मनोरंजन
बनाम अंधविश्वास...
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डॉ. रत्ना वर्मा
एक समय वह भी था जब संचार माध्यम समाज
में जागरूकता फैलाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाया करते थे। चाहे वह समाचार पत्र
हो पत्रिकाएँ हो, रेडियो हो, या फिर दूरदर्शन। इन माध्यमों से देश
दुनिया की खबरों के अलावा इतिहास, कला- संस्कृति, परम्परा, धर्म की जानकारी के साथ मनोरंजन का बहुत
अच्छा माध्यम भी यही हुआ करता था। परंतु क्या आज भी ऐसा ही है। चैनलों की भीड़ में
टीआरपी बढ़ाने की होड़ लगी रहती है। व्यावसायिकता की अँधी दौड़ के चलते आज विभिन्न
संचार माध्यमों के मायने ही बदलते गए हैं।
आज बात विभिन्न हिन्दी चैनल में चल रहे
धारावाहिकों और उनके विषय पर है। मुझे याद है जब दूरदर्शन ने हमारे घरों में
प्रवेश किया था तब विभिन्न चैनलों की होड़ वाली कोई बात नहीं होती थी। तब एक
निर्धारित समय में समाचार का प्रसारण होता था।
शुक्रवार को रात आठ बजे फिल्मी गीतों पर आधारित लोकप्रिय कार्यक्रम
चित्रहार और रविवार को शाम छह बजे नये पुरानी फिल्मों का इंतजार होता था। उस दौर
में सबके घर टीवी भी नहीं होता था जिनके घर होता था वहाँ आस- पड़ोस के सब लोग
पहुँच जाते थे। कमरे में नीचे दरी बिछाकर
किसी थियेटर की तरह चित्रहार और फिल्म का आनन्द लेते थे। कुछ समय पश्चात गिने चुने
धारावाहिकों का प्रसारण आरम्भ हुआ। अशोक कुमार अपने अंदाज में जब ‘हम लोग’ ले कर आए तो छुटकी और बडक़ी घर- घर की चहेती बन गईं। बुनियाद, नुक्कड़, चन्द्रकांता, शांति, चाणक्य, भारत एक खोज
जैसे धारावाहिकों से मनोरंजन का एक नया दौर ही शुरू हो गया। और जब रामायण और
महाभारत की बारी आई तब तो शहरों में कफ्र्यू का सा माहौल हो जाता था।
उन पुराने दिनों की याद को ताजा करने के
पीछे उद्देश्य यही है कि आजकल विभिन्न चैनल्स में चल रही टीआरपी के कारण जिस तरह
के कार्यक्रम और धारावाहिकों का प्रसारण हो रहा है, वह न तो हमारे सामाजिक जीवन का हिस्सा होता है न हमारे इतिहास, धर्म- संस्कृति और परम्परा का दर्पण।
बल्कि अंधविश्वास को बढ़ावा देने वाले कार्यक्रमों की इन दिनों बाढ़ आ गई है, कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। आप प्राइम
टाइम में किसी भी चैनल को देख लीजिए, कहीं नागिन है तो कहीं भूत- प्रेत तो कहीं तंत्र-मंत्र। इतना ही नहीं जिन
धारावाहिकों को सामाजिक पारिवारिक विषय बनाकर शुरू किया गया था आगे चलकर उसी
धारावाहिक में अचानक से भूत- प्रेत, तंत्र-मंत्र और आत्मा- परमात्मा की कहानी जोड़ कर उसे इतना तोड़ा मरोड़ा
गया है कि मूल विषय कहीं गुम हो चुका है। बालिका वधू, ससुराल सिमर का, गंगा जैसे सामाजिक पारिवारिक धारावाहिको
के शुरू के एपीसोड की कहानी क्या याद है आपको? इनकी कहानियाँ कहाँ से शुरू हुई थीं और आज किस ओर जा रही है। पर यहाँ तो
