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Jun 14, 2016

जहाँ परम्परा ने साफ और मीठा पानी जुटाया

जहाँ परम्परा ने साफ और मीठा पानी जुटाया
- अनुपम मिश्र
राज, समाज और पानी - 1
देश में पानी का संकट जिस तरह से बढ़ता जा रहा है उसके बारे में अब कुछ अलग से बताना रूरी नहीं लगता। जो संकट पहले गर्मी के दिनों में आता था, अब सर्दी के दिनों में भी सिर उठाने लगा है। पानी के मामले में देश की राजधानी दिल्ली भी काफी गरीब साबित हो रही है।
ऐसे में जहाँ देश की सबसे कम बरसात होती हो- हमारे राजस्थान के रेतीले इलाकों में समाज ने पानी के लिए अपने को सबसे अच्छे ढंग से संगठित किया था। कुछ हकाार साल पुरानी यह परम्परा आज भी जारी है और जहाँ आधुनिकतम तकनीक से पानी देने की कोशिशें असफल हुई हैं, वहाँ एक बार फिर से इसी परम्परा ने लोगों के लिए साफ और मीठा पानी जुटाया है।
हम कह सकते हैं कि पानी जुटाने की यह परम्परा समयसिद्ध और स्वयंसिद्ध साबित हुई है। अंग्रेज जब हमारे देश में आए थे, तब उन्हें सचमुच कन्याकुमारी से कश्मीर तक छोटे बड़े कोई बीस लाख तालाब बने बनाए मिले थे। तब देश में कोई इंजीनियर नही था, इंजीनियरिंग सिखाने वाला कालेज नहीं था, सरकारी स्तर पर कोई सिंचाई विभाग नहीं था, फिर भी पूरे देश में पानी और सिंचाई का सुंदर काम खड़ा था। गाँधीजी ने आज से 100 साल पहले हिन्द स्वराजमें देश के स्वावलम्ब, सहकारिता और देश के निर्माण की जिन बातों की ओर इशारा किया था, वे सब हमें पानी के इस काम में बहुत सरलता और तरलता से देखने को मिल सकती हैं।
आज हमारे पढ़े लिखे समाज को ये जानकर काफी अचरज होगा कि देश का पहला इंजीनियरिंग कॉलेज 1847 में इन्हीं ग्रामीण इंजीनियरों के बदौलत खुला था। आज सरकारें और समाज सेवी संस्थाएँ भी जिन्हें अनपढ़ बताती है और कुछ सिखाना चाहती हैं ,उन्हीं लोगों ने इस देश में इस कोने से उस कोने तक पानी की शिक्षा, पानी के सिद्धांत और पानी के व्यवहार का एक सुन्द ढाँचा खड़ा किया। इस ढाँचे का आकार इतना बड़ा था कि वो निराकार हो गया था। इसका कोई केन्द्रीय बजट नहीं था, कोई सदस्य नही था, कोई नौकर- चाकर नहीं था।  फिर भी पूरे देश में पानी का काम बहुत खूबसूरती से चलाया जाता था।
तालाब बनवाने वालों की एक इकाई थी, बनाने वालों की एक दहाई थी और यह इकाई, दहाई मिलकर सैंकड़ा, हजार बनती थी। लेकिन पिछले दौर में थोड़ी सी नई पढ़ाई पढ़े हुऐ समाज के एक छोटे से हिस्से ने इस इकाई, दहाई, सैंकड़ा को शून्य ही बना दिया है। लेकिन समाज का एक बड़ा हिस्सा आज भी पानी की इस शिक्षा और व्यवहार के काम में चुपचाप जुटा है।
राज, समाज और पानी - दो
मेरा परिचय भी कोई लम्बा चौड़ा नहीं होगा। ऐसा कुछ न तो मैंने पढ़ा-पढ़ाया है, न कोई उल्लेखनीय काम ही किया है। एक पीढ़ी पहले के शब्दों में जिसे तार की भाषाटेलिग्राम की भाषा कहते थे, या आज की पीढ़ी में जिसे एस.एम.एस कहने लगे हैं, कुछ वैसे ही गिने चुने 20-20 शब्दों में मेरा परिचय, सचमुच बहुत सस्ते में निपट जाएगा। पहले परिचय ही दे दूँ अपना। सन् 1947 में मेरा जन्म वर्धा, महाराष्ट्र में हुआ। प्राथमिक साधारण पढ़ाई-लिखाई हैदराबाद, बंबई और फिर अब छत्तीसगढ़ के एक गाँव बेमेतरा में। माध्यमिक स्कूल और फिर कॉलेज की और भी साधारण सी, काम चलाने की पढ़ाई दिल्ली में। फिर पहली और आज आखिरी भी साबित हो रही है, ऐसी नौकरी दिल्ली में। एक बार फिर दोहरा दूँ कि गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान की नौकरी की दिल्ली में, पर चाकरी की राजस्थान में। इस चाकरी ने मुझे बहुत कुछ दिया है। इतना कि यह छोटा-सा जीवन खूब संतोष से गुजर रहा है।
