जल स्रोत जिनके लिए देवतुल्य हैं
- डॉ. दीपक
आचार्य
विश्व विख्यात विज्ञान शोध पत्रिका
लांसेट में प्रकाशित एक शोध रपट के अनुसार विकासशील देशों में 5 वर्ष से कम उम्र के करीब आठ लाख बच्चों
की मृत्यु की एक मात्र वजह शुद्ध पेयजल के अभाव में डायरिया जैसी बीमारियों का
होना है। यानी, शुद्ध पेयजल
आपूर्ति के अभाव में प्रतिदिन 2000 से ज्यादा बच्चों की मृत्यु हो जाना चिन्ताजनक विषय है। यूनिसेफ की एक
स्टडी के अनुसार डायरिया जैसी जल जनित बीमारियों से भारत समेत कुल 5 देशों में 5 वर्ष की उम्र तक होने वाली कुल मौतों
में से आधी मौतें सिर्फ भारत और नाइजीरिया जैसे 2 देशों में हो जाती है। इसमें से करीब 24 प्रतिशत बच्चों की मृत्यु भारत देश में आँकी गई। संयुक्त राष्ट्र द्वारा
किये एक आकलन के अनुसार प्रदूषित जल के सेवन की वजह से दुनिया भर में प्रतिदिन 4000 बच्चों की मौत होती है और इसी रिपोर्ट
में यह भी बताया गया है कि अफ्रीका और एशिया के हर 10 बच्चों में से 4 बच्चों की
मौत की वजह भी यही होती है क्योंकि यहाँ शुद्ध पेयजल का अभाव अनेक हिस्सों में
देखा जा सकता है।
लांसेट जर्नल में प्रकाशित एक अन्य रपट
के अनुसार अपर्याप्त शुद्ध पेयजल, जल संक्रामकता, जल जनित
रोगों की वजह से जितनी मौतें होती है उतनी मौतें आतंकवाद, भारी तबाही के हथियारों के उपयोग और
युद्ध आदि के बाद हुई मौतों के सारे आँकड़ों को मिलाने के पश्चात भी नहीं होती।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार
प्रदूषित और संक्रमित जल के सेवन से प्रतिवर्ष 34 लाख लोगों की मृत्यु हो जाती है
जो यह साबित करता है कि सारी दुनिया में लोगों की असमय मौत की मुख्य वजह शुद्ध
पेयजल ना मिल पाना ही है। इन लोगों में मुख्यत: बच्चे होते हैं जो संक्रमित जल में
पनप रहे सूक्ष्मजीवों के आक्रमण की वजह से मारे जाते हैं। स्वस्थ जीवन और लम्बी
आयु के लिए शुद्ध पेयजल को प्राणदायी और अति
महत्त्वपूर्ण माना जाता रहा है किन्तु पिछले दो दशकों में शुद्ध पेयजल या
प्राकृतिक खनिजयुक्त जल के नाम पर जिस तरह का व्यवसायीकरण हुआ है, वो बेहद चिन्तनीय है।
हमारे देश में प्राकृतिक संसाधनों की कमी
नहीं है, शुद्ध पेयजल
कई समस्याओं में से एक है लेकिन किसी भी दशा में स्थिती इतनी भी गम्भीर नहीं कि
पेयजल का बाजारीकरण देश के कोने-कोने तक हो जाये। लेकिन हालात पर नजर डाली जाये तो
हम देख सकते हैं कि देश के दूरगामी इलाकों तक पेयजल या मिनरल वाटर के नाम पर
व्यापार अच्छा खासा फल-फूल रहा है। ना सिर्फ बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ बल्कि पेयजल
के नाम पर सैकड़ों स्थानीय कम्पनियाँ भी अपनी जेब भरने से बाज नहीं आ रही। हमारे
देश में लाखों गरीबों और ग्रामीणों के लिए यह सम्भव ही नहीं है कि बाजारू शुद्ध पानी को
खरीद पाएँ। अपनी दिन भर की कमाई राशि का एक बड़ा हिस्सा महज पेयजल के लिए खर्च करना उनके बस का नही हैं।
भारत देश में पातालकोट जैसे इलाके भी हैं
