- डॉ. रत्ना वर्मा
समझ नहीं आ रहा है कि इस बार देश को दो-दो मेडल देने वाली पहली एथलीट मनु भाकर के बारे में बात की शुरूआत करते हुए जश्न मनाया जाए या दिल्ली के कोचिंग सेंटर हादसे में काल के गाल में समा चुके उन तीन छात्रों की मौत पर आँसू बहाया जाए... या फिर केरल के वायनाड के चार गाँवों पर प्रकृति के रौद्र रुप को देखकर गमगीन हुआ जाए... वैसे देश में हो रहे विकास और युवा पीढ़ी के बढ़ते कदमों को देखकर खुशियाँ तो मनाई ही जानी चाहिए, वे हमारे देश का गर्व हैं, और हमें पूरा विश्वास है कि ओलंपिक के समाप्त होते होते हमें कई मेडल मिलेंगे।
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... पर देश में निरंतर हो रहे हादसों को नजरअंदाज करते हुए आगे बढ़ जाना तो बिल्कुल भी सही नहीं होगा। ऐसा क्यों है कि हम पहले किसी अनहोनी का इंतजार करते हैं फिर उसके बाद सचेत होते हैं। और बार बार मिल रही चेतावनी के बाद भी हम सबक नहीं लेते।
बेसमेंट में अवैध रुप से संचालित कोचिंग में बारिश का पानी भर जाने से हुई तीन युवकों की मौत के बाद ऐसे अनेक कोचिंग सेंटर को नोटिस जारी किया गया, बहुतों को तुरंत बंद भी कर दिया गया। जाहिर है ये सब न जाने कितने बरसों से नियम-कानून को ताक पर रखकर संचालित किए जा रहे थे। अब जाँच के लिए कमेठी गठित होगी, हादसे के कारणों की जाच होगी, जिम्मेदार लोगों को सजा देने के लिए कानूनी लड़ाइयाँ लड़ी जाएँगी, साथ ही ऐसे हादसों से बचने के उपाय और नीति में बदलाव की सिफारिश भी होगी। इन सबमें बरसों बरस निकल जाएँगे और लोग इसे फिर भूल जाएँगे, तब तक के लिए, जब तक कि फिर कोई हादसा नहीं हो जाता।
सबसे दुखद स्थिति तब होती है, जब इस तरह से के हादसे में होने वाली मौत पर राजनीति होने लगती है। जबकि जिम्मेदार वे सभी हैं, जो ऐसी व्यवस्था को बनाते हैं, उन्हें लागू करते हैं। इन्तेहा तो तब होती है जब व्यवस्था को बनाने वाले ही नियम और कानून की धज्जियाँ उड़ाते हुए भ्रष्टाचार में लिप्त हो जाते हैं।
बात निकली है तो सम्पूर्ण देश में चल रहे कोचिंग के व्यापार पर भी बात होग, जो दिनबदिन बढ़ते ही चला जा रहा है, जो हमारी सम्पूर्ण शिक्षा व्यवस्था की गुणवत्ता को मुँह चिढ़ाते नजर आता है। आखिर इन कोचिंग संस्थानों में ऐसा क्या पढ़ाया जाता है, जो स्कूल और महाविद्य़ालयों में नहीं पढ़ाया जाता। आखिर हमारे शिक्षकों, हमारे पाठ्यक्रम और हमारे पढ़ाए जाने वाले शिक्षण- विधि में ऐसी क्या कमी है कि बच्चों को ट्यूशन और कोचिंग के लिए जाना पड़ता है, ताकि वे बेहतर कैरियर बना सकें। मैं अपने समय की शिक्षण- व्यवस्था की बात करूँ, तो प्रथम तो तब निजी स्कूल ही बहुत कम हुआ करते थे, और रही बात ट्यूशन की, तो तब ट्यूशन के लिए वही बच्वा जाता था, जो किसी विषय में कमजोर होता था, सच तो यही है कि तब ट्यूशन जाने वाली बात को लोग छिपा लिया करते थे ।
परंतु अब तो सब कुछ उलट हो गया है। ट्यूशन जाना अब स्टेटस सिंबल हो गया है, जितने बड़े बोर्ड वाला कोचिंग सेंटर, उतनी महँगी वहाँ की फीस। जहाँ हर साल टॉप करने वाले बच्चों के चित्र और उनके रैंक लिखे बड़े - बड़े होर्डिंग चौराहों पर लगाए जाते हैं। वहाँ जाने वाला बच्चा और बच्चे से ज्यादा उनके माता पिता गर्व महसूस करते हैं। हमारी पूरी शिक्षण- व्यवस्था पर यह कितना बड़ा प्रश्न चिह्न है; लेकिन फिर भी इस विषय पर सब चुप्पी साधे हुए हैं।
... लेकिन अभी इस विषय पर बस इतना ही। आगे आप सब चिंतन- मनन कीजिए...
