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Oct 23, 2010

औरत को मारने के बहाने

औरत को मारने के बहाने
- पंकज चतुर्वेदी
मध्यप्रदेश के आदिवासी अंचलों में जमीन हदबंदी कानूनों के लचरपन और पंचायती राजनीति के नाम पर शुरू हुई जातीय दुश्मनियों की परिणति महिलाओं की हत्या के रूप में हो रही है।
बात उन दिनों की है जब संसद के भीतर संसद व अन्य विधायी संस्थाओं में महिलाओं के लिए एक- तिहाई आरक्षण की मांग पर हंगामा हो रहा था और मुदित मीडिया पूरे देश में अंर्तराष्ट्रीय महिला वर्ष के जश्नों की झलकियां दिखा रहा था। सब कुछ इतना चमकीला और चकाचौंध भरा था कि भारत में नारी- शक्ति पर किसी को भी गुमान हो जाता। ठीक उसी दिन में झारखंड के जसीडीह जिले के सिमडेगा थाना में गीता नामक एक महिला को भीड़ ने घेर कर मार डाला। भीड़ में केवल पुरुष ही नहीं थे, बड़ी संख्या में महिलाएं भी थीं।
महिला की नृशंस हत्या का कारण था गांव का एक बीमार बच्चा। गांव वाले गीता के पास गए कि वह बच्चे को ठीक कर दे, उसने अनभिज्ञता जाहिर की और बस लोगों ने उसे मार दिया। उस पर डायन होने का आरोप था। एक तरफ संसद में आरक्षण के रथ पर सवार हो कर पहुंचने की लालसा लिए नाचती-कूदती नारे लगाती महिलांए दूसरी तरफ 'गीताएं'। महिला सशक्तीकरण की तकरीर करने वालों को शायद यह पता भी नहीं है कि पूरे देश के कोई आधा दर्जन राज्यों में ऐसे ही हर साल सैंकड़ों औरतों को बर्बर तरीके से मारा जा रहा है। वह भी 'डायन' के अंधविश्वास की आड़ में।
मध्यप्रदेश के आदिवासी अंचलों में जमीन हदबंदी कानूनों के लचरपन और पंचायती राजनीति के नाम पर शुरू हुई जातीय दुश्मनियों की परिणति महिलाओं की हत्या के रूप में हो रही है। कुछ साल पहले सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर राज्य शासन ने एक जांच रिर्पोट तैयार की है जिसमें बताया गया है कि अंधविश्वास और अशिक्षा के कारण टोनही या डायन करार दे कर किस तरह निरीह महिलाओं की आदिकालीन लोमहर्षक ढंग से हत्या कर दी जाती है। औरतों को ना केवल जिंदा जलाया जाता है, बल्कि उन्हें गांव में नंगा घुमाना, बाल काट देना, गांव से बाहर निकाल देना जैसे निर्मम कृत्य भी डायन या टोनही के नाम पर होते रहते हैं। इन शर्मनाक घटनाओं का सर्वाधिक अफसोसजनक पहलू यह है कि इन महिला प्रताडऩाओं के पीछे ना सिर्फ महिला की प्रेरणा होती है, बल्कि वे इन कुकर्मों में बढ़- चढ़ कर पुरूषों का साथ भी देती हैं।