जिन्हें सरकारी मदद की परवाह नहीं और इन लोगों तक सरकार या एजेंसियों की मदद वैसे
भी नहीं पहुँच पाती है लेकिन प्राचीन काल से ही इन्होंने शुद्ध पेयजल प्राप्ति के लिए
पारम्परिक नुस्खों का उपयोग किया है। ये
बात अलग है कि शहरी लोगों ने अपनी प्राचीन परम्परागत तकनीकियों और पद्धतियों को
दरकिनार कर दिया और फटाफट भागती जिन्दगी और जलजनित रोगों के भय से बाजारू पानी को
अपना लिया एवं घरों में भी पेयजल शुद्धिकरण मशीन यंत्र (वाटर फिल्टर) भी लगा लिये, क्या हर शहरी इस व्यवस्था को अपनाने के लिए
साधन सम्पन्न हैं? हम शहरी लोग जाने-अनजाने में विकसित होने
की इस अन्धाधुन्ध दौड़ में क्या खो बैठे और क्या पा लिए, ये बात जग जाहिर है।
वनांचलों में रहने वाले वनवासियों के लिए
प्रकृति ही सब कुछ है, सर्वोपरी है। व्यवस्थाएँ अनुरूप हो या
विपरीत, आदिकाल से
सुदूर ग्रामीण और वनअंचलों में रह रहे अनेक वनवासी समुदाय आज भी प्राकृतिक
जलस्रोतों पर निर्भर हैं, वे इनकी पूजा-अर्चना करते हैं, इन जलस्रोतों को देवतुल्य और देव उपहार की तरह देखा जाता है। वे अपने
दादा-परदादाओं से मिले पारम्परिक ज्ञान के आधार पर उपलब्ध जलस्रोतों से जल एकत्र
कर उनका शुद्धिकरण करते हैं और इसे पेय योग्य बनाते हैं। सदियों से चली आ रही
परम्परा को कोई भले ही शंका की नजरों से देखे लेकिन अब इसका दमखम आधुनिक विज्ञान
भी प्रमाणित कर रहा है।
मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा जिले के मुख्यालय
से करीब 80 किमी दूर पातालकोट घाटी सदियों से वनवासियों का घर है। गोंड और भारिया
जनजाति के वनवासी यहाँ सैकड़ों सालों से मूल निवासी हैं। जहाँ एक ओर यहाँ पूरे
इलाके में प्राथमिक चिकित्सा और शिक्षा का अभाव तो है, वहीं दूसरी तरफ पातालकोट
घाटी के अनेक गाँव तथाकथित विकसित समाज की मुख्यधारा से सैकड़ों साल पीछे हैं।
बावजूद इसके, जिस तरह से
ये वनवासी स्वास्थ्य सम्बन्धी विकारों के उपचारों, दैनिक दिनचर्या और स्वयं के रहन-सहन में प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करते
रहे हैं, ये देखकर
मैं शहरी विकसित-समाज को पिछड़ा हुआ देखता हूँ।
इस घाटी की भौगोलिक संरचना भी एक मुख्य
वजह रही है जिस कारण यह सारी दुनिया से कटा हुआ रहा है। घोड़े के नाल के आकार में
और करीब 79 स्केवेयर किमी के क्षेत्रफल में फैली इस घाटी के वनवासियों को अपनी हर
छोटी-बड़ी जरूरतों के लिए आत्मनिर्भर होना
पड़ता है और मजे की बात ये भी है कि इन लोगों के पास अपनी हर समस्याओं के लिए जुगाड़ और चिरस्थायी उपाय भी हैं। पातालकोट
धरातल से करीब 3000 फीट नीचे एक गहरी खाई में बसा 2500 वनवासियों का प्राकृतिक
आवास है ,जो करीब 16 गाँवों में फैला हुआ है। चारों ओर विशालकाय पहाड़ों और
चट्टानों से घिरी इस घाटी में पानी हमेशा से एक समस्या रही है ; क्योंकि अपनी
अजीबो-गरीब भूगर्भ-संरचना के चलते यहाँ बरसाती जल का रुक पाना कतई सम्भव नहीं हो
पाता है।
गर्मियों के आगमन के साथ पीने योग्य पानी