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अब आया जाए प्रकृति की विनाश लीला पर। इस बार वायनाड पर यह कहर बरपा है। पहली बार नहीं है कि पहाड़ों पर ऐसी आपदाएँ आई हों। पिछले कई बरसों से हम देखते आ रहे हैं। भारतीय अन्तरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने अपने वैज्ञानिक अध्ययन के जरिए यह चेतावनी बहुत पहले ही दे दी थी। पिछले साल हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड में हुई तबाही तो हम देख ही चुके हैं, और अब केरल में 30 जुलाई को आए विनाश को देख ही रहे हैं।भारतीय अन्तरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) द्वारा गत वर्ष तैयार भूस्खलन की दृष्टि से देश के 147 जिलों के मानचित्र में उत्तराखण्ड को सर्वाधिक और उसके बाद दक्षिण में केरल को दूसरे नंबर पर संवेदनशील दर्शाया गया था। दरअसल उत्तराखण्ड और हिमालय के साथ ही दक्षिण के सभी पहाड़ी इलाके भूस्खलन की जद में आते हैं। भूस्खलन का एक बहुत बड़ा कारण वनों का विनाश है। पेड़, पहाड़ों की मिट्टी को बाँध कर रखते हैं यदि हम पेड़ ही नहीं बचाएँगे, तो इन आपदाओं के लिए तैयार रहना होगा। अगर समय रहते अब भी हमने अपने वैज्ञानिकों, पर्यावारणविदों और विशेषज्ञों की चेतावनी को अनदेखा किया, तो ऐसे हादसों के लिए हमें तैयार रहना होगा।
वैज्ञानिक यह मानते हैं कि कुछ भूस्खलन भले ही प्राकृतिक हैं; परंतु अब मानवीय कारणों से इस तरह के हादसे बढ़ते ही चले जा रहे हैं। अतः अब यह जरूरी है कि हम प्रकृति के व्यवहार को समझते हुए उसके साथ जीना सीखें; क्योंकि यदि हमने प्रकृति से छेड़छाड़ बंद नहीं की, तो दुनिया का विनाश निश्चित है।
... कुल मिलाकर एक तरफ खुशियाँ हैं, तो दूसरी तरफ गम। पर यह भी सच है कि दोनों ही हमारे हाथ में है । अतः खुशियों का स्वागत कीजिए और गम कभी न आए इसके लिए अपने आप को तैयार कीजिए।
साहिर लुधियानवी के शब्दों में-
अरे ओ आसमाँ वाले बता इस में बुरा क्या है,
ख़ुशी के चार झोंके गर इधर से भी गुज़र जाएँ।
8 comments:
आदरणीया 🙏🏽
बहुत सही और सामयिक बात कही है आपने। हमारी संवेदनाएं मर चुकी हैं। पूरा देश दुकान हो गया है। ऐसे वैसे कैसे भी बस पैसा मिल जाए। साधन की शुचिता तो गांधी के साथ ही विदा ही गई। उनके उत्तराधिकारी वर्ग जनक ने जो बीज बो दिये भ्रष्टाचार के वो अब विशालकाय वृक्ष में परिवर्तित हो चुका है।
- अंदर का जहर चूम लिया धुल के आ गए
- कितने शरीफ़ लोग थे सब खुल के आ गए
नेता, नौकरशाही व व्यवसायी वर्ग की लोलुपता भावी पीढ़ी तो छोड़िये देश को ही निगल गई। क्या होगा आगे कोई नहीं जानता।
- इस रस्ते भी चोर हैं उस रस्ते भी चोर
- खड़ा मुसाफिर सोचता अब जाएं किस ओर
साहसिक कलम की धनी हैं आप। सो मेरी हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं स्वीकारें। सादर 🙏🏽
श्रद्धेय रत्ना जी !
