके लिए एक रूमानी
सम्मोहन हैं। बचपन में उन्हें तस्वीरों और वीडियो में देखकर हम मोहित होते रहे
हैं। बड़े होने पर हममें से अनेकों प्रत्यक्ष रूप में सैलानियों के रूप में इनका
अनुभव करने की योजनाएँ बनाते हैं। उनके शानदार और मुग्ध कर देने वाले सौन्दर्य एवं
रहस्य में निमग्न होते रहते हैं। 'सवाल
घेरते हैं हमें/इतनी शानदार उपलब्धियों एवं सामर्थ्य
के बावजूद वे अपने आपको कायम नहीं रख पाए? आखिर
क्यों?'
अनुमान किया जाता है कि इन रहस्यमयी परित्यक्त संरचनाओं
में से अनेकों के विनाश की शुरुआत पर्यावरणीय समस्याओं के कारण हुई थी। मनुष्य ने
आज से करीब पचास हज़ार साल पहले आविष्कारशीलता, दक्षता
एवं शिकार करने के हुनर विकसित किए। तभी से उसके लिए पर्यावरणीय निरंतरता बनाए
रखना कठिन रहा है। लोग अनजाने अपने उन पर्यावरणीय संसाधनों का विनाश करते रहे,
जिन पर उनकी सभ्यता एवं समाज निर्भर थे।
पर्यावरणीय आत्मघात के संदेह की पुष्टि पुराविदों,
जलवायु विशेषज्ञों, इतिहासकारों,
जीवाश्म विशेषज्ञों एवं पुष्परेणु विशेषज्ञों के हाल के दशकों
की खोजों से होती है। जिन प्रक्रियाओं के ज़रिए अतीत के इन समाजों ने अपने
पर्यावरण को भंगुर बनाया, उन्हें आठ
श्रेणियों में बाँटा जाता है- जंगलों की कटाई एवं वासभूमि का विनाश,
भूमि समस्याएँ (भू-क्षरण,
लवणीकरण एवं भू-उर्वरा हानि), जल-
प्रबंधन समस्याएँ, अत्यधिक शिकार,
मछलियों की अत्यधिक पकड़, आयातित
प्रजातियों के मूल प्रजातियों पर असर, मनुष्य की
जनसंख्या वृद्धि एवं आबादी का प्रति व्यक्ति प्रभाव।
इन आठ कारकों के तुलनात्मक प्रभाव अलग-अलग समाजों में
अलग-अलग तरीके से हुए थे। अतीत के इन विध्वंसों की राहें समरूप थीं,
हालाँकि उनमें कुछ विविधताएँ नज़र आती हैं।

लेखकों को व्यक्तियों के जीवन चक्र में जन्म,
वृद्धि, युवावस्था
के बाद बुढ़ापे के लम्बे दौर के बाद मृत्यु के रास्ते और मानव समाजों के प्रक्षेप
पथ में समानता दिखलाने का प्रलोभन होता है। वे मानना चाहते हैं कि हमारे जीवन चक्र
की ही तरह हमारे समाजों का भी जीवन चक्र जन्म से मृत्यु तक निर्देशित होता है।
लेकिन अतीत के अनेक समाजों (एवं आज के सोवियत यूनियन) के लिए यह रूपक भ्रामक साबित
होता है। उत्कर्ष की चरमावस्था पर पहुँचने के बाद उनकी अवनति धीरे-धीरे न होकर
तेज़ी से हुई। उनके नागरिकों को निश्चित रूप से तीव्र आघात एवं आश्चर्य हुआ होगा।
जब समाज पूरी तरह ध्वस्त हो गया तो समाज का हर व्यक्ति या तो मर चुका था या दूसरे
समाजों में बस गया था।
ज़ाहिर है कि ये वारदातें आज अधिकाधिक प्रासंगिक होती गई
हैं। बहुत से लोगों की सोच है कि आज की दुनिया के लिए नाभिकीय अस्त्र और उभरते
रोगों के मुकाबले पर्यावरणीय आत्मघात अधिक बड़ा संकट है। हमारे समक्ष जो
पर्यावरणीय समस्याएँ हैं, उनमें इन
आठ के साथ चार अतिरिक्त समस्याएँ जुड़ गई हैं। ये हैं मानवीय हस्तक्षेप के कारण
होने वाला जलवायु परिवर्तन, परिवेश
में ज़हरीले रसायनों का इकट्टा होना, ऊर्जा की
कमी और धरती की प्रकाश -संश्लेषण उत्पाद- क्षमता का सम्पूर्ण उपयोग। ऐसा दावा किया
जाता है कि अगले कुछ दशकों में इन बारह खतरों में से अधिकतर चरम पर पहुँच जाएँगे।
अगर हम तब तक इन समस्याओं को नहीं सुलझा पाते,
तो समस्याएँ हमें निगल जाएँगी। मनुष्य जाति के विनाश के
प्रलयंकारी दृश्य अथवा औद्योगिक सभ्यता के सर्वनाश की बजाय बस निम्न जीवन स्तर,
दीर्घकालिक गम्भीर खतरों एवं हमारे प्रमुख मूल्यों को खोखला
कर देने वाला भविष्य बचेगा। यह विनाश कई रूप लेगा। जैसे रोगों का पूरे संसार में
प्रसार अथवा पर्यावरणीय संसाधनों की कमी। अगर यह बात सही है,
तो हमारे आज के प्रयास उस दुनिया का चरित्र तय करेंगे,
जो आज के शिशु बालक एवं युवाओं को विरासत में मिलेगी।

Labels: गंगानन्द झा, पर्यावरण
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