- डॉ. गोपाल बाबू
शर्मा
हमें स्वराज मिल गया,
पर सुराज नहीं। अंग्रेज चले गए, लेकिन हम अब
भी गुलाम हैं। माना कि ऐसा कहने वाले निरे हैं, मगर वे
सरफिरे हैं। अरे हम
गुलाम नहीं बल्कि सिर से पाँव तक, धूप से छाँव तक और महानगर
से लेकर गाँव तक पूरी तरह आज़ाद हैं। आबाद हैं।
आँकड़े बताते हैं कि संसद् का
एक दिन का खर्च लगभग पचास लाख रुपये बैठता
है। बताइए हमारे देशभक्त नेता इस बेशक़ीमती
समय को महज़ लफ़्फ़ाजी और तू-तड़ाक में सार्थक
करने के लिए स्वतन्त्र हैं या नहीं?
एक बार जो भी सत्ता हथिया लेता
है, उसके पौ बारह हो जाते हैं। वह
वहीं करता है, जो वह चाहता है। अपने चहेतों की चौराहों पर
मूर्तियाँ खड़ी कर देता है। उनके नाम पर पार्क, स्मारक,
संग्रहालय आदि बनवाने में
भी वह नहीं चूकता। क्या उस पर किसी तरह की कोई पाबन्दी है?
गाँधी जी ने हमें अन्याय और
अत्याचार के खिलाफ लडऩे के लिए 'असहयोग’
का अहिंसात्मक हथियार दिया था। अब बात बड़ी हो या छोटी, खरी
हो या खोटी, उस बिना लाइसेन्सी हथियार का वार चाहे जब शुरू
हो जाता है। स्थिति तोड़-फोड़, हिंसा और आगजनी तक पहुँच जाती
है। आज हड़ताल, घेराव, बन्द, धरना,
पुतला-दहन, जाम वग़ैरह
कितने आम हैं। बेचारी पब्लिक इनके कारण परेशान है और देश को करोड़ों-अरबों का नुक़सान हो, तो होता रहे,
कौन चिन्ता करता है?
राजनैतिक दलों के कथित
कार्यकर्ताओं को रैलियों में शामिल होने के लिए देश भर की ट्रेनों में बिना टिकट आने-जाने,
टिकट माँगने पर डट कर
हो-हल्ला मचाने और चैकिंग स्टाफ को घूँसा
दिखाने की छूट ही छूट है। कोई माई का लाल
या लालू है जो उन्हें रोक सके?
सड़कों पर कूड़ा डालने,
मूँगफली, केले, खाकर
उनके छिलकों को सार्वजनिक स्थान पर फेंकने, बिखेरने, गंदगी फैलाने, जेनरेटरों के घु़एँ और कनफोड़ शोर से पर्यावरण को प्रदूषित बनाने पर क्या
कोई सज़ा मिलती है? अपनी गायों, सूअरों,
कुत्तों को आवारा घूमने को छोड़ देने में क्या किसी को कोई परेशानी
होती है?

तस्करी,
अपहरण बलात्कार, हत्या, लूटपाट,
रंगदारी आदि अब सिर्फ एक खेल की तरह हैं। इनसे जुड़ी कोई खबर
किसी पत्र-पत्रिका में छप जाए तो क्या फ़र्क पड़ता
है? जेलें भी अब जेल नहीं रहीं, वहाँ
भी खास लोगों के लिए हाईटेक सुविधाएँ उपलब्ध हैं। मौसेरे भाइयों में तालमेल जो रहता है।
नेताओं,
सांसदों विधायकों, सरकारी अफ़सरों, खेल अधिकारियों आदि
को किसी न किसी बहाने अपने खानदान और पानदान सहित विदेशों में सैर-सपाटे में जाने
और वहाँ से क़ीमती विदेशी चीजें लाने के
सुनहरे मौक़े मिलने में कोई हील-हुज्जत है क्या?
क्या हमारा विद्यार्थी और युवा
वर्ग आज़ाद नहीं है? उसे
पढ़ाई-लिखाई से मुँह चुराने, गुरुजनों को अँगूठा दिखाने, लड़कियों के दुपट्टे पर झपट्टे
मारने और प्यार का झूठा स्वांग रचाने की आज़ादी है कि नहीं?
बड़े-बड़े उद्योगपति,
व्यापारी और लक्ष्मी-वाहन कसम खाएँ और बताएँ कि वे झूठे विज्ञापनों
से लोगों को भरमाने, जमाखोरी
करने, चीजों के मनमाने दाम बढ़ा कर मुनाफ़ा कमाने, टैक्स न चुकाने के
सफल हथकण्डे अपनाते हैं या नहीं? उन्हें किसका डर है?
डॉक्टरों को सैम्पल की दवा
बेचने और मोटी-मोटी फ़ीसें लेकर भी इलाज
में लापरवाही बरतने से किसने रोका है? इंजीनियर
और ठेकेदार अपनी मिली भगत से क्या-क्या नहीं करते? वकीलों
द्वारा खुल कर झूठ बोलने और मुवक्किलों की अंटी खोलने के कर्त्तव्य-पालन में क्या बाधा आती है? पुलिस महकमा भी पीछे कहाँ है? वह भी 'फ़्रीडम’ का पूरा-पूरा मज़ा ले रहा है। वर्दी में रहकर भी
ईगुर-बिन्दी और लिपिस्टक लगाई जा सकती है, राधा की भूमिका
निभाई जा सकती है।
कहाँ तक बताएँ?
सच यह है कि आज हर तरफ़ आज़ादी
का आलम है। हर व्यक्ति आज़ादी का झण्डा उठाए निर्द्वन्द्व
घूम रहा है। आज़ाद बस वे नहीं है, जो आज की
आज़ादी का सही अर्थ नहीं जानते या जानते हैं तो उसे मानते नहीं।

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