गौ माता की सत्यनिष्ठा का पर्व
भादो महीने के
कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को बहुला चतुर्थी व्रत स्त्रियाँ करती हैं जिसे छत्तीसगढ़
में बहुला चौथ के नाम से जाना जाता है। यह चतुर्थी वर्ष की प्रमुख चार चतुर्थियों
में से एक। इस दिन व्रत रखकर माताएँ अपने संतान की रक्षा हेतु कामना करती हैं। व्रत
रखने वाली स्त्री पूजा के लिए तालाब से काली मिट्टी मँगाकर गाय, बछड़ा, शेर, पहाड़ तथा वन में पाए जाने वाले अन्य जीव-जंतु तथा बच्चों के लिए छोटे- छोटे खिलौने जैसे कंचे, भँवरा आदि बनाती है। इस दिन चन्द्रमा के उदय होने तक बहुला
चतुर्थी का व्रत करने का विशेष महत्त्व माना जाता है। रात में चाँद निकलने के बाद
विधि विधान से पूजा करते हैं। पूजा करके एक कथा कही जाती है जो गाय और शेर की होती
है। कथा के बाद महिलाएँ अपना व्रत तोड़ती हैं। दूसरे दिन मिट्टी से बने गाय और शेर
को तालाब में ठंडा कर देते हैं और खिलौनों को बच्चों को खेलने के लिए दे दिया जाता
है।
इस व्रत में गाय
के दूध का सेवन निषेध माना गया है। जौ के आटे का फलाहार करते हैं और पूजन के समय
बहुला गाय की कथा कही जाती है।
छत्तीसगढ़ में गाए जाने वाले एक
सुआगीत में भी बहुला गाय का वर्णन है जो बहुला चतुर्थी के व्रत के समय कही जाने
वाली कथा से बिल्कुल मिलती जुलती है।
छत्तीसगढ़ के सुआ नाच में यह इस प्रकार गाया जाता है-
आगू-आगू हरही,
पीछू-पीछू सुरही
चले जाथे कदली
कछार।
तीसर म सगरी के
पार॥
एक मुँह चरिन,
दूसर मुँह चरिन,
के बघवा उठय
घहराय।
रहा-रहा सिंघमोर,
रहा-रहा बघवा,
पिलवा गोरस देहे
जाव॥
कोन तोर सखी,
कोन तोर सुमित्रा
कउन ला देवे तै
गवाह।
चंदा मोर सखी,
सुरूज मोर सुमित्रा
धरती ला देहौं
रे गवाह॥
एक बन अइहै,
दूसर बन अइहै
तीसर म गाँव के
तीर।
एक गली नाहकै,
दूसर गली नाहकै,
तीसर म जाइ
ओल्हियाय॥
अर्थात् हरही
गाय के कुसंग में सुरही गाय चरने जाती है, वन में
सिंह से भेंट होने पर वह खाने को उद्यत होता है। तब सुरही निवेदन करती है कि मैं
अपने बछडे़ को दूध पिलाकर लौट आऊँ तब मुझे खा लेना। सिंह साक्षी माँगता है। गाय,
चंद्र, सूर्य और धरती का विश्वास बताकर लौटती
है। घर पहुँचने पर बछड़ा आशंकित होकर प्रश्न करता है, ‘माँ
अन्य दिनों की तरह प्रसन्न न रहकर आज उदास क्यों हो?’ गाय
कहती है, ‘अभी दूध पी ले, अब यह दूध
तुमको दुबारा मिलने वाला नहीं, क्योंकि मैं हरही के संग में
गई और मेरा विनाश हो गया। आज सिंह से सामना हो गया है। अभी दूध पिलाकर उसके
भक्षणार्थ लौटना है।’ पर दूध पीने के बाद गाय के साथ बछड़ा भी सिंह के
समक्ष जाता है और जाते ही सिंह को ‘मामा’ सम्बोधित कर राम-राम करता है। मामा सम्बोधन से सिंह स्नेहार्द्र होकर गाय को बहन मानकर खाने का विचार त्याग देता
है। यह भी वर्णन मिलता है कि सिंह आगे चलकर अपने भानजे बछड़े से प्रार्थना करता है
कि तुम मुझे मार डालो, भानजे के हाथों मरकर मुक्ति पा
जाऊँगा।
इस प्राचीन
धार्मिक कथा को छत्तीसगढ़ में लोकोक्ति बनाकर ‘हरही के
संग मा, कपिला के विनाश’ कहते हुए सारांश में बहुत कुछ कह दिया गया है।
कम शब्दों में बड़ी बात कहना ही तो लोकोक्तियों का काम है। यह कथा अन्य प्रांतों में भी लोकगीत के रूप में
प्रचलित है, जो सामान्य जन के जीवन में रचबस गई है। इस कथा की लोकप्रियता इसी से
स्पष्ट है कि बड़े बुजुर्ग बच्चों को बहुला गाय की कथा सुनाते हुए हिंसक पशु के मन
में पारिवारिक प्रेम उत्पन्न करने का आदर्श प्रस्तुत कर मानवता का संदेश देते हैं।
पौराणिक कथाओँ
में सिंह के हृदय-परिवर्तन में गाय की प्राणोत्सर्गी वचनबद्धता के साथ उसका पूर्व
जन्म में गंधर्व होना, शापवश पशु-योनि पाना और
बहुला गौ के दर्शन से शाप- मुक्त होना वर्णित है। पूजा के
समय बछड़े द्वारा लात से सिंह को मारने की रस्म भी की जाती है। चाँदी की गौ बनाकर
दान भी करते हैं। पूजा का फल मनोकामना पूर्ण करनेवाला, पुत्र-प्राप्ति
करानेवाला कहा गया है।

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