स्वाधीनता से साढ़े छह दशक और
हमारा विज्ञान
- चक्रेश जैन
भारत ने 15 अगस्त 1997 के दिन अपनी स्वाधीनता के 50 वर्ष पूरे होने पर स्वर्ण जयंती मनाई थी। एक स्वाधीन राष्ट्र के इतिहास में विज्ञान यात्रा के लिहाज़ से यह अवधि बहुत छोटी है। समीक्षकों के अनुसार हम स्वाधीनता का पूर्वार्द्ध पार कर उत्तरार्द्ध में प्रवेश कर चुके हैं। इस वर्ष आबादी के लगभग साढ़े छह दशक पूरे हो चुके हैं। यह वही वर्ष है, जब जनवरी में भारत सरकार ने साइंस कांग्रेस के शताब्दी समारोह में विज्ञान, प्रौद्योगिकी और नवाचार नीति की घोषणा करते हुए नवाचारों को विशेष घटक के रूप में सम्मिलित किया है। भले ही हमने बीते दशकों में अंतरिक्ष विज्ञान, प्रक्षेपास्त्र, परमाणु ऊर्जा और एक-दो अन्य क्षेत्रों में उपलब्धियों के नए अध्याय रचे हैं, लेकिन नवाचारों के मामले में हमारा हाल चिन्ता की परिधि में है। विज्ञान जगत के विश्लेषकों के अनुसार स्वाधीनता के साढ़े छह दशकों में भारत ने वैज्ञानिक तरक्की तो की है, लेकिन तरक्की की रफ्तार बेहद धीमी है।
स्वाधीन भारत में विज्ञान की
चर्चा करते समय दो सवाल हमेशा प्रासंगिक होते हैं। पहला,
स्वाधीनता के बाद आर्थिक-सामाजिक बदलावों में विज्ञान की कितनी
भूमिका रही है? दूसरा, विज्ञान में हुई
रिसर्च का लाभ समाज के अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति तक पहुंचा है अथवा नहीं? इन दोनों प्रश्नों के उत्तर हाल के दशकों में प्रौद्योगिकी अर्थात
व्यावहारिक विज्ञान के रूप में हमारे सामने हैं। आज जो 'आधार
संख्या’ करोड़ों
देशवासियों को मिली है, वह विज्ञान की
समाज को देन है। बॉयोमेट्रिक्स असल में जीव विज्ञान की शाखा है, जिसने आम आदमी की आधार संख्या बनाने में अहम भूमिका निभाई है। दिल्ली की
मेट्रो रेल परियोजना प्रौद्योगिकी का अनुपम उदाहरण है। ऐसा लगता है, स्वाधीन भारत के उत्तरार्द्ध में विज्ञान और समाज के रिश्ते प्रगाढ़ होते
जा रहे हैं।
देश के प्रथम प्रधानमंत्री
जवाहरलाल नेहरू ने वैज्ञानिक शोध पर विशेष ज़ोर दिया था। उनका कहना था कि
वैज्ञानिक संस्थान आधुनिक भारत के मंदिर हैं और राष्ट्र के विकास और निर्माण में
अहम भूमिका निभा सकते हैं। हमारे यहां स्वाधीनता के बाद सुनियोजित विकास का दौर
1952 में प्रथम पंचवर्षीय योजना से शुरू हुआ, जो अब बारहवीं योजना तक पहुँच गया
है। योजनाकारों ने विज्ञान को विकास की कुंजी मानते हुए सभी पंचवर्षीय कार्यक्रमों
में वैज्ञानिक अनुसंधान को सर्वोच्च प्राथमिकता दी है। स्वतंत्रता के बाद पहली बार
मार्च 1958 में संसद ने विज्ञान नीति को मंज़ूरी दी थी। इस नीति का ऐतिहासिक महत्त्व
है। इसका उद्देश्य देश में विज्ञान को प्रोत्साहन देना और इसका लाभ आम जनता को
प्रदान करना है।
1950-51 में शोध और विकास का
बजट 4.7 करोड़ रुपए था, जो आज की
तुलना में बहुत कम था। स्वतंत्रता प्राप्ति के तीन वर्षों बाद अधोसंरचना के
अंतर्गत राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं की स्थापना की गई। स्वाधीन भारत में वैज्ञानिक एवं
औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) देश का सबसे बड़ा रिसर्च एण्ड डेवलपमेंट संगठन
है, जिसके झण्डे तले 37 प्रयोगशालाएँ हैं।

स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्वार्द्ध
और उत्तरार्द्ध दोनों में कृषि के विकास और वैज्ञानिक विधियों से उत्पादन बढ़ाने
पर विशेष ज़ोर दिया गया। स्वाधीनता के बाद भारत में संचार क्रांति हुई है। 1947 के
आसपास देश में टेली घनत्व 0.02 प्रतिशत था, जो 2012 में बढ़कर 79.28 प्रतिशत तक पहुँच गया। स्वतंत्र भारत में हरित, नील और श्वेत क्रांति का सूत्रपात हुआ। हमारे यहाँ जैव प्रौद्योगिकी
क्रांति अस्सी के मध्य दशक में आरंभ हुई। वर्तमान में भारत टीकों के उत्पादन में
सक्षम हो चुका है। हाल के दशक में हम बीटी कॉटन की खेती में सबसे बड़े उत्पादक देश
बन चुके हैं।
अलबत्ता,
आज़ादी के 66 वर्षों बाद भी वैज्ञानिक शोधकार्य प्रयोगशालाओं और विश्वविद्यालयों
के कैम्पस तक सीमित है। इसका लाभ जनसामान्य के बीच नहीं पहुँचा है। युवा प्रतिभाओं
की मूलभूत विज्ञान में कैरियर बनाने में रुचि नहीं है। अंतर्राष्ट्रीय जर्नल्स में
शोध पत्रों की प्रकाशन संख्या बहुत कम है। भारत में आज़ादी के साढ़े छह दशकों के
दौरान हुए आविष्कारों और खोजों की संख्या न के बराबर है। स्वाधीनता प्राप्ति के छह
दशक बाद कृषकों को पता नहीं है कि 'जीएम बीज’ किस
चिड़िया का नाम है। सच पूछा जाए तो जेनेटिक साक्षरता के मामले में हमारी हालत बुरी
है। आज भी ग्रामीण लोग गरीबी, कुपोषण,
स्वच्छ जल और बीमारियों के संदर्भ में वैज्ञानिक तरीकों से अनजान व
अछूते ही हैं।
सब
मिलाकर कहा जा सकता है कि वैज्ञानिक बिरादरी के सामने एक प्रश्न यही है कि वह आज़ादी
का जश्न कैसे मनाएँ? हर वर्ष की तरह अपनी बड़ी-बड़ी
उपलब्धियों को याद करते हुए खुश महसूस करें या फिर ऐसा प्रयास करें कि स्वाधीनता
से पहले भारत ने जिस तरह नोबेल सम्मान प्राप्त किया था, वैसा
सम्मान आज़ादी की सौवीं सालगिरह यानी 2047 से पहले फिर मिले? स्वाधीनता के उत्तराद्र्ध में हम विश्व के वैज्ञानिक मानचित्र पर जगह बना
चुके हैं, लेकिन विशिष्ट जगह बनाने की मंज़िल दूर है। (स्रोत
फीचर्स)
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