नमस्कार !
बहुत ही मार्मिक पहलू को छुआ है आपने !
अख़बार निचोड़ो तो खून टपकता है !
मन यही कचोटता है की नेताओं पर,
आला अधिकारियों पर क़यामत क्यों नहीं आती ?
आत्म सम्मान और देश का स्वाभिमान जैसे भारी भरकम शब्दों के मायनों को जीने में व्यक्ति का जीवन लगता है !
लेकिन ऐसा हो, इसकी संभावना भी न के बराबर ही है क्योंकि आत्म सम्मान, स्वाभिमान की कीमत एक ज़िंदगी तो हो सकती है लेकिन तीन तीन ज़िंदगियाँ उसकी कीमत कभी नहीं हो सकती !
व्यक्ति के जीवन में ज़रूरतों और ज़िम्मेदारियों का भार इतना होता है कि एक तय समय और सीमा के बाद व्यक्ति मर ही जाता है सरकार से लड़ नहीं पाता !
यहाँ तो हादसों के बाद ही नई ज़िंदगी के लिए सोचा जाता
है !
सादर !
डॉ दीपेन्द्र कमथान
बरेली !
आदरणीया रत्ना जी, नमस्कार। एक और घटना की चर्चा करना चाहता हूं। लखनऊ, गोमतीनगर में जलभराव के के बीच कुछ शोहदों ने न केवल वहां वालों को परेशान किया बल्कि एक मोटरसाइकिल अपने भाई के साथ आ रही एक लड़की को पानी में हीरा कर उससे छेड़खानी भी की। वहां उपस्थित बहुत सारे लोगों में से किसी ने भी बीच बचाव की कोशिश तक नहीं की। बल्कि दृश्य का आनन्द लेते रहे। सामाजिक संवेदनहीनता का यह अप्रतिम उदाहरण है जो वास्तव में चिंताजनक है।
यह केवल आपराधिक कृत्य नहीं है न ही कानूनी प्रक्रिया इसका समाधान। युवा पीढ़ी की इस दिशाहीनता और सामाजिक संवेदनशीलता पर देशव्यापी बहस की आवश्यकता है।
रत्ना जी आपने सामयिक और संवेदनशील पहलू को छुआ है । मानव इतना स्वार्थी हो गया है कि उसके लिए मानवता कोई अर्थ ही नहीं रहा। जानते हुए भी कि घटना हो सकती है , वह चेतता नहीं। आपके अमूल्य विचारों का स्वागत है। सुदर्शन रत्नाकर
आप बिल्कुल सही कह रहे हैं जोशी जी पर इन चोरों से बचने का क्या कोई रास्ता नहीं है कोई रास्ता तो तलाशना होगा ना l आपके सारर्गर्भित विचारों के लिए आपका हार्दिक धन्यावाद और आभार 🙏
ऐसे बहुत सारे विषय हैं गुप्ता जी जिनपर गंभीरता से सोच - विचार करने और बहस की आवश्यकता है l आपकी भागीदारी के लिए आभार और टिप्पणी के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद l
आपकी टिप्पणी के लिए हृदय से आभारी हूँ सुदर्शन जी आप सच कह रही हैं स्वार्थ ने व्यक्ति को इतना अंधा कर दिया है कि इंसानियत समाप्त हो गई है l
आपके विचार बेहद चिंतनीय हैं कमथान जी l दरअसल सब अपनी अपनी चिंता में इतने व्यस्त हैं कि अन्य मुद्दों के लिए लड़ने का वक्त ही नहीं होता... प्रतिक्रिया के लिए आपका हार्दिक आभार और धन्यवाद🙏
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