की समस्या आम हो जाती है। पातालकोट के वनवासियों को कृषि से लेकर पेयजल तक के लिए पूर्णत: बारिश पर निर्भर रहना पड़ता है। बारिश
का पानी यहाँ से उद्गम होने वाली नदी दुधी के जरिए घाटी से बाहर चला भी जाता है।
गर्मी आते-आते लगभग सभी जलस्रोत अपना दम तोड़ते दिखाई देते हैं। इस दौरान पहाड़ों
के करीब प्राकृतिक रूप से बने झरनों, झिरिया और पोखरों में भरे पानी से ही इन वनवासियों का गुजारा होता है। तेज
चलने वाली हवाओं के साथ मिट्टी और धूल के कण, पेड़-पौधों के टूटे पत्ते, शाखाएँ आदि इस पानी में गिरकर इसे मटमैला और दूषित कर देती हैं, इनमें मौजूद सूक्ष्मजीव जैसे बैक्टीरिया, वायरस, प्रोटोजोआ आदि इस पानी को संक्रमित बनाते हैं।
पातालकोट वनवासी पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपनाए
पारम्परिक तरीकों से अशुद्ध पानी को पीने लायक बनाते हैं। निर्गुंडी, निर्मली, सहजन, कमल, खसखस, इलायची जैसी वनस्पतियों का इस्तेमाल कर आज भी जल शुद्धीकरण की इन देशी तकनीकों को आम शहरी लोग भी
घरेलू स्तर पर भी अपना सकते हैं। पातालकोट में मंडा रास्ता, घुरनी और मालनी जैसे कस्बे दूरस्थ इलाकों
में बसे हैं। सुबह-सुबह गाँवों की महिलाएँ कांसे और पीतल की घुंडियाँ (घड़े के
आकार के बर्तन) और मटकों को सिर पर लेकर पहाड़ों की तलहटी में बनी झिरियों तक जाते
हैं। झिर या झिरिया पहाड़ों और पहाड़ों की दरारों से पानी के धीमे-धीमे रिसकर नीचे
आने का स्थान होता है। यहाँ वनवासी एक कुंड या मध्यम आकार का गोल गड्ढा बनाकर पानी
को रोक लेते हैं। सुबह महिलाएँ इस पानी को अपने बर्तनों में भरकर घर तक ले आती
हैं।
गर्मियों में पानी से भरी घुंडियाँ ये
लोग अपने घरों के ऊपर खपरैल से बनी छत पर सूर्य प्रकाश में रख देते हैं। यहाँ के
बुजुर्गों का मानना है कि ऐसा करने से दिन भर धूप की गर्मी पानी पर पड़ती है और
शाम होते-होते पानी की सारी अशुद्धियाँ खत्म हो जाती हैं। सूरज के ढल जाने के बाद
शाम से इस पानी को पीने योग्य माना जाता है। यह प्रक्रिया हर दिन दोहराई जाती है।
इंटरनेशनल जर्नल ऑफ फार्मास्यूटिकल रिसर्च एंड साइंस (2013) में डॉ. आर राजेन्द्रन
ने एक रिव्यू लेख में बताया है कि यूनिसेफ भी इस बात को मानता है कि 24 घंटों तक पानी
को काँच के जार या बर्तन में सूरज की रोशनी या धूप में रखा जाये तो पानी में बसे 99.9 % एस्चरेसिया कोलाई नामक
बैक्टीरिया का सफाया हो जाता है।
निर्गुंडी (विटेक्स नेगुंडो) का पेड़ इस
घाटी में खूब देखा जा सकता है।
स्थानीय भाषा में इसे पानी-पत्ती भी कहा
जाता है। इसके बीजों का इस्तेमाल भी पानी को साफ करने के लिए किया जाता
है। पातालकोट घाटी के राथेड़ गाँव की महिलाएँ राजा की खोह नामक घाटी के पोखरों से
पानी भरती हैं, सामान्यत: गहराई में बसे होने के कारण खोह का पानी मटमैला
हो जाता है। पानी में से मिट्टी के कण, कीचड़ तथा अन्य गन्दगियों को साफ करने के लिए महिलाएँ निर्गुंडी (वाईटेक्स निगुंडो/ चेस्ट
