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Mar 14, 2014

कितने आजाद महिलाओं के सपने

आज-कल-और कल

कितने आजाद महिलाओं के सपने

                            - पद्मा मिश्रा

दहलीज पर खड़ी औरत क्या सोचती है? नम आँखों से निहारती, आकाश का  कोना-कोना  उडऩे को आकुल, व्याकुल पंख तौलती है। तलाशती है राहें मुक्ति के द्वार की मुक्ति के द्वार की तलाश आज भी जारी है। वह कभी मुक्त नहीं हो सकी रुढिय़ों से,परम्पराओं से, सामाजिक विसंगतियों से, अपनी ही कारा में कैद, भारत की नारी आज भी अपने जीवन संघर्षों की लड़ाई लड़ रही है सदियों की गुलामी से उत्पीडि़त-प्रताडि़त, रुढिय़ों की शृंखलाओं में बंदी उसकी आँखों ने एक सपना जरुर देखा था। -जब देश आजाद होगा अपनी धरती, अपना आकाश अपने सामाजिक  दायरों  में वह  भी सम्मानित होगी, उसके भी सपनों, उम्मीदों को नए पंख मिलेंगे, पर उनका यह सपना कभी साकार नहीं हो पाया, अपने अधूरे सपनो के सच होने की उम्मीद लिए महिलाएँ देश की स्वतंत्रता के संघर्ष में भी भागीदार  बन जूझती रहीं सामाजिक, राजनीतिक, चुनौतियों से, अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए बलिवेदी पर चढ़ मृत्यु को भी गले लगाया पर हतभाग्य! देश को  आजादी  तो मिली  पर राजनीतिक आजादी, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार भी मिला,पर अधूरा, नियमो कानूनों, में लिपटा हुआ हजारों लाखों सपनो के बीच नारी मुक्ति का सपना भी सच होने की आशा जागी थी, शांति घोष, दुर्गा भाभी, अजीजन बाई, इंदिरा, कमला नेहरु, जैसे अनगिनत नाम जिनमे शामिल थे। पर नारी मुक्ति के सपने कभी साकार नहीं हो पाए, उनकी स्थिति  में कोई  परिवर्तन नहीं आया, वे पहले भी सामाजिक, वर्जनाओं के भँवर में कैद थीं आज भी हैं, पहले सती प्रथा के नाम पर पति के साथ जला  दिए जाने की कू्रर परंपरा थी, आज भी महिलाएँ जलाई जाती हैं कभी दहेज़ के नाम पर, तो कभी  पुरुष प्रधान  सामाजिक  प्रताडऩा का शिकार होकर, बालिका विवाह की अमानवीय प्रथा में  कितनी ही नन्हीं, मासूम बालिकाएँ बलिदान हो जाती थीं। आज भी अबोध, मासूम, नाबालिग बच्चियाँ दुष्कर्म और दुर्वव्यवहार का शिकार होती हैं। बेमौत मारी जाती हैं, भ्रूण हत्याएँ भी इसी कू्र, नृशंस, गुलाम मानसिकता का सजीव उदाहरण हैं। कभी महिलाओं ने सोचा था की जब उन्हें  आजादी मिलेगी उनकी भी आवाज सुनी जाएगी, वे भी विकास की मुख्य धारा में शामिल होकर अपनी मंजिल प्राप्त कर पाएँगी, पर आज वे अपने ही देश में सुरक्षित नहीं हैं, पहले भी घर व समाज की चार दीवारों  में आकुल-व्याकुल छटपटाती थीं। और आज भी स्वतंत्रता के 66 वर्षों के बाद भी वे चार दीवारों में बंदी रहने  को विवश हैं क्योंकि  बाहर  की दुनियाँ उनके लिए निरापद नहीं है, यह कैसी बिडम्बना है! कैसी स्वतंत्रता है! जो मिल कर भी कभी फलीभूत नहीं हो सकी।
जो रही भाल का तिलक उसे, देते फांसी के फंदे क्यों?
जो घर आंगन का मान बनी, उससे नफरत के धंधे क्यों?
फिर क्यों दहेज़ की बेदी पर, बेटियाँ जलाई जाती है,
मुट्ठीभर सिक्कों की खातिर, छत से फिंकवाई जाती हैं?
