मनमानी मानव करे, कुदरत है बेहाल
समाधान
- मंजु गुप्ता
मनमानी मानव करे, कुदरत है बेहाल
मानव द्वारा निर्मित प्रदूषित पर्यावरण और उससे पैदा हुई ग्लोबल वार्मिंग
का जिम्मेदार स्वयं मानव ही है। आज यह प्रदूषित पर्यावरण की समस्या विकराल हो गई
है। हम सब और सरकार इस समस्या के समाधान
के लिए सचेत नहीं हुए तो प्रलय निश्चित
है। हमारे देश में पर्यावरण के मुद्दे उसी
तरह से गौण हो जाते हैं ,जैसे महिला सशक्तीकरण, कुपोषण, गरीबी हटाओ आदि। पर्यावरण तो सरकार के लिए एकतरफा कागजी योजना ही है।
अगर हम पर्यावरण का शाब्दिक अर्थ करें तो चारों ओर का परिवेश अर्थात जिसमें
वायु, जल, भू , आकाश, सारी वनस्पतियाँ, सभी प्राणी यानि जीव-
जन्तु , मनुष्य सभी इसमें शामिल
हैं।
आज मानव को विज्ञान ने नई- नई तकनीक दी हैं. जिसने मानव को भौतिक सुख सम्पदा से सम्पन्न किया है।
जिससे वे अपनी सुख सुविधा के लिए लग्ज़री सामान
का उपयोग बड़े पैमाने पर कर रहा है, जिनको बनाने काम विकसित देश विकासशील देशों को दे
रहे हैं। जिससे विकसित देश में प्रदूषण न हो। वैaज्ञानिक सर्वेक्षण से पता लगा है कि सन् 1992 से ले कर अब तक वायुमंडल में
कार्बन- डाइ- आक्साइड का 50 प्रतिशत का इज़ाफ़ा हुआ है। इस का कारण फैक्टरियों, चिमनियों, वाहनों से निकलने वाला जहरीला, गहराता काला धुआँ जो
वायु प्रदूषण को बढ़ावा दे रहा है। ओज़ोन परत में छेद हो गया है।
ग्लोबल वार्मिंग बढ़ रही है। जिससे जीवन जीना प्राणियों के लिए मुश्किल हो रहा
है।
समुद्र का जल स्तर घट रहा है। पूरा
विश्व पानी के संकट से जूझ रहा है। कहा भी
जा रहा है कि अगला युद्ध जल के लिए ही होगा। जल है तो कल है। मराठवाड़ा के 1500
गाँव और बुन्देलखण्ड सूखे से बेहाल हैं। जनसंख्या के विस्फोट से प्राकृतिक सम्पदा का दोहन हो रहा है।
वनों को काट कर काँक्रीटीकरण हो रहा है। जिससे जल स्रोत सूख रहे हैं। नदियों में कल कारखानों का रासायनिक पदार्थ पानी को
दूषित करता है। जल प्रदूषण से नदियों के किनारे बसे गाँव- शहर तबाह हो रहे हैं।
खेतों में रसायनिक खादों, कीड़े मारने के लिए पेस्टिसाइड आदि के प्रयोग से 50
से 70 लाख हेक्टयर जमीन बंजर हो रही है। मिट्टी की खराबी से विकासशील देशों की
उत्पादक क्षमता 29 प्रतिशत कम हो गई है और
पैदावार, फसल। सब्जी, अन्न, फल आदि खाद्यान्न
विषाक्त हो रहे हैं। स्वास्थ्य से खिलवाड़ हो रहा है। रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल पर्यावरण को प्रदूषित करता है.
नित्य नए- नए वैज्ञानिक उपकरणों का निर्माण, उनके दुरुपयोग ने, एस यू
बी से निकला प्रदूषण मानव जीवन को खतरे में डाल दिया है। पोखरन में परमाणु
विस्फोट हो या युद्धों में मिसाइलों, जैविक शस्त्र को प्रयोग, बमों के निर्माण
परिक्षण या फिर खनन माफियाओं का भू दोहन से खिलवाड़ करने पर ‘आ बैल मुझे मार’ की कहावत चरितार्थ हो
रही है। जिसका परिणाम प्राकृतिक आपदाएँ जैसे वक्त- वेवक्त की
बारिश, बाढ़ , सुनामी, अकाल, ओले,आँधी, तूफ़ान, सूखा, अति गर्मी आदि। उत्तराखंड में बादल का फटने से
केदारनाथ का जल मगन, कश्मीर, चेन्नई की बाढ़, अभी हाल ही में भोपाल
के सिंहस्थ कुंभ मेले में लाल, काली आधी, वर्षा के उत्पात ने कई श्रद्धालुओं की जान लील ली।
आज पर्यावरण हमारी स्वार्थी
वृतियों, अर्थ-लोलुपता, गलतियों, कमियों के कारण प्रदूषित हो रहा है। अत: पर्यावरण
बचाने के लिए हम सब का सामूहिक नैतिक
दायित्व होना चाहिए, सरकार को सकारात्मक प्रयास करने होंगे। जनता को जागरूक होना होगा। सरकार पर
दवाब पड़ेगा। जिससे वे अपने सांसदों को जनता के बीच भेज कर समस्याओं को जानें, जिससे वे प्रदूषित परिवेश , स्थितियों को सुधारें।
