- हरि जोशी
जिसे बारात का अनुभव नहीं, जो घोड़ी कभी चढ़ा नहीं या जिसने भारतीय विवाह देखा नहीं, उसे तो निरा बन्दर ही कहें? और बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद? ऐसे लोगों के सामने इन साड़ियों की कथा सुनाना भैंस के आगे बीन बजाने से अधिक कुछ नहीं है। खैर जिन्होंने वे लाव-लश्कर देखे हैं, वही ज्ञानी मालवा की शेरवानी के महत्त्व को समझते हैं। इस प्रथा का आविष्कार भारतीय महिलाएँ ही कर सकती थीं और वे भी मालवा की शोध कर्ता, सो उन्होंने कर लिया। अमेरिका या इंग्लैंड की किसी महिला से आप उम्मीद नहीं कर सकते कि इस तरह के किसी भी रंगीन रस्म रिवाज़ की खोज वह कर सकती है? न हींग लगे न फिटकरी रंग चोखा। कार्यक्रम की शोभा भी हरदम बनी रहे और साड़ी का रंग तो क्या बरसों बरस उसकी घड़ी तक न टूटे? देने वालों की हमेशा पौ बारह रहे, वहीं लेने वालों के बारह बजते रहें।
मैं जिन साड़ियों की बात कर रहा हूँ वे कोई ऐसी वैसी साड़िय़ाँ नहीं हैं, शादी विवाहों की शान में चार चाँद लगा देने वाली होती हैं। वे न हों तो मालवा की कोई शादी सुचारू रूप से हो नहीं सकती। सर्वाधिक सुंदर वही होती हैं, डॉन की तरह रंगदारी दिखाती हैं। उनकी उपस्थिति से अच्छे अच्छों की बोलती बंद हो जाती है। उनके आने के बाद कोई कुछ बोल सकता है ? वे पहनने -ओढऩे के काम की भले ही नहीं होती होंगी ,किन्तु आकर्षक और दिखलौट इतनी कि बस अपने हत्थे चढ़ जाए? वे केवल देने लेने के लिए होती हैं। वे तो हरसिंगार के फूल की तरह होती हैं जिसे बस देखते रहो और उसकी सुगंध का आनंद लेते रहो। तोड़ दिया तो बिखर जाएगा। रेले रेस में जिस तरह एक खिलाड़ी दूसरे को डम्बल देकर रुक जाता है और दूसरा लेकर तीसरे को दे देता है। फिर तीसरा चौथे को देता है, इसी तरह देने लेने की साड़ियाँ अनवरत पास ऑन होती रहती हैं। मैंने तो उन्हें कभी रुकते या फेल होते नहीं देखा। हाथो- हाथ ली जाती या दी जाती हैं।
भारतीय जानते हैं कि 1947 के पहले जब बांगला देश भी भारत का हिस्सा हुआ करता था, तब ढाका की मलमल प्रसिद्ध थी। कहा जाता है कि मलमल की पूरी की पूरी साड़ी सुई की नोक में से निकल जाती थी ,किन्तु अब कौन उनकी बात करता है ? आज तो देने लेने की साड़ी दसों दिशाओं में चर्चित है और सचमुच उनकी बात कुछ और ही है। आज भी उनका दबदबा पूर्ववत् कायम है। कितनी पारदर्शी हो सकती हैं आप कल्पना भी नहीं कर सकते? ढाका की मलमल की साड़ी होती तो भी उनके सामने कहाँ ठहरती? देखने में अत्यंत आकर्षक और स्वभाव में एकदम छुईमुई। आपने घड़ी तोड़ी कि साड़ी घड़ी गिनने लगती है। एक बार पहन ली फिर दूसरी बार नहीं पहनी जा सकती। इसीलिए समझदार लोग उसे भेंट दर भेंट देते रहते हैं, स्वयं पहन लेना शायद किसी शाप से ग्रस्त हो जाना माना जाता है। इंदौर भोपाल उज्जैन आदि शहरों में तो बड़ी बड़ी दूकानें इसी की कृपा से चल रही हैं। कई कम्पनियाँ इन्हीं के भरोसे खड़ी हैं। आश्चर्य नहीं की देश के कई अंचलों में इनका दबदबा कायम हो ?