गाँधी विचार क्या है, उसकी बारहखड़ी में क्या-क्या आता है- यह मैं न तब जानता था न आज भी कुछ कहने लायक जान पाया हूँ। पर राजस्थान की चाकरी ने मुझे समाज की बारहखड़ी से परिचित कराया। कोई 30 बरस से इस बारहखड़ी को सीख रहा हूँ और हर रोज इसमें कुछ नया जुड़ता ही चला जा रहा है। समाज की वर्णमाला में सचमुच अनगिनत वर्ण, रंग हैं। हमारी नई शिक्षा कुछ ऐसी हो गई है कि हम समाज के उदास रंग देखते रह जाते हैं, काले रंग को, उसके दोषों को कोसते रहते हैं पर उसके उजले चमकीले रंग देख नहीं पाते।
समाज कैसे चलता है, वह अपने सारे सदस्यों को कैसे संगठित करता है, कैसे उनका शिक्षण-प्रशिक्षण करता है, उन सब का उपयोग वह कैसी कुशलता से करता है, यह सब मुझे उसके एक सदस्य की तरह देखने-समझने का मौका मिला। वह कितनी लम्बी योजना बना कर काम करता है, उसे भी देखने का मौका लगा। समाज का भूतका, वर्तमान और भविष्य पीढ़ी-दर-पीढ़ी जुड़ता रहे, सधता रहे, सँभला रहे और छीजने के बदले सँवरता रहे- इस सब का विराट दर्शन मुझे विशाल पसरे रेगिस्तान में, मरुप्रदेश में मिला और आज भी मिलता ही चला जा रहा है।
राज, समाज और पानी - तीन
आज आपके सामने मैं इस विशाल मरुभूमि में फैले रेत के विशाल साम्राज्य की एक चुटकी भर रेत शायद रख पाऊँ। पर मुझे उम्मीद है कि इस कारा-सी रेत के एक-एक कण में अपने समाज की शिक्षा, उसकी शिक्षण-प्रशिक्षण, उसके लिए बनाए गए सुंदर अलिखित पाठ्यक्रम, इसे लागू करने वाले विशाल संगठन की, कभी भी असफल न होने वाले उसके परिणामों की झलक, चमक और ऊष्मा आपको मिलेगी।
आज जहाँ रेत का विस्तार है, वहाँ कुछ लाख साल पहले समुद्र था। खारे पानी की विशाल जलराशि। लहरों पर लहरें। धरती का, भूमि का एक बीघा टुकड़ा भी यहाँ नहीं था, उस समय। यह विशाल समुद्र कैसे लाखों बरस पहले सूखना शुरू हुआ, फिर कैसे हजारों बरस तक सूखता ही चला गया और फिर यह कैसे सुंदर, सुनहरा मरुप्रदेश बन गया, धरती धोरांरी बन गया- इसे पढऩे समझने में आपको भूगोल की किताबों,प्रागैतिहासिक पुस्तकों के ढेर में हजारों पन्ने पलटने पड़ सकते हैं। पर इस जटिल भौगालिक घटना की बड़ी ही सरल समझ आपको यहाँ के समाज के मन में मिल जाएगी। वह इस सारे प्रपंच, प्रसंग को बस केवल दो शब्दों में याद रखता है- पलक दरियावयानी पलक झपकते ही जो दरिया, समुद्र, गायब हो जाए। लाखों बरस का गुणा-भाग, भजनफल, अनगिनत शून्य वाली संख्याएँ- सब कुछ अपने ब्लैक बोर्ड से उसने एक सधे शिक्षक की तरह डस्टर से मिटा कर चाक का चूरा झाड़ डाला और बस कहा पलक दरियाव। जो समाज इतना पीछे इतनी समझदारी से झाँक सकता है वह उतना ही आगे अपने भविष्य में भी देख सकता है। वह उतनी ही सरलता, सहजता से फिर कह देता है- पलक दरियाव। यानी पलक झपकते ही यहाँ फिर कभी समुद्र आ सकता है। धरती के गरम होने पर समुद्र का स्तर उठने की जो चिंता आज हम विश्व के विशाल मंचों पर देख रहे हैं, उसकी एक छोटी-सी झलक आपको इस समाज के नुक्कड़ नाटक में नौटंकी में कभी भी कहीं भी आज से कुछ सौ बरस पहले भी मिल सकती थी। यहाँ की भाषा में, नए शिक्षा शास्त्री शायद इसे भाषा नहीं, बोली कहेंगे तो उस बोली में समुद्र, दरियाव के लिए एक शब्द है - हाकड़ो। हाकड़ो का एक अर्थ आत्मा भी है। आज की थोड़ी-सी नई किस्म की पढ़ाई पढ़ गया समाज इस इलाके को पानी के अभाव का इलाका मानता, बताता है। पर इस इलाके की आत्मा है हाकड़ो यानी पानी।