सभी प्रकार के प्रदूषणों के कारणों को रोकना होगा। जनसंख्या वृद्धि पर रोक लगानी होगी। रासायनिक उर्वरको से पर्यावरण
बिगड़ रहा है। ऐसे में किसानों को शत प्रतिशत जैविक खेती के लाभ का ज्ञान दिया जाए
और जैविक तन्त्र के बारे में बताया जाए।
किसानों को कृषि विशेषज्ञों से जैविक प्रशिक्षण दिलाया जाए। जल स्रोतों
का सही नियोजन हो, बारिश के पानी का संचयन किया जाए, पानी की बर्बादी न
करें। नदियों में कचरा, रासायनिक पदार्थों न डालें। प्राकृतिक सम्पदा का दोहन, लूट न करें। जल स्रोतों जलाशयों को पुनर्जीवित
करना होगा।
नदियाँ प्रदूषित न करें। इन्हें
भारतीय, वैदिक संस्कृति का गौरव
देना होगा। वेद,
पुराणों में पर्यावरण का संरक्षण, प्रकृति संतुलन का आध्यात्मिक ज्ञान मिलता है। हमें
उनकी शरण में जा कर धर्म का पालन करना होगा। अनादि काल से चल रहे धार्मिक
अनुष्ठानों को हम व्यवहार लाए। नदियों को माँ मान कर पूजें, उनकी पवित्रता, स्वच्छता बनाए रखे। अभी हाल ही में मध्यप्रदेश में
सिंहस्थ कुंभ में क्षिप्रा नदी में एक तरफ जाल बिछा दिया था। भक्तों, श्रद्धालुओं ने फूल, प्लास्टिक की थैलियाँ
आदि कचरा डाला था। वह सब कचरा उस जल में जमा हो गया। इस तरह के प्रयोग से
हम नदियों की स्वच्छता बनाए रख सकते हैं। पंच तत्वों जल, वायु, अग्नि, भू, आकाश के साथ पेड़ -
पौधे हमारे जीवन के रक्षक हैं। इन्हें पूजे। इनसे
आत्मीय रिश्ता बनाना होगा।
हमारे पूर्वजों ने वृक्षों- वनस्पतियों
पर प्रेम किया था, उनमें ईश दर्शन किए थे, उन्हें सहोदर मान कर स्नेह से सिंचन किया था।
शकुन्तला वृक्षों को सगे भाई मान कर पानी पिलाती थी। आज भी भारतीय स्त्रियों का वट
सावित्री का व्रत पति की दीर्घायु की कामना करते हुए वट की पूजा करती हैं। पेड़-
पोधे वर्षा का कारण बन कर पर्यावरण की रक्षा करते हैं और कार्बन- डाइ- आक्साइड जैसी विषैली
गैस का शोषण कर शुद्ध वायु आक्सीजन का निर्माण करती है। हमें वनों को अंधाधुंध
काटना नहीं चाहिए बल्कि वनों का संरक्षण करें। वन हैं तो नदियाँ जीवित रहेंगी, नदियों के किनारे वृक्ष
लगाएँ। तभी नदियाँ पहले की तरह हो जाएंगी। मानवीय सभ्यता, संस्कृति नदियों के
किनारे जन्मी है।
वृक्षारोपण करना हमारा सांस्कृतिक दायित्व है, नहीं तो बिना वृक्षों
के मानव का अस्तित्व ही नहीं रहेगा। तभी संसार को भावी प्राकृतिक, दैवीय विनाश लीला जैसे
सूखा, अकाल, सुनामी, केटरीना, भूकम्प आदि
से बचाया जा सकता है। प्रकृति के साथ संतुलन बनाए
रखना होगा। भारत की कालजयी संस्कृति
सब के हित,
‘सर्वे सुखानी भवन्तु’ की बात करती है।
सभी विद्यालयों, कालिजों में विद्यार्थियों को प्रार्थना सभा, जल बचाने की, जल के सदुपयोग , स्वच्छ परिवेश, वृक्षारोपण की शपथ दिलवाने का संकल्प लेना चाहिए। इससे नई पीढ़ी में इनके रक्षण का
दायित्व आएगा। तभी देश में हरियाली- खुशहाली आएगी।
विकसित देशों से हमारी सरकार
पर्यावरण विशेषज्ञों से पर्यावरण बचाने की
नई तकनीक सीखे। आर्थिक मदद मिले। ‘ग्रीन क्लीन एनर्जी’ की तकनीक ले कर वायुमंडल में विद्यमान कार्बन-डाई -आक्साइड के 50 प्रतिशत के जहरीले लेबल को कम कर सकें।
नित्य हवन, यज्ञ से वायुमंडल के कीटाणुओं को मार स्वस्थ, शुद्ध, कर सकते हैं। मन- वचन-
कर्म से हम सबको को अपने- अपने स्तर पर पर्यावरण रक्षण का निर्वाह में जुट जाना
होगा। तभी हमारी भावी पीढी जि़ंदा रह सकेगी।
सम्पर्क: 19, द्वारका,
प्लॉट 31,
सेक्टर 9, वाशी, नवी मुम्बई - 400703, मो. 9833960213
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