जबसे प्रेम विवाह या लिव इन रिलेशनशिप का चलन बढ़ा है, मैं उन साड़ियों के बारे में चिंतित हो उठा हूँ। अब उन साड़ियों को कौन पूछेगा? जो उस ज़माने में तो बड़ी खोज के बाद, बाजार बाजार भटकने के बाद, खरीदी जाती थी। पुराने लोगों को ही कोई नहीं पसंद करता तो अब पुरानी प्रथा को कौन पूछेगा? अब शादियाँ साड़ियों वाली न रहकर ताड़ियों वाली या व्हिस्की और रम वाली हो गयी हैं। उन साड़ियों को भले ही कुछ नासमझ लोग रद्दी का माल मानते रहे किन्तु खरीदने वालों के लिए प्राण से भी प्यारी होती हैं। पहले तो वे बहुत तेजी से चलती रहती थी। रमता जोगी, बहता पानी की तरह वे निरंतर चलायमान रहती थी, क्योंकि बार बार खो कर दी जाती थी। खो- खो के खेल की सर्वाधिक निष्णात खिलाड़ी होती थी। विवाह का मौसम आते ही उन आभूषणों और उपहारों को अपने हाथ करने की होड़ लग जाती थी जो नई प्रजातियों की तरह, ठीक उसी प्रकार पहली बार देखी जाती थी जिस प्रकार अभयारण्य में कोई बेलबूटेदार हिरनी दिखाई दे जाती है। दिखने में आकर्षक बस दर्शनीय। सहेजकर रखने योग्य। उपयोग दृष्टि से बेकार। कुछ दिन तक उसकी डिजाइन या बेलबूटों की खूब चर्चा होती। कम से कम सामने तो महिलाएँ उस शोधकर्ता की प्रशंसा किए बिना न रहती, ‘कहाँ से ढूँढकर लाई हो इस मूल्यवान् मणि को?’ अवश्य ही इंदौर के सांटा बर से लाई होगी? ऐसी दुर्लभ और कीमती वस्तुएँ, पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं की निगाह में अधिक समाती हैं। उन्हें इतनी रास आती हैं कि निगाह में ही नहीं, दिल में ही उतर जाती हैं, जिन्हें वे हथियाए बिना कभी नहीं मानती। क्रय करने वाली टीम की प्रभावी महिला परस्पर तर्क वितर्क सुनने के बाद अपना निर्णय दे देती है कि देने लेने के लिए सर्वाधिक उपयुक्त यही साड़ियाँ हैं? भोपाल के चौक बाज़ार का, इंदौर के सांटा बाज़ार का या उज्जैन के गोपाल मंदिर के पास की दूकान का सेल्स मेन जब शरीर पर डालकर दिखाता है तो वह दुल्हिन से कम नहीं जँचता? दर्शक कहे बिना नहीं रहता ‘कितनी जम रही है?’ सस्ती सुंदर और टिकाऊ। टिकाऊ शायद इसलिए कि सदियों टिकी रहती हैं। सेल्समेन के ओढऩे के बाद, कोई कभी उन्हें पहनता नहीं? क ने ख की शादी में दी,ख ने ग के घर उपहार में टिकाई। ये लोमड़ियों की तरह किसी लूम से निकली हुई बेलबूटेदार धावक साड़ियाँ होती हैं? जो निरन्तर भागती ही रहती हैं। और सिर्फ साड़ियाँ ही क्यों अन्य कई उपहारी कपड़े याने शर्ट पेंट भी इसी परम उद्देश्य से खरीदे जाते रहे हैं। बल्कि कई कम्पनियाँ इन्हीं के प्रताप से चल निकली हैं।