मध्यप्रदेश से अलग हुए आदिवासी बाहुल्य छत्तीसगढ़ राज्य में बैगा, गुनियाओं और ओझाओं के झांसे में आकर पिछले तीन वर्षों में तीन दर्जन से अधिक औरतों को मार डाला गया है। कोई एक दर्जन मामलों में आदमियों को भी ऐसी मौत झेलनी पड़ी है। मरने वालों में बूढ़े लोगों की संख्या ज्यादा है। किसी को जिंदा जलाया गया तो किसी को जीवित ही दफना दिया गया। किसी का सिर धड़ से अलग कर दिया गया तो किसी की आंखें निकाल ली गईं। ये आंकड़े मात्र वही हैं जिनकी सूचना पुलिस तक पहुंची। खुद पुलिस भी मानती है कि दर्ज नहीं हो पाए मामलों की संख्या सरकारी आंकड़ों से कहीं अधिक है। प्रशासन के रिकार्ड मुताबिक बीते तीन सालों के दौरान सरगुजा में आठ, बिलासपुर में सात, रायपुर में पांच, रायगढ़ में चार, राजनांदगांव व दंतेवाड़ा में दो- दो और बस्तर में एक ऐसा मामला कायम हुआ है। यहां जानना जरूरी है कि बस्तर, दंतेवाड़ा के बड़े हिस्से में पुलिस या नागरिक प्रशासन अभी तक नहीं पहुंच पाया है। यही वे क्षेत्र हैं जहां अंधविश्वास का कुहासा सर्वाधिक है। किसी गांव में कोई बीमारी फैले या मवेशी मारे जाएं या फिर किसी प्राकृतिक विपदा की मार हो, आदिवासी इलाकों में इसे 'टोनही' का असर मान लिया जाता है। भ्रांति है कि टोनही के बस में बुरी आत्माएं होती हैं, इसी के बूते पर वह गांवों में बुरा कर देती है । ग्रामीणों में ऐसी धारणाएं फैलाने का काम नीम- हकीम, बैगा या गुनिया करते हैं। छत्तीसगढ़ हो या निमाड़, या फिर झारखंड व उड़ीसा सभी जगह आदिवासियों की अंधश्रद्धा इन झाड़- फूंक वालों में होती है। इन लोगों ने अफवाह उड़ा रखी है कि 'टोनही' आधी रात को निर्वस्त्र हो कर श्मशान जाती है और वहीं तंत्र- मंत्र के जरिए बुरी आत्माओं को अपना गुलाम बना लेती है। उनका मानना है कि देवी अवतरण के पांच दिनों- होली, हरेली, दीवाली और चैत्र व शारदीय नवरात्रि के मौके पर 'टोनही' सिद्धि प्राप्त करती हंै। गुनियाओं की मान्यता के प्रति इस इलाके में इतनी अगाध श्रद्धा है कि 'देवी अवतरण' की रातों में लोग घर से बाहर निकलना तो दूर, झांकते तक नहीं हैं। गुनियाओं ने लोगों के दिमाग में भर रखा है कि टोनही जिसका बुरा करना चाहती है, उसके घर के आस- पास को वह अभिमंत्रित कर बालों के गुच्छे, तेल, सिंदूर, काली कंघी या हड्डी रख देती है।
अधिकांश आदिवासी गांवों तक सरकारी स्वास्थ्य महकमा पहुंच नहीं पाया है। जहां कहीं अस्पताल खुले भी हैं तो कर्मचारी इन पुरातनपंथी वन पुत्रों में अपने प्रति विश्वास नहीं उपजा पाए हैं। तभी मवेशी मरे या कोई नुकसान हो, गुनिया हर मर्ज की दवा होता है। उधर गुनिया के दांव- पेंच जब नहीं चलते हैं तो वह अपनी साख बचाने कि लिए किसी महिला को टोनही घोषित कर देता है। गुनिया को शराब, मुर्गे, बकरी की भेंट मिलती है बदले में किसी औरत को पैशाचिक कुकृत्य सहने पड़ते हैं। ऐसी महिला के पूरे कपड़े उतार कर गांव की गलियों में घुमाया जाता है, जहां चारों तरफ से पत्थर बरसते हैं। ऐसे में हंसिए से आंख भी फोड़ दी जाती है।