ट्री) नामक पौधे की पत्तियों का प्रयोग करती हैं। इस मैले पानी को घड़े या मटके
में भर लिया जाता है और आधे घड़े तक निर्गुंडी की पत्तियों को भर दिया जाता है और
इसे आधे से एक घंटे के लिए ढक कर रखा जाता
है। ऐसा करने से पानी में मौजूद गन्दगी नीचे बैठ जाती है और पानी साफ हो जाता है।
कुछ लोग इस पानी में इलायची को कुचलकर
डाल देते हैं ताकि पानी में मिट्टी की गन्ध हो तो वह दूर हो जाये। वनवासियों के
अनुसार निर्गुंडी की पत्तियाँ मिट्टी के कणों को अपनी ओर आकर्षित करती हैं जिससे
गर्त या कण इनकी सतहों पर लिपट जाते हैं और मिट्टी के भारी कणों के साथ सूक्ष्मजीव
भी इन सतहों तक चले आते हैं। आयुर्वेद में भी निर्गुंडी के बीजों में जल शुद्धिकरण
की उपयोगिता का जिक्र किया गया है। पातालकोट के हर्रा का छार गाँव के वनवासी
झिरिया की करीब छोटे-छोटे गड्ढे करके पीने का पानी प्राप्त करते हैं। झिरिया से
प्राप्त पानी को दो अलग-अलग तरीकों से पीने योग्य तैयार किया जाता है। झिरिया से
शुद्ध पानी प्राप्त करने के लिए निर्मली
के बीजों का खूब इस्तेमाल किया जाता है। निर्मली (स्ट्रिकनोस पोटेटोरम) से जल
शुद्धिकरण का जिक्र आयुर्वेद में भी आता है।
इसके पके हुए 2-3 फलों को मसलने के बाद
पानी से भरे बर्तनों में डाल दिया जाता है और 2 से 3 घंटे के बाद इस पानी को पीने
योग्य माना जाता है। कई लोग इसके पके फलों को मटके या घुंडी की आन्तरिक सतह पर
रगड़ देते हैं और बाद में इस पात्र में झिरिया का पानी डाल दिया जाता है। निर्मली
के बीजों पर की गई शोधों से ज्ञात हुआ है कि इनमें एनऑयनिक पॉलीइलेक्ट्रोफाइट्स
पाये जाते हैं जो कोऑग्युलेशन की प्रक्रिया के कारक हो सकते हैं। इसी इलाके के
वनवासी एक अन्य प्रक्रिया के तहत झिरिया किनारे बने गड्ढे में एक कप दही डाल देते
हैं, एक दो घंटे में
पानी में घुले मिट्टी के कण तली में बैठ जाते हैं और आहिस्ता-आहिस्ता पानी को ऊपरी
सतह से एकत्र कर लिया जाता है। माना जाता है कि दही सूक्ष्मजीवों को अपनी ओर
आकर्षित कर लेता है क्योंकि सूक्ष्मजीव दही में अपना भोज्य पदार्थ पाते हैं।
पानी पेय योग्य हो जाता है, शहरों में लोग आसानी से इस पद्धति का
इस्तेमाल कर सकते हैं और पानी को फिल्टर करने का यह एक उत्तम उपाय हो सकता है। कई
गाँवों में लोग दही के साथ खस-खस के बीज भी मिलाते हैं, स्थानीय बुजुर्ग जानकार मानते हैं कि
खस-खस भी पानी को साफ करने में मदद करता है। सहजन या मुनगा के पेड़ भी घाटी में
खूब दिखाई देते हैं। हिन्दुस्तानी सभ्यता में करीब 4000 सालों से इसे अलग-अलग तरह
से इस्तेमाल में लाया जाता रहा है। करेयाम गाँव के गोंड और भारिया वनवासी पीने के
पानी को शुद्ध करने के लिए सहजन या मुनगा
(मोरिंगा ओलिफेरा) की फलियों और तुलसी की पत्तियों को तोडक़र मटके में डाल देते
हैं।
इस पात्र में एकत्र किया पोखरों और
झिरिया का अशुद्ध या मटमैला जल डाल दिया जाता है। दो से तीन घंटों बाद पात्र की