समय की अनादि-अनंत धारा को क्षण-क्षण में देखने और सृष्टि के विराट विस्तार को अणु में परखने वाली इस पलक ने, इस दृष्टि ने हाकड़ो को, समुद्र को जरूर खो दिया लेकिन उसने अपनी आत्मा में, मन में हाकड़ो की विशाल जल राशि को कण-कण में, बूँदों में देख लिया। उसने अखंड समुद्र को खंड-खंड कर अपने गाँव-गाँव, ठाँव-ठाँव फैला लिया। प्राथमिक शाला की पाठ्य पुस्तकों से लेकर देश के योजना आयोग तक के कागजों में राजस्थान की, विशेषकर इसके मरुप्रदेश की छवि एक सूखे, उजड़े और पिछड़े इलाके की है। थार रेगिस्तान का वर्णन तो कुछ ऐसा मिलेगा कि आपका कलेजा ही सूख जाए। देश के सभी राज्यों में क्षेत्रफल के आधार पर अब यह सबसे बड़ा प्रदेश है लेकिन वर्षा के वार्षिक औसत में यह देश के प्रदेशों में अंतिम है।
वर्षा को पुराने इंचों में नापें या नए मिलीमीटरों में, सेंटीमीटरों में, वह यहाँ सबसे कम गिरती है। देश की औसत वर्षा 110 सेंटीमीटर आँकी जाती है। उस हिसाब से राजस्थान का औसत लगभग आधा ही बैठता है-60 सेंटीमीटर। लेकिन औसत बताने वाले ये ऑकड़े यहाँ का कोई ठीक चित्र नहीं दे सकते। राज्य के एक छोर से दूसरे छोर तक यह 100 सेंटीमीटर से 15 सेंटीमीटर तक और कभी तो उससे भी कम है।
भूगोल की किताबें प्रकृति को, वर्षा को इस मरुस्थल में एक अत्यंत कंजूस महाजन, साहूकार की तरह देखती हैं और इस इलाके को उसके शोषण का दयनीय शिकार बताती हैं। राज्य के पूर्वी भाग से पश्चिमी भाग तक आते-आते वर्षा कम से कम होती जाती है। ठेठ पश्चिमी यानी बाड़मेर, जैसलमेर तक जाते-जाते तो वह सूरज की तरह डूबने ही लगती है। जैसलमेर में वर्षा का सालाना आँकड़ा 15 सेंटीमीटर है। पर खुद जैसलमेर की गिनती देश के सबसे बड़े जिले के रूप में की जाती है। इसमें भी पूर्व और पश्चिम है। जैसलमेर का पश्चिमी भाग पाकिस्तान से सटा हिस्सा तो कुछ ऐसा है कि मानसून के बादल यहाँ तक आते-आते थक ही जाते हैं और कभी बस 7 सेंटीमीटर तो कभी 3-4 सेंटीमीटर पानी की हल्की सी बौछार कर विशाल नीले आकाश में एक मुट्ठी रूई के टुकड़े की तरह गायब हो जाते हैं। इसकी तुलना गोवा से, कोंकण से या फिर पाठ्यपुस्तकों से ही उभरे एक और स्थान चेरापूँजी से करें तो यहाँ आँकड़ा 1000 सेंटीमीटर भी पार कर जाता है।
राज, समाज और पानी - चार
मरुभूमि में वर्षा नहीं, सूरज बरसता है। औसत तापमान 50 डिग्री पर रहता है। तो पानी, वर्षा बहुत ही कम और सूरज खूब ज्यादा- ये दो बातें जहाँ एक हो जाएँ वहाँ आज की पढ़ाई तो हमें यही बताती है कि जीवन दूभर हो जाता है। इसमें एक तीसरी चीज और जोड़ लें- यहाँ ज्यादार हिस्सों में पाताल पानी, भूजल खारा है। पीने लायक नहीं है।
जीवन को बहुत ही कठिन बनाने वाले इन तीन बिन्दुओं से घिरा यह रेगिस्तान दुनिया के अन्य रेगिस्तानी इलाकों की तुलना में बहुत ही अलग है। यहाँ उनके मुकाबले ज्यादा बसावट है और उस बसावट में सुगंध भी है।
इस सुगंध का क्या रहस्य है। रहस्य है यहाँ के समाज में। मरुप्रदेश के समाज ने प्रकृति से मिलने वाले इतने कम पानी का, वर्षा का कभी रोना नहीं रोया। उसने इस सबको एक चुनौती की तरह लिया और अपने को ऊपर से नीचे तक इतना संगठित किया, कुछ इस ढंग से खड़ा किया कि पानी का स्वभाव पूरे समाज के स्वभाव में बहुत ही सरल और तरल ढंग से बहने लगा साईं इतना दीजिए, जामे कुटुंब समायके बदले उसने कहा होगा साईं जितना दीजिए, वामे कुटुंब समाय। इतने कम पानी में उसने इतना ठीक प्रबंध कर दिखाया कि वह भी प्यासा न रहे और साधु तो क्या असाधु को भी पानी मिल जाए।
पानी का काम यहाँ भाग्य भी है और कर्तव्य भी। वह सचमुच भाग्य ही तो था कि महाभारत युद्ध समाप्त होने के बाद श्री कृष्ण कुरुक्षेत्र; हरियाणा से अर्जुन को साथ लेकर वापस द्वारिका इसी मरुप्रदेश के रास्ते लौटे थे। यह विचित्र किस्सा बताता है कि उनका शानदार रथ जैसलमेर से गुजर रहा था। जैसलमेर के पास त्रिकूट पर्वत पर उन्हें उवुंग ऋषि तपस्या करते मिले। श्री कृष्ण ने उन्हें प्रणाम किया। फिर उनके तप से प्रसन्न होकर उन्होंने ऋषि से वर माँगने को कहा था। उवुंग का अर्थ है ऊँचा। ये ऋषि सचमुच ऊँचे निकले। उन्होंने अपने लिए कुछ नहीं माँगा। प्रभु से यार्थना की कि यदि मेरे कुछ पुण्य हैं तो भगवन वर दें कि इस मरुभूमि पर कभी जल का अकाल न रहे।