आज महिलाएँ शिक्षित हैं। जागरूक हैं। सपने देखती हैं तो उन्हें सच करना भी जानती हैं लेकिन कुछ  मुट्ठीभर  रेत से घरौंदे नहीं बना जा सकते, देश की स्वतंत्रता का सूर्य जब प्रज्वलित हुआ। आशा की किरणें महिलाओं के दामन में भी झिलमिलाई थीं परन्तु उसी आँचल को दागदार बनते देर नहीं लगी, वे अपने ही परिवेश, समाज, घर की सीमाओं में शोषित होती चली गईं यह मानते हुए भी की वे माँ हैं, बहन हैं, बेटी हैं, कितने रूपों और रिश्तों में जीती हैं वह- त्याग का  प्रतिरूप  बन कर, पर उन्ही  रिश्तों ने उसे कलंकित भी किया यह हमारे आजाद देश की विकृत  मानसिकता का घृणित परिणाम है दामिनी, गुडिय़ा जैसी मासूमों का बलिदान देश भूला नहीं है। अगर उनके विरोध में कहीं कोई दबी आवाज उभरी भी तो कुछ दिनों तक प्रेस में, मीडिया और मुट्ठीभर बुद्धिजीवियों के बीच विमर्श का मुद्दा बनी बेटियाँ आँसू बहाने के सिवाय कुछ नहीं कर पातीं। और सरकार कुछ मुआवजा या दोषियों को दो तीन महीनो की सजा दे अपने कर्त्तव्य से मुक्त हो जाती है। और फिर एक नई यातना की कहानी का जन्म होता है। आखिर कब तक? और कितनी बेटियों की बलि चढ़ेगी? क्या हमारा समाज कभी अपनी सोच बदलेगा? बेटियाँ जो किसी का अभिमान, किसी के माथे का तिलक बन गौरव व साहस का नया इतिहास लिख सकती हैं,उन्हें प्रताडऩाओं के दौर से कब तक गुजरना पड़ेगा। उन्हें ईमानदारी, और दृढ़ संकल्पों के साथ शिक्षित और जागरूक बनाने की ठोस कोशिश क्यों नहीं होती? कितने ही बलिदानों, संघर्षों, से प्राप्त आजादी को हमने कुछ सत्ता लोलुपों के हाथ का खिलौना बना दिया, वे देश के भविष्य से खेलते रहे। संविधानो कानूनों, न्याय और प्रगति के नाम पर आधी आबादी के भाग्य का फैसला सुनाते  रहे, परदे के पीछे से घिनौना खेल खेलते रहे पूरा देश देखता रह गया। न्याय की लम्बी लड़ाई और दोषियों को सजा दिलाने के लिए सविधान के पृष्ठ खँगाले जाते रहे। महिलाओं ने खुद को ठगा सा महसूस किया लेकिन उन नर पिशाचों का हृदय न पसीजना था न पसीजा, क्या हम आदिम युग की और बढ़ रहे हैं? आजादी मिले वर्षों बीत गए समय बदला युग बदले कामना तो यही की थी मनुष्यता के पक्षधरों से उनकी सोच। विवेक, बुद्धि का विकास होगा। मानवता के नये आयाम स्थापित होंगे। शिक्षा होगी तो अन्तश्चेतना का भी उत्कर्ष होगा। पर कितना दु:ख होता है ये पंक्तियाँ लिखते हुए की परिवर्तनों के दौर से गुजर कर भी शिक्षित होते हुए भी हमने कू्ररता संवेदना और नृशंसता  की सारी  वर्जनाएँ सीमाएँ तोड़ दी हैं। महिलाओं के साथ पशुओं जैसा आचरण करने वाले  जरा अपनी भावी पीढ़ी के विषय में भी सोचें उनका कल क्या होगा? उनकी बहू - बेटियाँ भी यदि इन दुष्कृत्यों का शिकार हुईं तो उनके आँसुओं का वे क्या जवाब देंगे, हर महिला माँ है, बेटी है, बस एक बार सोच कर देखें हम आवाज उठाते रहे जुल्म के खिलाफ नारी अस्मिता के लिए पर कहाँ  खो हो जाती हैं वे आवाजें? सत्ता बहरी है या समाज? कहाँ जाएँ महिलाएँ -बेटियाँ,! क्या एक बार फिर विध्वंशकारी क्रांति की प्रतीक्षा है। समाज को जब सब