ऊपरी सतह से पानी को निथारकर या एकत्र कर साफ सूती कपड़े से छानते हुए किसी अन्य
पात्र में डाल दिया जाता है जो कि अब पीने योग्य हो जाता है। वनवासी हर्बल
जानकारों के अनुसार सहजन की फलियों और तुलसी की पत्तियों में पानी में उपस्थित
अनेक सूक्ष्मजीवों को मारने की क्षमता होती है साथ ही सहजन की फलियों और इसके
बीजों का लसलसा पदार्थ पानी में घुलित कणों को अपनी ओर आकर्षित करता है जिससे कुछ
समय में पात्र के ऊपरी हिस्से का पानी पेय योग्य हो जाता है। सूखाभांड गाँव की
वनवासी महिलाएँ सहजन की परिपक्व फलियाँ एकत्र कर लेती हैं, फलियों को तोडक़र इसके बीजों को एकत्र कर
लिया जाता है और इन बीजों को एक साफ सूती कपड़े में डालकर पोटली तैयार कर ली जाती
है।
प्रत्येक दिन सुबह शाम एक-एक बार इस
पोटली को पानी से भरे पात्र के भीतर 30 सेकेण्ड के लिए घुमाया जाता है, इन महिलाओं का मानना है कि ऐसा करने से
पानी के भारी कण और सूक्ष्मजीव इस पोटली की सतह पर चिपक जाते हैं। बाद में पोटली
से बीजों को बाहर निकाल लिया जाता है और अन्य साफ सूती कपड़े में लपेट दिया जाता
है ताकि अगली बार इस पोटली का पुन: उपयोग हो सके। आधुनिक विज्ञान भी सहजन और तुलसी
के द्वारा सूक्ष्मजीवों की वृद्धि को रोके जाने की पुष्टि कर चुका है। सन 1995 में
एल्सवियर लिमिटेड से प्रकाशित जर्नल -वाटर रिसर्च- के 29वें अंक में प्रकाशित एक
शोधपत्र से प्राप्त परिणामों के अनुसार वास्तव में सहजन के बीजों में हल्के अणुभार
वाले कुछ प्रोटीन्स होते हैं जिन पर धनात्मक आवेश होता है और ये प्रोटीन्स पानी
में उपस्थित ऋणात्मक आवेश वाले कणों, जीवाणुओं और क्ले आदि को अपनी ओर आकर्षित करते हैं
जिससे ना सिर्फ पानी शुद्ध होता है अपितु
इसकी कठोरता भी सामान्य हो जाती है। ये शोध परिणाम आधुनिक विज्ञान में अब प्रकाशित
हो रहें है लेकिन इसका आधार और उपयोग सदियों पहले से वनवासी करते चले आ रहें हैं।
चिमटीपुर, रातेड़ और
मालनी जैसे गाँवों के भारिया जनजाति के वनवासी जल शुद्धीकरण के लिए दूषित पानी में तुलसी की
पत्तियाँ, जामुन की
छाल और अर्जुन छाल का प्रयोग करते हैं। इन सबकी समान मात्रा लेकर पानी में डाल
दिया जाता है, एक रात इसी
तरह रखने के बाद अगले दिन एक सूती कपड़े की सहायता से इस पानी को छान लिया जाता
है। यह पानी शुद्ध होता है और हर्बल जानकारों की मानी जाये तो यह पेट से जुड़ी
समस्याओं के इलाज के लिए उत्तम
माना जाता है साथ ही हृदय के रोगियों के लिए
अति उत्तम होता है।
इसके अलावा पातालकोट में वनवासी पेयजल के
रखरखाव के लिए पीतल या तांबे के बर्तनों
का उपयोग करते हैं। प्लास्टिक के विपरीत पीतल या तांबा बैक्टीरिया को पनपने नहीं
देता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक और
रिपोर्ट के अनुसार श्वास- तंत्र संक्रमण और दस्त जनित रोग दुनिया
भर में 10% लोगों की
मृत्यु का कारण है जो कि एड्स (4.9 %), फेफड़ों का
कैंसर (2.2%), पेट का कैंसर (1.5%), सडक़ दुर्घटनाओं (2.1%), आत्महत्या