तथास्तुभगवान ने वरदान दे दिया था। कोई और समाज होता तो इस वरदान के बाद हाथ पर हाथ रख बैठ जाता। सोचता, कहता कि लो भगवान कृष्ण ने वरदान दे दिया है कि यहाँ पानी का अकाल नहीं पड़ेगा तो अब हमें क्या चिंता, हम काहे को कुछ करें। अब तो वही सब कुछ करेगा।
लेकिन मरुभूमि का भाग्यवान समाज मरुनायक श्रीकृष्ण को मरुनायक भी कहा जाता है।से ऐसा वरदान पाकर हाथ पर हाथ रख कर नहीं बैठा। उसने अपने को पानी के मामले में तरह-तरह से कसा। गाँव-गाँव, ठाँव-ठाँव, वर्षा को रोक लेने की, सहेज लेने की एक से एक सुंदर रीतियाँ खोजीं।
रीति के लिए यहाँ एक पुराना शब्द है वोज। वोज यानी रचना, मुक्ति और उपाय भी। इस वोज के अर्थ में विस्तार भी होता जाता है। हम पाते है कि पुराने प्रयोगों में वोज का उपयोग सामर्थ्य, विवेक और फिर विनम्रता के अर्थ में भी होता था। वर्षा की बूँदों को सहेज लेने का वोज यानी विवेक भी रहा और उसके साथ ही पूरी विनम्रता भी।
इसीलिए यहाँ समाज ने वर्षा को इंचों या सेंटीमीटरों में नहीं नापा। उसने तो उसे बूँदें में मापा होगा। पानी कम गिरता है? जी नहीं। पानी तो करोड़ों बूँदें में गिरता है। फिर ये बूँदों भी मामूली नहीं। उसने इन्हें रजत बूँदोकहा। उसी ढंग से इनको देखा और समझा। अपनी इस अद्भुत समझ से, वोज से उसने इन रजत बूँदों को सहेजने की एक ऐसी भव्य परंपरा बना ली जिसकी धवल धारा इतिहास से निकल कर वर्तमान में तो बह ही रही है, वह भविष्य में भी बहेगी।
इतिहास, वर्तमान और भविष्य का ध्यान रखना, आज विज्ञान, पर्यावरण आदि के क्षेत्र में विकास की नई शब्दावली में एक आदर्श की तरह देखा जाता है। धरती के संसाधनों का उपयोग वर्तमान पीढ़ी किस संतुलन से करे कि आने वाली पीढिय़ों के लिए भी साफ हवा, पानी, जमीन, खेती, खनिज और शायद पैट्रोल भी उसी तरह मिले-जैसे आज मिलता है- ऐसी बात करने, कहने वाले बड़े पर्यावरणविद् कहलाते हैं। ऐसी बात तो यहाँ गाँव-गाँव में न जाने कब से न सिर्फ कही गई, उस पर लोगों ने अमल की भी लंबी परंपरा डाल कर दिखाई है।
राज, समाज और पानी – पाँ
जमीन पर इस आदर्श के अमल की बात बाद में। अभी तो थोड़ा ऊपर उठ आसमान छूकर देखें। बादल यहाँ सबसे कम आते हैं। पर बादलों के नाम यहाँ सबसे ज्यादा मिलते हैं। खड़ी बोली, और फिर संस्कृत से बरसे बादलों के नाम तो हैं ही ,पर यहाँ की बोली में तो जैसे इन नामों की घटा ही छा जाती है, झड़ी ही लग जाती है। और फिर आपके सामने कोई 40 नाम बादलों के, पर्यायवाची नहीं, 40 पक्के नामों की सूची भी बन सकती है। रुकिए, बड़ी सावधानी से बनाई गई इस सूची में कहीं भी, कभी भी कोई ग्वाला, चरवाहा चाहे जब दो चार नाम और जोड़ दे यह भी हो सकता है।
भाषा की और उसके साथ-साथ इस समाज की वर्षा सम्बन्धि अनुभव-सम्पन्नता इन चालीस, बयालीस नामों में चुक नहीं जाती। वह इन बादलों के प्रकार, आकार, चाल-ढाल, स्वभाव, ईमानदारी, बेईमानी - सभी आधारों पर और आगे के वर्गीकरण करते चलता है। इनमें छितराए हुए बादलों के झुंड में से कुछ अलग-थलग पड़ गया एक छोटा-सा बादल भी उपेक्षा का पात्र नहीं है। उसका भी एक अलग नाम आपको मिल जाएगा-चूखो! मरुभूमि में सबसे दुलर्भ और कठिन काम, वर्षा कर चुके बादल, यानी अपना कर्तव्य पूरा करने के बाद किसी छोटी-सी पहाड़ी या रेत के टीले पर थोड़ा-सा टिक कर आराम फरमा रहे बादल को भी समाज पूरी कृतज्ञता से एक अलग नाम देता है: रींछी।