मामला टीआरपी का होता है। एक चैनल में अगर नागिन या तंत्र- मंत्र की वजह से टीआरपी
सबसे ऊपर जाता है तो बाकी चैनल भी उसी तर्ज पर अपनी पुरानी कहानी में तंत्र-मंत्र
और भूत प्रेत को शामिल कर लेते हैं।

इसी प्रकार कुछ चैनल मन में है विश्वास
और भक्ति में शक्ति जैसे कार्यक्रम के जरिए यह दिखाना चाह रहे हैं कि ये सच्ची
घटनाएँ हैं और इन कहानियों को जनता ही भेजती है जो उनके साथ घटित हुआ होता है। इन
धारावाहिकों में आम आदमी की भक्ति इतनी होती है कि मुसीबत के समय स्वयं भगवान आकर
उनकी सहायता करते हैं। रोज सुबह-सुबह राशि और जन्म के आधार पर प्रतिदिन का भविष्य
बाँचने वाले कम थे क्या, जो अब दिन
भर अंधविश्वास और खौफ पैदा करने वाले कार्यक्रम दिखाए जा रहे हैं।
आजकल ऐसा कोई भी घर ऐसा नहीं मिलेगा जहाँ
टीवी न हो। झुग्गी-झोपड़ी से लेकर गगनचुम्बी इमारतों तक इसका जाल बिछा हुआ है।
सवाल यह उठता है कि इस तरह से अंधविश्वास फैलाने वाले धारावाहिकों को दिखाने की
अनुमति किस आधार पर दी जाती है। अपने बचाव के लिए आजकल कार्यक्रम के बीच में नीचे
एक पट्टी चला दी जती है कि यदि आपको किसी कार्यक्रम की विषय वस्तु से आपत्ति हो, तो आप इस नम्बर पर शिकायत करें। परन्तु
होता क्या है बीसीसी कलात्मक आजादी के नाम पर यह निर्देश दे देती है कि यदि इस तरह
के दृश्य कहानी के माँग के अनुसार दिखाना आवश्यक हो तो वह धारावाहिक के समय नीचे
पट्टी चलाए कि यह दृश्य काल्पनिक है। मतलब चित भी मेरी पट भी मेरी।
एक ओर तो हम दावा करते हैं कि हमने वैज्ञानिक
क्षेत्र में इतनी तरक्की कर ली है कि आज हम दुनिया के विकसित देशों का मुकाबला कर
सकते हैं, वहीं दूसरी
ओर मनोरंजन के महत्त्वपूर्ण साधन टीवी में मनोरंजन के नाम पर कुछ भी परोसा जाना, उस भारतीय जनता के साथ खिलवाड़ ही है, जो पहले से ही अंधविश्वास के मकडज़ाल में
उलझी हुई है। उन्हें इस तरह का मनोरंजन परोस कर हम उनकी भावनाओं को और अधिक कुंद
ही कर रहे हैं। यह सब जनमानस की कमजोर
भावनाओं को भुनाकर उनकी आस्था का शोषण है।
अपने मुनाफे के लिए अंधविश्वास को बढ़ावा
देना अपराध है, इस पर रोक
लगाई जानी चाहिए। जनता को स्वयं भी इसके विरोध में आगे आना होगा साथ ही समाज के
हित में काम करने वाली विशेषकर अंधविश्वास के खिलाफ काम करने वाली संस्थाओं को
चाहिए कि वे एकजुट हों और मनोरंजन के नाम पर मुनाफा कमाने वालों का विरोध कर इस
तरह के कार्यक्रमों को बंद करवाएँ। फिल्मों में जब कुछ गलत दिखाए जाने की खबर आती
है, तो कैसे लोग विरोध
में उठ खड़े होते है। उड़ता पंजाब इसका ताज़ा उदाहरण है। पचासो दृश्य काटने के बाद
इसकी अनुमति मिल पाई। जबकि टीवी तो रोज रोज और कई कई घंटों देखे जाना वाला माध्यम
है, समाज पर जिसका
प्रत्यक्ष असर पड़ता है। अत: इसमें दिखाए जाने वाले अहितकारी कार्यक्रमों पर तो
तुरंत बंदिश लगाई जानी चाहिए।
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