मप्र के झाबुआ- निमाड़ अंचल में भी महिलाओं को इसी तरह मारा जाता है; हां, नाम जरूर बदल जाता है- डाकन। गांव की किसी औरत के शरीर में 'माता' प्रविष्ट हो जाती है। यही 'माता' किसी दूसरी 'माता' को डायन घोषित कर देती है। और फिर वहीं अमानवीय यंत्रणाएं शुरू हो जाती हैं। अकेले झाबुआ जिले में हर साल 10 से 15 'डाकनों' की नृशंस हत्या होती हैं। इसी तरह के अंधविश्वास और त्रासदी से झारखंड, उड़ीसा, बिहार, बंगाल और असम के जनजातीय इलाके भी ग्रस्त हैं। रूरल लिटिगेशन एंड एंटाइटिलमेंट केंद्र नामक गैरसरकारी संगठन की ओर से सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दे कर डायन- कुप्रथा पर रोक लगाने की मांग की गई थी, जिसे गत 12 मार्च 2010 को सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए निरस्त कर दिया कि इस याचिका को हाईकोर्ट में लगाना चाहिए। संस्था ने आंकड़े पेश किए कि गत 15 सालों से देश के विभिन्न राज्यों में 2500 से अधिक औरतों को डायन करार दे कर मारा जा चुका है। ठेठ आदिम परंपराओं में जी रहे आदिवासियों के इस दृढ़ अंध विश्वास का फायदा इलाके के असरदार लोग बड़ी चालाकी से उठाते हैं। अपने विरोधी अथवा विधवा- बूढ़ी औरतों की जमीन हड़पने के लिए ये प्रपंच किए जाते हैं। थोड़े से पैसे या शराब की बदौलत गुनिया बिक जाता है और किसी भी महिला को टोनही घोषित कर देता है। अब जिस घर की औरत को 'दुष्टात्मा' बता दिया गया हो या निर्वस्त्र कर सरेआम घुमाया गया हो, उसे गांव छोड़ कर भागने के अलावा कोई चारा नहीं बचता है। कई मौकों पर ऐसे परिवार की बहू- बेटियों के साथ गुनिया या असरदार लोग कुकृत्य करने से बाज नहीं आते हैं। यही नहीं अमानवीय संत्रास से बचने के लिए भी लोग ओझा को घूस देते हैं।
मप्र शासन की जांच रपट में कई रोंगटे खड़े कर देने वाले हादसों का जिक्र है। लेकिन अब अधिकारी सांसत में हैं कि अनपढ़ आदिवासियों को इन कुप्रथाओं से बचाया कैसे जाए। एक तरफ आदिवासियों के लिए गुनिया- ओझा की बात पत्थर की लकीर होती है, तो दूसरी ओर इन भोले- भाले लोगों के वोटों के ठेकेदार 'परंपराओं' में सरकारी दखल पर भृकुटियां तान कर अपना उल्लू सीधा करने में लगे रहते हैं। गुनिया- ओझा का कोप भाजन होने से अशिक्षित आदिवासी ही नहीं, पढ़े- लिखे समाज सुधारक व धर्म प्रचारक भी डरते हैं। तभी इन अंचलों में सामुदायिक स्वास्थ्य, शिक्षा या धर्म के क्षेत्र में काम कर रहे लोग भी इन कुप्रथाओं पर कभी कुछ खुलकर नहीं बोलते कारण- गुनिया की नाराजगी मोल ले कर किसी का भी गांव में घुस पाना नामुमकिन ही है। कहने को झारखंड सरकार ने इस कुप्रथा के खिलाफ एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म भी बनवाई थी, लेकिन गुनिया- ओझा के डर से उसका सही तरीके से प्रदर्शन भी नहीं हुआ। मिथ्या धारणाओं से ओत- प्रोत जनजातीय लोगों में औरत के प्रति दोयम नजरिया वास्तव में उनकी समृद्ध परंपराओं का हिस्सा नहीं है। यह तो हाल के कुछ वर्षों में उनके बीच बढ़ रहे बाहरी लोगों के दखल और भौतिक सुखों की चाहत से उपजे हीन संस्कारों की हवस मात्र है।
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