हमारा हिन्दी और शायद अंग्रेजी का संसार बरसने वाले पानी की यात्रा को दो रूपों में ही देख पाता है। एक है - सतह पर पानी और दूसरा है भूजल। नदी, नालों, तालाबों छोटी-बड़ी झीलों का पानी सतह पर है और फिर इससे रिस कर नीचे जमीन में उतरा पानी भूजल है। पर मरुभूमि के समाज ने अपने आसपास से, अपने पर्यावरण से, भूगोल से जो बुनियादी तालीम पाई थी, उसने उस आधार पर पानी का एक और प्रकार खोज निकाला। उसका नाम है - रेजाणी या रेजवानी पानी।
रेजाणी पानी हम पढ़े लिखे माने गए लोगों को आसानी से नहीं दिखने वाला। हम उसका स्पर्श भी ठीक से नहीं कर पाएँ शायद। पर यह वहाँ की बुनियादी तालीम ही है, जिसने उस समाज को रेजाणी पानी का न सिर्फ दर्शन करवाया, उसे एकदम कठिन इलाके में, चारों तरफ खारे पानी से घिरे इलाके में अमृत जैसा पीने योग्य बना लेने की जटिल तकनीक भी दे दी।
पर जटिल तकनीक, जटिल ज्ञान किस काम का? समाज ने उसे बहुत ही सरल बना कर गाँव-गाँव में फेंक दिया। उसकी चर्चा शायद बाद में करें। अभी तो पहले हम यह देखें कि खारे पानी से घिरे, कम पानी के बीच बसे हजारों गाँवों, कस्बों और शहरों में पानी का काम कैसे फैलाया गया।
ऐसा काम हमें आज करना हो तो हम प्राय: क्या करते हैं? एक बड़ी संस्था बनाते हैं। उसका मुख्यालय खोजते हैं। फिर शाखाएँ, केन्द्र, उपकेन्द्र बनाते हैं। अध्यक्ष चुनते हैं, कार्यकारिणी, संचालक मंडल बनाते हैं। सैकड़ों कार्यकर्ताओं की भरती करते हैं। इस विशाल ढाँचे को चलाने के लिए बड़ा बजट जुटाते हैं। कुछ शासकीय स्रोत पर चलते हैं तो कुछ शासन को अछूत मान कर देशी स्रोतों से धन लाते हैं तो कुछ विदेशी अनुदान से भी परहेज नहीं करते। इतने सबके बाद काम हो जाए, इस उद्देश्य से संस्था बनाई है, संगठन खड़ा किया है, वह हो जाए तो क्या कहना। पर कई बार यही नहीं हो पाता। बाकी सब कुछ होता रहता है, हड़ताल, तालाबंदी तक होती रहती है। इतना ही नहीं कभी-कभी हमारे ये सुंदर संगठन अच्छे ही लोगों के आपसी छोटे-मोटे मतभेदों के कारण टूट जाते हैं, बिखर जाते हैं।
पर मरुभूमि का समाज ऐसा खतरा मोल ले ही नहीं सकता था। उसे तो सबसे कम पानी के इलाके में सबसे चुस्त, दुरुस्त संगठन न सिर्फ खड़ा करना था, उससे सौ टका काम भी निकालना था। इसलिए उसने खूब बड़ा संगठन बनाया। लेकिन वह केन्द्रीकरण, विकेन्द्रीकरण आदि के चक्कर में नहीं पड़ा। उसने तो इस जरूरी काम का, जीवन देने वाले काम का, जीवन-टिकाए रखने वाली शिक्षा का इतना बड़ा संगठन बनाया, उसका आकार इतना बड़ा किया कि वह निराकार हो गया। निराकार एकदम दुनिया के चालू अर्थ में भी और ठीक आध्यात्मिक अर्थ में भी।
ऐसे अद्भुत निराकार संगठन को उसने न तो राज को सौंपा और न आज की नई भाषा में किसी सार्वजनिक क्षेत्र या निजी क्षेत्र को सौंपा। उसने तो इसे पुरानी भाषा के निजी हाथों में एक धरोहर की तरह प्यार, दुलार से रख दिया। घर-घर, गाँव-गाँव सब लोगों ने इस ढाँचे को बोझ की तरह नहीं, पूरी कृतज्ञता से सिर माथे पर उठाकर उसके निराकार को साकार कर दिया। पूरा समाज अपना वर्ण, वर्ग, प्रतिष्ठा, परिवार, सब कुछ भुलाकर सब कुछ मिटाकर, सब कुछ अर्पण कर पानी के इस काम में जुट गया। पानी के काम की इस विचित्र बुनियादी तालीम पर जो सुंदर इमारत खड़ी हुई है, जो ढाँचा बना है, वह निराकार है। इसलिए हमारे इस नए समाज ने उसे निर्गुण, और भी स्पष्ट कहें तो बिना किसी गुण वाला और भी साफ कहें तो अनेक दोषों वाला समाज मान कर अपने संसार से हटा ही दिया है।
लेकिन यह ढाँचा निराकार होते हुए भी बहुत ही गुनी है, सगुण है। यह जप करने लायक है। यह लोक शिक्षण की अद्भुत शाला है। लोक बुद्धि की इसमें पूरी ऊँचाई दिखेगी और लोक संग्रह की एक सतत चलने वाली महान गाथा भी।