कुछ नष्ट भ्रष्ट हो केवल मौन ही शेष  रह जायेगा! पहले विदेशियों, अंग्रेजों से संघर्ष था, पर आज अपनों से है, अपनों से अपनों का यह युद्ध ज्यादा कठिन है, शक्ति की नियंता रही है। नारी जीवन के संघर्षों में आज भी भारतीय नारी ने हार नहीं मानी है। अपनी प्रगति के रास्ते  खुद तलाशे हैं, भारतीय नारी ने सपने भी देखें हैं तो अपने नीद की सुख छाँव में, अपनों के बीच न की उसे तोड़ कर, विच्छिन्न कर, वही हमारी संस्कृति की पहचान है। यदि वही पुन्य सलिला नारी हमारे समाज में पद दलित होती है तो यह लज्जाजनक और हमारी संस्कृति का अपमान है। और एक पददलित संस्कृति कभी किसी समाज को विकास का मार्ग नहीं दिखा सकती। हमें अपनी सोच को उदार बनाना होगा, दहेज, हत्या, भ्रूण-हत्या जैसी बुरायों को जड़ से मिटा कर एक नया आसमान बनाना होगा। जो हमें सुख की छाँह दे सके।
आज के सामाजिक परिवेश और पुराने, रुढिय़ों में जकड़े गुलाम मानसिकता वाले चंद मठाधीशों के बीच की सामाजिक स्थिति में कोई विशेष अंतर नहीं है, बस संघर्ष के दायरे बदल गए हैं, अब वह घर आँगन से निकल कर विभिन्न क्षेत्रों, महत्वाकांक्षाओं, बौद्धिक धरातलों तक फैल गया है, चुनौतियाँ बड़ी हैं, पीढिय़ों की सोच को बदलने के लिए बहुत कुछ अभी किया जाना, लिखा जाना बाकी है, प्रयास करते रहना है कि हम उनके साथ न्याय कर सकें, आजादी के वास्तविक अर्थ को समझने की जरूरत है, आजादी सबके हित में हो, समान वर्ग, लिंग, जाति  की विभिन्नताओं से परे हो। लेकिन महिलाओं की आजादी का अर्थ उन्मुक्तता नहीं, बल्कि व्यक्तित्व के विकास के समान अवसर उपलब्ध कराना हो  तभी वह अपना आसमान खुद बना पायेगी हम सभी जानते हैं की  जीवन के अरण्य  में नारी शीतल सुखद मलय बयार है जो संघर्षों, मुश्किलों, पीड़ा व वेदना के अनगिनत थपेड़े सहकर भी जीती है तो परिवार के लिए, घर आँगन की मंगल कामना में ही जीवन का सार समझती है। वह कभी अलग नहीं होती अपनी पारिवारिक धुरी से पर जब चुनौतियाँ सामने हों तो वह न हारती है न झुकती है। पर जब टूटी है तो प्रलय ही आई  है, वह ममता है, मान है, शृंगार है, प्रेम है, क्या-क्या न कहें। बस थोड़ा सा स्नेह दें और अमृत की मिठास जीवन को सुरभित बना जाएगी, हम नारी के सम्मान की रक्षा करें तभी हमारी विश्व प्रसिद्ध संस्कृति जीवित रह पागी।

लेखक के बारे में- शिक्षा- एम.ए- हिंदी प्रकाशन- कादम्बिनी, परिकथा, वर्तमान साहित्य, जटायु, स्वर मंजरी हिंदुस्तान, दैनिक जागरण, प्रभात खबर, दैनिक भास्कर आदि अनेक राष्ट्रीय  व स्थानीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित, कहानी संग्रह- साँझ का सूरज, काव्य संग्रह- सपनों के वातायन कहानी संकलन -पठार  की खुशबू झारखण्ड की पच्चीस महिला साहित्यकारों की कहानियाँ, काव्य संकलन जोदिल में है- झारखण्ड की पच्चीस महिला कवयित्रियों  की कविताएँ, साहित्यिक सम्बन्ध- बहुभाषीय साहित्यिक संस्था- सहयोग एवं अक्षर कुम्भ से सम्बद्ध
सम्पर्क: जमशेदपुर-झारखण्ड, Email- padmasahyog@gmail.com

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