- सविता मिश्रा ‘अक्षजा’
डोरबेल बजे जा रही थी। रामसिंह भुनभुनाए ‘इस बुढ़ापे में यह डोरबेल भी बड़ी तकलीफ़देती है।’ दरवाज़ा खोलते ही डाकिया पोस्टकार्ड और एक लिफ़ाफा पकड़ा गया।
लिफ़ाफे पर बड़े अक्षरों में लिखा था ‘वृद्धाश्रम’।
रुँधे गले से आवाका दी-‘सुनती हो बब्बू की अम्मा, देख तेरे लाडले ने क्या हसीन तोहफ़ा भेजा है!’
रसोई से आँचल से हाथ पोंछती हुई दौड़ी आई - ‘ऐसा क्या भेजा मेरे बच्चे ने जो तुम्हारी आवाज भर्रा रही है। दादी बनने की ख़बर है क्या?’
‘नहीं, अनाथ!’
‘क्या बकबक करते हो, लाओ मुझे दो। तुम कभी उससे खुश रहे क्या!’
वृद्धा शब्द पढ़ते ही कटी हुई डाल की तरह पास पड़ी मूविंग चेयर पर गिर पड़ी।
‘कैसे तकलीफों को सहकर पाला-पोसा, महँगे से महँगे स्कूल में पढ़ाया। खुद का जीवन अभावों में रहते हुए इस एक कमरे में बिता दिया।’ कहकर रोने लगी
दोनों के बीते जीवन के घाव उभर आए और बेटे ने इतना बड़ा लिफ़ाफा भेजकर उन रिसते घावों पर अपने हाथों से जैसे नमक रगड़ दिया हो।
दरवाको की घण्टी फिर बजी। खोलकर देखा तो पड़ोसी थे।
‘क्या हुआ भाभी जी? आप फ़ोन नहीं उठा रहीं है। आपके बेटे का फोन था। कह रहा था अंकल जाकर देखिए जरा।’
‘उसे चिन्ता करने की जरूरत है!’ चेहरे की झुर्रियाँ गहरी हों गईं।
‘अरे इतना घबराया था वह, और आप इस तरह। आँखे भी सूजी हुई हैं। क्या हुआ?’
‘क्या बोलू श्याम, देखो बेटे ने..’ मेज पर पड़े लिफ़ाफ़ा और पत्र की ओर इशारा कर दिया।
श्याम पढऩे लगा। ‘लिफ़ाफे में पता और टिकट दोनों भेज रहा हूँ। जल्दी आ जाइए। हमने उस घर का सौदा कर दिया है।’
सुनकर झर-झर आँसू बहें जा रहें थे। पढ़ते हुए श्याम की भी आँखें नम हो गई। बुदबुदाये ‘इतना नालायक तो नहीं था बब्बू!’
रामसिंह के कन्धे पर हाथ रख दिलासा देते हुए बोले- ‘तेरे दोस्त का घर भी तेरा ही है। हम दोनों अकेले बोर हो जाते हैं। साथ मिल जाएगा हम दोनों को भी।’
कहते कहते लिफ़ाफा उठाकर खोल लिया। खोलते ही देखा - रिहाइशी एरिया में खूबसूरत विला का चित्र था, कई तस्वीरों में एक फोटो को देख रुक गए। दरवाजे पर नेमप्लेट थी सिंहसरोजा विला। हा! हा! हा! जोर से हँस पड़े।
‘श्याम तू मेरी बेबसी पर हँस रहा है!’
हँसते हुए श्याम बोले- ‘नहीं यारा, तेरे बेटे के मज़ाक पर। शुरू से शरारती है वह।’
‘मज़ाक..!’
‘देख जवानी में भी उसकी शरारत नहीं गयी। कमबख्त ने तुम्हारे बाल्टी भर आँसुओं को फ़ालतू में ही बहवा दिया।’ कहते हुए दरवाजे वाला चित्र रामसिंह के हाथ में दे दिया।
चित्र देखा तो आँखे डबडबा आईं।
नीचे नोट में लिखा था- ‘बाबा, आप अपने वृद्धाश्रम में अपने बेटे-बहू को भी आश्रय देंगे न।’
पढक़र रामसिंह और उनकी पत्नी सरोजा की आँखों से झर-झर आँसू एक बार फिर बह निकले।
लेखक के बारे में : 1/6/73 को इलाहाबाद में जन्म, शिक्षा- बैचलर आफ आर्ट इलाहाबाद विश्वविधालय (हिंदी, राजनीति शास्त्र, इतिहास)। सम्पर्क: 2/श देवेन्द्र नाथ मिश्रा (पुलिस निरीक्षक), फ़्लैट नंबर-302, हिल हॉउस, खंदारी अपार्टमेंट, खंदारी, आगरा 282002, मो.-09411418621
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