हम सबने एक लम्बे समय से लोक शक्ति ही खूब बात की है। साम्यवाद से लेकर सर्वोदय तक ने लोक शक्ति की खूब उपासना की है। लेकिन हमने लोक बुद्धि को पहचाना नहीं इस दौर में। गाँधीजी के एक अनन्य साथी दादा धर्माधिकारी निरुपाधिक मानव की प्रतिष्ठा पर बहुत बल देते थै। उस निरुपाधिक मानव की प्रतिष्ठा को यहाँ के पानी के काम में दिखेगी। इस लोक बुद्धि को हम देखने, समझने लगें तो हमें शायद फिर राजस्थान या मरुप्रदेश की अलग से बात करने की जरूरत नहीं बचेगी। हम जहाँ हैं, वहाँ उसका दर्शन होने लगेगा। तब शायद आपको यह भी पता चलेगा कि इस देश की वर्तमान, परंपरागत नहीं, वर्तमान तकनीकी शिक्षा की नींव में भी अनपढ़ कहलाने वाले समाज का ही प्रमुख योगदान रहा है। इसीलिए हमारे एक छोटे से कस्बे में, (किसी बड़े शहर में नहीं) देश का पहला इंजीनियरींग कालेज खुला था और उसमें प्रवेश पाने के लिए स्कूल की पढ़ाई की भी कोई जरूरत नहीं थी, अंग्रेजी के ज्ञान की भी नहीं। यह हमारे देश का पहला नहीं, एशिया का भी पहला इंजीनियरिंग कॉलेज था। वह पूरा किस्सा बहुत सी नई बातें बताता है। पर वह अपने-आप में एक लंबा प्रसंग है। उसकी तरफ इतना संकेत कर उसे यहीं छोड़ आगे बढ़ें।
महात्मा गाँधी की स्मृति में एकत्र होते हुए हम इससे बेहतर और क्या कर सकते हैं कि पिछले दौर में हमने लोग बुद्धि को समझने, उसको प्रतिष्ठित करने का जो सहज रास्ता छोड़ दिया था उस पर वापस लौटने की कोशिश करें। उन बातों को, उन तरीकों को, संगठनों को विस्मृत करना प्रारंभ हो, जो लोक बुद्धि के रास्ते जाते नहीं। हमारे बहुत से कामकाज, क्रिया-कलाप, अक्सर अच्छी नीयत से भी की गई चिंताएं, बनाई गई योजनाएँ हुत हुआ तो समाज के एक बड़े भाग को हितग्राहीही मानकर, हितग्राही बताकर चलते हैं। हम उनका कुछ उद्धार करने आए हैं, उपकार करने आए हैं- इससे थोड़ा बचें
राज, समाज और पानी -
कई बार हम इस लोक जन, जनता वाली शब्दावली में ऐसे फॅंस जाते हैं कि फिर हम विज्ञान में भी जन विज्ञान, लोक विज्ञान की बात तो करते हैं पर प्राय: लोक विमुख खर्चीले विज्ञान का कोई सस्ता संस्करण ही उस नाम से खोज लाते हैं। लेकिन वह भी समाज में वैसा उतर नहीं पाता जैसा हम चाहते हैं। तब हम उदास, निराश भी होते हैं। अपनी असफलता के लिए उसी समाज को कोसने लगते हैं जिसे हम बदलने, सुधारने निकल पड़े थे। उसने हमारी सुनी नहीं, ऐसा हमें लगने लगता है।
जसढोल यहाँ एक सुंदर शब्द है। जस यानी यश का ढोल। मरुप्रदेश में पानी के काम के बहाने एक जसढोल न जाने कितने सैकड़ों वर्षो से जोर-जोर से बज रहा था, पर हमने, हमारे इस नए समाज ने उसकी थाप, उसका संगीत सुना ही नहीं। आज उसकी स्वर लहरी, उसकी लय, थाप का कुछ अंश आप तक पहुँचाने का प्रयत्न कर रहा हूँ।
शिक्षण, प्रशिक्षण आदि सभी प्रयासों में अक्षर का महत्त्व माना ही जाता है। यहाँ पानी का जो विशाल काम फैलाया गया, उसमें अक्षर ज्ञान को एकदम किनारे रख दिया गया। उससे परहेज नहीं पर जीवन ज्ञान और जीवन शिक्षा के क्षेत्र में उसकी अनिवार्यता नहीं स्वीकार की गई। अक्षर ज्ञान का यहाँ एक और अर्थ लगाया गया - क्षर, नष्ट न होने वाला ज्ञान।
उनकी इस परिभाषा से देखें बस दो उदाहरण। इनमें से एक का जिक्र पहले आया है पर अधूरा। खारे पानी के बीच अमृत जैसा मीठा पानी देने की एक पद्धति की तरफ कुछ संकेत किया था। रेगिस्तान में कुछ खास हिस्सों में प्रकृति ने रेत की विशाल राशि के नीचे एक आड़ी-तिरछी प्लेटें भी चला रखी है। यह मेट या जिप्सम से बनी है। इस क्षेत्र में कोई 200-300 फुट की गहराई पर खूब पानी है, पर है पूर्णरूप से खारा। पीने के काम का नहीं। लेकिन इस जिप्सम के कारण ऊपर गिरने वाली थोड़ी-सी भी बरसात रेत में धीरे-धीरे छनकर इस प्लेटों पर टकरा कर अटक जाती है और एक विशाल भाग में सतह से, भूमि से नीचे जिप्सम तक नमी की तरह फैल जाती है।