(1.5%) और मलेरिया (2.2%) की तुलना में कहीं ज्यादा है। अब यदि
यह देखा जाये कि श्वास- तंत्र संक्रमण और दस्त जनित रोगों के
बचाव के लिए दुनिया भर में कुल कितना खर्च
किया जाता है तो बाकी कारणों की
तुलना में काफी कम दिखाई देगा।
एड्स, कैंसर जैसे रोगों के निवारण, उपचार आदि के लिए कई बिलियन और ट्रिलियन डॉलर्स का खर्च किया जा चुका है, लेकिन दुनिया भर के बहुत बड़े हिस्से आज
भी शुद्ध पेयजल प्राप्ति से परे हैं। अब वक्त आ चुका है जब हमें मिलकर आधारभूत
स्वास्थ्य, स्वच्छ
पेयजल जैसी व्यवस्थाओं की उपलब्धताओं पर कार्य करना होगा। जैसे-जैसे दुनिया भर में
जनसंख्या दबाव बढ़ता जा रहा है, मूलभूत आवश्कताओं की माँग भी तेजी से बढ़ रही है और ऐसे में पीने योग्य
पानी के लिए त्राहि-त्राहि होना तय है। क्या हम पातालकोट के वनवासियों के
पारम्परिक ज्ञान पर आधारित पेयजल सफाई युक्तियों पर कोई आधुनिक शोध कर इसे
प्रमाणित कर इन वनस्पतियों को बतौर उत्पाद या आसानी से उपलब्ध संसाधन के तौर पर
नहीं ला सकते?
विज्ञान जगत् के पिछले
कुछ सालों की शोधों के परिणामों को देखा जाये तो वनवासियों के इन पारम्परिक ज्ञान
का लोहा मानने में हमें देरी नहीं करनी चाहिए। वनवासियों के हर एक देशी नुस्खे/
जुगाड़ के पीछे एक तथ्य होता है और यही तथ्य सच साबित होता है जब आधुनिक विज्ञान
का सिक्का इस पर लगता है। भारत में अभी भी कई इलाके और लाखों लोग ऐसे हैं जो पीने
के साफ पानी से आज भी वंचित हैं या हो सकता है सरकार इन क्षेत्रों के पीने के साफ
पानी को मुहैया कराने के लिए लाखों करोड़ों की लागत लगाकर ऐसी जनसुविधाओं को
संचालित करने में प्रयासरत भी होगी किन्तु पातालकोट जैसे इलाकों के वनवासियों के
छोटे-छोटे नायाब हर्बल नुस्खे अपनाकर अन्य लोगों को साफ पेयजल मुहैया कराया जा
सकता है।
शुद्ध पेयजल की प्राप्ति से ना सिर्फ
आमजनों की सेहत में फायदा होगा अपितु विश्व मंच पर भारत वर्ष को तकलीफ देने वाले
जलजनित रोगों से मृत्युदर के आँकड़ों में एक हद तक सुधार आ जाएगा। जब तक हमारे देश
में स्वच्छ पेयजल का अभाव होगा, तब तक देश के सुनहरे भविष्य की सोच भी करना मुश्किल है, आखिर जल ही जीवन है, जीवन का आधार है। हमारे देश में शुद्ध
पेयजल की प्राप्ति एक विकराल समस्या है और इसके लिए ना जाने कितना पैसा पानी की तरह बहाया जाता है, वनवासियों के पारम्परिक हर्बल ज्ञान को
स्रोत मानकर इस पर गहन अध्धयन किया जाये तो निश्चित ही आम जनों तक शुद्ध पेयजल
आसानी से पहुँच जाएगा। बायोरेमेडियेशन जैसी तकनीकियों द्वारा इस पारम्परिक ज्ञान
का परीक्षण भी किया जाना चाहिए ताकि प्राप्त परिणाम वनवासियों के इस पारम्परिक
हर्बल ज्ञान की पैठ दुनिया को दिखा सके, अनुभव करा सके। ये नुस्खे ना सिर्फ शुद्ध पानी प्राप्ति के लिए कारगर है बल्कि पानी का हर्बल ट्रीटमेंट होना
बेहतर सेहत के लिए अनेक तरह से फायदेमन्द
भी है।
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