उजड़ा पनघट गाँव
- सुशीला शिवराण
1.
धुँआ-धुँआ- से शहर में, कहाँ ढूँढ़ते छाँव ।
उजड़ गई हैं बस्तियाँ, बंजर से हैं गाँव ।।
2.
धरती-अंबर-वृक्ष-जल-पवन जीवनाधार ।
अंधा लालच कर रहा, जीवन का संहार ।।
3.
जल बिन धरती के कहो, क्या होंगे हालात ।
बसते थे मानव यहाँ, हो ना बीती बात ।।
4.
सूखी नदिया-बावड़ी, सूख गए हैं ताल ।
इक पल शीतल छाँव को, धूप फिरे बदहाल ।।
5.
काटे जंगल बाँध दी, नदिया की जलधार ।
ख़ुद लाया सैलाब तू, करके बंटाधार ।।
6.
उजड़ा पनघट गाँव का, उजड़े सरवर-घाट ।
मॉल उठाये सर खड़े, कहाँ गए वो हाट ।।
7.
धरती माँ पोसे सदा, हम नित रहे उजाड़।
घायल हो बारूद से, सिसकें मौन पहाड़ ।।
8.
धरा-गगन-पानी-हवा, ईश्वर के उपहार ।
साँस-साँस में वो बसा, मत छीनो अधिकार ।।
9.
पर्वत-झरने-पेड़ हैं, धरती का सिंगार ।
इनसे ही ख़ुशहाल है, मानव का संसार ।।
10.
किसकी है ये मिल्कियत, किसकी है जागीर।
मालिक जल का कौन है, किसकी बहे समीर ।।
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