मरुप्रदेश का निरक्षर माना गया, अनपढ़ बताया गया समाज आज से कोई हजार बरस पहले रेत के टीलों, रेत के समुद्र में कोई 10 से 100 फुट नीचे चल रही इस प्लेटों को चिह्नित कर चुका था। केवल चिह्नित ही नहीं, उसने उसका शानदार उपयोग भी खोज निकाला। उसने इस जिप्सम की प्लेटों के कारण रेत में छिपी नमी को सचमुच निचोड़ कर मीठा पानी निकाल लेने का एक बेहद पेचीदा, जटिल इंतजाम कर लिया था। इन इलाकों में हमारी आने-जाने वाली सभी तरह की सरकारों ने ट्यूबवैल, हैंडपंप आदि लगवाकर इन गाँवों को पानी देने का काम जरूर किया था, पर यह तो खारा ही था।
बेहद पढ़े-लिखे, विकसित जर्मनी के इलाके से बुलाई गई एक नई खर्चीली तकनीक से इन नए यंत्रों से निकल रहे खारे पानी को मीठा बनाने की कोशिश की गई। इस उठापटक के 5-7 वर्षो में गाँवों ने अपनी पद्धति को छोड़ भी दिया था। पर जब पानी का खारापन खत्म नहीं हुआ, बल्कि इतना बढ़ गया कि गाय, बकरियों तक ने उसे पीना छोड़ दिया तो इन इलाकों में अब फिर धीरे-धीरे कुंई बनाने, टूटी फूटी छोड़ दी गई कुँइयों को फिर से ठीक करने और अपने दम पर फिर से मीठा पानी पाने का इंतजाम वापस लौटने लगा है। गाय, बकरी, भेड़ों द्वारा पीने से मना किया गया पानी देने को ही विकास का, आधुनिकता का प्रतीक मानने वाली कोई तीन-चार सरकारें इस बीच राज्य में आईं और लौट भी चुकी हैं। शिक्षा के आंदोलन भी गैरसरकारी स्तर पर यहाँ चले हैं और उनके समाजसेवी संस्थाओं ने भी जल चेतना का नारा लगाया है। पर कुँई की वापसी गाँव के दम पर ही हुई है और एक बार फिर इस अक्षर ज्ञान ने, क्षरण न हो सकने वाले ज्ञान ने, शिक्षण ने, उस निराकर संगठन ने खारे पानी के बीच मीठा पानी जुटाया है।
दूसरा बिलकुल विलक्षण उदाहरण जैसलमेर क्षेत्र में एक विशेष तरह की खेती से जुड़ा है। यह भी मेट यानी जिप्सम की प्लेटों से ही जुड़ा अद्भुत विज्ञान है। कहीं-कहीं यह प्लेटों ज़मीन की सतह के आसपास बहुत ही कम गहराई पर ऊपर उठ आती है। तब इसमें रेत में छिपी नमी इतनी नहीं होती कि वह अच्छी मात्रा में मीठा शुद्ध पानी दे सके। तो क्या समाज इसे ऐसे ही छोड़ दे? नहीं। अनपढ़ माने गए समाज ने इस तरह के भूखंडों पर आज से कोई 600 बरस पहले एक प्रयोग किया और मात्र 3 इंच की वर्षा में गेहूँ, चना जैसी रबी की फसल उगाने का नायाब तरीका खोज निकाला। किसी भी आधुनिक कृषि पंडित, विशेषज्ञ से पूछें कि क्या 3 इंच बरसात में गेहूँ पैदा हो सकता है? वह इस प्रश्न का उत्तर देने के बदले पूछने वाले को पागल ही मानेगा।
ऐसे विशिष्ट भूखंडों पर समाज ने एक विशेष तरह की मेंड़बंदी कर इस जरा सी वर्षा को जिप्सम तक अटका कर खडीन नाम कीमती खेत का विष्कार किया। उसने इस खेत में कृषि के अविश्वसनीय काम तो किए ही, इसमें उसने समाज शास्त्र के, आपसी सद्भाव के, समभाव के, शोषण मुक्त समाज के, स्वामित्व विसर्जन के, यानी मिल्कियत मिटाने के भी शानदार सबक सीखे और सिखाए भी। आज सामूहिक खेती के जो प्रयोग दुनिया में भारी भरकम घांतियों के बाद, हजारों लोगों को मारने के बाद भी सफल नहीं हो पाए, उन्हें यहाँ के विनम्र, मौन, शांत समाज ने अपने खडीन पर चुपचाप कर दिखाया है।
प्राय: अकाल से घिरे इन गाँवों में बरसात ठीक हो जाए , तो एक फसल होती है। बरसात न हो तो वह भी हाथ से जाती है। पर खडीन में दो फसलें ली जा सकती हैं। खरीफ भी, रबी भी। हमारे पढ़े लिखे समाज को लगेगा कि ऐसा विशिष्ट खेत तो उस क्षेत्र के, गाँव के ठाकुर, बलवान, सामाजिक पहलवान के कब्जे में ही रहता होगा।