यह खरीदने वाले की मेधा पर निर्भर करता है कि किस चतुराई से वह उन्हें खरीदता है। उनमें कई कपड़े बहुत अनूठे होते हैं। वे व्हेनसांग और संघमित्रा की तरह दीर्घ यात्रा करते रहते हैं, कई बार तो अश्वमेध के घोड़े होते हैं जिन्हें कभी कोई रोकता नहीं।आज भी किसी भी दूकान पर चले जाइए जो सबसे मनमोहक और एक ओर अपनी विशिष्ट जगह बनाए हुए होंगे वे देने लेने के कपड़े ही होंगे। उन्होंने बड़ी प्रतियोगिता और संघर्ष के बाद शीर्ष स्थान पाया है, अब अपने स्थान से उन्हें कोई डिगा नहीं सकता। आसानी से टस से मस होने वाले नहीं हैं, ये देने लेने के कपड़े। इन कपड़ों को कभी कोई पहनता नहीं, भगवान के मंदिर में जिस तरह हम प्रतिदिन हाथ जोडक़र प्रणाम कर लेते हैं, ठीक वैसा ही शीर्ष सम्मान उन्हें हर घर में प्राप्त होता रहता है। धावक साड़ियाँ प्रेस की हुई यथावत और करीने से सँभाल कर रख दी जाती हैं, जैसे किसी लॉकर में। और जैसे ही फिर किसी विवाह का निमंत्रण मिला कि रामबाण दवा की तरह तैयार रहती हैं। अपनी भूमिका निभाने को तत्पर। जब तक घर में दो चार देने लेने की साड़ियाँ रखी हैं चिंता की कोई बात नहीं रहती। आते रहें निमंत्रण पर निमंत्रण किस बात का डर? केवल उपहारदाता को इस बात का ध्यान रखना पड़ेगा कि पूर्व पर्ची निकाल ली जाए जिसने अपना नाम लिखकर पहले वही साड़ियाँ या शर्ट पेंट दिए थे। यदि वे पूर्व के नाम नहीं निकाले गए तो उपहारदाता को प्राप्तकर्ता द्वारा निश्चित ही कहा जाएगा कि ‘भैया तूने अच्छा नाम निकाला?’ हाँ यदि कभी किसी संवेदनशील या अन्तरंग परिवार में देने लेने के कपड़े उपहार में दे दिए, वहाँ लेने के देने पड़ सकते हैं। भले ही आप, देना एक न लेना दो, की निश्चिन्तता वाला काम कर रहे हों, फिर भी आपको लेने के देने पड़ जायेंगे।
कई बार तो ऐसा पाया जाता है कि आठ साल पहले जिस किसीने इन्हें विवाह में पिरावनी में चढ़ाया था, वही पारदर्शी साड़ियाँ दस बारह घर घूम कर फिर किसी पिरावनी में उन्हें ही उपहार स्वरुप वापस भेंट में दे दी गयीं। इतनी अच्छी तरह लपेटकर दी जाती हैं कि प्रथम दृष्ट्या उन साडियों की दीर्घ यात्रा का आकलन करना असंभव होता है। लपेटने वालियों से कौन पूछ सकता है कि वे किस तरह सामने वाले को लपेट लेती हैं। स्पष्ट है दस बारह विवाहों में पिरावनी की शोभा ये बढ़ा कर, पर्याप्त अनुभव संपन्न होकर आई होती हैं। तत्काल अनुभवी प्राप्त कर्ता भी साड़ियों को गले लगाता है चूमता है, और फिर मन ही मन आदेश देता है कि अभी तो और दस बीस घरों के चक्कर लगाना है। अंत में अमूल्य आभूषणों की तरह आलमारी में ताले चाबी में सुरक्षित रख दी जाती हैं। मुझे तो हमारे ऋषि मुनियों के चरैवेति चरैवेति वाले सिद्धांत का अक्षरश: पालन करने वाली दिखाई देती हैं, ये देन लेन की साड़ियाँ।
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