ऐसा नहीं है। यह एक बहुत ही संवेदनशील जटिल सामाजिक ढाँचे पर टिकाया गया है। गाँव में यदि प्रकृति की दया से खडीन जैसा खेत है तो फिर वह गाँव के सब घरों का खेत है। सबके सब उसके मालिक हैं। या कहें कि उसका कोई भी मालिक नहीं होता। लास नामक एक उन्नत सामाजिक प्रथा से इस खेत का सारा काम चलता है। लास शायद संस्कृत के उल्हास से बना है। इसमें सब मिलकर काम करते हैं। यह श्रमदान से भी कहीं ऊँची चीज है। इसमें सारे काम को उल्हास से, आनंद से जोड़ा गया है। लास के अपने गीत होते हैं और वे टी.वी., कैसेट, एफ एम, मोबाइल के इस दौर में भी गायब नहीं हुए हैं।
गाँव के सारे घर मिलकर काम करते हैं, सब के सब। जाति-पाँति का कोई भेद नहीं। खेत तैयार करने से लेकर बुवाई, निंदाई, गुड़ाई, फसल कटने तक में पूरा का पूरा गाँव एक साथ जुटता है। फसल कटने पर उसके उतने ही हिस्से होते हैं और हर ढेर हर घर पहुँच जाता है। कोई बीमार, अशक्य, वृद्ध, महिला हो, पुरुष हो, उसे हर काम से अलग रखा जाता है। पर प्राय: ऐसे सदस्य भी खडीन के किनारे किसी बबूल या खेजड़ी या जाल पेड़ की छाँव में बैठने आ ही जाते हैं। गाते हैं, बच्चों को सँभाल लेते हैं। अपंग और कोई नेत्रहीन भी है, तो भी वह लास खेलने के लिए इस उत्सव को गँवाना नहीं चाहता। सबकी मेहनत, सबका हिस्सा। वर्ण-सवर्ण-दलित का यहाँ कोई भी पाठ नहीं पढ़ा जाता। सब मालिक, सब मजदूर, सब उत्पादक, सब उपभोक्ता, सब शिक्षक, सब शिष्य भी बस यही पाठ खड़ीन में पढ़ाया जाता रहा है।
जीवन की शिक्षा का, समाज की शिक्षा का, जीवन जीने की कला का ऐसा सुंदर पाठ हम पढ़े-लिखों ने ठीक से जाना तक नहीं है। मरुभूमि में अनेक सामाजिक आंदोलन, शिक्षा के आंदोलन इस सुंदर खड़ीन की पाठशाला से बिना टकराए निकल गए हैं।
पानी के बहाने इस समाज ने शिक्षण के सचमुच कुछ अविश्वसनीय प्रयोग किए हैं। ये दो-पाँच बरस चलने वाले प्रयोग नहीं हैं। पंचवर्षीय योजनाओं जैसे नहीं हैं। ये तो पाँच सौ बरस की लम्बी उमर सोचकर बनाए गए हैं। आधुनिकता की ऑंधी, समाज से कटी शिक्षा, जीवन शिक्षा के इन प्रयोगों को पूरी तरह से उखाड़ नहीं पाई है।
पिछले वर्ष इसी प्रतिष्ठित व्याख्यान में इंग्लैंड से आए दार्शनिक श्री घिस्टोफर विंच ने अपने भाषण के अंत में कहा था, ‘गाँधी आज होते तो देश के तेजी से हो रहे ऐसे आर्थिक विकास के कई पहलुओं से वे खुश नहीं होते। वे तो नागरिक को उत्पादक की केन्द्रीय भूमिका में रखना चाहते थे। यह वह भूमिका है जो उसकी मानवता और सच कहें तो उसकी आध्यात्मिकता के महत्त्वपूर्ण भाग को निखारती है
हमारे अनपढ़ माने गए समाज ने गाँधीजी की इस बात का खूब ध्यान रखा और नागरिक को उपभोक्ता से पहले आदर्श उत्पादक ही बनाने की पाठशाला खोली थी।
आपने मुझे इस प्रतिष्ठित व्याख्यान में जिस बड़े उद्देश्य को ध्यान में रख कर बुलाया था, मुझे मालूम है कि मैं उसे पूरा कर पाने लायक नहीं हूँ। पर श्री कृष्ण कुमार जी का प्यार यहाँ मुझे ले ही आया है तो अंत में मैं विनोबा के एक कथन से इस प्रसंग को समेटना चाहूँगा।
विनोबा ने कहा है कि पानी तो निकलता है, बहता है समुद्र में मिलने के लिए पर रास्ते में एक छोटा-सा गड्ढा आ जाए तो वह उसे भर कर खत्म हो जाता है। वह उतने से ही संतोष पा लेता है। वह कभी ऐसी शिकायत नहीं करता, कभी इस तरह नहीं सोचता कि अरे मुझे तो समुद्र तक जाने का एक महान उद्देश्य, एक महान लक्ष्य, एक महान सपना पूरा करना था।
मरुप्रदेश के समाज ने अपने जीवन के छोटे-छोटे प्रश्न खुद हल किए हैं, अपने जीवन के छोटे-छोटे गड्ढे भरे हैं। छोटे-छोटे गड्ढे भर सकना सीखना अच्छे शिक्षण का एक उम्दा परिणाम, एक अच्छी उपलब्धि माना जाना चाहिए- इतनी विनम्रता हमें हमारी शिक्षा सिखा सके तो शायद हम समुद्र तक जाने की शक्ति भी बटोर लेंगे।

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